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शाश्वती

पारिवारिक रिश्ते, बंधन और हालात इतने विषम, तंग और निर्मम हो सकते हैं, इसका आभास पहले कभी नहीं हुआ था सभी कुछ एक अच्छे सुखद परिवार की तरह सरलता से चला आ रहा थामैं ने सोचा भी नहीं था कि जो संवाद और सम्पर्क, जो लगाव और कन्सर्न हमें रिश्तों को जीने की बेहतर समझ देते हैं, वही परिवार के लिये चिन्ता या परेशानी का सबब कैसे बन सकते हैं?

मैं दुनिया के लिये अब तक एक संतुष्ट सफल व्यक्ति, अच्छे परिवार का मुखिया, एक अच्छा पति और पिता था। मैं स्वयं भी गर्वित था कि एक कर्तव्यपारायण पत्नी, दो अच्छे और सैटल्ड बच्चों का पिता हूँ। यूनिवर्सिटी में आर्टस फैकल्टी के डीन की हैसियत से शहर भर में प्रतिष्ठा है। छात्रों में सम्माननीय हूँ। साहित्य जगत में भी मेरा नाम विशिष्ट तौर पर लिया जाता है।अब अचानक परिवार के बीच एक संदिग्ध व्यक्ति कैसे बन कर रह गया ?

अपने सारे दुनिया भर के तनावों के बीच मेरे लिये अपनी एक पुरानी शिष्या शाश्वती की आत्मीयता, मित्रता की एक अलग अहमियत ही तो है बस। ऐसा नहीं कि किसी से भी कुछ छिपा था। इस सहज रिश्ते में छिपाने जैसा कुछ नहीं था। वह शिष्या थी, मैं गुरू। और यह सम्बन्ध सदैव अपनी मर्यादाओं में रहा। खैर

तकलीफ की बात यह है कि आज अचानक सबने आपको न समझने की ठान ही ली है। अब उन्हें मेरा कोई आचरण आश्वस्त नहीं कर पाता और न ही अब इस विषय पर सहज संवाद ही बाकि रह जाता है। अविश्वास, संदेह और अकल्पनीय आशंकाओं की जद्दोजहद में भीतर-ही-भीतर क्या कुछ टूटता बिखरता रहता है, इसकी न कोई आवाज होती है न ही किसी को इसका अहसास! अपने इन सारे तनावों और तकलीफों के बावजूद मेरे लिये इस आत्मीयता और मित्रता की एक अलग अहमियत है, और मैं इसकी कद्र करता हूँ। यह भी कामना करता हूँ कि यह सजीव बनी रहे। इसी अंतरंगता में जारी मेरे और शाश्वती के बीच जारी संवाद और साहचर्य ने मुझे स्त्री के अंतरंग को जानने और समझने की बेहतर समझ दी है, मुझे सम्वेदनशील और तरल बनाया र्है पारदर्शी भी। मेरे बाद के लेखन में, उपन्यासों, कहानियों और समीक्षा के स्वर और सम्वेदना में आए बदलावों में इसे सहज ही देखा जा सकता है। रहने दीजिये आप भी कहाँ समझेंगे। समझने के लिये आपको मेरे साथ बहुत पीछे लौटना होगा।

करीब दस साल पहले की बात है।

मैं यूनिवर्सिटी में ऐसोसिएट प्रोफेसर था। तब दिल्ली से उसके पिता का ट्र्रान्सफर यहाँ होने पर, शाश्वती को हमारी युनिवर्सिटी में एम फिल हिन्दी में एडमिशन लेना पडा था। वही दिल्ली वाली स्वच्छंदता लिये वह लडक़ी, मध्यप्रदेश के मध्यम दर्जे के इस शहर में आई थी। हमारा कॉलेज एक सुगबुगाहट से भर गया था। उसका स्वच्छंद पहनावा और अलग-थलग व्यवहार स्टाफ रूम में भी चर्चा की वजह बन गया।

मैं भी चौंका था जब पहली बार क्लास में गया था तो। दस-पन्द्रह स्टूडेण्ट्स की क्लास में वह अलग से बैठी थी। धधकता गोरा रंग, तीखी नाक, सुर्ख होंठ और विद्रोह से भरी आँखे, बेतरतीबी से बंधे बालों में से कुछ लटें चेहरे पर लटक आई थीं, जीन्स और ढीले प्रिंटेड कुर्ते में, हिन्दी की कक्षा में सच में वह आउट ऑफ प्लेस लग रही थी। सब उससे बात करने से कतरा रहे थे। उसकी भी क्या गलती, जे एन यू के उनमुक्त परिवेश से आई थी वह, वहाँ तो सभी ऐसे ही रहते होंगे। मैं ने ज्यादा ध्यान नहीं दिया।

मगर कुछ दिनों बाद पाठ्क्रम के तहत कुछ साहित्यिक सेमिनार्स हुईं तो उसकी बुध्दिमत्ता का कायल हुए बिना न रह सका। हर विषय पर अधिकार से बोलना, साहित्यिक गतिविधियों में हमेशा पुरस्कृत होना। कॉलेज की पत्रिका का सम्पादन करते हुए उसकी कविताएं पढीं, तब वे कच्चे दूधिया दानों सी मीठी, और आदर्श दुनिया के स्वप्नों में भ्रमित सी थीं। उसके पिता रेल्वे के बडे अधिकारी थे, बिन माँ की उस बच्ची पर ममता हो आती थी मुझे। मैं ने सदा ही उसे प्रोत्साहन दिया और वह मेरे प्रिय छात्रों में से एक थी। खाली होने पर वह मुझसे, उसके और मेरे पढे ग़ए देशी-विदेशी लेखकों की कृतियों पर चर्चा करना पसंद करती थी।

कुछ समय में मेरे हल्के से संकेत करने पर उसने युनिवर्सिटी माहौल के अनुरूप स्वयं को ढाल लिया। जब वह पहली बार सफेद सिल्क का शलवार कुर्ता और लाल बांधनी की चुन्नी पहन कर आई तो सीधे मेरे पास आई लाईब्रेरी में, मुखर उत्साह और मुस्कान के साथ वह मेरी प्रतिक्रिया के लिये खडी रही। मोहक तो वह थी ही, पारम्परिक पोषाक में बहुत अच्छी लग रही थी। पर मैं ने उसे कुछ कहा नहीं तो मायूस हो गई। मेरी आदत में ही शुमार नहीं था छात्रों को कोई व्यक्तिगत बात कहना। मैं तब देश की साहित्यिक गतिविधियों में जम कर हिस्सा लेता था, स्वयं लेखक था और आलोचना मेरा प्रिय विषय था। मेरे बाकि छात्रों को इन सब बातों से कोई फर्क ही नहीं पडता था, वहीं शाश्वती अकसर पत्र-पत्रिकाओं में मेरा लेखन पढ, ख़ुश हो जाया करती थी। और एक चर्चित व्यक्ति की छात्रा होने का थ्रिल महसूस करती।

एम फिल में उसने सर्वाधिक अंक पाए। पी एच डी करने के लिये उसने अपने मार्गदर्शन के लिये मुझे चुना। तब तक वह मैच्यौर हो गई थी। मेरे घर भी आने-जाने लगी थी। मेरी बेटी उससे चार साल ही छोटी होगी, उससे उसकी अच्छी जमती। अब वह घर के समारोह इत्यादी में भी उत्साह से हिस्सा लेती। अब उसका बौध्दिक स्तर इतना अच्छा हो गया था कि मुझे स्वयं साहित्य को लेकर उससे घण्टों चर्चा करना अच्छा लगता। वह मेरे साथ सेमिनार्स में पेपर पढती, स्वयं आलोचनात्मक लेख लिखती। उसने एक नाट्य संस्था से भी स्वयं को जोड लिया था। उसकी एक एकांकी एक सम्माननीय पुरस्कार से पुरस्कृत भी हुई। तब उसने स्टेज से सीधे उतर कर मेरे पैर छुए।

कहीं भी कुछ भी गलत नहीं था। कम अज कम मुझे कहीं गलत नहीं लगता था। हाँ कभी-कभी लगता कि शाश्वती की इतनी अतिरिक्त श्रध्दा कहीं... मैं स्वयं को गलत सिध्द कर देता....  ऐसा कैसे सोच सकती है वह। एक दिन मेरी आशंका को मुँह चिढाता एक पन्ना उसके थीसीस के पेपर्स में से गिरा। एक रूमानी कविता। मैं मुस्कुराया कि शाश्वती को किसी से जुडाव हो गया है। पर उसकी आँखों के भाव तो उस कविता का जवाब मुझसे ही माँगने लगे थे। मैं उपेक्षित करने के सिवा क्या करता? मुख से कम बोलने वाली वह लडक़ी मेरे सब्र का इम्तिहान ले रही थी। हर बार सोचता अब समझाऊंगा इसे। वह समय ही नहीं आया, उसकी पी एच डी खत्म होने से पहले ही उसकी सगाई किसी एन आर आई से हो गई।

दिल्ली में सगाई होने के बाद लौटते ही वह मुझसे मिली। सप्ताहांत था, दोपहर थी सो मैं अपने घर की लाईब्रेरी में था। आकर गुपचुप मेरे सामने इज़ी चेयर पर बैठ कर खिडक़ी के पर्दे से खेलती रही। मैं ने चश्मा सरका कर पूछा -

'' बात पक्की हो गई।''
''सगाई भी हो गई।'' कह कर उसने अपनी सुघड उंगलियों में हीरे की अंगूठी चमका दी।
''कैसा है लडक़ा? ''
''जैसे लडक़े होते हैं।''
''शादी कब है? ''
''आप वायवा करवा दें तो अगले ही महीने...''
''तो उसमें क्या मुश्किल है? कल ही हेड ऑफ द डिपार्टमेन्ट से बात कर लेता हूँ।''
वह सुबकने लगी।

'' पापा की तरह आपको भी जल्दी है नाकि बस पीछा छूटे।''
''अरे, शाश्वती''
''कल पापा आएंगे आप उनकी बात नहीं मानेंगे। वायवा जल्दी नहीं चाहिये सर मुझे। अगर आप मान गए तो भी मैं आपको लास्ट चैप्टर दूंगी ही नहीं। जब थीसीस ही सबमिट नहीं होगी तो...''
''ये बेजा जिद किसलिये? ''
''पापा का ध्यान कौन रखेगा? भाई तो खुद अपना ध्यान रख ले वही बहुत है।''
'' पर शादी तो करनी ही होगी ना।''
''सर इस बात पर हमने उषा प्रियम्वदा के उपन्यास रुकोगी नहीं राधिका पर पहले भी खूब बहस की है। अब नहीं, इस वक्त तो नहीं।''
''हाँ, क्योंकि यह जिन्दगी है, उपन्यास नहीं।''
''ठीक है, पर मैं इसे अगले साल तक टालना चाहती हूँ।''

 

शादी रुक नहीं सकी। थीसीस सबमिशन, वायवा सब समय पर हो गया। वायवा वाले दिन वह मिली। मुखर सवालों के साथ।
'' सर अब तो मैं जा रही हूँ। पता नहीं आपसे मिलना हो न हो। पापा रिटायर होकर दिल्ली चले जाएंगे तो मेरा इस शहर से कोई सम्बंध नहीं रहेगा।''
''मेरी ब्लैसिंग्स तो हैं।''
 ''हाँ.. ''
 ''सर, मेरे लगाव को आप ने हमेशा नकारा क्यों? ''
 ''शाश्वती तुम मेरी बेस्ट स्टूडेन्ट रही हो।''
'' नहीं सर थीसीस के हर चैप्टर के साथ लगी मेरी कविताओं का क्या किया आपने? ''
 ''सहेज लिया।''
 ''कोई प्रतिक्रिया किये बगैर? ''
 ''आवश्यकता नहीं थी शाश्वती। तुम्हारी उस जीवंत आत्मीयता को जीवन की शुष्कता में एक ओएसिस बना कर संभाल कर रखे हूँ। जब-तब पढ क़र आनंदित होता रहता हूँ।''
''स्वार्थ है यह तोमुझे वंचित रखा आपने उस आनंद से। मुझे लगा कि मैं रिजेक्ट कर दी गई।''
''यह सब प्रश्न व्यर्थ हैं शाश्वती, हम बहुत आत्मीय रहे हैं।''
''सर आपकी आत्मीयता और मेरा प्रेम तुम्हारे प्रेम के लिये, शाश्वती मैं सही पात्र नहीं था''
''ये आप को नहीं निश्चित करना था सर।''
 ''चलो अब नई शुरूआत करो, भाग्य अगर चाहता तो हमें सही समय पर पैदा करता, तुम्हें पहले या मुझे बाद में...''

मैं ने कुछ ऐसे अन्दाज में कहा कि रोती शाश्वती हँस पडी थी। मैं ने स्नेह से सर पर हाथ फेरा तो वह मेरे आलिंगन में आ गई। उसके नन्हें वक्ष के भीतर हृदय उत्तेजना से धडक़ रहा था कि उस संक्रमण से मैं ग्रस्त होता उससे पहले ही उसे अलग कर, रसोई में पत्नी को चाय के लिये कहने चला गया।

उसकी शादी हो गई वह टोरेन्टो चली गई। उसके बडे और विस्तृत पत्र आते रहे सालों-साल।आज भी आते हैं, पर अब इन्टरनेट के जरिये, जल्दी मगर छोटे-छोटे। शाश्वती अब दो बच्वों की स्नेहिल माँ और अच्छी गृहणी है। अपने पति की अर्धांगिनी और बेहद संतुष्ट। उसके पत्र पति असीम की प्रशंसा से और बच्चों की बातों और ताजा नए पढे उपन्यासों की चर्चा और उसकी साहित्यिक गतिविधियों से भरे होते हैं। उसने वहाँ एक युनिवर्सिटी में हिन्दी की क्लासेज लेना शुरू कर दिया है।एक साहित्यिक संस्था चलाती है।

यहाँ मेरी तरफ भी सब ठीक था। मैं पहले हेड बना, फिर अपनी वरिष्ठता और अच्छी कार्यशैली की वजह से डीन बन गया। कई कृतियाँ प्रकाशित हुईं। अनेक प्रतिष्ठित पुरस्कार झोली में आ गिरे। देश-विदेश गया कला और संस्कृति का प्रतिनिधि बन कर। शाश्वती को लिखना मेरी दिनचर्या में शुमार था। मैं लिखता - अब विश्वविद्यालयों में अच्छा माहौल नहीं रह गया है, राजनीति की जडें, ज़ातिवाद की विष-बेल छात्रों के मासूम दिलों तक फैल गई है। सार्थक माहौल न होने के कारण लेखन पर असर पडने लगा है। एक विचित्र बात यह भी देख रहा हूँ कि लेखक-मित्रों के स्वभाव और आचरण में अजीब सी तब्दीली आ गई है। अरसे तक न कोई मिलने बात करने की इच्छा, न पत्र व्यवहार। अकसर मेरे दो दो तीन तीन पत्र अनुत्तरित रह जाते हैं। साहित्यिक संस्थाएं, अकादमियाँ चरमरा कर गिरने को हैं। पहले जैसी बात-बात पर सार्थक गोष्ठियाँ अब अतीत बन गई हैं। गतिविधियाँ ठप्प हैं, शिक्षण संस्थानों में अजीब सी पस्ती का माहौल है। यह अवस्था मुझे चिन्ता में डालती है।

उसका उत्साह भरा पत्र आता कि - हमारी संस्था हर वर्ष हिन्दी के किसी श्रेष्ठ उपन्यासकार का चयन करेगी। नवोदित कहानीकार, स्त्री लेखन और आप्रवासी हिन्दी लेखकों के प्रोत्साहन के लिये भी हम पुरस्कार रखेंगे। क्या आप निर्णायक मण्डल में सम्मिलित होंगे? मुझे अब आपकी सही मायनों में सहायता की जरूरत है। मैं उत्साहित था कि चलो अभी प्रयास और उत्साह की एक कोंपल जीवित है, इसे पोषण दूँ। मैं उसके प्रोजेक्ट पर काम करने लगा। इन्टरनेट कनेक्शन ले लिया। उसके सतत सम्पर्क में रहता।

अनायास ही एक दिन पत्नी को शाश्वती की एक पुरानी रूमानी कविता भूले - भटके मेरी किसी फाईल में मिल गई। उम्र के पाँचवे दशक और तीसरे पडाव पर उसकी आँखों में जो शंका, क्रोध और पीडा देखी, वह मेरे लिये अपरिचत थी। जब जवानी में इतनी लडक़ियाँ आकर मेरे अण्डर पी एच डी कर गईं कभी उसने शक नहीं किया, न कभी मेरे और स्टूडेन्ट्स के आस-पास कोई चौकीदारी की, एक अनकहे विश्वास और आश्वासन का मूक लेनदेन हमारे बीच था। कमपढे होने, ग्रामीण परिवेश से होने का अहसास मैं ने उसे कभी नहीं दिलाया। बल्कि मैं शुरू में तो मैं उसे सरल उपन्यास पढने को देता, कविताएं पढवाता, उसे दसवीं का इम्तहान देने को भी प्रोत्साहित किया, पर उसका मन घर संभालने, मेरे और बच्चों के लिये बढिया स्वेटर बुनने में लगता। मैं आज भी उसके हाथ के बने स्वेटर पहन लेता हूँ, जबकि बच्चों ने कबका पहनना छोड दिया है, यह कह कर कि आजकल कौन घर के बने स्वेटर पहनता है। मेरा उसके प्रति प्रेम एकनिष्ठ रहा है, उस बावली ने कभी समझा तक नहीं कि मैं उससे कितना प्रेम करता रहा, कि कभी भी साथ के प्रोफेसर्स की पढी लिखी आधुनिक पत्नियों के बीच न स्वयं कोई हीन भावना पाली, न उसे पालने दी। खूब सबके घर आर्ताजाता रहा उसे लेकर कि कभी इसे यह न लगे कि मुझे कोई ग्रंथि है उसके कम पढे होने की। सच कहूँ तो मेरी खुद की मिडल क्लास मानसिकता और खूब बडे घर-परिवार का व्यक्ति होने के नाते मंजुला ही मेरे लिये उपयुक्त और सर्वश्रेष्ठ सहचरी थी। आज उसकी वह अच्छाइयाँ, संदेहग्रस्त हो गईं हैं।

उस दिन सुबह-सुबह लॉन में मेरे सामने टेबल पर उसने वही पन्ना पटक दिया।

तुम न होते तो,
मैं अपने उर्वर मन की थाह कैसे पाती? - शाश्वती

मैं चौंक गया, अपने सारे उसकी कविताओं के ओएसिस तो मैं ने ऑफिस की सेफ में रखे थे। यह एक टूटे मोरपंख सा यहाँ कैसे छूट गया?

'' कितने सालों से यह सब चला रहे थे आप? मेरे आँख पे गृहस्थी की पट्टी बाँध, मेरे भरोसे का यही फल दिया आपने।''  फिर उसने कुछ सुना ही नहीं।
''मैं कमपढी हूँ ना'' रोने लगी, बस यही आहत कर गया मुझे। मेरे सारे आश्वासन, प्रयास अपर्याप्त साबित हुए?
 अब भी आप उसके चक्करों में हो जानती हूँ।
 बुलालो, रोहिणी और दामाद को, कौस्तुभ और बहू को, मैं अब आपसे उनके सामने ही बात करूँगी।

बच्चों के बीच अदालत लगना और इस निजी प्रसंग का उठाना, मुझे तोड रहा है। और यह समय में एक अन्दर तक कचोटती बेचैनी के साथ बिता रहा हूँ। उनकी आँखों के वे आशंकाओं से उपजे प्रश्नवह भी उम्र के इस तीसरे पडाव पर।

कितनी अजीब बात है कि जब मैं शाश्वती के साथ अपनी और उसकी रचनात्मकता के प्रति थोडा संजीदा हुआ, कुछ अच्छा काम करने के आसार बनने लगे और एक सच्चे मित्र और आत्मीय के रूप में जब संवाद कायम रखने और एक दूसरे को सहयोग देने की आवश्यकता हुई तो हालात मुँह फेर कर खडे हो गए। पर मैं पत्नी का मन नहीं दुखाना चाहता वह भी इस उमर में।

आज सुबह की डाक से आया मेरे पास शाश्वती का निमंत्रण रखा है, पुरस्कार समारोह का। वीजा, टिकट के लिये वह जोड-तोड क़र रही है। मैं नहीं जानता कि मैं जाऊंगा कि नहींपर अपने जीने की ऊर्जा को शाश्वती के संवादों-पत्रों के जरिये बनाए रखूंगा। यह तो तय रहा।

मनीषा कुलश्रेष्ठ

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