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मुट्ठी भर उजियारा

सुबह की सफेदी में अभी भी रात की श्यामलता थीधुंध की हल्की सी परत वातावरण को बोझिल बना रही थीबस अभी सुबह होने वाली थी पूर्व की ओर आसमान में लाल रंग धीरे धीरे फैल रहा थाशन्नो ने जाली का पर्दा हटा कर देखासूरज निकलेगा उसने सोचा

तभी उसकी आँख सडक़ पार फैन्स पर बैठी लंबी पूंछ वाली काली टैबी कैट पर जा कर अटक गईटेबी कैट किसी मुग्धा की भांति उगते सूरज को निहार रही थी, बिलकुल शांत, ध्यान मग्न मानो सूर्य देवता की आराधना कर रही होउसकी लम्बी काली पूंछ दीवार की इस तरफ लटक रही थीसुबह की सफेदी और सूरज की फैलती लालिमा के बीच, सिलुएट बनी बिल्ली उसे रहस्यमयी लगीतभी ग्रे यूनिफार्म पहने एक स्मार्ट लडक़ा कंधे पर बैग टांगे आयासुख से बैठी बिल्ली की पूंछ बिलावजह झटके से खींच दीबिल्ली एक दर्द भरे म्याऊँ के साथ पेवमेन्ट पर गिरीबिल्ली भयभीत, बदहवास सडक़ पर भागने की कोशिश में तेजी से आती लॉरी के नीचे से जान बचा बेतहाशा भाग रही है

भाग तो शन्नो भी रही है और बेतहाशा भाग रही है

शन्नो के अंग अंग में वेदना की लहरें मरोड लेने लगींजख्मों पर पडे ख़ुरंट उखडने लगेविधवा, बीमार सास और दो बच्चों के साथ उसे छोड सुभाष एक दिन चुपचाप भाग गया। पाँच साल उसने उनकी कोई खोज खबर नहीं लीतीन महीने बाद बच्चों की सालाना फीस जमा करने जब बैंक से रूपये निकालने गई तो पाया सुभाष खाता झाड पौंछ गया थाइस बीच सास उसे खूब जली कटी सुनाती रहीहमेशा अपने भगोडे बेटे को बेकसूर और उसे कसूरवार ठहरायाहालांकि वह जानती थी कि उसका बेटा हद दर्जे का खुदगर्ज़ रहा हैपहले भी उसने उन्हें कम दुख नहीं दियेकिशोरावस्था में एक बार देशाटन के लिये उनके कंगन ले उडा थान चिट्ठी न पत्री रोते रोते उनकी आँखों में रोहे उभर आए थेदो साल बाद आया तो जैसे कुछ हुआ ही नहीं। चाँद से बेटे को सही सलामत देख, सारे दु:ख दर्द भूल गईफटाफट रामकली की सुन्दरी भतीजी शन्नो से ब्याह दियासोचा नकेल पडते ही लडक़ा सुधर जायेगा

सुभाष सुधरने के लिये इस धरती पर नहीं आया थाकाम धाम कुछ नहीं दुश्मन अनाज काजल्दी ही दो जुडवां बच्चों को बीवी की कोख में डाल दियामन वही का वही बनजारा वह कब रुकने लगा। कपडों की आलमारी में एक नोट छोड ग़या  विदेश जा रहा हूँ बसशन्नो को काठ मार गया। अडोस पडोस वालों ने शन्नो के सामने सुभाष की जन्म पत्री बांच दीशन्नो ने माथा पीट लिया शन्नो की सास ने बेटे को तो दोष नहीं दिया उलटे बहू को ही कोसने लगी, मरी अगर उसको खुश रखती तो भला वह छोड क़र ही क्यों जाता? दान दहेज का मोह छोड, ख़ूबसूरती देख सिर्फ दो जोडे में ब्याह लाई थीपास पडौस में घर की बेइज्ज़ती न हो इसलिये शन्नो चुप लगा जातीबुढिया बेटे के इंतजार में एक दिन सुबह सुबह सूर्य को अर्ध्य देते देते छत से जो गिरी तो फिर उठ ही नहीं पाई

सास के क्रिया कर्म में काफी रुपया पैसा खर्च हो गयाहाथ खाली पा शन्नो बौखला गई किरायेदार ने किराया बढाने से साफ इनकार कर दियाबचत के नाम पर बैंक में दस हजार की एफ डी आर बसइन पैसों में अब काम चलने वाला नहीं, शन्नो ने सोचाघर से जरा दूर आर्य समाज कन्या पाठशाला थीउसी में नौकरी पाने के लिये एक दिन वह स्कूल के संस्थापक आनन्द बाबू के घर गई

गोरी चिकनी शन्नो की लम्बी काठी, सुगठित देह और लाचारगी आनन्द बाबू से देखी न गईउसके अस्तव्यस्त जीवन को संवारने के लिये उन्होंने उसके घर आना जाना शुरु कर दियाव्यवहार कुशल आनन्द बाबू जब भी घर आते बच्चों के लिये अच्छी अच्छी मिठाई और नये नये उपहार ले आते जनम के भूखे प्यासे सोनू और मोनू के जीवन में हरियाली आ गईआनन्द बाबू बिना किसी टेन्ट्रम के टीन एजर बच्चों के चहेते अंकल आनन्द बन गयेसब कुछ ठीक ठाक चल रहा था सोनू मोनू इंग्लिश और मैथ्स की टयूशन लेने आज़ादनगर गये हुए थेआनन्द बाबू भी अपना काम निबटा घर जा चुके थेशन्नो बचा हुआ खाना फ्रिज में रख कर बिस्तर की चादर बदल रही थीतभी दरवाजे क़ी घण्टी बजी

तकिया हाथ में लिये लिये उसने दरवाजा खोलाकोट पैन्ट पहने, कन्धे पर बैग लटकाये, सिर पर बोला हैट लगाये, मुंह में चुरुट दबाये, चमाचम जूता पहने, गोरा चिट्टा सुभाष का रूप धरे कोई अंग्रेज साहब..थोडी देर संज्ञा शून्य खडी, वह सामने खडे फ़िल्मी अदा से मुस्कुराते सुभाष को देखती रही फिर हकलाती हुई, घबराई सी बोली, '' ...कौन सुभाष तुम! ''

'' हाँ हाँ मैं ही हूँ....मेरा भूत नहीं, छूकर देख ले।'' सुभाष ने उसके लम्बे बालों को दोनों हाथों में फंसा कर जोर से उसे अपनी ओर खींचा। फिर चेहरे, गले और गले के नीचे गदराये उभार को होंठों से रगडते हुए उसे बांहों में भर कर यहाँ वहाँ इस तरह सहलाया दबाया कि उसकी नस नस में बिजली तडक़ उठी। शन्नो को लगा कि सुभाष पहले से कहीं और गोरा, लम्बा, तंदुरुस्त और रंगीला हो गया है।

'' है...है क्या करता है...बच्चे तेरह साल के हो गये हैं। तुझे शर्म नहीं आती।'' उसने उलाहना देने की कोशिश की। पर सुभाष की गर्म सांसे, चुलबुलाते हाथ, उसके बदन के हर हिस्से में घुंघरु बजाने लगे। '' तेरह साल के हो गये तो शर्म काहे की। उन्हें नहीं पता क्या कि मैं उनका बाप हूँ। साले आये कहाँ से हैं, यहीं से न! '' उसने उंगली कोंचते हुए कहा। ''बाप के कौनसे फर्ज निभाए हैं तूने सुभाष'' सुभाष उसको बोलने दे तब न। वह तो उसके बदन में इस तरह बिजलियां भरता चला जा रहा था कि वह अपनी लालची देह और उसकी चुगलियों के आगे लाचार हाती चली गयी।

मीठी मीठी बातों और इंग्लैण्ड से लाये ढेर सारे कीमती उपहारों से उसे सोनू मोनू और शन्नो को अपने बस में करने में देर नहीं लगीसुभाष रात भर बैठा शन्नो और बच्चों से तरह तरह की अच्छी बातें करता रहाकिसी को कोई गिला शिकवा करने का मौका ही नहीं दियासुभाष ने मां के मरने का कोई दुख नहीं कियादो महीने के अन्दर सब कुछ बेच बाच कर सोनू मोनू और शन्नो को लेकर लन्दन चलने की प्लानिंग करने लगा

शन्नो का मन सशोपंज में थापर उसके पास कोई चारा भी न था सुभाष की ब्याहता थीसुभाष के लापता होने के कारण वैसे ही लोगों के मन में उसके प्रति कोई इज्ज़त हमदर्दी नहीं थी। यहाँ वहाँ आनन्द बाबू को लेकर पीठ पीछे होते भद्दे इशारों से वह पहले ही लहूलुहान पडी थी। यहाँ रहने पर सोनू मोनू के पढाई लिखाई और शादी ब्याह में आने वाली समस्याओं और खर्चों के बारे में सोच कर वह जाने के लिये राजी हो गईऔरत और फिर हाई स्कूल में आर्ट टीचर! उसकी इज्ज़त और तनखाह ही कितनी थी? क्या कर लेगी वह अपने बूते पर? उसने अपने बौनेपन को कोसा

जाते समय भी आनन्द बाबू ने बहुत मदद की इंदिरा गांधी एयरपोर्ट तक उसे छोडने गये सोनू मोनू बहुत एक्साईटेड थे शन्नो जरूर दुखी थीअन्दर अन्दर आनन्द बाबू भी खाली खाली और उदास महसूस कर रहे थेइतने दिनों का साथ था जैसे जैसे जाने का दिन करीब आता शन्नो का संशय गहराता जाता था सुभाष का क्या भरोसा? इतने सपने दिखा कर ले जा रहा हैएक पल नहीं लगेगा उसे तोडने में पर उसके हाथ में क्या है? वह कर भी क्या सकती है? आगे पीछे सहारा देने वाला कोई नहीं हैचाची ने शादी के बाद मुडक़र देखा भी नहींजाने कौनसे तीरथ गई कि फिर लौटी ही नहींआनन्द बाबू ने कई बार गीली आंखों से उसे और सोनू मोनू को देखाक्या पता कैसा भविष्य उसका इंतजार कर रहा हैन मालूम सुभाष कौन सा गुल खिलाए परदेस में आनन्द बाबू जैसा दोस्त और रहनुमा कहाँ मिलेगावह आनन्द बाबू से अच्छी तरह विदा भी तो नहीं ले पाईसारे टाईम पासपोर्ट, वीसा टिकट और एन्ट्री क्लियरेन्स के लिये चक्कर लगते रहे

जब भी बातचीत का मौका मिलता सुभाष बस लंदन के गीत गाता। वहाँ की सडक़ें शीशे सी चमकती हैं रोशनी इतनी तेज होती हैसब कुछ ऐसा साफ सुथरा कि कुछ पूछो मतसारे दिन घूमते रहोमन करे तो खाना बनाओ, न मन करे टेक अवे ले लोन झाडू लगाना, न कपडे धोनासब काम मशीनों से होता है वह सोचती सब कुछ मशीन से होता है तो एक दिन हम भी मशीन हो जाएंगे

'' यहाँ जैसा सूखा वहाँ कहीं नहीं मिलेगा।'' सडक़ के दोनों ओर लगे मरघिल्ले पेडों की ओर देखते हुए उसने कहा।
''
ऐसी हरियाली, ऐसी खूबसूरती कि बस देखते रह जाओ।पैसा भी खूब है। बच्चों की पढाई फोकट में, मकान फोकट में, दवा फोकट में, नौकरी नहीं तो सरकार पैसे देगी। आराम ही आराम है वहाँ। वहाँ तो भिखमंगे भी कोट पहनते हैं।''

शन्नो को आधी बातें समझ में आती आधी नहीं बच्चे जरूर अंग्रेजी फिल्मों, गानों और कपडों के बारे में पूछते रहते रह रह कर शन्नो के हाथ पैर ठण्डे हो रहे थेकाश! आस पास कोई ऐसा होता जिससे वह कोई सलाह मशविरा ले सकती

लंदन आने पर उसे बहुत बुरा नहीं लगा सब चीजे साफ सुथरीरोज बासमती राइस और चिकन खाओ सफेद झकाझक आटे की रोटीदूध दही इफरातसुभाष डोल पर थापर उससे क्या? हर हफ्ते मिनीस्ट्री ऑफ सोशल सिक्यूरिटी जाकर पैसे ले आता बीवी बच्चों के आने से अलाउंस बढ ग़या थाबिजली, पानी, गैस सब सरकारी खाते में दो तीन महीने में सजा सजाया काऊंसिल फ्लैट भी मिल गयाजिन्दगी आसान हो गई

सोनू मोनू को वांडस्वर्थ के अर्नेस्ट बेवन स्कूल में बिना हील हुज्जत के दाखिला मिल गयादोनों पढने में होशियार थे बोलने चालने में थोडी दिक्कत हुई पर चार पांच महीने में सब ठीक ठाक हो गयाजल्दी ही नये परिवेश में घुलमिल गयेशुरु के दिनों में स्कूल के बच्चे उन दोनों को पाकी, डमडम और स्मैली माऊस कह कर चिढाते थेटीचर मिस एलिस अच्छी और सहृदय थींएक बार पंजाब व गुजरात भी हो आईं थींउसने दोनों को  बाईलिंगुएल हैल्प लगा दीमेहनती बच्चे थोडे ही दिन में टॉप लिस्ट में आ गयेसोनू और मोनू की रुचियां आपस में मिलती तो थीं पर दोनों की प्रवृत्तियां बिलकुल भिन्न थींसोनू को एक्टिंग और लिटरेचर पसन्द थावह तेज तर्रार थीतो लैडबैक मोनू सैलानी तबियत का, किताबी कीडा, फिलॉसफर और कम बोलने वाला

सुभाष की चाल वही बेढंगीहनीमून बस साल दो साल ही चला उसने रात को मिनी कैब चलाने का धंधा अपना लियाकभी घर आया, कभी नहीं आयाजब भी वह घर आता शन्नो उससे झगडा करते हुए जवाब तलब किया करतीसुभाष बगैर झगडा किये बिना हील हुज्जत के कहता -

'' डोल के पैसे पूरे नहीं पडते। बच्चों की जरूरतों में कोई कमी नहीं होनी चाहिये इसलिये रात को मून लाइटिंग करता हूँ।''
''
ये मूनलाइटिंग क्या होता है? मुझे चलाने की कोशिश मत करो। मैं तुम्हारी नस नस पहचानती हूँ।'' शन्नो हाथ पांव पटकती शेरनी सी गुर्राती। '' अरे! बीवी हो तो नस नस क्या रेशा रेशा पहचानोगी।'' वह उसे चिढाने के अन्दाज से व्यंग्य करता, '' रही मूनलाईटिंग की बात, वह है टैक्स से हेराफेरी यानि मैं मिनी कैब की कमाई पर टैक्स नहीं देता। और डोल पर भी रहता हूँ।'' शन्नो फुफकारती हुई उसके हाथों से पे पैकेट उठा लेती। पैसे बचते नहीं तो कम भी नहीं पडते। सुभाष जितना भी कमाता बिना किसी हील हुज्जत के उसे दे देता था। बच्चे भी पढाई लिखाई के साथ वीकेण्ड पर काम कर थोडा बहुत कमा कर अपने शौक पूरे कर लेते। शन्नो ने भी कई बार सोचा कि वह भी कुछ काम कर ले खाली बैठना उसे अच्छा नहीं लगता था। कई जगह उसने पूछताछ की। स्कूलों में मैथ्स और साईन्स की वेकेन्सी तो अकसर होती पर आर्ट टीचर की वेकेन्सी उसने आज तक नहीं देखी। फैक्टरी और सुपर मार्केट में काम करना उसे पसन्द नहीं था। वैसे भी सुभाष ने उसे काम करने के लिये कभी बढावा नहीं दिया सो या तो वह घर के काम करती या लाईब्रेरी से किताबें लाकर पढती। बाहर आने जाने की आदत छूटती जा रही थी।

सोनू मोनू पढाई के साथ साथ लन्दन की तेज और उनमुक्त हवा से खूब प्रभावित हो रहे थेकुछ अजीबोगरीब लडक़े लडक़ियां उनके दोस्त बन गये थेवीकेण्ड पर टेस्को और मार्क एण्ड स्पेन्सर में काम मिल गयाहाथ में पैसा आया तो हिम्मत भी बढी बाहर घूमना फिरना, छुट्टियों में बैक पैक लाद कर हिचहाइकिंग करते हुए पर्यटन करना शुरु हो गयादोनों जब भी कहीं जाते शन्नो के लिये कोई न कोई अच्छा सा गिफ्ट जरूर लातेपर शन्नो को यह सब बेमानी लगता वह बच्चों की असाधारण बहुमुखी प्रतिभा से अनजान उनसे, तालमेल नहीं बैठा पा रही थी

सुभाष ज्यादातर बाहर ही रहता अब जबसे सोनू मोनू  यूनी  गए हैं तो अकसर दोनों की शामें रैफरेन्स लाईब्रेरी में गुजरतीकई बार वो लोग टेम्पिंग भी कर लेतेअकसर खाना भी वहीं कैन्टीन में खा लेतेशन्नो दिनों दिन अकेली होती जा रही थीउसे लगता वह एक दम फालतू हो गयी हैकिसी को उसकी जरूरत नहीं है शायद वह एक डोर मैट है जिसे जो चाहे पैरों तले रौंद दे

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