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आख्यान में भी वही दो
भागते नादान घोडे वही
आँखे उस पर आकर उलझ
गईं।
बडे महाराजसा के पास वह
बैठे थे। आँखे
पहचान में आते ही बाकि
चेहरा एक कोलाज सा आ जुडा था।
पतले भिंचे से
कठोरता दिखाने का जबरन प्रयास करते होंठ,
जिद्दी सी तीखी नाक मगर सारे संयमों से छूट भागती
आँखे।
आख्यान आरंभ होने से पहले
पुखराज ने मेरा परिचय बडे महाराजसा से करवाया,
वे बडे उदारमना, स्नेहिल और
ज्ञानवान व्यक्ति लगे।
सुमेधा ने इस बार
जब उनके चरण स्पर्श किये उसमें औपचारिकता नहीं श्रध्दा थी।
''
तुम तो डॉक्टर हो बेटा,
जानती होगी कि
अन्तरजातीय विवाहों से तो जातियों में नए गुण विकसित होते हैं। बस मेरे
लिये इतना करना कि इस छोटे से पिछडे क़स्बे की सेवा करना। यँहा की स्त्रियाँ
लेडी डॉक्टर के न होने से बडा कष्ट पाती हैं। पुखराज इतना पढ क़र भी इस छोटे
कस्बे में अस्पताल खोल कर कल्याण का काम कर रहा है। जब इसका डॉक्टरी में
सलेक्शन हुआ था तब मुझे विश्वास न था कि एक बार शहर में पढ क़र यह मेरी बात
मानेगा। अब उसका साथ देकर अपना कर्तव्य पूरा करो। और एक बात और यँहा
स्थानक में साध्वी शान्ता जी बीमार हैं समय निकाल कर उन्हें दवा दे आना।
''
जैसी आपकी आज्ञा
महाराजसा। ''
मेरे पीछे खडी सासू
माँ
के चेहरे का गर्व मुझे
महसूस हो रहा था।
पुखराज ने राहत की
साँस
ली।
महाराजसा से जरा
दूर बैठे उस युवा मुनी की उत्सुक दृष्टि और कान इधर ही लगे थे।
महाराजसा के पास से
पांडाल में लौटते समय सुमेधा ने पुखराज से पूछ ही लिया।
''
ये जो यंग से महाराज
सा हैं न,
वो कौन हैं?
''
आख्यान कब आरंभ हुआ,
कब खत्म सुमेधा को पता ही नहीं चला।
वह उसी अद्भुत
व्यक्ति के बारे में सोचती रही।
इतना सुदर्शन,
शिक्षित व्यक्ति तमाम कामनाओं पर विजय पाने का दावा कर
भिक्षु बन बैठा है? क्या यह इतना आसान है?
क्या सचमुच वह इस ठाठे मारते उद्दाम यौवम के बीच स्वयं
को जीत पाता होगा? पर इससे इसकी
आँखे
तो नहीं साधी जातीं।
यही सोच लिये
सुमेधा घर चली आई।
रात थके होने के बावजूद वह
सो न सकी।
पुखराज भी थके थे।
मगर सुमेधा की
जिज्ञासा का कोई अन्त न था।
''
तो पुखराज कौन
थे ये मुनि सागरचन्द्र जी महाराजसा, ये तो पच्चीस साल के भी नहीं लगते।
बडे महाराजसा के प्रति
सुमेधा की श्रद्धा
और बढ ग़ई।
सुबह-सुबह वह बैग
लेकर स्थानक पहुँची।
साध्वी शांता जी एक
उम्र दराज साध्वीकाफी बीमार थीं।
ब्लडप्रेशर लिया
काफी हाई था,
जिन काम की दवाओं के सेम्पल पुखराज के बैग में मिले,
वे तो शांता जी को दे दीं,
और कुछ इंजेक्शन सेविका को पर्ची देकर
मँगवा
लिये।
इंजेक्शन देकर उनके
सोने की प्रतीक्षा में वह उनसे बातें करने लगी।
''
कब से बीमार हैं आप?
दवाओं के असर से वे
धीरे-धीरे नींद में डूब गईं।
सुमेधा को ममता हो
आई एकाकी,
वृध्दा साध्वी पर।
नंगे फर्श पर सोई
शांताजी बडी निरीह
लग रही थीं।
मन तरल हो उठा।
पर यही तो सन्यास
है, वैराग्य
है जीवन भर
त्याग,
फर्श पर सोना,
भिक्षा ले अंजुरी में खाना,
नंगे पैर यात्राएं करना और अंत में एकाकी वृध्दावस्था?
मन ने चाहा इन्हें हवेली ले चले और पूरी देखभाल करे
आखिर पुखराज हार्टस्पेश्लिस्ट हैं।
लेकिन धार्मिकता को
चुनौती देने और आहत न करने की पुखराज की सख्त हिदायत याद आ गई।
वह एक घण्टे बाद बी
पी फिर से लेने की प्रतीक्षा में वहीं बैठ गई।
स्थानक का फर्श
ठण्डा था और वातावरण एकदम शान्त।
हवेली की चहल-पहल से दूर
स्थानक में सचमुच समस्त तनावों को हर लेने वाली शांति और सुकून है।
अगर अन्य कुछ
आधारहीन से बंधन न हों तो क्या बुरा है वैराग्य?
जैन मतावलम्बी मुनी और
साध्वियां
सही मायनों में वैराग्य
लेते हैं,
अन्य आडम्बरी साधुओं की तरह महज आडम्बर, प्रचार,
ऐश्वर्यमय जीवन तो नहीं जीते साधु के दिखावटी बाने के
साथ।
ऐसी ही बातें सोचते हुए
सुमेधा कुछ पलों को अपनी प्राइवेसी और ठण्डे फर्श का आनंद ले रही थी कि एक
क्षीण सी पदचाप के साथ एक दुबली-पतली सुन्दर तेजोमय चेहरे वाली साध्वी आईं।
सुमेधा के प्रणाम
के उत्तर में आर्शिवचन दे कर वहीं पास बैठ गईं।
ब्रह्मचर्य के कठिन
व्रत से मानो उनकी वय स्थिर होकर रह गई थी।
काली-काली शान्त
आँखे,
स्निग्ध त्वचा।
प्रथम दृष्टि में
अनायास उन्हें देख पश्चाताप में डूबी रत्नावली का सा भान हुआ।
मानो रूपमती देह के
मोह की व्यर्थता का ताना मार किसी तुलसी को हमेशा के लिये खो चुकी हों।
थोडी देर चुप बैठने
के बाद वे संकोच कर बोलीं। ''मंदा
ने बताया तुम डॉक्टरनी हो ,
बेटा एक तकलीफ है।''
दर्दहीन गांठ की गंभीरता
को सुमेधा से अधिक कौन समझ सकता था?
घने संकोच के साथ उन्होंने चैकअप करवाया,
अच्छा संकेत तो नहीं था, पर
तुरंत इलाज शुरू करने पर स्थिति को संभाला जा सकता था। ''
मैं दवा भिजवा दूंगी
अगर साधारण गांठ हुई तो ठीक हो जाएगी और अगर..
''
उनके स्वरों में न जाने
क्या था तिक्तता या वैराग्य?
सुमेधा समझ न सकी।
फिर भी उसने अंतिम
प्रयास किया,
महाराज सा, अस्वस्थ रह कर धर्म का निर्वाह कैसे
होगा, बाद में यह गांठ बढ क़र बहुत तकलीफ देगी।
मेरी मानें आप,
मैं आठ-दस दिन बाद उदयपुर जा रही
हूँ।
मैं वहीं पढती
हूँ
मेडिकल कॉलेज में,
आप मेरे साथ चलें कुछ टेस्ट करवाएं और इलाज होने तक
वहीं रहें।वहाँ
भी स्थानक तो होगा।
मैं आपके पास आती
जाती रहूँगी। ''असंभव
सी बात है यह। उदयपुर स्थानक तो मैं जा कर रहती हूँ। पर अस्पताल जाना नहीं
बेटी।''
सुमेधा स्वयं से उलझती तो
सास से बात करती।
उनका तर्क होता कि
इतने नेम-नियम से जीने वालों को स्तन कैंसर जैसी बीमारी कैसे हो सकती है?
वह कैसे समझाती कि स्तन
कैन्सर नेम-नियम नहीं देखता।
रिसर्च से सिध्द हो
चुका है कि यह कैन्सर आनुवांशिक कारणों से भी होता है,
अगर किसी स्त्री की
माँ,
दादी, मासी या अन्य करीबी
रिश्तेदार को हुआ है तो उसे भी केयरफुल रहना चाहिये।
यह भी सिध्द हो
चुका है कि बिना बच्चों वाली विवाहिताओं,
अविवाहित महिलाओं और जरा भी स्तनपान न कराने वाली
माताओं को स्तन कैन्सर होने की संभावना अधिक हो जाती है।
अन्तत: उसने नियति
पर छोड दिया सब कुछ।
जब साध्वी शान्ता जी पूर्ण
स्वास्थ्य लाभ कर एक दिन हवेली पधारीं तो सबसे ज्यादा प्रसन्नता उसे ही हुई।
जून अंत के दिन थे,
लम्बे फुरसत भरे दिन।
शाम के चार बजने
वाले थे।
बाहर गर्म लू का असर अब भी
कम नहीं हुआ था मगर हवेली के कमरे बिना कूलर के भी आरामदेह और ठण्डे थे।
सुमेधा अपने कमरे
के जालीदार गोखडे में बैठ कर ससुर जी की लाइब्रेरी से एक बेहद पुराना
सीला-सीला सा मगर क्लासिक सा दिखने वाला उपन्यास निकाल लाई थी और दोपहर से
उसमें डूबी थी।
सास-ससुर आज सुबह ही पास
के कस्बे में किसी शादी में गए थे।
पुखराज आकर न जाने
कब चम्पालाल से खाना लगवा कर खा कर भी न जाने कब अपने क्लिनिक चले गए थे,
वहाँ
से उन्हें नए अस्पताल की
साईट पर भी जाना था।
उपन्यास रोचक था,
किसी पुराने क्लासिक ऑथर हॉथोर्न का था,
शीर्षक था द स्कारलेट लैटर
।
एक स्त्री को चरित्रहीन
साबित कर प्रीस्ट उसे चर्च के नियमानुसार चरित्रहीनता का प्रतीक सुर्ख लाल
रंग के धागों से कढा हुआ अंग्रेजी वर्णमाला का अक्षर ए अपने
कपडों
पर पहनने को और कस्बे की
बाहरी सीमा में अपने तीन बच्चों के साथ रहने का फरमान जारी कर देता है।
जबकि वह स्वयं
कस्बे के उन तमाम सफेदपोशों की तरह ही उस गरीब स्त्री के चारित्रिक पतन में
बराबर से शरीक रहा होता है।
तो यूरोप भी इन सब
सडी
ग़ली मान्यताओं से घिरा था
एक समय में?
तभी बडे दरवाजे की सांकल
बजी, लगता है
चम्पालाल भी आढत पर चला गया है।
सुमेधा ने गोखडे से
झाँका
पर गली में उसे कोई नहीं
दिखा, एक बार
और खडख़डाहट सुन वह उठी और नीचे उतार आई।
लकडी क़े विशाल
द्वार में बना एक छोटा खिडक़ी नुमा दरवाजा खोला,
सामने मुनि सागरचन्द्र जीअब सुमेधा दुविधा में,
क्या करे कह दे कोई नहीं है! या ये भिक्षु का अपमान
होगा, वाद में सब नाराज हो गए तो! |
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