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न आने वाले क्षण
अपने बिस्तर में उसके ऊष्ण होने के इंतजार में, आंखे खोले खोले बिलकुल ठण्डा पड ग़या हूँ। धीरे धीरे सबने मेरा साथ छोड मुझे नितांत अकेला कर दिया है। थोडी देर पहले वह - मेरी पत्नी, हल्का हल्का कराह रही थी। मैं ने सिर और कमर दबाने की चेष्टा की थी, मगर उसने मुंह पर उपेक्षा का भाव ला, करवट बदल ली थी। आऽऽ अर्थ आसानी से लगाया जा सकता है - अच्छा यही है कि किसी भी अंग को छूने की शुरुआत न हो। तीनों बच्चे एक दूसरे में गुत्थम गुत्था हुए मस्ती ले रहे हैं। पत्नी निश्चिंत - आराम से गहरी नींद में खो गयी है। थकावट और बीमारी - यह तो प्रतिदिन का स्वांग है। मानसिक और शारीरिक कष्ट की तुलना करते करते मजे से सोने वालों से जलन व ईष्या के गुबार उठने लगते हैं। सिरहाने रखे रेडियो को फुल वॉल्यूम पर छोड देता हूँ। कमाल है कोई असर नहीं। फिर चारपाई से उठ खडा होता हूँ - इस सर्दी में पंखा चला कर सबको जगा देने के लिये। किन्तु उंगलियों ने दूसरे ही बटन को छूकर बत्ती बुझा दी है। इस वीरानगी से जंगल और गुफाओं की साधु शांति पकडने की कोशिश करने लगता हूँ। तभी छोटे छोटे रोशनदानों से चांदनी कमरे में कूद पडती है अप्सरा की भांति, किसी तपस्वी को चटखा कर पथभ्रष्ट कर देने के लिये। पूर्वदृश्य मेरे सम्मुख है - जिस चांदनी का इंतजार शाम से कर रहा था, अब उसी से नफरत हो रही है। मैं पूर्वत: उसके जागृत होने का इंतजार करने लगता हूँ। जब संध्या को काम से लौटा था। घर में पांव रखते ही पूछा था '' कैसी तबियत है।'' ऐसा पूछना डेली रूटीन हो गया है। उत्तर परीक्षार्थी की भांति धडक़ते दिल से सुनता हूँ। अभी सुनाई देगा - आज तो बहुत पानी पड ग़या है या - कमर टूट रही है - या -। बहुधा ऐसा भी होता है कि वह सिर पर कस कर चुनरी बांधे काम कर रही होती है - तब रिजल्ट उसके क्लान्त मुरझाये चेहरे पर स्पष्ट लिखा मिला जाता है। सारी उत्कंठायें, उत्साह, सुखद योजनायें सब की सब एक दम सिमटकर कूडेख़ाने की ओर सरक जाती हैं। भारी गले से उसे सहानुभूति जताते हुए आराम करने का परामर्श देता हूँ। डॉक्टर को बुलवाने की सलाह देता हूँ तो सदा ढीले स्वर से निराशा व्यक्त करती है, ''
क्या करेगा वह?
'' कभी होटल से कभी स्वयं थोडा लगकर खाने का प्रबन्ध करता हूँ। जल्दी से जल्दी बच्चों को सुलाकर उसकी तबियत सुधरने का इंतजार करता हूँ। इंतजार करता रहता हूँ। इंतजार। पहले एक घंटे बाद। फिर पन्द्रह मिनट बाद - और फिर दस दस मिनट में ही उसकी तबियत के विशेष बुलेटिन जानना चाहता हूँ। अकसर कोई उत्तर नहीं मिलता, कभी कभी आंऽऽ फिर लम्बी चुप्पी। मैं खुश होने लगता हूँ। तबियत में सुधार हो रहा है। साथ ही साथ इंतजार भी करता जाता हूँ - एक लम्बा सुखद स्फूर्तिजन्य इंतजार। रात भर का इंतजार, सारी सारी रात जाग कर इंतजार - दरअसल वह तो सो रही होती है बिना किसी की परवाह किये। किन्तु आज वस्तुस्थिति ऐसी नहीं थी। जब घर पहुंचा और आते ही, जैसा कि हर रोज पूछता हूँ पूछा था, ''
कैसी है तबियत?
'' खाने के बाद सबको रेडियो सुनने के लिये आमंत्रित करता हूँ। '' ठहरो मैं बर्तन मांज कर आ रही हूँ।'' मैं इंतजार करने लगता हूँ। वह बर्तन साफ करती जाती है। बच्चों को न पढने के लिये, स्कूल का काम न करने के लिये डांटती भी जाती है। मुझे उसका मूड बिगडने का डर लग रहा है। बर्तनों के बाद सुबह धोने के कपडे ईकट्ठे करना शुरु कर देती है। वाटरवर्क्स वालों को दो एक भली सी गाली निकालती है। सुबह इतनी देर से जो पानी चालू करते हैं। रेडियो पर प्रेम बिन सब
सूना-सूना
सूना- गाना आ रहा है।''
क्या सुरीला स्वर है।''
चाहता
हूँ
वह गहराई से भाव को समझे,
'' जल्दी आओ भई।'' बच्चों के सोने से पूर्व ही थोडा आंऽऊं करती हुई वह स्वयं सो गयी। बाद में बच्चे भी। - मैं इंतजार कर रहा हूँ। उसकी तबियत सुधरने का इंतजार। पक्की बात है। दिन भर लगातार काम के बाद तथा अच्छी खुराक के अभाव में उसकी तबियत बिगड चुकी है। सुबह उठते ही किसी न किसी बहाने उससे उलझ ही जाता हूँ। चाय नहीं पीता। वह मनाना शुरु करती है, ''
थकी हुई जो थी
-
दिन भर की। दिन भर चक्की की
तरह लगी जो रहती हूँ। मोहल्ले की तमाम औरतें हैरान होती हैं। अकेली इतना
काम कैसे कर लेती हूँ। बरतनों तक के लिये नौकरानी नहीं । कपडे बदल कर बाहर जाना चाहता हूँ। वह जूते पकड क़र पलंग के नीचे दूर धकेल देती है। मुझे धक्का दे कर पलंग पर लिटा देती है - चलो आज रात सही - कंधा उचकाती है। होंठ फैलाती है। आँखे मटकाती है। ''
चुपचाप चले आओ।''
हाथ पकड क़र रसोई की ओर
खींचती है। तिरछी आंखों से देखती हुई नाश्ते की प्लेट मेरी ओर सरकाती है। उसके चेहरे पर ताजगी और सरलता उभर आयी है। मैं आर्द्र हो गया हूँ। - फिर से रात का इंतजार करना शुरु कर देता हूँ। |
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