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सम्प्रेषण ''हाय
कविता'' बस यहीं से हुई थी शुरुआत एक सम्प्रेषण की। तब चाहे इन्टरनेट पर हमने अपने सही नाम छुपा लिये हों...पर जब ये सिलसिला रोज पर आया तो हमने अच्छे मित्रों की तरह अपने जीवन खोल कर रख दिये। वह विवाहिता थी, एक नर्सरी में पढते नन्हे बच्चे कौस्तुभ की मम्मी और एक व्यस्त और सफल डॉक्टर की गर्विता पत्नी। मैं ने भी उसे जल्दी ही बता दिया था कि मैं एक विधुर हूँ और दो टीन एजर बच्चों का पिता हूँ। हम कई-कई विषयों पर बात करते संगीत, कला, साहित्य, आध्यात्म, राजनीति, प्रेम, दाम्पत्य..अपराध, बच्चों का पालन-पोषण और अपनी जिन्दगी के सुखों, दुखों हार और जीत पर। हम मुकम्मिल समय पर इन्टरनेट पर मिलते और दो घण्टे जरूर चैट करते। दिल्ली और बोस्टन की घडियों का अन्तर भी हमें रोक न पाती। मैं यहाँ बोस्टन में बैठा ऑफिस से लौटकर उसके जागने का बेसब्री से इंतजार करता वह जागती, पति और कौस्तुभ का नाश्ता बनाती उन्हें स्कूल, नर्सिंगहोम रवाना करती और तब इन्टरनेट पर आ पाती, तब हम चैट करते । जब मैं बेसुध लॉग की तरह पडा सो रहा होता तब वह ईमेल करती और जब सुबह मैं उठता, उसे पाकर मैं इन्टरनेट पर आ जाता, तब वहाँ वह खाली बैठी होती थी, मुझे अपने बच्चों को उठाना होता और स्वयं ऑफिस जाने के लिये तैयार होना होता था। हम बस ऐसे ही वक्त को वक्त से चुराते रहते। हम खूब फालतू बातें करते - ''मुझे
बारिश पसंद है।'' कुछेक चीजों को छोड क़र हम बहुत कुछ मिलते-जुलते से थे। दोनों ही दिल, जिन्दगी को दिल से ज्यादा तोलते, दिमाग से कम। कला के प्रति दोनों का रुझान। मैं वायलिन बजाता हूँ फुरसत में, उसने शास्त्रीय संगीत सीखा है। दोनों ही को अवसर नहीं मिल सके कला में प्रतिष्ठित होने के। दोनों के पास अच्छे मित्र की कमी थी। दोनों ही बहुत अर्न्तमुखी से थे लोगों के बीच और अकेले में अपने आपसे बहुत मुखर। दिवास्वप्न देखना दोनों की आदत में शुमार था। ''इस
इन्टरनेट ने हमें एक बहुत कीमती,
अनाम रिश्ता दिया
है।'' कभी कभी बहस करते और नाराज हो जाते, फिर मनाते। बहुत मिन्नतों के बाद उसने एक फोटोग्रार्फ ईमेल करके भेजा, अपनी भारतीयता की रची-बसी छबि में, हल्दी के रंग की लाल बॉर्डर वाली साडी में, लम्बी चोटी आगे किये हुए केन के झूले में बैठे हुए। तब पहली बार मैंने उसे कहा था - ''कवि
तुम बहुत जवान और आकर्षक हो। मैं तो पैंतालीस साला एक प्रौढ हूँ ।'' तब मैं ने खिडक़ी से भारी पर्दा हटा बाहर झाँका था। बसन्त के की प्रतीक्षा में पेड नये लाल लाल पत्तों से भर गए थे। सुबह के पाँच बजे थे। सुबह की इस लालिमा में मुझे कविता की परछांई दिखाई दी और अचानक मैं टाईप कर गया - ''और
दोस्ती आगे निकल आकर्षण या ऐसा ही कुछ अलग रिश्ता बन जाए तो!'' वह दो दिन लगातार इन्टरनेट पर नहीं आई। मैं परेशान कि मैं ने उसकी भावनाओं से खिलवाड क़िया है, मुझे ऐसा नहीं करना चाहिये था। उसने विश्वास कर मुझसे मित्रता की थी, साफ सुथरी सी। तीसरे दिन वह वहां थी। ''कवि'' और इन्टरनेट पर ही प्रेम ने भक से आग पकड ली। कविता के पति के किसी मेडिकल सेमिनार में जापान चले जाने पर कुछ दिन ये आग धधक कर जली। तन-मन के विकार जल गए, शुध्द प्रेम सामने आया। वह कैसे यह मैं ही जानता हूँ। तब हम प्रेम के ज्वार में लगातार बहते- उबरते। ''कवि
तुम्हारे सादगी भरे सौन्दर्य ने पागल कर दिया है।'' अकसर ये होता कि मुझे ऑफिस जाना होता और वह लिखती - ''बाहर
चाँदनी रात में चमेली महक रही है,
वही गंध मेरी देह
में बस गई है। तुम यहाँ होते तो हम लॉन में संगमरमर की बैंच पर बैठ
बतियाते। तुम्हारी बाँहें मुझे घेरे होतीं। मैं बहक रही हूँ उत्कर्ष!'' पर वह मिलती।और जब वह सुबह छ: बजे कौस्तुभ को स्कूल भेजने के चक्कर में ऑफलाईन जाने को कहती तो मैं रोकता। ''रुक
जाओ नदेखो दिल कितना शोर मचाता हुआ धडक़ रहा है।'' हमें एकदूसरे के बच्चों के नाम, स्कूल, क्लास सब याद हो गए थे। मेरे बच्चे बदलाव महसूस कर रहे थे। पन्द्रह साल की निकिता कह ही बैठी - ''डैड, वाय डोन्ट यू रीमैरी!'' और अकस्मात मेरे आगे भीगे बालों की लम्बी चोटी गूथती, पीले रंग की साडी पहने कविता का चित्र सजीव हो गया। जब मन में प्रेम आकार लेने लगा तो भारत जाने के संयोग भी बैठ गए। जब मैंने बच्चों को बताया तो वे बहुत खुश हुए थे। अब तो मैं रात भर उसे बाँहों में पाता। उसकी बातें मुझे बेचैन करतीं। मैं करवटें बदलता, कल्पनाओं में उसे अपना पाता। न जाने क्यों दिल हकीकत की ओर देखना ही नहीं चाहता। इस ढलती उमर और मेरा यह बदलाव खुद मुझे हैरान करता। मन मानता ही नहीं कि वह विवाहिता कैसे मुझे अपना सकती है? उससे अकेले मिलना संभव होगा? मन कहता प्रेम है तो वह आउट ऑफ द वे जाकर मुझसे मिलेगी। मैं ने उसे फोन किया और उसने मेरे प्रस्ताव को स्वीकार भी किया कि वह मुझसे मिलेगी, एक बार तो मिलेगी ही। उसने मेरी मित्रता के बारे में डॉक्टर साहब को भी बताया है, और उन्होंने इस मित्रता को उदारता से स्वीकार किया है। मन विपरीत भावों से भरा था। बहुत सा असमंजस उस पर मिलने की उत्सुकता! कभी लगता कि मैं विधुर हूँ इसीलिये युवा स्त्री के शरीर की कामना में मरा जा रहा हूँ, दूसरे पल लगता, नहीं यह विशुध्द प्रेम है। उसकी चन्दन से बदन की कल्पना में मन धडक़ते-धडक़ते धक्क! से रह जाता। वह दिन भी आगया। हम सभी ने अपने बैग्स बडे उत्साह से जमाए। बच्चों ने अपने कजिन्स के लिये ढेरों उपहार खरीदे। मैं ने भी चुपचाप से प्लैटीनम में जडा नन्हे नन्हे हीरों और रूबी का एक तितली के आकार का नन्हा सा पैण्डेन्ट मखमली डिबिया में रख छुपा लिया। प्लेन में भी बच्चे उत्साह में बातें करते, किताबें पढते रहे, मैं अपनी चंचला प्रेमिका की कल्पनाओं में खोया रहा, कैसी होगी वास्तव में वह, कैसी होगी उसकी प्रतिक्रिया! कैसा होगा पहला स्पर्श? जब वक्त न बीतता प्रतीत होकर भी न जाने कब बीत गया। बच्चों को मुम्बई उनके ननिहाल छोड, अगले दिन सुबह की ही फ्लाइट से मैं दिल्ली पहुँचा। जब मैं ने उसे पहली बार उसके घर के ड्रॉईंग रूम में उसे देखा तो, मेरी कल्पना की वह मूर्ति वैसी ही थी जैसा उसे होना था, वही दमकता रंग, आकर्षक रूप। पर इस मासूम आकृति में मेरी चंचला, बाँहें फैलाए आमन्त्रित करती प्रेयसी कहाँ थी? कौस्तुभ उसका दुपट्टा पकडे ख़डा था, वह एक ममतामयी माँ थी। डॉक्टर साहब बडी विनम्रता से मिले, उनके पास बैठी वह एक सौम्य पत्नी थी। ''अनुपमा के मित्र मेरे ही मेरे मित्र होते हैं नरेश जी, मुझे तो मित्र बनाने का समय ही नहीं मिलता। सारे सोशल ऑब्लीगेशन्स यही निभातीं हैं।'' जिस्म का ताप सामान्य हो चला था। मैं सहज होकर उनसे मिला, अपने आत्मीयों की तरह। एक अच्छे मेजबान की तरह उन्होंने मेरे लिये आरामदेह आतिथ्य का शिष्ट इन्तजाम किया था। अगली सुबह मैं जब उठा तो वह लॉन में पानी दे रही थी। दूधिया कुर्ते-चूडीदार और दुपट्टे में उसका पवित्र रूप मुझमें शीतलता भर गया। मुझे देख वह पाईप छोड क़र करीब आ गई। ''
गुडमॉर्निंग।''
उसकी आखों में एक संकोच झलका। क्यारियों में ढेरों गुलाब खिले थे। वही संगमरमर की बैन्च! हमने साथ बैठ कर चाय पी। आश्चर्यजनक रूप से मेंरा हृदय सात समुन्दर पार जिसके सान्निध्यमात्र की कल्पना से धडक़ जाता था, वही यहाँ एकदम उसके सामने, इसी संगमरमरी बैन्च पर बैठ कर भी शान्त था। सहज और प्राकृतिक संकोच से उसकी पलकें भारी थीं। कोई बनावट नहीं। हम बहुत औपचारिक बातें करते रहे। ''
दिल्ली का प्रदूषण तो
जानलेवा है।'' हम साथ खुलकर हंसे। मैं ने वह मखमली डिबिया उसे देना चाही तो अगले ही पल उसने पंख समेटती हंसिनी की तरह अपनी हंसी समेट ली। ''
बस एक प्रेममय दोस्ती का
उपहार है बस,
स्वीकार कर लोगी तो अच्छा
लगेगा। शेष सब कुछ बहुत सुखद था। पर वह आग ठण्डी हो चली थी। वो बाँहें उठी ही नहीं जिन्होने उसकी कल्पना में कई बार तकिये को भींचा था। धूप निकल आई थी हम अन्दर आ गए। वही गजलें चल रही थीं, जिनके शेर हम एक-दूसरे को लिखते थे। अब वह एकदम पास थी समर्पिता सी, होंठ भी लरज रहे थे, दुपट्टा भी सरक आया था, नन्हा धडक़ता हृदय वक्षों में कम्पन भर रहा था। पलकें भी उठ-उठ कर गिर रही थीं। उसकी भीगी सी देह में से फूटती गंध भी ताज़ा खिली चमेली सी मधुर थी। पर आज मेरे लिये यह गंध अंदर कहीं पूजा घर में से आती धूप बत्ती की पावन गंध में घुल पवित्र हो गई थी। वह स्वयं एक जलती देवज्योति सी मेरे सामने थी कैसे हाथ बढा कर उसे अपवित्र कर देता? मैंने उसे हृदय से लगाया जरूर पर वैसे जैसे आरती के दिये से आरती लेते हैं ठीक वैसे ही भाव से, उसके मस्तक पर चूम कर, उसका खिसक आया दुपट्टा उसके थरथराते वक्ष पर डाल दियाउसे हतप्रभ छोड क़र कहा - '' अनुपमा, ब्रेकफास्ट नहीं कराओगी? छोले-भटूरों की खुश्बू आ रही थी रसोई से ।'' वह सम्मोहन से जागी हो मानो - '' ओह सॉरी! अभी मंगवाती हूँ।'' दोपहर डॉक्टर साहब याने
अनुराग के आने पर हमने और भी अच्छे पल बिताए।
वे बेहद
जिन्दादिल व्यक्ति लगे। लम्बे चुप के बाद वही बोली - ''
नरेश,
जब आप आ रहे थे तब
बडी दुविधा में थी किकैसे मैं आपको मिलूंगीआप न जाने किस उम्मीद से आ रहे
होंगे। पर आपने।'' उसने मेरे हाथों को अपने हाथों में भर लिया और न जाने कितनी देर हम वैसे ही खडे रहते अगर मेरी फ्लाईट का एनाउंसमेन्ट न हुआ होता। ''और
वह भावनाओं –
बातों एक से लोगों की एक सी बातों का सम्प्रेषण? ''
- मनीषा कुलश्रेष्ठ
इन्द्रनेट पर हलचल
- सुब्रा नारायण |
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