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कर भला होगा भला रेलवे स्टेशन जकर ज्ञात हुआ महानगरी एक्सप्रेस अपने निर्धारित समय से दो घंटे लेट है। ''
मैने तो फोन कर इन्क्वाइरी
से पता कर लिया था महानगरी दो घंटे लेट है पर आप माने ही नहीं बाबूजी।
इतनी जल्दी चले आये।''
बडा पुत्र एकनाथ उकताया हुआ
है। ग्रीय्मावकाश में आई अम्मा की पुत्री अम्बुज अपने दो बच्चों यशा और संयोग को लेकर अपने पति के पास लौट रही थी। अम्मा स्नेहवश सामानों की गिनती बढाती गई है। ''
ट्रेन में इतना सामान चढाना
मुश्किल होगा। आज कल की भीड देख रही हो। यशा और टोबू साइकिल बेकार ले जा
रहे है फिर कभी भेज देते।''
छोटा पुत्र तिलक
बोला।। स्टेशन पर उफनाती बिलबिलाती उन्मादी भीड। बाबूजी चारों ओर मुण्डी घुमाकर खुफिया दृष्टि से प्लेटफॉर्म पर बिछी भीड क़ो निहार रहे है। भीड वैसे ही प्लेटफॉर्म में समा नहीं रही है जैसे पतीले में उफनता हुआ दूध। बाबूजी को सभी चेहरे शातिर चोर दिख रहे है। वे बार बार अम्बुज को समझा रहे है कि उसे कितने सर्तकता से स्फर करना है - '' देख बिटिया, तू रात में सोना मत। द्यौसे तो तिलक भी जा रहा है पर इसका जाना न जाना बेकार है। ट्रेन चली कि ये सोया। ऐसी कुंभकरणी नींद है कि पूछो मत।'' पति की निंदा सुनकर तिलक की पत्नी सोनी ने बुरा सा मुंह बनाया। '' आप चिन्ता मत करो बाबूजी। बस ट्रेन में जगह मिल जाए बाकी मैं संभाल लूंगी पर मुझे नहीं लगता कि जगह मिलेगी। भीड देखिये न।'' अम्बुज चिन्तित है। कल रात फोन आया था कि उसके पति को कई दिनों से ज्वर आ रहा है और उसे तुरन्त बुलाया है। बहुत भाग दौड क़े बाद भी आरक्षण नहीं मिल पाया। '' सब हो जायेगा। इस भीड में जाने वाले कम होगें और इन जाने वालों को विदा करने वाले अधिक होगें। चले आते है भीड बढाने।'' बाबूजी कह ऐसे रहे थे जैसे स्वयं अकेले आये हो। अन्बुज को स्टेशन पहुंचाने पूरा कुनबा न आये तो बाबूजी को गौरव अनुभव नहीं होता। अम्मा रिसा जाती है कि किसी को लडक़ी से प्रेम नहीं है। बडी बहू स्नेह व उसकी तीन लडक़ियां, मंझली बहू रमा व उसके दो बच्चे बबली और बालू, छोटी बहू सोनी व उसके तीन बच्चे ओम देव व साल भर का राजू। अम्बुज को विदा करने इतने लोग आये है। लाये गये है कहना अधिक उपयुक्त्त होगा। एकनाथ आरक्षण मिलने की आशा में निरंतर टी सी के पीछे भाग रहा था। बात बनती नहीं दिखती थी। बाबूजी ने देश को कोसा - ''
मुझे लगता है पूरे देश को
आज ही यात्रा करनी है।'' इधर ठेले पर इडली डोसा समोसा नमकीन चिप्स फुल्की सजाए रेहडी वाले आ-जा रहे है। बच्चे चिल्लाने लगे अंकल चिप्स लेंगे। बाबूजी को स्टेशन से सामान खरीदना पसंद नहीं है पर बाल हठ विवश किये देता है। चार पैकेट अंकल चिप्स खरीदे गए। बच्चे पैकेट शेयर करने को तैयार नहीं हो रहे थे। सबको एक एक पैकेट दिला कर समस्या का निदान ढूंढा गया। अम्मा गुस्सा गइ - ''दिन भर खाते है फिर भी इनका पेट नहीं भरता है। सौ रुपये स्वाहा हो गए।'' बच्चे खाने में तल्लीन है। अम्मा की डांट से बेअसर। सभी बच्चों की माताओं ने स्वीकार किया कि ऐसे नालायक बच्चे कहीं ले जाने लायक नहीं है। तिलक वेटिंग रूम से लौट आया
-'' वहां
तो पैर रखने की जगह नहीं है।'' एक मुसीबत और। सब किसी तरह चिप्स खाते बच्चों को हांकते सामान लादे निर्दिष्ट स्थान पर पहुंचे। चिप्स खाकर बच्चों को प्यास लगी और घर से लाया गया पानी स्टेशन पर ही समाप्त हो गया। अम्मा ने कपाल थामा ''
इन लोगो की भूख प्यास हद्
हो गई।'' ओंकार खाली डिब्बा लिए चला तो बबली और बालू साथ लग गये। पीछे पीछे ओम और देव भी। स्नेह की लडक़ियां जुडवा और विरासत फिल्म के पोस्टर को मुग्ध भाव से निहार रही है और सलमान और अनिल कपूर की चर्चा कर रही है। इधर बाबूजी ने बहुओं को घुड़क़ा - '' खडी क्या हो? संभालो बच्चों को। यहां बच्चा चोर गिरोह फिरते रहते है।'' सुनकर सोनी और रमा चिन्तित भावों से पंजो पर उचक उचक कर बच्चों को देखने लगी। बच्चे भडि में कहीं लोप हो चुके थे। भीड ज़ैसे नरमुण्डों का रेला आ जा रहा है। जाने कहां से आते है इतने लोग। जैसे आने जाने के अतिरिक्त इन्हे कोई काम नहीं है। जहां तक दृष्टि जाए शीश तैरते दिख जाते है। सब किसी धुन में है। उन्माद में है। रेहडी वालों के विभिन्न स्वर कनपटी फोडे ड़ालते है। पानी भर कर लौटे ओंकार के पीछे चारो बच्चों का जुलूस सकुशल लौट आया। रमा ने चेतावनी दी,'' चलो सब चुपचाप यहां खडे हो जाओ वरना घर भेज देंगे।'' बच्चों ने कुछ देर आज्ञाकारी भाव दिखाया पर उसकी चंचल प्रकृति उन्हे थिर नहीं रहने दे रही थी। एकनाथ फिर टी सी के चक्कर काटने चल दिया। एक ही जगह बिन किसी काम के खडे रहना उसकी प्रवृत्ति में नहीं है। तिलक ऊब रहा है। बुक स्टाल से जाकर इंडिया टुडे ओर यशा और संयोग के लिए कॉमिक्स खरीद लाया। इंडिया टुडे बाबूजी ने झपट ली। कुछ देर पंखे की भांति प्रयोग करते रहे फिर एक बोरी पर बैठकर उलटने पलटने लगे। कॉमिक्स को बच्चे ललचाई नजरों से देख रहे है और छीन झपट रहे है। स्नेह ने खीझकर अपनी मंझली बेटी शुभी को एक लप्पड मार दिया। स्नेह उद्विग्न है। उसे अच्छा नहीं लगता कि बच्चों को अनावश्यक रूप से स्टेशन लेकर आया जाए। वह बच्चों को लेकर घर पर रुकना चाहती थी। अम्मा ने सुना दिया था - '' स्टेशन तक जाते हुए पांव घिसते है तो मत जाओ। साल भर में बच्ची बेचारी आती है फिर भी तुम्हे खटकती है।'' और अब बच्चे आफत किए हुए है। शुभी को फ्राक से आंसू पोछते देख अम्बुज पसीजी। जाने के क्षण भावुक होते है। '' क्या भाभी मार दिया बच्ची को। चलों मैं सबको कॉमिक्स दिलाती हूं।'' बाबूजी रोकते रहे इस अपव्यय के लिए पर अम्बुज सबको एक एक कॉमिक्स दिला लाई। अम्मा की भौंहे कपाल पर टंग गई। ''
बच्चों को लाओ तो ऐसा ही
होता है। खर्च पर खर्च हुआ जाता है।
'' किसी ट्रेन के आनेकी घंटी हो चुकी है। एनाउन्समेन्ट में नारी स्वर उभरा - '' यात्री कृपया ध्यान दे जबलपुर से चलकर निजामुद्दीन जाने वाली महाकौशल एक्सप्रेस प्लेटफॉर्म नम्बर एक पर आ रही है।'' बाबूजी ने मुंह पर उंगली रखकर सबको चुप रहने का संकेत किया और एनाउन्समेन्ट सुनकर बोले - ''
लो महाकौशल इतनी लेट आ रही
है। इसे तो चार घंटे पहले आ जाना चाहिए। महानगरी पता नहीं कब आयेगी।
मालूम होता है आज सब ट्रेन लेट चल रही है।'' महाकौशल प्लेटफॉर्म से आ लगी। ट्रेन में बहुत भीड है। जनरल बोगियों में यात्री बर्र के छत्ते की भांति गुंथे हुये है। द्वार पर डण्डा पकडे ख़डे बैठे लटके लोग। अम्बुज ने असहाय दृष्टि बाबूजी पर डाली।'' यहीं भीड महाानगरी में होगी तो कैसे चढाेगी दीदी?'' सोनी पूछ रही है। अम्बुज चुप रही। शायद सुन नहीं सकी। प्लेटफॉर्म में होती चहल पहल ने झटका सा खाया। रेहडी वालों के स्वर तेज हो गए। लोग उन्मादियों के उन्मान भाग रहे थे। अपेक्षित डिब्बे ढूंढ रहे है। एक सज्जन विदेश जा रहे है। दिल्ली से फ्लाइट है। इन्हे विदा करने कई लोग आये है। गेंदे की मालाएं और कैमरे के फ्लैश। विदा होते सज्जन अपनी सामर्थ्य भर हंसी और मुस्कान बांट रहे है। उधर कोई किसी की जेब काट कर भागा है और भीड क़ी एक टुकडी ज़ेबकतरे के पीछे लगी है। बाबूजी ने बहुओं को डपटा - '' मुंह फाडे न खडी रहो अपने गहने संभालो। दस बार कहा है कि स्टेशन पर यह सब पहन कर मत आया करों।'' सुनकर तीनों बहुओं ने चैन, बाली, चूडियां टतोलते हुए बुरा सा मुंह बनाया। स्नेह ने कह डाला - '' बाबूजी आप ऐसी हडबडी मचाते है कि गहने उतारने का ध्यान ही नहीं रह पाता है।'' बाबूजी नहीं सुन पाये। उनका ध्यान जेबकतरे पर था। महाकौशल ने शनै: शनै: रेंगते हुए प्लेटफॉर्म छोड दिया। जाने वाले लंद फंद कर चले गए। उन्हे विदा करने आये लोग वापस लौट गए। प्लेटफॉर्म कुछ देर को खाली हुआ और कुछ देर में फिर से उतना ही भर गया। सोनी छोटे बच्चे राजू को हलराते दुलराते हुये थक गई तो वहीं फर्श पर फसक्का मार कर बैठ गई और जोर से थपकते हुए उसे सुलाने का प्रयत्न करने लगी। अम्मा ने निंदा की - ''
बैठ गई फरस पर। सिलिक की
साडी बर्बाद कर दी। और सोनी कुत्ता भी बैठता है तो पूछ फटकार कर जगह साफ
कर लेता है।'' कुछ देर में एनाउन्समेन्ट हुआ। बाबूजी ने तर्जनी अथरों पर रखकर सब को चुप रहने का संकेत किया। ''यात्री ध्यान दें, मुम्बई की ओर जाने वाली महानगरी एक्सप्रेस प्लेटफॉर्म नम्बर दो पर आ रही है'' सूचना से प्लेटफॉर्म पर घबराहट और उतावली का झोंका स आया। ''लो इतनी देर बाद महानगरी आ रही है तो उस प्लेटफॉर्म पर।'' बाबूजी ठिठके से खडे रहे जैसे सूचना का सत्यापन करना चह रहे हो। ओंकार इधर-उधर जाकर कुली को ढूंढने लगा। कुली एनाउन्समेन्ट सुनकर स्वयं ही आ गया। और विद्युत की त्वरा से उसने चार सामान लाद लिए। अफरा तफरी मची है। लोग हडबडाये हुए दूसरे प्लेटफॉर्म की ओर भागे जा रहे है। बाबूजी तेजी दिखाते हुए कुली के पीछे लग गए कि वह सामान लेकर गायब न हो जाए। बच्चों को हांकते घसीटते सामान उठाये ये विशाल कुटुम्ब किसी तरह प्लेटफॉर्म दो पर पहुंचा। सामान गिना जाता, एकनाथ अनुमान लगाता अपेक्षित डिब्बा कहा आकर ठहरेगा इसके पहले धडधडाती हुई ट्रेन प्लेटफॉर्म से आ लगी। उन्मादी भीड उफना रही है। अम्मा निरंतर चीख रही है - '' बच्चों का हाथ कस कर पकडो कोई गुम गया तो इस भीड में नहीं मिलेगा।'' अम्मा की चीख भीड
और
शोर में खो गई।
एकनाथ डिब्बे के
पीछे दौडा।
पीछे पीछे कुली और ओंकार
और तिलक।
सब सामान से लदे फंदे है।
डिब्बे में बहुत
भीड है।
द्वार पर लटके लोग जैसे
प्रवेश निषेध की घोषणा कर रहे है। ''
जब उतरने की जगह नहीं दोंगे
तो चढने की जगह कैसे मिलेगी?'' तिलक द्वार पर झूलती भीड क़ो देखकर बौखलाया हुआ था। बाबूजी उसे घूर कर रह गए क्योंकि उनकी दृष्टि डिब्बे में लोप हो गए कुली को ढूंढ रही थी। उतरने व चढने वालो में प्रतिद्वन्द्विता सी हो रही है। धक्का मुक्का झपटा खींच तान चीखना चिल्लाना चल रहा है। एक वृध्द जे मोटा कुरता और परदनी पहने है कंधे पर लटकाने वाला खादी का झोला टांगे है ट्रेन में चढने का बहुत प्रयास कर रहा है और संघाती धक्कों और कोंचती कोहनियों के जोर से चढ नहीं पा रहा है। वृध्द उस उन्मादी भीड में तैरता हुआ सा डिब्बे के द्वार तक पहुंचता और फिर दूर छिटक जाता है। जैसे कागज की असहाय नाव लहरों के थपेडों से इधर उधर डगमगा रही हो। एक बार वह चढ ज़ाता पर एकनाथ ने उसे कंधे से पकड क़र पीछे खींच लिया और अम्बुज को लगभग घसीट कर कूपे में ढकेल दिया। वृध्द करुण स्वर में बोला
'' मुझे भी
चढने दो बेटा।
बहुत जरूरी काम
से जा रहा हूं।'' अम्बुज ने फेंटा कस लिया और दोनो हाथ हिला हिलाकर बाकी बचे सामान और यश के लिए चिल्ला रही है। लोग जब व्यक्ति से भीड क़ी शक्ल में बदलते है तो सारे संस्कार शालीनता धैर्य संयम नम्रता सभ्यता सदाशयता खो देते है। भीड क़ी शक्ल में स्वयं को पहचाने जाने का भय नहीं होता। वृध्द ट्रेन में चढने के लिए भीड से जूझने में सारी क्षमता और ऊर्जा व्यय कर चुका तो भीड से निकलकर एक ओर पराजित सा खडा हो गया। कदाचित उस असंभव क्षण की प्रतीक्षा में जब भीड छंटेगी और वह डिब्बे में चढ सकेगा। बाबूजी डिब्बे की गतिविधि पर दृष्टि जमाये हुए बोले - ''
महोदय,
ये आपके अकेले स्फर
करने की उम्र नहीं है। कम से कम अकेले तो सफर न किया करें। मुझे नहीं
लगता आप ट्रेन में चढ पायेंगे।
'' उधर यशा को ओंकार ने किसी तरह डिब्बे में फेंक दिया। उसके भाल के दायीं ओर किसी संदूक का नुकीला कोना लग गया और गूमड निकल आया। ट्रेन धक्का खा कर रेंगने लगी। कुछ साहसी पराकमी लोग डंडा पकडक़र ट्रेन के साथ घिसट रहे है। बाबूजी सस्वर गाने लगे - '' प्रबिसि नगर कीजै सब काजा, हृदय राख कौसलपुर राजा।'' यात्रा की सफलता हेतु बाबूजी गोसाई जी की ये चौपाई अवश्य दोहराते है। एकनाथ कूपे में ही रह गया जो बडी क़ठिनाई से कूद पाया। चावल और दाल की बोरी यहीं छूट गई और अम्मा का मुंह फूला हुआ है। जाते हुए बेटी से ठीक से मिल भी नहीं पाई। भीड वापस लौटने लगी प्लेटफॉर्म एक की ओर। भीड मे कही गुम सा लटपटाते बदहवास पैरों से रेंगता हुआ वृध्द भी लौट रहा है। बाबूजी तनिक दयार्द्र हुये। ''
ओंकार तुम लोग उस वृध्द की
सहायता कर सकते थे। बेचारा किसी जरूरी काम से जा रहा था।'' भाबूजी निरुत्तत हो गए। इधर अम्मा सामान की भांति बच्चों को गिन रही थी। एक बार दो बार तीन बार गिना। एक बच्चा कम है। अम्मा के कण्ठ से विकराल चीख निकलर् गई - ''
सुनते हो देव नहीं मिल रहा
है। कहां गया।?'' सभी सदस्यों ने इधर उधर दृष्टि फैलाई। देव सचमुच नहीं दिख रहा था। बाबूजी ने बौखलाहट मे बहुओं को आडे हाथों लिया - '' यहीं करने आई हो तुम लोग। एक बच्चा भी नहीं संभलता है। अब इन लंगूरों को पकडक़र वहां बेंच पर बैठो। हम देखते है।'' सोनी रोने लगी। स्नेह ने भयावह समां खींचतें हुए बता डाला कि खाडी देशों मे बच्चों को बेचकर किस तरह उन्हे घरेलू नौकर बनाया जाता है कि बच्चों के हाथ पैर काट कर उनसे भीख मंगवाई जाती है। सुनकर सोनी का रुदन बढ ग़या और तब स्नेह की समझ में आया कि उसने गलत समय में गलत बात बोल दी है। वह सोनी को सांत्वना देने लगी। बच्चे सिटपिटाये हुए है। अम्बुज जो पैसे दे कर गई है उससे आइसक्रीम खाने की योजना थी इस पापी देव ने सब गडबड क़र दिया। बाबूजी,एकनाथ, ओंकार पूरे प्लेटफॉर्म पर एक छोर से दूसरे छोर तक भागते फिर रहे है। अम्मा दूर झाडियों में झांक आई और रमा दूर तक जा कर पटरी देख आई। देव कहीं नहीं है। ''
ट्रेन में बैठकर तो नहीं
चला गया?''
बाबूजी को जैसे चेत आया। पूरे प्लेटफॉर्म खंगाल डाला। बच्चा नहीं मिला। एकनाथ बोला -''
बाबूजी प्लेटफॉर्म एक पर चलिए।
हो सकता है देव
उथर निकल गया हो।'' बाबूजी,महिलाओं और बच्चों को यहीं छोड पुत्रों के साथ प्लेटफॉर्म एक की ओर लपके। अभी जल्दी कोई ट्रेन नहीं आनी है इसलिए प्लेटफॉर्म कुछ खाली है। एकनाथ और ओंकार प्लेटफॉर्म पर कुशल धावक की तरह दौडते रहे। लोगो से टकराते रहे और दीदे न होने का विशेषण पाते रहे। बाबूजी वेटिंग रूम सुलभ शौचालय स्टॉल झांक आये। देव नहीं मिला। बाबूजी की उत्तेजना और घबराहट बढ रही है। प्लेटफॉर्म निगल गया बच्चे को या किसी गिरोह के हत्थे चढ ग़या। बाबूजी विवशता की मूर्ति बने, आते जाते लोगे से पूछते रहे '' आपने नीली धारीदार शर्ट और सफेद हॉफ पैन्ट पहने पांच-छ: वर्ष के बच्चे को देखा है।'' लोग अनभिज्ञता दिखाते हुए आगे बढ ज़ाते है। जैसे बच्चा खोना कोई चौकाने वाली बात नहीं है। बाबूजी स्पष्ट अनुभव कर रहे है जब लोग सहायता न करें तो मनुष्य भीड में किस तरह अकेला पड ज़ाता है। यदि इतने लोग उनकी सहायता करें तो क्या बच्चा नहीं ढूंढा जा सकेगा। भाई चारा किसी में नहीं रहा। उन्हे एकाएक उस वृध्द की याद हो आई जो ट्रेन में नहीं चढ पाया था। ओह थोडा सा सहयोग दे हम दूसरों के काम साध सकते है पर पता नहीं बेचारा किस काम से जा रहा था। एकनाथ पूछताछ दफ्तर में देव के खोने की सूचना दर्ज करा विमूढ भाव से बाबूजी के पास आकर खडा हो गया। ओंकार बहुत देर तक पुलिस के दो सिपाहियों के साथ उलझा रहा और फिर बाबूजी के पास आकर पुलिस, प्रशासन, कानून व्यवस्था को गालियां देने लगा। बाबूजी सुर में सुर मिला रहे है - '' पुलिस ऐसी निकम्मी न होती तो आज ये अव्यवस्था और अराजकता न फैलती।'' समय गुजरता ज रहा है और देव के न मिलने की आशंका बढती जा रही है। सहसा एनाउन्समेन्ट हुआ। बाबूजी ध्यान से सुनने लगे - '' पांच छ: वर्ष का बालक जो नीली धारीदार शर्ट और सफेद हॉफ पैण्ट पहना है अपने पिता का नाम तिलक गोस्वामी बताता है इन्क्वायरी दफ्तर में है। शीघ्र संपर्क करें।'' बाबूजी को जैसे चेत आया। उन्होने एकनाथ और ओंकार को समेटा और इन्क्वायरी कार्यालय की ओर लपके। इन्क्वायरी दफ्तर का दृश्य करुण था। देव इतना अधिक रो चुका था कि हिचकियां उसके कण्ठ में समा नहीं रही थी। बाबूजी को देखकर वह उनकी गोद में चढ उनसे जोंक की तरह चिपक गया। उनके कंधे में मुंह गडा लिया और पुचकारने पर भी मुंह ऊपर नहीं उठाया। वह बहुत डरा हुआ था और हिचकने सिसकने से उसकी देह में हिलोंर सी उठ रही थी। एकनाथ और ओंकार बाबूजी के साथ दफ्तर के क्लर्क के पास खडे वृध्द को चकित नेत्रों से देख रहे है। ये तो वहीं वृध्द है जे ट्रेन में चढना चह रहा था और जिसे एकनाथ धक्का दे कर पीछे धकेल दिया था। क्लर्क बोल - '' अजीब लापरवाह लोग है आप लोग। बच्चे संभाले नहीं जाते तो स्टेशन क्यों लाते है? ये बाबा बच्चे को न बचाते तो पता नहीं कहां पहुंच चुका होता।'' दिन भर लोगो से उमझते जूझते क्लर्क का स्वर वैसे ही तल्ख और बेसुरा हो चुका है और इस समय तो उसके कहने के ढग़ से साफ दिख रहा है कि वह इन्ही जैसे लोगो को अव्यवस्था फैलाने का जिम्मेदार समझता है। सुनकर एकनाथ बिल्कुल पानी पानी हो गया। ओंकार इस तरह मुंह फाडे ख़डा था जैसे उसे कुछ समझ नहीं आ रहा हो। बाबूजी कुछ देर शब्द तलाशते भौचक खडे रहे। जैसे अभी भी हादसे से उबर नहीं पा रहे हों। बडी मुश्किल से मुंह से बोल फूटा - ''
आज तो आप हमारे लिए देवदूत
बन गए। किस तरह आपका धन्यवाद करूं?'' वृध्द मुख की सलवटें भीतर की सरलता को रोकने के प्रयास में और सिकुड आई। भाबूजी,एकनाथ, ओंकार सकते में आ गये। झैसे सही मायने में देव अब गुमा है। कितना बडा अन्याय किया है ईश्वर ने इस बुढापे में। पता नहीं किस तूफान से गुजर रहा होगा यह वृध्द फिर भी दूसरो का भला करना नहीं भूला। '' ओह बहुत दु:ख हुआ सुनकर।'' भाबूजी के कण्ठ से घुटी घटी सी संवेदना फूटी। वृध्द चुप है भीतर के तूफान के वेग को थामने के प्रयास में। '' हम आपकी कुछ सहायता।'' एकनाथ का वाक्य अधर में लटका रह गया। नहीं नहीं आप लोग परेशान है घर जाइये। मै चला जाऊंगा। दूसरी ट्रेन रात दस बजे मिलेगी। तुम मेरे लिए कुछ करना चाहते हो कोई असहाय वृध्द मिले तो उसे थोडा सा सहयोग, थोडा सा स्नेह, थोडा सा सम्मान दे देना। हम वृध्द तुम्हारे ही समाज का एक हिस्सा है बेटा जो आज अपनी ऊर्जा खो चुके है। तुम लोग युवा हो बहुत ऊर्जा है तुम्हारे भीतर, बहुत क्षमता है। इस क्षमता का छोटा सा भाग किसी की भलाई में लगा देना, मैं समझूंगा मुझे उपकार का मूल्य मिल गया। एक छोटी सी कहावत है, कर भला, होगा भला। दूसरो का भला करोंगे तो तुम्हारा भी भला होगा।'' कहकर वृध्द पराज्ति चाल से चलकर कक्ष के द्वार तक पहुंचे और फिर पलटकर बाबूजी के एैन सामने ज खडे हुए ''बुरा न माने तो कुछ कहूं। रेलवे स्टेशन इतने लोगो को लेकर न आया करें। अव्यवस्था फैलती है। कानून और व्यवस्था बनाये रखना पुलिस और प्रशासन का ही दायित्व नहीं है, हम सभी नागरिकों का दायित्व है। हम चाहे तो फैलती जा रही अव्यवस्था को किसी सीमा तक कम कर सकते है बस हमें स्वयं को सुधारना होगा।'' वृध्द लौट चले। उनके लटपटाते बदहवास पैर मानो कहीं के कहीं पड रहे है। इधर बाबूजी अवाक् है जैसे वाणी चली गई है।
दीपावली |
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