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एक सांवली सी परछाई सच कहूँ तो वो एक साँवली परछांई ही तो थी। तमाम खूबसूरत चेहरों के पीछे सहमी-सी, एक छिपती-छुपाती परछांई। वह खूबसूरत लडक़ियों से चहकता घर मेरी सहेली फरजाना का था। जब मैं ने इसे अपनी क्लास में देखा था तो देखती रह गई थी। छूने से मैला होता गोरा रंग, और टिपीकल खानदानी मुस्लिम नाक-नक्श। एक तो छोटा कस्बा और साइंस पढने के लिये लडक़ों के स्कूल में जाने वाली एक मुस्लिम लडक़ी। यूँ हम चार लडक़ियाँ थी जो गर्ल्स स्कूल में साईंस फैकल्टी के अभाव में बॉयज स्क़ूल में नवीं क्लास में दाखिल हुई थीं। पर हम तीन लडक़ियाँ उस कस्बे में बाहर से ट्रान्सफर होकर आए अधिकारियों की बेटियाँ थीं। नमिता के पापा उस कस्बे के एस डी एम थे। नीरजा के पापा इलेक्ट्रीसिटी बोर्ड के एक्स ई एन और मेरी मम्मी गर्ल्स स्कूल की प्रिन्सीपल थीं और पापा बी डी ओ। यूँ फरजाना के पापा भी जिले के लीडींग क्रिमनल लॉयर थे । पर एक तो यह राजस्थान का मुस्लिम बहुल कस्बा उनका स्थाई निवास था, फिर उस समय भी जहाँ गिनी-चुनी लडक़ियाँ गर्ल्स स्कूल में भी बुरका पहन कर जाती थीं ऐसे में फरजाना ही जानती होगी कि उसने अपने पापा से कितनी जिद और मिन्नतें की होंगी हमारे साथ बॉयज स्क़ूल में एडमिशन लेने की। हालांकि उसकी कुछ बडी बहनें मम्मी के स्कूल में तब भी पढ रही थीं और वे बुरका पहन कर आया-जाया करती थीं। न जाने किस तरह फरजाना ने पापा को मनाया होगा कि न तो वह बुरका पहनेगी, और साइंस पढेग़ी वो भी लडक़ों के स्कूल में।अम्मी की तो चलती ही कहाँ? फरजाना की बहनों की गिनती याद नहीं। पर दो बेइन्तहां खूबसूरत बहनें अंजुम दीदी और निकहत दीदी मम्मी के स्कूल से दसवीं की परीक्षा दे रही थीं। साथ पढने की वजह से और हमारे स्कूल से उसका घर पास होने की वजह से हम उसके घर जाने आने लगे। तब पता चला कि और भी बहने हैं फरजाना की। उन दोनों दीदीयों से बडी एक दीदी की शादी हो चुकी है। एक फरजाना से जरा बडी बहन शाजिया को देख कर तो मेरे मुँह से निकल ही गया। '' हाय फरजी, पहले तुझे देखा तो तू खूबसूरत लगी फिर अंजुम और निकहत दीदी तुझसे भी सुंदर लगीं अब ये शाजिया माई गॉड तुम सब कुछ भी नहीं इसके आगे। और कितनी सुंदर बहनों से और मिलवाएगी? शाजिया का पढने में जरा मन न था, पाँचवी के बाद अम्मी से कह दिया नहीं पढना, अम्मी भी खुश, बेटी भी। मगर शाजिया का कमाल देखते जरदोजी क़े गरारे कुर्ते काढने में और सुन्दरता तो जैसे तराशी हुई और तमाम उपमाओं को लगा दो उसके सौंन्दर्य वर्णन में तो कम पडें, हल्की भूरी बडी आखों पे भ/वरे सी पलकें तीखी नाक , तराशे गुलाबी होंठ और सच मानो ये कल्पना नहीं। और भी दो छोटी बहनें थीं फरजाना की वसीमा और गुल। गुल तो तब आंटी की गोद में ही थी। ये छुटकियाँ भी कम न थीं। आखिर बेहद हैन्डसम वकील साहब और चालीस की उमर में भी गजब की खूबसूरत आंटी की बेटियाँ थीं। दो बेटे गुल से जरा बडे सुहैल और तुफैल ये भी माशाअल्लाह गोरे और सुन्दर। अकसर इन्टरवेल में हम वहीं होते, वकील साहब की हवेली में कभी आलू के मुगलई परांठे खाते कभी जरदा तो कभी सेंवईयाँ। मुझे और नमिता को तो गोश्त खाने में भी गुरेज न था पर हमारे साथ होती थी ब्राह्मणी नीरजा (आज लन्दन में डॉक्टर है, भले ही अब हैम-वैम खा लेती होगी) कितने ही दिन तो इस खूबसूरत खानदान में आते-जाते हो गए। और अंजुम दीदी का निकाह तय हो गया। घर में माहौल बदल गया, रेशमी शरारे-गरारे सिले जाने लगे, दुपट्टों पर सुन्दर मुकैश और सुनहरी लैसों और मोतियों का काम शुरू हो गया। बीच-बीच में गीत भी होते, उबटन लगता। बेला-मोतिया के गजरों का ढेर बंटता, महकता। फरजाना पढने के लिये इतने बडे भव्य घर में भी तन्हाई न मिल पाने के कारण चिढ ज़ाती, उसे बस डॉक्टर बनना था, बाकि सब व्यर्थ लगता। पर मुझे बहुत आकर्षित करता वह माहौल। फरजाना का घर हमारे घर से दूर न था, उस पर अंजुम दीदी मम्मी की स्टूडेन्ट सो हर रस्म पर मैं वहीं होती। शाजिया से मेरी बेहद पटती, उसका खूबसूरत लहजे में बोलना, छेडना, रूमानी बातें करना मुझे भाता, हम दोनों ही की गीतों में, नाचने में खूब रुचि रहती। फरजाना चिढ ज़ाती। ऐसे ही एक दिन, शादीके पहले की रसमों के बीच चहकते गीतों और महकते उबटनों और सरसराते शरारों को छोड मैं पानी पीने उनकी रसोई तक गई तो वहाँ एक लम्बी साँवली लडक़ी रस्म के बाद बांटीजाने वाली केसरिया बूंदी दोनों में रख रही थी। रसोई की गर्मी में सांवलाचेहरा तप आया था। वो मुस्कुराईं - '' आओ मनीषा बाद में गीतों में बैठने पर याद आया, इस साँवली लडक़ी को देखा तो है पर बस एक परछांई सा, बस जरा सा, रसोई से निकल दस्तरख्वान तक जाना, वहाँ से रसोई और ढेरों कमरों के बीच किसी कमरे में आते-जाते हम अपनी किशोरवय अल्हडता में कब उस ओर ध्यान देते? फरजाना से कहा कि ''तूने बताया नहीं'' '' हाँ! वो अंजुम दीदी से बडी
हैं। फिरदौस दीदी! पापा की यानि मेरी दूसरी अम्मी की बेटी। अलग रहती थीं
कहीं, अम्मी नहीं रहीं तो यहाँ आ
गईं।'' पूरी शादी में वह सांवला चेहरा जुटा रहा, बेजा कामों में। सुन्दर बहनें, खिलखिलातीं, रेशमी शरारों में सजी, दुल्हन को इधर से उधर ले जातीं, सजातीं। अंजुम दीदी के निकाह में बडा मजा आया। पहली बार मुस्लिम विवाह की सारी रस्में देखीं। दूल्हे का इकरार, फिर मैहर की रकम का तय होना, दुल्हन के इकरार के वक्त दुल्हन और उसकी बहनों, माँ-मौसियों का रोना और दुल्हन का एक धीमा सा शर्मीला हाँ कहना। फिर दूल्हे का जूठा लड्डू दुल्हन को खिलाना। मर्दों और औरतों का एकदम अलग-अलग इंतजाम होना। अंजुम दीदी की शादी में गुल बस दस महीनों की थी, सबसे छोटी साली करके उसे दूल्हा भाई की गोद में डाल दिया गया था। पर फिरदौस उन खूबसूरत गोरी बहनों की साँवली परछांई बनी, पीछे कहीं से रस्में देख लेती। कपडों की सादगी भी वही थी। ऐन निकाह के दिन भी हल्के हरे सादा साटन के गरारे पर वही सफेद दुपट्टा डाले बस दहेज का संदूक सजाती। अम्मी का हुकुम बजाती भटकती रहीं। ऐसे ही निकहत दीदी का भी निकाह हो गया। नकचढी शाजिया के बेपनाह हुस्न के चलते हजार पैगाम आए और उसका निकाह भी एक अमीर खानदानी घर के आई ए एस बेटे से तय हो गया। फरजाना चिढक़र कहती, न जाने क्या करेगी बस सुन्दरता ही है, दिमाग देखो तो ठस्स, उस दिन जब वह देखने आया तो डाईनिंग टेबल पर खाना चल रहा था, उसने बोला कि कैरी ऑन तो कमबख्त कच्ची कैरी ही उठा लाई। न जाने कैसे चलेगी ये बेमेल शादी? पर चली खूब चली, एक साल बाद ही शाजिया को देखा तो पहचान न सकी। कटे बाल, स्लीवलैस ब्लाउज। यदा-कदा बाल झटक कर बोले गए अंग्रेजी के जुमले। दूल्हा भाई अलग सौ जान से निछावर। कमी क्या थी? अदा थी, हुस्न था। बस इल्म ही तो कम था। लाख चाह कर फरजाना डॉक्टर न बन सकी, हम तो पहले ही पढाई में सीरीयस थे ही नहीं। नीरजा का पहली बार में ही पी. एम. टी. में सलेक्शन हो गया। नमिता का तो हम दसवीं में थे तब ही ट्रान्सफर हो गया था। फरजाना और मैं ने बी.एस.सी. साथ किया, वो भी पास के शहर में डेली अप एण्ड डाउन करके। फाईनल करते करते उसका निकाह डॉक्टर से होना तय हुआ। फिर वही सरगर्मी, बहनें अपने बाल-बच्चे लिये कई कई दिन पहले आ जुटीं। फिर वही कुर्तों-दुपट्टों पे कढाई शुरू हुई, जर्दा पकता, उबटन घुलता। इस सब से अब मैं ऊबने लगी थी। कि एक दिन यूँ ही फरजाना के कमरे में, चमेली की लतर से ढकी खिडक़ी के पास पडे बिस्तर पर पास-पास लेट कर उससे अंतरंग बातें कर रही थी - '' उस दिन वसीम कॉलेज मिलने आए
तो तू कहाँ मर गई थी, चेहरा देखा होता बेचारे का
क्या करती? जिस दिन तय किया था, उनसे कॉलेज में मिलना
उसी दिन ये हंगामा हो गया।'' मैं घर चली आई, फरजाना ने न जाने कैसी वकालत की कि जब मुझे कार्ड मिला शादी का तो उसमें दोनों बहनों का नाम था। आखिर बेटी किस की थी एक नामी वकील की। फरजाना वेड्स वसीम और फरदौस वेड्स असलम। शादियाँ हुईं उस हवेली की तमाम शानोशौकत के और उन्हीं प्यारी रस्मों के साथ। फरज़ाना की खुशी दोहरी थी, वह चहक रही थी, वसीम मियाँ बडे बातूनी निकले। असलम और फिरदौस दीदी दोनों सहमे तो थे पर खुशी उनकी आखों की कोरों से छलक रही थी। फरजाना विदा के वक्त रस्मन आके गले मिली तो मैं ने कहा, कमबख्त! झूठमूठ ही सही रो तो दे, इत्ती दूर बॉम्बे जा रही है। वह फुसफुसाई, क्यों रोऊं, रोने की बात ही क्या है? गाँव से निकल कर शहर में जा रही हूँ। उधर पास ही सटे घर में विदा हो कर जा रही फिरदौस दीदी जो जार-जार रोई हैं कि बस मुझे लगा बरसों की बात-बात पे दबाई रूलाई अब फूटी है। मेरे भी गले लगीं। वसीम मियाँ ने दहेज का सामान इसलिये ले जाने से इनकार कर दिया कि बॉम्बे में छोटे घर होते हैं, इनकन्वीनियन्स होगी। असलम मियाँ ने कहा कि यह उन्होंने पहले ही कहा था कि वे फिरदौस को बस दुल्हन के जोडे में ले जाना चाहते हैं, दहेज उनके उसूलों के खिलाफ बात है। फरजाना से फिर नहीं मिल सकी वो शारजाह चली गई, पर उसकी साँवली परछांई सी फिरदौस दीदी से मैं अपनी शादी के बाद एक बार फिर मिली, मम्मी के ऑफिस में जब मम्मी एजूकेशन में डिप्टी डाईरेक्ट्रेस थीं। ''अरे,
मनीषा! '' मैं वही साँवली उदास परछांई ढूंढ रही थी जो मुझे ढूंढेनहीं मिल रही थी। |
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