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इसे ऐसा ही होने दो - 4
कह दूँ आज? आज कह ही दूँ। ये जो मेरी आँखों से, मेरे हाथों की कंपकंपाहट को नहीं समझ रहा तो कहीं यह कहने से ही समझे। वह एक लम्हा, जिसका मैं इंतज़ार कर रही थी कि यह ही कहेगा और मैं शर्म से लाल पड ज़ाऊंगी, शायद जीवन में कभी नहीं आएगा। कुछ चीजें जीवन में कभी नहीं होंगी और जीवन फिर भी होगा। ये जो दिन-रात अपने आपसे बातें करती हूँ, एक बार कह दूं इसेक्या होगा, हाँ या ना, यह जो असह्य यातना के बीच खडी हूँ उससे तो छुटकारा मिलेगा - '' मि संजय'' हम दोनों ने चौंक कर उधर देखा। लाईब्रेरी की खिडक़ी के बाहर कोई प्रोफेसर बुला रहे हैं उन्हें। उन्होंने उधर देख कर हाथ हिलाया कि आ रहे हैं। फिर मेरी तरफ देखा- '' आय एम सॉरी मिस शिरीन, आपको कुछ कहना है, मैं जानता हूँ। मैं कल यहीं लाईब्रेरी में आपका इंतजार करुंगा, दो बजे के बाद। '' मेरी देह की कंपकंपाहट उनके कदमों से लिपटी दूर तक घिसटती चली गई। वे दरवाजे से बाहर गए और वह वहीं गिर गई। मेरी आँखे भर आईं। मैं ने हथेलियों में चेहरा छुपा लिया और उन्हें घूंट-घूंट पीती रही। पता नहीं कितना वक्त गुजर गया। वह एक गुच्छा-गुच्छा सी रात थी, जो मेरी बाँहों में अलसाई सी सो गई। बहुत देर बिलखने के बाद। मैं देर तक उसका सिर थपक कर उसे दिलासा देने की पूरी कोशिश करती रही। हर रात के अपने किस्से होते हैं। कुछ चकमक करते रंगीन पत्थर, कुछ अनगढ छोटे बडे मिट्टी के ढूह, कोई पुराने बाँस की पोली बाँसुरी जिसमें से अतीत की कभी कोई दबी-दबी सी कराह सीटी की तरह बजती और सोती हुई रात के स्वप्नों को खबर हो जाती। बहुधा वे इस तरह की आवाजों से तितर्र बितर हो जाते, हलचल शांत होते ही फिर तिरते से उपर आ जाते। आज मेरे मन की हालत बडी अजीब है। ये क्या होता जा रहा है मुझे, मैं बिलकुल भी नहीं समझ पा रही। मैं टकरा जाना चाहती हूँ किसी राह चलती बस से। मेरे चिथडे-चिथडे उड जाएं, मैं बिखर जाऊं इन्हीं हवाओं में जिनमें तुम साँस लेते हो। हाय, अपना बोझ तक नहीं उठा पा रही मैं। ये रेत का रेगिस्तान कैसे पार करूं मैं? मैं लडख़डाते कदमों से ही अन्दर घुसी। किसी-किसी वक्त मेरी आँखों के आगे अंधेरा-सा छाने लगता - और मैं सर झटक कर खुदको ठीक करती। मेरी हथेलियाँ पसीने से तर हैं। बिना किसी की ओर देखे मैं आगे बढती जा रही मैं ने जब लाइब्ररी में कदम रखा - ठिठक गई। एक मिनट लगा, वापस लौट जाऊं आज का दिन ठीक नहीं मेरे लिये। पता नहीं क्या हो खुद पर भी वश नहीं। मेरी नजर सामने गई वे उसी टेबल पर बैठे कुछ लिख रहे थे। चेहरा इतना झुका हुआ कि सिर्फ उनके बाल दिख रहे थे, आधे काले, आधे सफेद। तब तक लाईब्रेरियन मुझे देख चुका था, मैं ने अभिवादन में सर हिलाया और सीधी चलती हुई उनके सामने जाकर रुक गई। उन्होंने एक पल को मुझे देखा और अभिवादन के जवाब में मुझे बैठने का इशारा कर फिर कागजों पर झुक गए। बैठते हुए मैं ने एक गहरी साँस फेंकी और थकान से भरा मेरा जिस्म कुर्सी पर मानो ढर्हसा गया। मेरा गला सूख रहा था, मैंने इधर-उधर देखा सीढियों के पास कोने में घडा रखा था और कांच के कुछ ग्लास पर मैं उठी नहीं। मैं कई पल इस आधे झुके चेहरे को देखती रही- '' देखो न, मैं तुमसे छिपना नहीं चाहती, ये मेरी प्यास है, ये मेरी चाहत, तुम्हें छूने की लालसा है यह, जो अपनी पकड से कुछ छूटने नहीं देना चाहती। यह मैं हूँ, मुझे देखो, मुझे छुओ, मैं तुम्हारा हाथ पकड क़र इतनी दूर जाना चाहती हूँ कि तुम्हें कुछ भी याद न रहे। शायद तुम कभी न जान पाओ कि कितनी कोमल भावनाएं तुम्हारे कदमों से टकरा कर बिखर गई हैं। '' कितने दिन तुम मेरी बेचैनी अनदेखी करते रहोगे? आखिर मेरा कुसूर क्या है, यही कि मैं तुमसे प्यार करती हूँ और...और आज तक तुम्हें छुआ तक नहीं। नहीं कुछ भी नहीं हो रहा, उस तरफ खामोशी है, अंतहीन बिना लहरों का ऐसा समंदर, जो समूची भावनाएं अपनी अतल गहराइयों में खींच लेता है। मैं भी क्यूं इसमें छलांग लगा अपना वजूद तक खो देना चाहती हूँ। देखे जा रही हूँ मैं उन्हें एक जानलेवा तटस्थता मेरी बेचैनी बढाए जा रही है। जी चाहता है उनके चेहरे को झिंझोड दूँ, ये जो आवरण ओढ क़े बैठे हैं गंभीरता का मेरे सामने, इसे एक झटके में चीर कर इनसे अलग कर दूँ और देखूँ, जो ये हैं पूर्णतया नग्न कैसा होता है.. आदमी कैसे हो तुम? गुस्से से मेरी मुठ्ठियां भिंच रही हैं। '' मुझे तुमसे कुछ कहना है, आज अभी, इसी वक्त। मैं इंतजार नहीं कर सकती। मैं क्यूं करूं इंतजार कि तुम्हें समय हो, सहूलियत हो। कितने निष्ठुर हो तुम, हृदयहीन, पर क्यूं हो तुम ऐसे? मेरे लहू में ये कैसा पागलपन सवार है? मेरे चारों ओर कैसे सींखचे हैं। मैं इन सबसे मुक्ति पाना चाहती हूँ। मैं अपना सिर टकरा रही हूँ। मेरा माथा लहूलुहान हो गया है, और तुम्हें कुछ दिखाई नहीं देता। प्रेम यातना है! हाँ, प्रेम यातना है! यह दूसरे से अनवरत तुम्हारे पास आती है। तुम्हें सिर्फ सहते रहना है। देखो, मुझे तुम्हारी यह स्थिरता नहीं चाहिये, तुम्हारी तडप, व्याकुलता, तुम्हारा जुनून, दीवानगी हाय! मैं कहाँ जाऊं , क्या करूं? आज पहली बार अपने उपर दया आ रही है। मैं तरस खा रही हूँ खुद पर? मैं तो ऐसी न थी। किसी दिन तुम भी मुझ पर तरस खाओगे, हाय बिचारी! नहीं मैं नहीं सह सकती, मैं तुमसे कुछ कहना चाहती हूँ।'' अवश क्रोध में मेरी मुठ्ठियां भिंच रही हैं। देह की समूची शिराएं तनी हुई। मेरी कनपटी गर्म हो गई हैगाल धधक रहे हैं। माथे पर गिर रहे बालों को एक झटके से पीछे किया मैं ने। नहीं कुछ भी सुनाई नहीं दे रहा तुम्हेंकुछ भी नहीं। अचानक एक झटके से टेबल पर रखे सारे कागज़ों को मुट्ठी में भरकर मसल दिया मैं ने। मुट्ठियां खोलींमसले कागज टेबल पर बिखर गए और उनकी तरफ देखे बगैर मैं उठी और बाहर निकल गई। दरवाज़ा बंद था और मैं देर से खडी थी - अनिश्चित-सी खटखटाने न खटखटाने, रुकने या चले जाने के गहरे असमंजस और तनाव में। खुद को खुद से परे करते हुए मैं ने घंटी के बटन पर उंगली रख दी। अन्दर कहीं सन्नाटे में वह ध्वनि गूंजी और मैं ने खुदको जानी-मानी प्रतीक्षा में पाया। मैं ने उन्हें तुरंत पहचान लिया, जितना उनके बारे में सुना था, उससे कहीं ज्यादा मैं पिछले दिनों उनके बारे में सोचती रही हूँ। लंबा कद, छरहरा बदन, गोरा रंग, बडी-बडी आँखें, तीखी नाक और गोल ठोडी उनके होठों पर एक सहज मुस्कान र्है आश्वस्त करती सी। मैं ने दोनों हाथ जोड उन्हें नमस्कार किया। '' आओ, आओ।'' वे हल्के से सर हिलाते हुए दरवाजे से हट गईं। हम एक कमरे को पार करते हुए दूसरे कमरे में आ गए जो शायद इनकी बैठक है। पहले कमरे में किताबों से भरी अलमारियों के सिवा कुछ भी न देख पाई। वह साधारण और सुंदर सी बैठक मानो उसमें रहने वालों की बाबत कोई सूचना देती हो। हम बैठ गए। '' आप शायद मुझे पहचानती नहीं।''
मैं ने हल्की सी मुस्कान के साथ उनकी ओर देखा। कितनी बेतकल्लुफी से तुमने नाम लिया संजय। मैं ने गहरे विषाद के साथ सोचा। एक बार यही नाम इसी तरह पुकारने की मेरी लालसा से कितनी अपरिचित हो तुम? '' हाँ! हाँ! ''
उन्होंने मानो मुझे किसी निराशा से बचाते हुए कहा। मैं ने सिर झुका लिया। '' मैं इन्हें बुलाती हूँ। कह कर वे अन्दर चली गईं।'' अब? क्या कहूंगी मैं उन्हें? उस दिन की घटना से मैं स्वयं इतनी शर्मिन्दा थी कि फिर चार दिन कॉलेज ही नहीं गई। कहीं न कहीं एक धुंधली सी उम्मीद थी कि वे फोन करें शायद यह जानने को कि क्या हो गया है मुझे? पर नहीं। किसी तटस्थ योगी कि तरह उन्होंने मेरा वह गुस्सा भी स्वीकार कर लिया और चुप बने रहे। और मुझे ही आना था। मैं ही आई। मैं ही क्यूं ? मैं ही क्यूं चल कर आती हूँ। वह दूसरा क्यों नहीं चलता, चाहे दो कदम। वे अन्दर आए और मैं उठ कर खडी हो गई। '' बैठिये-बैठिये ''
उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा और बैठ गए, पीछे वे भी आईं और बैठ
गईं। मैंने उन पर उचटती सी निगाह डाली।( तुम्हें ढूंढने के मुकाबले बेहद कम ) '' नहीं कुछ खास नहीं।'' मुझे अचानक याद आ गया, मैं ने पूजा से कहा था एक दिन- पूजा, पत्नी शब्द से मुझे डर लगता है। क्या है ऐसा इस शब्द में, जो हमें सारे रिश्तों से तोड देता है। क्यूं इस शब्द को इतनी ज्यादा जगह की जरूरत होती है? और क्यूं प्रेम एक छोटी सी जगह के लिये भी राजी हो जाता है? पूजा, क्यों डरते हैं दोनों एक दूसरे से? '' आप आई नहीं पिछले दिनों तो मैं ने सोचा आप बाहर गई हैं।'' मैं बाहर ही चली गई हूँ, तुम्हारे जीवन के एकदम बाहर। मुझे अन्दर आने की अनुमति चाहिये। क्या मिलेगी? मेरा गला भर आया। '' मैं चाय के लिये बोल कर आती
हूँ। वे सहसा उठीं और अन्दर चली गईं।''
अब मैं ने उनकी तरफ देखा उन्होंने अत्यंत कोमल स्वर में कहा और मुझे लगा, जैसे किसी ने कोई बोझ मेरे कन्धों पर से उतार दिया। तुम सिर्फ इस शब्द ने मुझे अंधेरों से निकाल कर रोशनी की दुनिया में खडा कर दिया। मैं उनकी तरफ देखना चाहती थी, मैंने एक गहरा पल निकाल कर कृतज्ञ हो उन्हें देखा और सहज और आश्वस्त हो गई। हममें से फिर किसी ने कुछ नहीं कहा। एक लडक़ा आया और उसने सेन्टर टेबल पर पानी रख दिया। मैंने हाथ नहीं बढाया, वह चला गया। वे फिर अंदर आईं और बैठ गईं। वे अपने कॉलेज में सम्पन्न हुई किसी मीटींग की बातें करने लगे। इस बीच वही लडक़ा आकर चाय रख गया और हमने एक साथ खत्म की। अब मुझे उठना चाहिये, मैं ने सोचा और उनसे इजाजत मांगते हुए खडी हो गई। वे दोनों भी खडे हो गए। '' आपने ट्रक के लिये कह दिया था
न? कोई आया नहीं बात करने।''
सहसा उनकी पत्नी ने इनसे कहा, वे मानो किसी नींद से
जागे- उन्होंने कुछ हैरत से उन्हें देखकर कहा। '' जा रहे हैं? क्यूं?
'' बेवकूफों की तरह
मेरे मुँह से इतना ही निकला। एक प्लेन उंचाई पर जाकर फूट
जाता है। प्लेटफार्म पर पैर रखते ही मैं ने इधर-उधर देखा दूर तक कोई नहीं दिखा सिवाय भीड क़े और मैं चलने लगी। जब से तुम मिले चल ही तो रही हूँ लगातार। एक वरदान की तरह लगता रहा वह चलना और आज उसकी मियाद खत्म हो रही है।भीड क़ा एक रेला है उसके और मेरे बीच हमेशा मैं ने पार किया था आज भी कर रही हूँ और दूर से ही देख लिया मैं ने उन्हें भीड में खोया-खोया सा स्वप्निल चेहरा जिससे मेरी जन्मों की पहचान है इसका एक-एक रेशा, एक-एक उतार-चढाव जिसे मैं ने हजारों बार छुआ और जो आज तक अस्पर्शित है। मैं खडी रह गई वहीं। पुकारना चाहती थी मैं उसे, आवाज देना चाहती थी, लहर की तरह दूर जा रहा है, भीड क़े समंदर में वह मुझसे। उसके कंधों पर एक छोटा बैग टंगा देखा है मैंने क्या-क्या ले जा रहे हो तुम? मेरी हंसी के टुकडे, मेरी उदासी के पल, मेरी कविताएं, मेरे रंगीन लम्हेऔर क्या-क्या? वे अन्य प्रोफेसर्स से बात कर रहे थे जब मैं उनके नजदीक पहुंची। सबने चौंक कर मुझे देखामैं ने सभी को एक साथ विश किया। '' अरे, आप उन्होंने बहुत धीरे से कहा। मैं ने उनकी तरफ देखा, कहा कुछ नहीं। मेरे पैरों के नीचे लम्बी अंधेरी सुरंग में से जैसे एक धू-धू करता ज्वालामुखी बाहर आने को छटपटा रहा था।वह लगातार धक्का दे रहा था नीचे से और मैं खुद को पलभर भी सरकने नहीं दे रही थी। मैं जरा दूर खडी रह गई। वे चलते हुए मेरे करीब आए मैं ने उनकी आँखों में देखा- एक तीव्र आवेग उठा अंदर से, कस के गले लगा लूं, कुचर्लमसल डालूंखुद कोइसेहड्डी से हड्डी मज्जा से, मज्जा खून से, खून मिल कर एक हो जाए असहनीय वेदना से मैं ने अपनी आँखे परे कर लीं। मैं जनती हूँ वे मेरी तरफ देख रहे हैं। मैं प्लेटफार्म पर आती-जाती भीड क़ो कुछ पल यूं ही गुजर गए। '' मैं जानता हूँ, तुम मुझसे नाराज हो।'' नहीं, नहीं! नहीं जानते तुम। कुछ नहीं जानते । अगर जानते तो इस तरह? बिना कहे, बिना सुने कुछ भी कौन किसको जान सका है, कोई नहीं, कुछ नहीं मैं ने उनकी तरफ नहीं देखा। '' शिरीन, इधर देखो '' मेरे अन्दर सब कुछ लडख़डा गया। पल भर में जो इतने दिनों साध-साध कर खडा किया था। मैं ने उनकी तरफ देखा, आह इस चेहरे को छू लेने की इस अदम्य कामना के सम्मुख मैं हार चुकी हूँ। '' तुम्हें तो ऐसा लगता है न कि मैं कुछ नहीं जानता हूँ! '' तत्काल मेरी आँखे भर आईं। मैं ने पलकें झुका लीं नहीं , यँहा नहीं। '' शिरीन वह आवाज क़ि जिसने यकबयक मेरे होंठ आकर छू लिये। मैं सिहर उठी। जोर से हवा चली, सूखे पत्ते झरने लगेझरते रहेमेरे चारों ओर सूखे पत्तों का ढेरबीच में अकेली खडी मैं... '' '' नथिंग, द ऑटम फॉल लीव्स.. '' मैं ने अपनी सिहरती देह संभालते हुए उनकी तरफ देखा, कहा कुछ नहीं- '' वह बातें करता था पौधों से बीजों से.. वह एक पागल अमरीकी था, वृक्षों और पौधों का प्रेमी। उसे लगता पौधे सुन रहे हैं। लोग हँसते थे उस परफिर उसने कैक्टस पर एक प्रयोग किया सात वर्ष तकसात वर्ष बाद कैक्टस में एक नई शाखा उगी, बिना कांटों वाली। शिरीन तुम्हें लगता होगा मैं ने बहुत देर कर दी। कैक्टस ने सात वर्ष लागाए समझने में, मैं सात ही पलों में समझ गया था, पर उससे क्या होता है? उसका चेहरा मेरे सामने धुंधला गया। आँसुओं की तीव्र बाढ हाय! अब कह रहे हो, जब मैं कुछ नहीं कर सकती, जब कुछ नहीं हो सकता। '' शिरीन कहने की कोशिशों में तुम खुद को बांट भी लेती हो, उसका क्या जो नहीं कह पाता।'' तभी वे चलती हुई हमारे बीच आ गईं। वे सहसा चुप हो गए। अपने बीच किसी की उपस्थिति का आभास पाकर मैं ने चेहरा उनकी तरफ मोडा, उनके होंठों पर मुस्कान है। मैं ने अपने होंठों का काँप कर फैलना महसूस किया। उनके भूरे बाल धूप में चमक रहे हैं।उनकी दुबली-पतली देह पर प्रिंटेड साडीछोटे-छोटे काले फूलउन्होंने इनसे कुछ कहा, फिर मुझसेमैं ठीक से सुन नहीं पाई। मैं ने चौंक कर उनकी तरफ देखा '' एक्सक्यूज मी '' वे मुझसे कुछ और कहने जा रही थीं कि उनके साथ आई किसी अन्य प्रोफेसर की पत्नी ने कुछ कहा वे मुझसे पार्डन मी कहकर उनकी ओर मुखातिब हुईं। ट्रेन आने में शायद अभी भी थोडी देर र्है हालांकि दूसरी घंटी हो चुकी है। मैं ने उनकी तरफ देखा आज पूरी कर दो अपनी अधूरी बात। आज कहो वह जिसे सुनने के लिये मैं इतनी दूर से चलकर आती रही हूँ। कुछ कहो संजय- हमारी आँखे मिलीं। उन्होंने कुछ कहने के लिये मुँह खोला ही था कि घंटी बजने की तेज आवाज पूरे प्लेटफार्म पर फैल गई, एक पल को बेबस मुस्कान उनके होठों को छूकर विलुप्त हो गई। बैठे हुए लोग खडे हो गए, अपना सामान उठाने लगे। कुली और ठेलेवाले इधर-उधर भागने लगे। सारे प्रोफेसर्स तितर-बितर हो गए और अपने-अपने हाथ में एक-एक सामान उठा लिया। मैं ने जल्दी से निकट रखा एक एयर बैग उठाने की कोशिश की तो उन्होंने बरज दिया। '' नहीं, नहीं तुम रहने दो। '' हमारे हाथ एक साथ झुके, एक साथ रुके अब हमने एक दूसरे की तरफ देखा पहली बार, हाँ पहली बार मैं ने उनकी आँखों में वह काँपती बेचैनी देखी। वह पुकार, जो उस घडी अनजाने उनके अन्दर से उठ थी, मुझे चारों तरफ से घेरती मुझमें कहीं खो रही थी। उन्होंने अपना हाथ आगे बढा दिया-कांपता हुआ हाथ, जिसने मुझे कभी कुछ नहीं कहा, कोई आश्वासन तक नहीं दिया कभी, और आज मेरे अन्दर सब कुछ शून्य हो गया। सारा शोर, सारी भीड मेरी आँखों से ओझल हो गए सिर्फ बढा हुआ हाथ और वे उन आँखों में वह छलछलाती बेचैनी, जो उस दोपहर की धूप में साफ-बेलौस चमक रही थी। बेसाख्ता मेरा हाथ बढा और उनके हाथ में समा गया। गले में नीचे दबे सैलाब एक जोर का धक्का पडा मैं लडख़डाई , मेरी आँखे फिर डबडबा आईं। मैं सख्ती से अपने होंठ भींचे उनके वजूद को पीती रही अनंत जन्मों की प्यासी मैं उस एक पल के समंदर में आकंठ डूब जाना चाहती हूँ। सिर्फ एक कदम आगे रखूंगी और खो जाऊंगी उनमें। फिर क्या किसी से भी ढूँढी जा सकूँगी? मैं ने उनका हाथ कस कर पकड लिया उन्होंने मेरा हाथ हल्के से दबाया फिर मेरी डबडबा आईं आँखों और काँपती देह को देखा, फिर धीरे से होंठ फडफ़डाए- '' लेट इट बी सो लेट इट बी सो इन यू आय एम। '' एक जोर की लहर आई और मुझे
अपने साथ बहा कर ले गई। '' लेट इट बी सो '' इसे ऐसा ही होने दो। |
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