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मोहे अगले जनम फिर औरत कीजो अँधेरे
ने अपना
दामन अभी समेटा भी नहीं था पूरी तरह कि सुबह
ने चुपके से
आके अपना सर उसकी छाती पर रख दिया था कुछ-कुछ
अँधेरे
कुछ-कुछ रोशनी का ये वक्त जिसे दुनिया दिन का आगाज कहती है,
दरअसल इस बात का ऐलान था कि अब दालमण्डी में रात हुआ
चाहती है।
रात-भर पागल कुत्तों की तरह रिरियाते,
लार टपकाते शरीफजादों ने इस मण्डी की कोठरियों में
गुरबत और मजबूरी के साथ जो जिस्मानी तजुर्बे चन्द सिक्कों के एवज में
किये थे वो दुनिया पे फाश न हो जायें इसका होश उन्हें पागलपन के पूरे
सुरूर में भी क्या खूब रहता है, तभी तो पौ
फटने के वक्त वो इसी नीम
अँधेरे
की
चादर ओढ ऌस बस्ती से चुपचाप खिसक लेते हैं
।
बडा
फरटाईल धन्धा है ये साला जिस्मफरोशी भी! बारिश,
आँधी-पानी
में भी दुकान उठती नहीं।
कस्टमर सभी को मिलते हैं,
चाहे वो पैंतालीस साल की बुझ चुकी शमा सी रेशमा हो या
हाल में आयी ताजा-ताजा बासन्ती।
सर्दियों में तो
ग्राहको
की
रेलमपेल रहती है।
जिन्हें फुटपाथों पे भी जगह नहीं मिलती वो भी कभी-कभार किसी का पॉकेट
मारके या फिर ऐसे ही किसी तरीके से इतने पैसे कैसे भी जोडज़ाड लेते हैं कि
बजाय फुटपाथ के एक रात में कुछ पल ही सही किसी औरत के बाजू में पडे ग़र्म
होते रहें।
बस
जितना गुड उतना मीठा के चलते होता ये है के
20
साल के अकरम को पचपनसाला रुकमनी के साथ काम चलाना पडता है।
पर
औरत तो औरत होती है साली उम्र कौन देखता है जहन की कसी नसें कैसे भी ढीली
होनी चाहिये बस।
यूँ
भी मिनटों
का खेल होता है,
दरअसल सारा।
चूँकि
किसी भी
अहसास और जज्बात से खाली। हाँ
तो,
रात भर जिस्मानी मशक्कत से थकी रूह से खाली ये औरतें
हरेक रात की तरह कल रात भी जिन्दगी से दोजख तक का सफर जीते-जी तय करके
नींद के सुरूर में डूबी एक झपकी भी ना ले पाई थीं कि सादिया बानू की
हौलनाक चीखों से सारी दालमण्डी
गूँज
गई थी,
अल्लाह! कोई आओ
देखो तो की गुहार में दशहत
यूँ
घुली-मिली
थी जैसे और एक-दो पल किसी ने जाकर ना देखा तो सदिया की दूसरी चीख यकीनन
अल्लाह के घर से आएगी।
हांलाकि चीखें और हाय-तौबा इस मुहल्ले के लिये नई बात नहीं।
गुरबत के हाथों या बेवफा आशिकों की रहमत के चलते जब भी कोई दोशीज़ा सौ
भुलावे देकर इस कच्चे
माँस
की मण्डी में लाई जाती है तो बोटी-बोटी कटने से पहले वो
यूँ
ही बेबस
मेमने की तरह चीखती-चिल्लाती है ख्वामख्वाह रस्मन! जानती है खूब,
यूँ
कि
यहाँ
की
दीवारों में चाहे जितनी
खिडकियाँ,
दरवाजे हों पर एक बार इस देहरी चढ ज़ाने के बाद
दरवाजॉं
के,
खिडक़ियों के पार पुराने किलों की तरह खाईयाँ
खुद जाती हैं! सो मरना जब लाजिमी ठहरा तो क्यूं न देहरी के भीतर ही मरा
जाए सोच के कितनी ही बुलन्द हौसला तक अपने कदम वापस खींच लेती हैं।
बाज दफा ऐसा भी होता है कि कोई-कोई दीवार से पार खाई में कूदने में पल ना
लगाती,
पर तब सादिया बानू के पालतू गुण्डे किस मर्ज की दवा
थे।
चाँद,
लाडो
की
पुचकारों से सादिया के हत्थे ना चढी लडक़ी,
हरामजादी नखरे करती है,
के इस नये जुमले के साथ ही फौरन कोने में दुबक जाती।
जंगल का कानून जनाब,
बिलकुल वैसे ही जैसे भेडिये को बिलकुल सामने खडा देख
खरगोश अपनी रफ्तार,
कुँलाचें
सब
भूल जाता है।
दहशत का एक फायदा तो है ही कि वो जहन को एक ऐसा ट्रेन्क्यूलाईजर पिला
देती है कि मौत का इस सुन्नपन के चलते पता ही नहीं चलता।
इन्सानियत के बूचडख़ानों में ये ही तरीका है जिबह कापहले सुन्न करदो बस
फिर आराम से मार डालो।
तो
अगर यह चीखो-पुकार किसी लडक़ी की होती तो ये सुन्न होकर जिबह हुई लडक़ियाँ
सुकूनो-चैन से सो जातींपर ये तो सादिया की चीखें थीकसाईखाने में कसाई के
चीखने की सदा-कयामत! लडक़ियाँ
बदहवास भागी थीं। करीम शेख की
मौत से दालमण्डी और उसके आस-पास के इलाकों में जैसे जलजला आ गया।
आता भी
क्यूँ
ना,
सादिया के कोठे की रौनक जिन लडक़ियों से थी उनमें से
आधी से भी ज्यादा करीम की सौगातें थीं।
यूँ
वो भडुवा
नहीं था।
एक
कतई शर्मीली बीवी का शौहर,
तीन अदद काले बुरी शक्ल वाले बच्चों का बाप,
करीम सादिया के
यहाँ
बहैसियत
भडुवा
यूँ
ही पार्ट
टाईम जॉब करता था।
हकीकत में तो वो सुपारी लेता थाबमों,
पिस्तौलों और आरडीएक्स के इस कतई तरक्कीयाफ्ता दौर
में भी करीम के चाकू के जलवे बरकरार थे।
बताने वाले बताते हैं कि दसेक खून तो कम से कम किये होंगे करीम ने,
इसी चाकू से जो वो लाल किले से तारीखी चीजें बेचने
वाली दुकान से
यूँ
ही शौकिया
खरीद लाया था किसी नवाब का या शायद उसके सिपहसालार का चाकू था।मूठ
पर उर्दू में कुछ लिखा था जिसे करीम के दिल से रहम के किसी भी निशान को
ढूंढ
लेने की तरह पढ पाना नामुमकिन था।
बस
दो ही शौक थे करीम के खून-वून का शौक नहीं था साहब-ना वो तो धन्धा ठहरा
शौक
से
मुराद जो जी को खुशी दे।
तो
पहला और पसन्दीदा शौक था करीम का - अपनी बीवी को बिलानागा सुबह-शाम
लात-जूतों से मरम्मत करना पीने-पिलाने के बाद करीम बीवी को रोज
धुनता था।
सब
जानते थे कि करीम का पहला बच्चा अपनी पैदाहश से पहले ही दुनिया से उसके
इस शौक के चलते रुखसत हो गया था दिन भर के काम से खटी वो औरत अपनी इस
पिटाई और गाली-गलौज के लिये हालांकि मैंटली प्रिपेयर रहती।
चीखना-चिल्लाना उसके स्वभाव का हिस्सा नहीं वो जानती भी थी कि इस मुर्दा
बस्ती में
जहाँ
औरत की
वखत वाकई पैर की जूती सी है चुपचाप मार खा लेना ही बेहतर है वरना कहीं
करीम ने जूती बदल डाली तो?
इन तीन अदद बच्चों के साथ वो जाएगी
कहाँ?
फिर बाजदफा पिट पिटा लेने के बाद गयी रात जब करीम उसे
लतर-पतर सोये बच्चों के पास से अपने बिस्तर पर खींच लेता तो अपनी ऐसी की
तैसी करवा के मरी चुहिया-सी परे फेंक दी गई वो हाल के पैदा हुए छुट्टन को
गले लगा कभी-कभार सिसक लेती और ऐसे में बस दो बोल इसके हलक से फूटते,
थू औरत की जिन्दगी, लानत
औरत की जात वो मार से भी ज्यादा करीम की धमकियों से डरती थी -
घर से निकाल दूंगा।
सुनते ही उसकी छाती में
सैकडों-सैकडों
कोयले दहक उठतेऔरत भी कितनी मजबूर है वो सोचती।
इस
हरामी को मैं लात मार
दूँ
अगर ये घर
इसका ना हो।
पर
नहींफिर ये छत
कहाँ
होगी,
दीवारें
कहाँ,
ये मसरूफ रखने को बर्तन-भांडे,
संदूक और संदूकों में रखा बेहिसाब जरूरी गैरजरूरी पर
ठुंसा सामान? वो करीम से अलग होने से भी
ज्यादा इस मालो-असबाब और घर से अलग होने से डरती थीपर क्या वो ही?
नहीं शायद तमाम औरतें या शायद ज्यादातर औरतें।
जब
जिन्दगी
के कुछ
माने ना हों तब इन्हीं मुर्दा
चीजों
से
मुहब्बत हो जाती है,
औरतों को।
तब
मियाँ
के
किसी दूसरी औरत के हाथ पड ज़ाने से भी ज्यादा फिक्रमन्द वो इसी घर और
माल-पत्ते की मिल्कियत को लेकर होती है,
वरना साले मरदों की क्या औकात,
अगर मर्दों को औरतें बहुत हैं,
तो औरतों को कौन मरदों की कमी है और फिर मैं तो अभी
भी
पर फिर ना जाने क्या सोच के
आँखों
में
आँसू
भर
लाती?
नजर
आंगन
में लेटे
बच्चों पर उठती तो जवाब मिल जाता।
औरत को मर्द मिल जाता है पर बच्चों को बाप?
एक ठण्डी
साँस
के साथ वो
फिर दोहरा देती हैं - थू औरत की जिन्दगी। |
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