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देश,
आजादी की
50
वीं
वर्षगांठ और कथानायक के पास कुछ भी तो नहीं था कि दे दिला कर ही कहीं खुद को फिट करवा लेता। न सिफारिश न रिश्वत के पैसे। वैसे भी वह रोज ही देखता था कि जो लोग किसी न किसी तरह जुगत भिडा कर, कुछ दे दिला कर या ऊंची सिफारिश लगवा कर इन थोडी सी नौकरियों से चिपक भी गये थे, वे भी इतने विरोधाभास की जिन्दगी जी रहे थे कि आश्चर्य होता था कि अब तक ये लोग पागल क्यों नहीं हो गये। बॉटनी का गोल्डमैडेलिस्ट बैंक के काउंटर पर बैठा दिन भर नोट गिनता था और फिजिक्स का फर्स्ट क्लास कहीं सडे हुए सरकारी दफ्तर में घुन लगी कुर्सी पर बैठा आलतू फालतू की चिट्ठियों को दर्ज कर रहा था। अंग्रेजी साहित्य के एम ए पास युवक होटल में ग्राहकों के डिनर के आर्डर लेते मिलते और हिन्दी का पीएच डी किसी दूर दराज चुंगी पर बैठा जाहिल ट्रक ड्राइवरों से माथा पच्ची कर रहा होता। बायोकैमिस्ट्री की प्रथम श्रेणी की एम एससी पास लडक़ी टेलेफोन ऑपरेटर की टुच्ची सी नौकरी करने पर मजबूर थी। पॉलिएस्टर टैक्नॉलोजी में पीएच डी युवक किसी चाय कम्पनी में मार्केटिंग मैनेजर होता। कहीं कहीं ऐसा भी होता कि घोडा डॉक्टरी की डिग्री लेने के बाद जब किसी युवक को दूर पास कहीं भी छोटी सी भी नौकरी नहीं मिलती थी तो वह मोटर पार्टस की या किताबों की सैल्समैनी वाली घुमंतू नौकरी सिर्फ इसलिये स्वीकार कर लेता था कि घर वालों के आगे हर समय थोबडा लटकाये रहने से तो यही बेहतर था। उसने खुदने भी तो ग्रेजुएट होने के बाद ऐसे काम किये थे जिन्हें कोई आठवीं पास भी आराम से कर सकता या कर रहा होता। इस वक्त का सबसे बडा सच यह था कि कई डाकखानों के बाहर दसियों की संख्या में बेकार ग्रेजुएट्स बैठे हुए एक एक दो दो रूपये लेकर अनपढ मजदूरों के घर पर भेजे जाने वाले मनीआर्डर फार्म भर कर रोजी रोटी कमा रहे थे। निश्चित ही ये मजदूर इन ग्रेजुएटों की तुलना में बेहतर स्थिति में थे। जो अपने रहने खाने के अलावा अपने घर भेजने लायक पैसे कमा रहे थे। विचित्र संयोग था कि कथानायक को हमेशा फालतू, अनुत्पादक और अपने स्तर से कम के काम करने पडे थे।वह हमेशा यही सोच कर अपने को तसल्ली दे लेता कि वह अकेला नहीं। उसके साथ के लाखों की तादाद में बेरोजगार लोग एक साथ कई साजिशों का शिकार हैं। सरकार की चिन्ता तो इतनी भर थी कि उसके आंकडों में किसी तरह यह दर्ज हो जाये कि देश की अधिकतर आबादी उनके प्रयासों से साक्षर है, प्रशिक्षित है और हर तरह से योग्य है। सबको नौकरी देने की न तो उसकी नैतिक जिम्मेदारी है, न उसकी औकात ही। और न ही उसने कभी ऐसा वायदा किया था। अगर कहीं कामों की गुंजाइश थी भी, तो सरकार की ऊंची गद्देदार कुर्सियों पर बैठे लोगों के पास इतनी दूरदर्शिता नहीं थी कि तय कर सकते कि किस काम के लिये कौन सा आदमी ठीक रहेगा। सबसे बडी विडम्बना यही थी कि तय करने की ताकत रखने वाले कई अफसर, लीडर खुद ही गलत जगहों और गलत कुर्सियों पर गलत तरीके से बैठे हुए थे। उनसे किसी भी तरह की उम्मीद करना उनके साथ ज्यादती होती। अधिक तकलीफ की बात थी कि जिन लोगों के भरोसे यह देश चल रहा था, वे ही पिछले बरसों में सबसे ज्यादा नकारा, भ्रष्ट, लापरवाह और अवसरवादी सिध्द हुए थे। 100 करोड क़ी जनसंख्या के मुहाने पर खडे देश के लिये यह बहुत ही शर्म की बात थी कि पूरे देश में आदर्श कहे जा सकने लायक एक भी नेता नहीं था। आजादी की 50 वीं वर्षगांठ मना रहे विश्व की सबसे वैभवशाली परम्पराओं और मान्यताओं और समृध्द लोकतन्त्र वाले देश में इस समय एक भी ऐसा व्यक्ति नहीं था जिस पर देश की जनता मन से भरोसा कर सके। यह देश बौनों का देश बन चुका था। दुर्भाग्य से जिन हाथों में देश का नेतृत्व सौंपा गया था, उनमें आधे से ज्यादा लुच्चे, आवारा, कातिल, हत्यारे, शातिर अपराधी, बीस - बीस हत्याओं के दोषी सिध्द डकैत और गिरहकट भरे पडे थे। कुल मिला कर राजनीति में यह आलम था कि आप एक नेता और हत्यारे में फर्क नहीं दिखा सकते थे। आये दिन अकबार नेताओं द्वारा करोडों रूपये की रिश्वत लेने, हत्या या बलात्कार करने या अन्य अपराधों में लिप्त पाये जाने की खबरों से भरे होते। अकसर पता चलता फलां नेरा या मुख्यमंत्री के घर से करोडों रूपये की नकदी पायी गयी या फलां प्रधानमंत्री पर करोडों रूपये से भरे सूटकेस अपराधियों से लेने के आरोप लगाये गये हैं या विदेशों के हथियार व्यापारियों से रिश्वत लेने के आरोप लगते और वे इन आरोपों से विचलित न होते न ही इनका खंडन करते। वे पूरी बेशरमी से अदालतों से अग्रिम जमानत ले लेते। बेशरमी का आलम यह होता कि वे दोबारा चुनाव लडने के लिये फिर जनता के प्रतिनिधि बन हाथ जोड वोट मांगने चल पडते। उन पर अपराधिक मुकदमे चलते रहते, वे जेल भी हो आते और इस बीच सत्ता अपने परिवार वालों को सौंप जाते, मानो सत्ता न हो, लाला की दुकान हो कि कोई भी सौदा सुलुफ बेच लेगा। राजनीति एक खुजैली रंडी का नाम हो गया था। इसके पास सुख तो था लेकिन रोग व खाज भी थे। लोग फिर भी इसके पास जाने के लिये कुछ भी करने को तैयार थे। पहले चोरी छुपे अब खुले आम। इसके पास आने वालों का दीनदुनिया से नैतिक अनैतिक कोई सम्बन्ध नहीं रह जाता था। देश उनके लिये एक खुला हरा भरा चारागाह था और उनका काम सिर्फ हरी घास जितनी हो सके चर लेना था और कुछ भी नहीं। राजनीति नाम की इस रंडी के पास बेइन्तहां पैसा था। इतना कि आप कल्पना भी नहीं कर सकते थे। वहां जाने वाले खिलाडी राजे महाराजाओं की तरह ऐशो आराम से रहते और सरकारी मशीनरी का जम कर दुरुपयोग करते। मशीनरी के इस दुरुपयोग का ही परिणाम था कि इस राजनीति की कुनबापरस्ती की छत्रछाया में लगभग कथानायक की ही पीढी क़ा एक ऐसा वर्ग भी अंगडाइयां ले रहा था जिसके पास कोई दिशा नहीं थी, कोई लक्ष्य नहीं था, जिसके पास कोई जिम्मेवारी भी नहीं थी और सामाजिक बोध तो दूर दूर तक नहीं था। फास्टलाइफ का हिमायती यह युवावर्ग जिस रफ्तार से बडी बडी ग़ाडियां चलाता उसी रफ्तार से अपने सारे काम पूरे होते देखना चाहता। यह युवावर्ग बेहद जल्दी में था और उसे जरा सा भी इंतज़ार करना गवारा नहीं था। वह अपने पास आधुनिक आग्नेय हथियार पैन या लाइटर की तरह रखता था और उनका इस्तेमाल भी वैसा ही करता। वह आधी रात को क्लब में शराब परोसने में एक पल की भी देर होने पर या बाला द्वारा पैग के साथ चुम्बन देने से इनकार करने पर उसकी कनपटी पर गोली मार कर दो सौ आदमियों की मौजूदगी में सरेआम उसकी हत्या कर सकता था, अपनी मनपसन्द आइसक्रीम न मिलने पर वेटर की हत्या कर सकता था, शराब का नशा बढाने के लिये अपनी ही प्रेमिका को मार कर मक्खन के साथ तंदूर में भून सकता था और सैक्स सम्बन्धी अपनी विकृतियों को पूरा करने के लिये भारी टिकट खरीद कर पुरुषों का नंगा नाच भी देखने जा सकता था। उसे किसी का डर नहीं था, क्योंकि उसे पता था कि इस देश का कानून उसकी मुट्ठी में है, कोई उसका बाल भी बांका नहीं कर सकता। इस वर्ग की ताकत इतनी ज्यादा बढ ग़ई थी कि यह अपने सामने किसी को भी कुछ नहीं समझता था और सारी दुनिया को अपने ठेंगे पर रखता था। वह देर रात सडक़ों पर तेज गाडियां चलाता। ऐय्याशी के नित नये चारागाह तलाशता, भौंडे रूप में सैक्स का प्रदर्शन करता, कराता और नशे में धुत्त होकर घर लौटते समय किसी को भी अपनी गाडी क़े नीचे कुचल सकता था। उसे इस हादसे पर कोई अफसोस भी न होता। उसे पता था कि जब गवाहियां दी जायेंगी तो वहां उसकी बी एम डी गाडी क़ा नहीं किसी अनाडी शराबी द्वारा चलाये जा रहे ट्रक का जिक़्र होगा। यह वही वर्ग था जो दिन भर काले धन्धों में अनाप शनाप पैसा कमाता और रात को अपनी औकात बताने को खर्च कर डालता। उसके सामने यही लक्ष्य होता कि वह दूसरों से आगे है - कमाने और खर्च करने में भी। कई बार कथानायक सोचता कि काश! उसके पास भी कोई बेहतर डिग्री होती या बाहर जाने लायक थोडे बहुत पैसे ही होते। वह भी इनके सहारे जिन्दगी में कुछ कर गुजरने की तमन्ना रखने वाले तमाम इंजीनियर, डॉक्टर और दूसरे क्षेत्रों के प्रोफेशनलों की तरह किसी भी कीमत पर बाहर के मुल्कों की तरफ निकल जाता। बेशक वहां दोयम दरजे का जीवन था, फिर भी कम से कम इतना तो मिल जाता कि वह खुद का और अपने पीछे परिवार का ख्याल तो रख पाता। वह कितने ही ऐसे लोगों को जानता है जो यहां से बडी ड़िग्रियां लेकर बाहर गये थे और वहां बैरागिरी कर रहे थे। वे किन्हीं शर्तों पर भी वहां जाना चाहते। एक विकासशील और गरीब देश की पूंजी पर तैयार होने वाले ये हर तरह से श्रेष्ठ दिमाग विकसित देशों के विकास और प्रगति के वाहक बन रहे थे। हमारी सरकार को इस प्रतिभा पलायन की कतई चिन्ता नहीं थी। देश की इस बेरुखी की वजह से ही तो वे अपनी सरजमीं छोड क़र गये थे। बाहर किन्हीं भी शर्तों पर हो रोजग़ार और पैसा तो था। हर साल बाहर जाने वाले दिमागाें की संख्या बढती जाती। उन्हें रोकने के लिये न कोई नियम थे, न ही प्रलोभन। जहां तक निजी संस्थानों, बडे बडे अौद्योगिक घरानों और विशालकाय देशी विदेशी उद्यमों में नौकरियों का सवाल था तो वहां के लायक पढाई तो कथानायक के पास थी लेकिन किस्मत नहीं थी। उसे कोई मामूली नौकरी देने को तैयार नहीं था, इतनी आला नौकरी कौन देता? वह देखता था कि वहां हमेशा कुछेक आला दरजे क़ी नौकरियां हुआ करतीं थीं और अकसर लायक आदमियों को मिल भी जाती थीं, लेकिन आम तौर पर इन उद्योगवालों की निगाह तकनीकी और प्रबन्ध संस्थानों में हर साल तैयार होने वाली बेहतरीन क्रीम पर ही रहती थी। इन संस्थानों के फाइनल वर्ष के शुरु होते ही औद्याोगिक समूहों के प्रतिनिधि वहां चक्कर काटना शुरु कर देते और वहां तैयार हो रहे बेहतरीन दिमागों को बहुत ऊंची बल्कि उम्मीद और योग्यता के अनुपात में दो तीन गुना ऊंची बोलियां लगा कर एक तरह से खरीद लेते और अपने यहां की टॉप मशीनरी में फिट कर देते। लेकिन ये सारी बातें बहुत ऊपर के स्तर पर चलतीं थी। सिर्फ उस स्तर पर जहां बेहतरीन दिमाग और बेहतरीन पद लगभग बराबर संख्या में थे। दोनों ही सीमित। लगभग हर कुशल दिमाग के लिये एक पद तो था ही। कई बार एक से ज्यादा, दो चार हजार रूपये कम ज्यादा पर। पर कथानायक की पहुंच से बहुत दूर। उसके जैसों के सामने तो हमेशा संकट था क्योंकि उनके पास सिर्फ सामान्य डिग्रियां थीं। साहित्य की, कला की या समाजशास्त्रीय विषयों की। कई बार विज्ञान की विशिष्ट शाखाओं की भी। ये डिग्रियां उन्हें किसी भी विशिष्ट या तकनीकी, प्रबन्ध या एक्सक्यूटिव या कई बार साधारण दर्जे के पदों तक भी नहीं पहुंचाती थीं। उनके लिये बचती थीं औसत नौकरियां या अध्यापन। पहले आइ ए एस में इन डिग्रीधारियों का नम्बर लग जाया करता था, लेकिन कुछ अरसे से इस लाइन में भी प्रोफेसनल लोगों ने धावा बोलना शुरु कर दिया है। बाजार की कहानी और भी अजीब थी। जहां मांग सिर्फ विशिष्टता, स्पेशलाईजेशन की थी, चाहे वह किसी भी क्षेत्र में हो। इन क्षेत्रों में थोडा कम अंक वाले आदमी को भी किसी न किसी नौकरी की उम्मीद रहती ही थै, लेकिन सामान्य विषय में पीएच डी बाज़ार में कोई खास कीमत नहीं रखते थे। उन्हें भी क्लर्की से लेकर आइ ए एस तक के लिये लगातार आवेदन करते रहना पडता था। बल्कि कम पढे लिखे बेरोजग़ारों के साथ एक सुविधा रहती थी कि वे जरूरत पडने पर खुद को किसी भी छोटे मोटे काम में फिट कर लेते थे। ये कम पढे लिखे बेरोजग़ार वक्त जरूरत बाजार में केले, सेब या प्याज भी बेच सकते थे, रिक्शा चला सकते थे बल्कि चला भी रहे थे। कुछ भी नहीं तो अपना सब कुछ बेच बाच कर मिडल ईस्ट की तरफ मजदूरी करने ही निकल जाते। लेकिन अब तो हालत यह है कि किसी भी छोटे काम पर किसी वर्ग विशेष का अधिकार नहीं रहा। ऊंची डिग्री वाले भी चपरासी, बस कंडक्टर और हमालगिरी की टुच्ची नौकरियों के लिये अपनी असली डिग्री छिपा कर सामने आने लगे थे। कहा जा सकता था कि देश ने पढाई के मामले में अब इतनी तरक्की कर ली थी कि अब यहां रिक्शे वाले, खोमचे वाले, पान बीडी वाले और यहां तक कि बिन्दी सुर्खी बेचने वाले भी एम ए, बी ए पास होने लगे थे। बेरोजग़ारी तो उन्हें एक कप चाय और एप्लाई करने के लिये डाक खर्च तक के लिये रुला डालती थी। भूखे रह कर घुटते रहने से तो बेहतर था कि जो भी जैसे भी मिल रहा हो, ले लो। इसे छोडें तो हथियाने के लिये दस लोग लाइन में खडे मिलेंगे। जिन्दा रहने के लिये कोई भी शर्त बडी नहीं थी। कथानायक की दूसरी नौकरी भी बहुत थोडे दिन चल पाई थी। काम था एक वकील की डाक संभालना और उसके लिये मैसेन्जर का काम करना। वैसे इस नौकरी में कोई खास तकलीफ नहीं थी, पैसे भी ठीक थे और वकील साहब का व्यवहार भी अच्छा था। लेकिन जो तकलीफ थी, उससे किसी भी तरह से पार नहीं पाया जा सकता था। उसके कॉलेज का समय, टयूशन का समय और वकील साहब के यहाँ हाजरी बजाने का समय एक ही था। वकील साहब पूरा दिन मांगते थे तो कॉलेज की पढाई और आने जाने के लिये भी उसे उतने ही समय की जरूरत होती। उसे हर हालत में रोजाना दो चीजें छोडनी ही पडतीं। टयूशन का समय तो फिर भी बदला जा सकता था लेकिन बाकी दोनों समय उसके बस में नहीं थे। यहां भी नौकरी ही छूटी थी। वकील साहब ने भी यही सलाह दी थी कि पहले पढाई पूरी कर लो, तभी ढंग की कोई नौकरी तलाशो। मेरे यहाँ काम करते रहने से अगर तुम्हारी पढाई का हजर्ा होता है तो यह दोष मैं अपने सर नहीं लेना चाहूंगा। वैसे कभी भी भी फीस वगैरह के लिये रूपये पैसे की जरूरत हो तो। यह बात दीगर है कि ये नौकरी छूटने के बाद भी पढाई नहीं चल पााई और वह पूरी तरह बेकार हो गया था। उसे यहां आने की तारीख आज भी याद है। अपने शहर ने तो मुश्किल से रुला रुला कर एक डिग्री दी थी। इसके बीच एक लम्बा सिलसिला टयूशनो, प्राइवेट नौकरियों और बेरोजगारी के दौरों का रहा था। कभी नौकरी के लिये पढाई तो कभी पढाई के लिये नौकरी। कभी दोनों साथ तो कभी दोनों ही नहीं। तरह तरह की दुकानों में सेल्समैनशिप की। लॉटरी के टिकट तक बेचे। सडक़ों पर खडे होकर ब्रेजरी से लेकर बॉल पैन तक बेचे। सिर्फ इस उम्मीद में हर तरह के काम में खुदको खपाये रखा कि अच्छे दिन बस आते ही होंगे। उसने किसी काम को छोटा नहीं समझा था। हालांकि इस वजह से कई बार उसे बहुत शर्मीन्दगी उठानी उडती। तब वह बी ए में पढ रहा था। छुट्टी के दिन और शाम के वक्त छोटा मोटा काम करके अपना खर्च निकालता था। उस दिन रविवार था। जिस दुकान से बेचने के लिये होजरी का सामान लाता था, उसने उस दिन अलग अलग साइज क़े ब्रेजरी के कई डिब्बे पकडा दिये और आंख मारते हुए बोला, ले जा बेटा, मजे क़र। ग्राहक को ये नायाब तोहफा सस्ते दामों पर बेच। नयन सुख वहां से लेना और डबल कमीशन मैं दूंगा। उसने लाख कहा कि वह यह आइटम इस तरह सरे आम आवाजें लगा कर नहीं बेच सकता, लेकिन दुकानदार ने एक नहीं सुनी थी और उस दिन पहली और आखिरी बार सडक़ पर खडे होकर यह आइटम बेचा था और उसी दिन गडबड हो गयी थी। वे चारों साथ थीं और एकदम उसके ठीये के सामने आ खडी हुईं थीं। वह और उसकी तीन सहेलियां। उसके सामने आ खडे होने से पहले न तो उन्होंने उसे देखा था न वह ही उन्हें आता देख पाया था। लडक़ियों में से किसी को भी उम्मीद नहीं थी कि उससे इस तरह, इस हालत में ये सब बेचते हुए सामना हो जायेगा। –
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