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बुरका बेगम का

यह कहानी उस समय की है, जब भारत में लौह शकट यान, यानी अगिया बैताल या हवागाडी (रेल गाडी) अभी-अभी लोगों के यातायात के साधन के रूप में उपयोग में आया था रेल गाडी क़े प्रति लोगों में काफी उत्साह था बलेसरा गांव के निवासी मोहम्मद इम्तियाज अली उस समय लखनऊ के एक नवाब के मुलाजिम हुआ करते थे बलेसरा में मियां के अब्बाजान व अम्मीजान उनकी बेगम गुलबदन के साथ रहते थे मियां की खुशनसीबी ही समझिए कि बेगम केवल नाम की ही गुलबदन नहीं थी बल्कि उनके चेहरे का नूर, गदराया बदन, मस्त हथिनी की तरह मंथर चाल उनके नाम को सार्थकता प्रदान करता था बेगम की झील सी शरबती आंखों में मियां सदैव ही अपने को बेसुध पाते लखनऊ के काम से जब भी छुटकारा होता, मियां का मन होता कि उडक़र गुलबदन बेगम के पास पहुंच जाऊं भाग्य से बलेसरा के एक गांव बाद ही जलालपुर रेलवे स्टेशन था वहां से मात्र तीन स्टेशन बाद यानी चौथा स्टेशन लखनऊ होता था अतः मियां शाम की गाडी पर बैठ जाते और रात होते ही अपनी मंजिल जलालपुर स्टेशन पहुंच जाते

एक रात मियां को अपने गांव पहुंचते पहुंचते रात के दस बज गए गांव तो ठहरा बच्चे की आंख जो शाम ढलते ही नींद के आगोश में समा जाता है मियां इम्तियाज अली का गांव भी सो चुका था सौभाग्य से चन्द्रमा अपने शुक्ल कला के चढान पर था चांद की मध्दिम रोशनी में वे अपने घर पहुंचे इधर बेगम गुलबदन सारे काम निपटाकर बिस्तर पर पडी मन ही मन मियां का इंतजार कर रही थीं लगभग बीस मिनट पहले अगिया बैताल धडधडाते हुए दूर देश को रवाना हुयी थी धडधडाहट के साथ रात की नीरव शांति को चीरती उसकी चीख अभी भी बेगम के कानों में ताजा थीपर बेगम ने अभी तक इस अगिया बैताल को देखा नहीं था उनकी पडोसन जमीला की ननद शबीना भी लखनऊ की है उसी से सुनकर जमीला जब­तब उससे अगिया बैताल के बारे में बातें करती तो वे मन ही मन जलभुनकर राख हो जातीआज उसी की बातें मन में एक एक कर आ रही थीं कि -

''अगिया बैताल राक्षस की तरह काला है। एक बार में सैकडों आदमी और उनके सामान को अपने पर बैठाकर चीखता हुया दौड ज़ाता है। वह आग खाता है और पानी पीता है। उसको दौडने के लिए लोहे की सडक़ बनी हुयी है। वह आंधी तूफान की तरह चलता है। वह सांस छोडता है तो काला काला धुंआ आसमान में फैल जाता है। उसको देखो तो साक्षात बैताल लगता है।''

वह सोच रहीं थी कि उनका कैसा भाग्य है कि उनके मियां लखनऊ में ही मुलाजिम हैं और वे ही आज तक अगिया बैताल की सवारी से मरहूम हैं। अगर आज मियां आ गए तो उनकी एक न सुनेंगीं। चाहे जो भी हो इस बार तो अगिया बैताल पर चढक़र लखनऊ जाएंगी ही। हर बार मियां उनको टाल जाते थे। पर आज तो वे हां करवाकर कर ही मानेंगी। वह सोच ही रही थीं कि दरवाजे की कुण्डी खडक़ी।

बेगम ने दौडक़र दरवाजा खोला। मियां भी अंधेरे का फायदा उठाकर घुसते ही उन्हें बाहों में जकड लिए। पर उनको एक जोरदार झटका लगा और बेगम उनसे अलग हो गयीं। वे गिरते गिरते बचे मियां का उत्साहित मन एकाएक आसमान से जमीन पर आ गया। बेगम उनकी तरफ देखे बिना पैर पटकती हुयी अपने कमरे में चली गयीं।

इस अचानक नाराज़गी का सबब जानने के लिए मियां जी बेगम के पीछे पीछे भागे।

''आज क्या कारण है कि चांद जबरन बादल की ओट में छिपने को बेताब है? आखिर बात क्या है कि गुस्ताखी बताए बिना ही मुल्जिम को सजा दी जा रही है? मियां जी के सब्र का बांध टूटता जा रहा था। बेगम के कमरे में जाते हुए किसी प्रकार उन्होंने ये शब्द पूरे किए।

पर जवाब कुछ नहीं मिला।

बेगम एक कोने में चुपचाप बैठ गयीं। खिडक़ी पर रखा दीया अपनी मध्दिम रोशनी में टिमटिमाता रहा।

मियां का हृदय अगीया बैताल की तरह धडधडाने लगा। दबे पांव बेगम के पास पहुंचकर बोले,

''मेरी जाने जिगर पहले आप नाराज़गी का कारण तो बताएं। वरना मेरी रूह फना हो जाएगी। अब बर्दाश्त नहीं हो रहा है। ये देखिए आप के चेहरे के नूर को जहां की काली नजरों से बचाने के लिए क्या ही खुबसूरत काली घटा सा, शीशे और कलाबत्तू के काम वाला बुरका लाया हूं।और एक आप हैं कि कोने में चुपचाप बैठकर मुझे बेजार कर रही हैं।''

गुलबदन बेगम न चाहते हुए भी अपनी चुन्नी की ओट से मियां के हाथ पर निगाह डालीं। मन ही मन खुश हो गयीं, परंतु अगिया बैताल पर चढने की बात मन में आते ही खुशी को मन में दबाकर रह गयीं कुछ भी न बोलीं। मियां परेशान होते रहे।

उन्होंने बेगम की नाना प्रकार से आरज़ू-विनती की। पर फल कोई न निकला। रात अंतिम ढलान पर आ गयी। अंत में मियां ने अंतिम चाल चली।

बेगम......। अगर आपका यही हाल रहा तो मैं सुबह की गाडी से वापस जा रहा हूं। आप अपना गुस्सा अपने पास रखि ऐसा कहकर मियां खडे होते हुए अपनी टोपी सम्भालने लगे। साथ ही साथ कनखियों से बेगम की प्रतिक्रिया भी देखते जा रहे थे।
 ये लीजिए यह बुरका। मन में आए तो पहन लीजिएगा।

जैसे ही जाने को हुए बेगम ने धीरे से आकर उनका हाथ पकड लिया।

मियां तो यही चाहते थे। पर उपरी मन से कहने लगे,  छोडिये मुझे। 

बेगम मन ही मन सोच रही थीं कि कहीं चले गए तो मेरी इच्छा पूरी नहीं हो पाएगी। उन्होंने उन्हें पकड क़र जबरन पलंग पर बैठा दिया। मियां जी का सब्र का बांध तो पहले ही टूट चुका था। उन्होंने आव देखा न ताव गुलबदन बेगम को अपनी बांहों में जकड लिया। बेगम कसमसा उठीं।

'' आपको तो बस इसी से मतलब है। मेरी तो कोई परवाह ही नहीं है आपको। बेगम पकड ढ़ीली कराने का प्रयास करती हुये बोलीं।
 आखिर कौन सी गुस्ताखी की है मैंने। मियां बोले।
बेगम का रूख भी नरम पड चुका था। धीरे से बोलीं....... आपको मेरी चिंता है ही कहां। यहां घर पर पडे पडे मेरा मन उब जाता है। अपने तो नवाब लखनऊ शहर में मौज करते हैं और मैं यहां छत की शहतीरें गिनती रहती हूं। अब तो यहां रहना मेरे बस की बात नहीं है। कभी भी आप मेरे विषय में नहीं सोचते हैं। आज तक अगिया बैताल पर भी नहीं चढाया।
मियां को मन ही मन हंसी आ गयी। पर गंभीर होकर बोले।  हां ! बेगम मेरे से गलती हो गयी। कल ही चलते हैं लखनऊ शहर।
 मैं तो ये नया बुरका पहनकर चलूंगी। बेगम चहकती हुयी बोलीं।
'' हां! हां! क्यों नहीं।  मियां बोले।

फिर तो दोनों ही कल की यात्रा की तैयारी पर विचार करते हुए आलिंगनबध्द हो गए। कब नींद आयी पता ही नहीं चला।

अगले दिन दोनों की नींद देर से खुली। उठते ही उन्होंने बेगम से कहा कि,  शाम चार बजे की गाडी है सारी तैयारी पहले ही कर लीजिए। दो दिन लखनऊ में सैर सपाटा करेंगे फिर वापस आ जाएंगे।

बेगम के पैर जमीन पर नहीं पड रहे थे। एक थैले में आवश्यक सामान रखकर बेगम शाम होने का इंतजार करने लगीं। आज का दिन उन्हें काफी लम्बा लग रहा था।

'' मैं और गुलबदन दो दिन के लिए शहर जा रहे हैं। वह घर में पडे पडे बोर होती रहती है। थोडा मन बहल जाएगा।'' मियां ने अब्बा व अम्मीजान से बताया।
 ''हां हां क्यों नहीं। हम लोग तो यही चाहते हैं कि तुमलोग खुश रहो। अभी ही तो घूमने के दिन हैं।'' दोनों ही एक साथ बोल पडे।
 ''क़ब जा रहे हो।'' अब्बा ने पूछा।
 ''जी आज शाम की गाडी से।'' मियां ने कहा।
 ''अच्छा ठीक से जाना। बहू तो जनाना दर्जे में बैठेगी और तुम मर्दाना। ध्यान से जाना। कहीं ऐसा ना हो कि दोनों बिछुड ज़ाओ। क्योंकि ये तो पहली बार हवागडी में बैठेगी।'' अब्बा ने समझाते हुए लहजे में कहा।
 अरे आप भी क्या नसीहत देने लगे। ''शबीना तो जमात का नाम तक नहीं जानती और अगीया बैताल पर हमेशा ही घूमती रहती है जबकी मेरी बहू तो सातवीं जमात पास है।'' अम्मीजान बोलीं।
''जा शहजादे जा। अल्लाह खैर रखेगा....... '' अम्मीजान बोलीं।

अब्बा ने भी सिर हिलाकर स्वीकृति दे दी।

मियां खुश होकर चल दिए। परंतु अब्बा जान की एक बात उनके मन में घर कर गयी। रेलगाडी में तो मर्दाना व जनाना अलग अलग डब्बे में बैठते हैं। जनानेवाले में तो कई बुरकापोश बैठी होंगी। मैं गुलबदन को कैसे पहचानूंगा। स्टेशन पर तो गाडी भी रूकती है थोडे ही समय के लिए। मैं उन्हें बाहर से पुकारूंगा कैसे। लोग क्या कहेंगे कि बेगम का नाम लेकर पुकारता है शर्म भी नहीं है इसको। अगर बेगम पर छोड देता हूं तो बुरके के अंदर से वे स्टेशन पहचानेंगी कैसे।

पलंग पर लेटे लेटे मियां सोच रहे थे। वे अचानक ही खुशी से चिल्ला पडे।

''बेगम.... । बेगम....।
''क्या है। अभी तो चार बजने में एक घण्टे की देरी है। अभी से आसमान सर पर क्यों उठाए घूम रहे हैं।''  बेगम श्रृंगारदान के पास बैठी झल्लाकर बोलीं।
 नअरे बात झल्लाने की नहीं है। आप जरा मेरे पास तो आइए।'' मियां खीसें निपोरते हुए बोले।
 ''अभी आयी।''  आज उनको मियां की हर बात अच्छी लग रही थी।

बेगम मियांजी के पास आकर बैठ गयीं।

मियां ने उन्हें प्यार से रेलगाडी क़े जनाना और मर्दाना डिब्बों के विषय में समझाया। फिर उनसे उनका दस्ती (रूमाल) मांगा और कहा कि -

'' अपने जलालपुर स्टेशन से चौथा स्टेशन लखनऊ होता है। गाडी एक­ एक कर चारों स्टेशनों पर रूकेगी। आपको चौथे स्टेशन पर उतरना है। मैं इस दस्ती में चार गांठें बांध देता हूं। आपको यही करना है कि जब गाडी रूक़े तो यह समझ लीजिए कि एक स्टेशन आ गया और आप एक गांठ खोल दीजिएगा। इसी प्रकार जब अंतिम गांठ बाकी रहे तो समझ जाइएगा कि अगली बार गाडी लखनऊ स्टेशन पर रूकेगी और चौथी बार गाडी रूक़ने पर उतर जाइएगा। मैं आपके पास आ जाउंगा। और हां उतरने के बाद वहीं खडी रहीएगा। लखनऊ बहुत ही भीड-भाड वाला शहर है। सतर्क रहिएगा।''

बेगम भी सारी बातें समझने की हामी भर दीं और दस्ती सम्भालकर रख लीं।

दोनों स्टेशन पहुंचे। सही समय पर गाडी आयी। मियां बेगम को जनाना डिब्बे में बैठाकर खुद अपने डिब्बे में सवार हो गए। सौभाग्य से उन्हें बैठने की सीट भी मिल गयी। मन ही मन वे लखनऊ में घूमने का क्रमवार खाका तैयार करने लगे। कभी कभी रोमांचित भी हो उठते थे। सोचने में मग्न मियां की लखनऊ पहुंचने पर तंद्रा टूटी।

वे दौडक़र जनाना डिब्बे के पास पहुंचे। वहां उन्होंने जनाने डिब्बे से औरतों की भारी भीड उतरते देखा। कई बुरकेवाली भी उतर रही थीं। कुछ के बुरके तो एकदम वैसे ही थे जैसा की मियां ने बेगम गुलबदन के लिए खरीदा था। मियां भीड छंटने का इंतजार करने लगे क्योंकि उन्होंने कहा था कि मेरा इंतजार करना।

एक एक कर सभी महिलाएं चली गयीं। पर बेगम का कोई पता न मिला। थोडी देर बाद गाडी भी अपने मंजिल पर रवाना हो गयी। मियां चारों तरफ ढूंढने लगे कि कहीं आस पास मोहतरमा अलग जाकर खडी तो नहीं हो गयी हैं। इस प्रकार मियां पूरे स्टेशन के कई चक्कर लगा लिए पर बेगम का कहीं कोई अता पता नहीं मिला।

निराश मियां का दिमाग ही जड हो गया। अब क्या करें। आखिर वे गयीं कहां। वे तो आज तक लखनऊ सपने में भी नहीं देखी हैं। अकेले जाएंगी कहां। मियां का मन हो रहा था खूब रोएं। पर रोने से क्या होता। इधर रात अपने शबाब पर चढ रही थी। वे दुखी मन से वहीं बैठ सुबह होने की प्रतीक्षा करने लगे। मन में अनेक तरह की आशंकाएं उत्पन्न हो रही थीं। पर कोई उपाय न था।

इधर बात कुछ ऐसी हुयी कि बेगम मियां के बातों को अक्षरशः याद कर चुकी थीं। गाडी ज़ैसे ही जलालपुर स्टेशन छोडी बेगम ने गांठवाली रूमाल सम्भाल लिया। कहीं भूल न हो जाए वे मियां की सारी हिदायतें याद करती रहीं। साथ ही वे अगिया बैताल की सुनी हुयी बातों से उसका मिलान भी करती जा रही थीं। गाडी अपनी पूरी रफ्तार में चल रही थी। बेगम को बहुत ही मजा आ रहा था। मन ही मन सोच रही थीं। मैं भी शबीना की तरह अब पडोसन से अगिया बैताल के बारे में खूब बातें करूंगी। सभी पडोसिनें जल उठेंगी। अभी उनकी सोच व भावनएं पेंग मार ही रही थीं कि गाडी क़े जोर से चीखने की आवाज आयी और उसकी रफ्तार धीमी हो गयी। धीरे धीरे गाडी रूक़ गयी। बेगम की तंद्रा टूटी हाथ में रूमाल था ही झट उन्होंने एक गांठ खोल डाला। मन ही मन बहुत ही खुश थीं कि सही में यह अगीया बैताल बहुत ही तेज चलती है। अब मात्र तीन और पडाव ही तो और चलने हैं। जबकि हकीकत यह था कि गाडी बाहरी आगमन सूचक स्तम्भ (आउटर सिगनल) पर रूकी थी। पर बेगम को इसका क्या पता।

गाडी फ़िर चली और स्टेशन पर रूकी। बेगम ने पुनः रूमाल का अगला (दूसरा) गांठ खोल दिया। बेगम बहुत ही खुश थीं कि अगिया बैताल वास्तव में बैताल की तरह चलती है तभी तो इतनी जल्दी जल्दी अपने पडावों पर पहुंच रही है। गाडी क़ा सफर फिर शुरू हुआ। इस बार यह अगले स्टेशन पर रूकी। बेगम ने तीसरा गांठ खोल दिया। यानी दूसरे स्टेशन पर ही उनका रूमाल उन्हें तीसरा स्टेशन बता चुका था। बेगम ने सोचा कि बुरके का पर्दा हटाकर जरा यह तो देखूं कि स्टेशन कैसा होता है। पर मियां की टोपी और खानदानी इज्जत ने उन्हें ऐसा नहीं करने दिया। हवागाडी ने फिर अपना रफ्तार पकडी। बेगम की खुशी दिल के किनारों को तोड क़र बाहर आने को बेताब हो रहा था। आज उन्हें अपने मियां पर गर्व हो रहा था। उनकी वर्षों की तमन्ना पूरी हो रही थी। सोच रही थीं कि बस अगला ही पडाव उनकी मंजिल है। अगिया बैताल के रूकते ही इससे उतर जाउंगी और भीड-भाड से अलग एक किनारे जाकर खडी हो जाउंगी ताकी मियां को खोजने में कोई तकलीफ न हो।

तभी अगिया बैताल ने जोर की सीटी मारी और रफ्तार धीमी होने लगी। बेगम तो अपने अंतिम गांठ को लेकर पहले ही से सतर्क थीं। गाडी रूक़ गयी और बेगम साहिबा उतर गयीं। पीछे से किसी महिला ने कहा कि यहां स्टेशन नहीं है पर बेगम को सुनायी ही नहीं दिया। वे अपनी ही विचारों में मस्त थीं। बेगम अगिया बैताल से कुछ दूर जाकर खडी हो गयीं और मियां का इंतजार करने लगीं। बुरके के अंदर से जितना संभव था अगिया बैताल को देखने का प्रयास करती रहीं। थोडी देर बाद गाडी अपने सफर पर रवाना हो गयी।

दरअसल इस बार भी गाडी बाहरी आगमन सूचक स्तम्भ (आउटर सिगनल) पर ही रूकी थी।

बेगम को मियां का इंतजार करते करते बहुत ज्यादा समय हो गया पर मियां नहीं आए। वे सोच रही थीं कि इतना बडा लखनऊ शहर और स्टेशन पर आदमी नहीं है। वे सिगनल के पास खडी खडी परेशान हो रही थीं। आखिर इस अन्जान शहर में मियां उनको लेने क्यों नहीं आए। रात होने लगी। किसी अनहोनी घटना के विषय में सोचकर बेगम का दिल बैठा जा रहा था। मन करता था खूब रोएं पर रोने से होनेवाला ही क्या था। घण्टों गुजर गए पर मियां नहीं आए। गहराते अंधेरे में सिगनल के नीचे काले बुरके में खडी बेगम अनायास ही अनजान व्यक्ति में डर का अहसास करा सकती थीं। बेगम न रो पा
रही थीं और ना ही हंस पा रही थीं रात में भी अगर मियां नहीं आए तो क्या करूंगी आखिर मियां किस दिन का बदला ले रहे हैं सिगनल के पास तो वैसे भी विरान होता है। बेगम का दिल बुरी तरह धडक़ रहा था।

सिगनल से थोडी दूर पर ही एक गांव धा। गांव के चार शरारती लडक़े घूमते घूमते सिगनल के तरफ आए। उनमें से एक की नजर सिगनल के नीचे खडे उस काली साया पर पडी। अंधेरे में उन्हें वह साया सिर विहीन धड क़े समान लगी। चारों ने सहम कर उस साये को देखा तो पेट के पास हाथ की उंगलियां हिलती डुलती नजर आयीं। वे डर के मारे गांव में भागे।

धीरे धीरे पूरे गांव में यह बात फैल गयी कि सिगनल के पास एक ऐसा भूत खडा है जिसको सिर ही नहीं है। किसी को विश्वास नहीं हो रहा था। फिर भी कुछ लोग उत्सुकता वश हाथ में लाठी डंडा व लालटेन लेकर भूत को देखने चल पडे। यहां आकर देखा तो सच में भूत तो था ही। फिर क्या था। पूरे गांव के लोग भूत को चारों तरफ से घेर लिए। परंतु डर के मारे कोई भी पास नहीं फटकता था। लोगों के बीच से भूत शब्द सुनकर बेगम को डर लगने लगा कि इस स्टेशन पर तो भूत भी है। वो अकेले कैसे रहेंगी। मन हो रहा था कि खूब जोर जोर से चिल्लाकर रोएं।

गांव के लोग इस भूत से निपटने के सबब ढूंढ ही रहे थे कि या तो तांत्रिक को बुलाया जाए या खुद ही आग से जलाकर मार डाला जाए कि तभी दो तीन पढे लिखे गांव के ही नवयुवक आ पहुंचे। उन्हें भूत पर विश्वास नहीं था। पर काले लिबास में खडा भूत साक्षात सामने था। उनकी अक्ल भी थोडी देर के लिए चकरा गयी। पर उनमें से एक हिम्मत करके लालटेन लेकर आगे बढा। वह बेगम के करीब आकर उनका मुआयना करने लगा। बेगम ने भी बुरके की ओट से देखा की कोई उन्हें घूर रहा है। उनके दिल की धडक़न तेजी से बढ ग़यी। उस लडक़े की हिम्मत देखकर और लोग भी धीरे धीरे पास आने लगे। बेगम का दिल तो अगिया बैताल की तरह धडक़ ही रहा था, एक साथ इतने लोगों को अपने तरफ आते हुए देख और ही दहशतजदा हो गयीं और वे बुरी तरह चिल्लाकर रोना शुरू कर दीं।

उनका इस तरह रोना था कि सारे लोग सकते में आ गए। अब वे लडक़े यह जानने को उत्सुक हो गए कि आखिर माजरा क्या है क्योंकि वे तो इतना आश्वस्त तो हो ही गए थे कि ये भूत नहीं है। ये किसी रईस खानदान की हैं और किसी परेशानी में हैं। अतः लडक़ों के सुझाव पर उनसे बात करने के लिए गांव से कुछ औरतों को बुलाया गया।

औरतें तो औरतें होती हैं। उन्होंने बेगम की वहां आने की सारी कहानी पूछ डालीं। उनसे बात के क्रम में बेगम को पता चला कि यह लखनऊ स्टेशन नहीं है। और साथ ही यह स्टेशन है ही नहीं। लखनऊ तो यहां से और आगे दूसरा स्टेशन है।

अब बेगम और रोने लगीं कि अब क्या होगा। मियां से तो वे बिछुड चुकी हैं और मियां का क्या हाल होगा। वे धाड मारकर रोने लगीं। पर गांव की औरतों ने उन्हें ढाढस दिलाया और अपने घर ले गयीं। दूसरे दिन पहली अगिया बैताल से कुछ लडक़े उन्हें उनके घर पर पहुंचाने चल दिए।

इधर मियां की पूरी रात स्टेशन के चक्कर लगाने में बीत गयी। बेगम का स्टेशन से बाहर निकलने का सवाल ही नहीं उठता था क्योंकि वे तो लखनऊ शहर का नक्शा भी नहीं देखी थीं। थक हारकर मियां बुझे मन से वापस गांव जाकर अब्बा से सलाह मशविरा करने की सोच वापसी की गाडी पर बैठ गए। उनका दिमाग काम ही नहीं कर रहा था कि क्या करें। स्टेशन आता रहा गाडी चलती रही। अपना स्टेशन आने पर मियांजी गाडी से उतरकर बलेसरा के लिए चल पडे। रास्ते में उन्होंने देखा कि जैसा बुरका बेगम गुलबदन के लिए खरीदा था वैसा ही बुरका पहने कोई मोहतरमा दो लडक़ों के साथ चली जा रही हैं। मियां ने सोचा कि न जाने गुलबदन अभी कहां किस हालत में होंगी।

मियां अभी कुछ आगे बढे ही थे कि आगे चल रहे लडक़ों में से एक ने मियां से पूछा।

"जनाब बलेसरा गांव कौन सा है? "

"जी.....। बस आगे वाला गांव है।"
मियां जी की उत्सुकता बढी। पलटते ही उन्होंने पूछा। " बलेसरा गांव में किसके घर जाना है।"
लडक़े ने अपने जेब से पर्ची निकाली और कहा "मियां मोहम्मद इम्तियाज अली जी के घर जाना है।"
मियां जी समझे कोई नए मेहमान हैं। उन्होंने पूछा। " आप कहां से हैं और उनको कैसे जानते हैं।"

"मैं तो उनको आज तक देखा भी नहीं हूं और न ही उन्हें जानता हूं। बस उनकी ये बेगम साहिबा हैं जो कल उनसे बिछुड ग़यी थीं। इनको उन्हीं के घर पहुंचाना है।" लडक़ा एक ही सांस में सारी बातें बोल गया।

मियां जी को लडक़े की बातों पर विश्वास ही नहीं हो रहा था। मियां जी ने कुछ नहीं कहा पर मन ही मन काफी खुश हुए।
"आप लोग मेरे साथ आइए मैं उन्हीं के घर के बगल में रहता हूं। मियां ने कहा।"
मियां जी के साथ वे लोग मोहम्मद इम्तियाज अली के घर पहुंचे।
बेगम जी हताश सी घर में जाकर पलंग पर लेट गयीं। पीछे पीछे मियां जी भी पहुंचे।
बेगम उनको देखते ही अपना आपा खो बैठीं। उन्हें पकड क़र खूब रोयीं। मियां के भी सब्र का बांध भी टूट गया। वे भी खूब रोए।
बेगम ने कहा मैं घर पर ही ठीक हूं। मैं अब कभी भी अगिया बैताल पर नहीं चढूंग़ी।

- सुधांशु सिन्हा हेमन्त
 

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