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प्रेत कामना यह वह एक पल था, जिसे यूं तो सभी लोग एक साथ अपने - अपने तरीके से जी रहे थे पर यह वह पल था, जिसे तीन लोगों ने गहनता से महसूस कर जिया, यूं यह वह पल भी था जो बीत रहा था रेंगता हुआ। यही वह पल था तेज रफ्तार गाडियों के बीच बचता - बचाता जिया जा रहा था। कहीं यह पल चौथाई चांद की पीली मटमैली रात में पेड क़ी फुनगी पर अटका बस टपकने को था। यह पल थाजो रेगिस्तान के कैक्टस में पानी की एक लसलसी बूंद बन कर एकत्र हो रहा था आने वाले सूखे मौसमों की प्यास बुझाने को। दरअसल सलिल के लिये इस अवाक् पल की भूमिका तब बनी, जब वह अपने मल्टीनेशनल कंपनी के दफ्तर से, लिफ्ट से उतर रहा था और उसने लिफ्ट में एक खांसते परेशान अस्थमैटिक बूढे क़ो देखा था। अनायास उसे अपना जनक याद आ गया था। एक बडे फ्लैट में तन्हा।
व्यस्तता की घनेरी परतों
और नई जिम्मेदारियों के भुलावों के बीच खोया हुआ,
उसका कर्तव्यबोध किसी पुरानी पोस्टकार्ड पर लिखी
चिट्ठी सा निकल पडा था और उसे पापा बेतहाशा याद आये थे।
हालांकि वे इसी
शहर में रहते थे।
पर उनसे मिले हुए
उसे आधा साल गुजर गया था।
पिछली बार जब वह
उनसे मिला था,
तब तो वे स्वस्थ ही थे पर उदास थे।
यूं अभी एक साल
ही हुआ है उन्हें रिटायर हुए।
अब वे स्वतन्त्र
लेखन करते हैं।
आज उसे मम्मी भी
याद आ रही हैं कि वे होतीं,
तो शायद वह आज इतना परेशान नहीं हुआ होता।
पर वे तो
वह कांप ही गया था,
अभी कल परसों ही तो एक मैगजीन में पढा था कि एकाकी
विधुर पुरुष कम ही जी पातें हैं।
उनकी बनिस्पत जो
अपने जीवनसाथी के साथ होते हैं या फिर अपने परिवार के साथ। ह्नपापा की चौडी ग़ोरी पीठ पर लिपटी दो नर्म - नाजुक़ बाँहे! उसने तो कभी मम्मी के साथ भी पापा को यूं नहीं कनपटियां गर्म हो गई थीं। अचानक सारा कमरा आउट ऑफ फोकस हो गया। गहरे सन्नाटे में बेसुध सांसे ही इतना शोर कर रही थीं, कि उन दोंनों में से किसी को उसकी उपस्थिति का भान तक नहीं हुआ। वह पल टूटने को ही था - कि करवटें मुखर हुईं, एक सानुपातिक सांवली अर्धनग्न देह दिखने लगी, जो वल्लरी सी पापा से लिपटी थी दो जोडी पैर आपस में उलझे थे। दो जोडी आंखें एक नशे में अधखुली सी उसको देख कर भी नहीं देख पा रही थीं। पापा के चौडे वक्ष के फैलाव में दो सलेटी मांसल उभार पापा के होंठ जिन्हें घनेरी प्यास के साथ सहला रहे थे। जुगुप्सा से उसका जी मितलाया और पापा के उस उदार महान रूप के भ्रम को तोडक़र ही यह पल टूटा। यह पल क्या टूटा एक बची खुची डोर सी टूट गयी, जो उसे पापा के पास खींच कर लायी थी।वह दस दस मन के भारी पैर लेकर जीना उतर कर सडक़ पर आ गया।
एकाएक इस पल की
खिंचावदार टूटन से बुरी तरह आहत हो उसका एकदम से घर जाने का मन जरा भी
नहीं था।
अंधेरे कोने में कार
पार्क कर,
वह फ्लैट के बिलकुल सामने वाले पार्क की एक बैंच पर बैठ,
अपने घर के सिलहट्स देखने लगा।
करीब और दस मिनट
बाद उस बेडरूम की लाईट जली।
जाली के पर्दों
पर उनकी काया उभरी,
उनकी देह से एक ढलते पुरुषार्थ के दंभ का स्त्रोत -
सा फूटता दिखाई दिया।
उसे भान सा हुआ,
जैसे वे उसे ही जता रहे हों कि -
बूढा व अकेला नहीं हूं मैं,
मेरी दुनिया अब भी रस से खाली नहीं।
वह चिढ सा गया।उनकी
परछांई स ही उलझ गया, ''
शोभा देता है यह सब? अब इस
उम्र में? '' तीसरी मंजिल के उस फ्लैट में, जिसे वह अपना घर कहते कहते, अब किसी ओर घर को अपना घर कहने लगा है( यह पापा का घर रह गया है अब) अब हलचलें खामोश हो गईं थीं, उजाला तैर रहा था। वही कमरा जहां मम्मी पूजा करती थीं, सिसकारते अपवित्र अंधेरों के बाद अब जगमगा रहा था। दो परछाईयां फिर खडी होकर उलझीं और ढह गयीं नीचे को। वह दिव्या का कमरा। वह पापा की स्टडीदोनों में अंधेरा था पर अब किचन की बत्ती जली पापा घबरा कर बालकनी में आकर अंधेरों में उसे ढूंढ रहे हैं। दूसरी परछांई घबराई - सी बगल में खडी है। उसने देखा, इस घबराई परछांई से पापा जल्दबाजी में अलग हो, पार्क की गई कारों में उसकी कार ढूंढ रहे हैं, ओह! जल्दबाजी में खाने का पैकेट वहीं छोड आया हूं मैं ! वे दोनों नीचे उतर आये हैं अब और वह एक दरख्त के पीछे आ गया। अरे! यह घबराई सी, हताश परछांई तो जानी - पहचानी है। पापा की दिल्ली वाली रिसर्चस्कॉलर अणिमा। जिसकी बडी आंखों और सांवले रंग की लहराती देह में गजब का जादू हुआ करता था जब पापा जे एन यू में, हेड ऑफ द डिपार्टमेन्ट हुआ करते थे, तब वह बारहवीं में पढता था और अपने दोस्तों में उसके सांवले सौंदर्य की सरस चर्चा किया करता था। ये यहां कैसे? इतने दिनों बाद? ये तो अमेरिका में थी सिमोन द बाऊवार का दूसरा संस्करण! ऐसे ही कुछ लेख लिखा करती थी यह, दिव्या हंसी उडाया करती थी इसकी तो। दादी भी इसके बारे में अच्छी राय नहीं रखती थीं। ऐसी खुली छुट्टी लडक़ियों से लल्ला को दूर रखा कर री बहू। मम्मी हंस कर रह जाया करती थीं। मम्मी पूजा करती थीं पापा की। मम्मी के वही विश्वास और आस्था आज उसके सामने न जाने कितने सालों से यह सब चल रहा होगा! फिर उसकी कनपटी जलने लगी। वह निस्पन्द सा बैठा रहा इधर। उधर पापा थके कदमों से उपर जाकर बॉलकनी में बैठे हैं। वो छूटते पुरुषार्थ का दंभ उनके अन्दर अब दम तोड रहा है। कंधे झुके हैं और वे कांपते हाथों से सिगरेट सुलगा रहे हैं। वह सोच रहा था कि - मेरा अब उनसे यह भी पूछने का मन कतई नहीं करेगा कि कैसे हो आप? अकेले कहां हो आप अब? है न नई दुनिया! जा रहा हूं मैं। वह तेज क़दमों से कार की ओर बढाझटके से स्टार्ट कर बिना आस पास देखे जूऽऽम से कार लेकर निकल गया।
यह वह पहला और आखिरी पल
था अणिमा के लिये -
मुक्ति का, उस लम्बी
प्रेतकामना से मुक्ति का, जो जे एन यू के उन अल्हड दिनों में जब उम्र स्वयं के मूल्य और भविष्य के सपने गढा करती थी। सर ही थे जिन्होंने विचारों की धुंध को दूर कर एक आकार दिया था। एक साफ - शफ्फक व्यक्ति। मानवशास्त्र का महान ज्ञाता एक लेखक एक स्कॉलर। जिनकी परछांई भर छू लेना बहुत होता था। बहुत गर्व था उसे कि वह उनकी रिसर्च स्कॉलर है। दस और भी थे, पर उसे पता था कि वह विशिष्ट है। उनके लेखन की उनकी विरासत सिर्फ उसे मिली थी, उनके साथ कई सेमिनार्स के पर्चे उसी ने तैयार किये थे। वह उन कौरवों पाण्डवों में अर्जुन थी। प्रिय शिष्या! भरोसेमंद जिसे वे अपनी विरासत सौंप कर निश्चिन्त हो सकते थे।
उन्हें डर भी था कि वह
शादी के बाद इस क्षेत्र के प्रति अपना डिवोशन छोड बैठेगी।
और उसने ठान लिया
था कि -
मैं शादी ही नहीं करुंगी और वही समय था कि मैं अर्जुन से एकलव्य बन गई।
वह घबरा गई थी।
हाय! नहीं होगा
उससे यह सब।
मानो वह एक औरत न हुई
कंधों पर हल का जुआ साधे बैल हो गई।
कितने ही
प्रस्ताव उसे स्वयं मिले,
कितने ही मम्मी पापा के जरिये।
बस विवाह के
प्रति उसकी आसक्ति हुई ही नहीं।
उसके लक्ष्य
दूसरे ही थे।
पहले उसके सहपाठी फिर
सहयोगी बने मिलिन्द ने तो कितनी प्रतीक्षा की थी उसकी फिर खीज कर कह ही
दिया था ''
अणिमा तुझ पर तो सर की विशाल, भव्य
बुध्दिमत्ता, उनके यश और व्यक्तित्व की छाया
पड ग़ई है और तू उससे मुक्त होकर ही किसी अन्य के बारे में सोच सकती है।
और नहीं मुक्त
हुई तो टंगी रहना त्रिशंकु सी।
उस खडूस बुङ्ढे
ने ही समझाया होगा कि अणिमा तुम विवाह के लिये नहीं बनी हो।''
उसने कभी मिलिन्द के साथ
प्रेम व्रेम का किस्सा नहीं बुना था,
वो तो स्वयं मिलिन्द और सहपाठी उनकी जोडी बनाते रहते
थे।
हां,
वो दोनों ही बंगाली थे और दिल्ली में परदेसी थे तो
साथ साथ घूमा फिरा करते थे तो एक संभावना साथ जीने की कहीं अंखुआ सकती थी,
अगर मिलिन्द ने उस रोज इतना भला बुरा न कहा होता उसे
और सर को लेकर तो - ''
हाँ,
तीस की उमर में कोई लडक़ी शादी के लिये तैयार नहीं
इसका क्या मतलब है? कि'' वह आहत सी मिलिन्द को देखती रह गई थी। मिलिन्द को वह एक सुलझा हुआ, स्त्री - पुरुष की समानता और व्यक्तिगत स्वतन्त्रता में विश्वास करने वाला व्यक्ति मानती थी। उसका भ्रम टूट गया था। फिर मिलिन्द ने मंजरी से शादी कर ली थी।बहुत बाद में उसने मिलिन्द की बातों पर गौर किया था, तो लगा था कि शायद वह सचमुच सर की बुध्दिमत्ता और महानता की कायल ही नहीं, बल्कि उनसे ऑबसेस्ड भी है। प्रेम तो नहीं था एक अंधी श्रध्दा? कितनी बार अकेले पलों में सर के साथ, अब उसका दिल धडक़ जाता था। पर सर को वैसा ही सहज पाकर धडक़नें संयम की डोरी में बंध जातीं।
दस के दस सहपाठी उसके
युनिवर्सिटी से चले गये।
नये स्टूडेन्ट्स
आ गये।
वह वहीं एडहॉक लैक्चरर
बन गई।
सर का साथ तब तक बना रहा
जब तक कि वे एक प्रोजेक्ट के लिये युनिवर्सिटी की तरफ से तीन साल के लिये
उनके जाने से पहले तीन
बार ये पल जन्म लेने को अकुलाया था।
पहली बार तब,
जब एक सेमिनारमें जाने से पहले उन्होंने अपना पर्चा
अणिमा को पढवाने की बजाय एक नई रिसर्च स्कॉलर को थमा दिया था।
बिफर गई थी वह
मिलिन्द के जलते शब्द अंगारे बन गिर रहे थे उस पर,
बुङ्ढा रसिक है।
हर बैच में से एक
सुन्दर सी कन्या छांट लेता है।
लेकिन सर के पास
जाते ही ऐसा लगा जैसे जलती उंगली बर्फ के पानी में डुबो ली हो।
दूसरी बार वह पल जन्म से
पूर्व ही कालग्रस्त हो गया जब सर ने उसकी मेज पर आकर एक पेपर उसकी ओर
फेंकते हुए कहा था, ''
यह देखो यह पच्चीस साल का प्रोजेक्ट यू एस ए का।
एन्थ्रोपोलोजी तो
ऐसा वास्ट सबजेक्ट है कि इसमें अवसरों की कमी ही नहीं।
आगे रिसर्च करो।
और तुम जैसी जहीन
लडक़ी।
और
यहाँ
एडहॉक बन कर कैरियर
बनाने का क्या मतलब! क्या फायदा हुआ मुझे फिर तुम्हें अपना बेस्ट देने का?
अब
छोडो
यह युनिवर्सिटी
बाहर निकलो दुनिया देखो अच्छे संस्थानों में जाओ।
विदेश जाओ कितने
कितने अवसर हैं।''
तीसरी बार तब
- जब सर की
फेयरवेल पार्टी थी जर्मनी जाने से पहले।
उस बडे
आयोजन
से, पहले
वह उनके साथ थी, उनके ऑफिस मेंदेर तक खामोश। अमेरिका से ही कितने कितने फोन करके - कितने दोस्तों को ढूंढ ढांढ कर सर का पता पूछा था, उनका दिल्ली छोड क़र बम्बई आना तो पता चला था। लेकिन उसे नहीं पता था कि अब वे इस दस साल पुराने पते पर वे होंगे भी कि नहीं। एक खत, एक तार डाला। उत्तर नहीं मिला था। पर वह बम्बई चली ही आई। अपनी छोटी बहन कणिका से भी तो मिलना था। वहाँ से टेलीफोन डायरेक्ट्री में सर का नाम मिल ही गया, महेश्वर पन्त । नाम ही के साथ मुखर हो गयी उनकी आकृति - गोरी, पहाडी मजबूत काठी, औसत कद, चेहरे पर कुमाऊंनी पन्तों का वही तेज, क्लीन शेव्ड चेहरा, तीखी नाक, हल्की शहद के रंग की बडी मगर खामोश स्थिर आंखें, लगातार सिगरेट पीते रहने से गुलाबी से भूरा हो आया निचला होंठ और कामदेव के चाप के आकार का ऊपरी सुर्ख होंठ। काले - सफेद बालों की तरतीब से सधी पंक्तियां। मजाल जो दिन भर में इधर से उधर हो जायें। ''बहुत हैण्डसम हैं ना सर इस उम्र में भी। तू बता? '' मंजरी कहा करती थी। वह कुछ नहीं कहती थी। क्या कह सकती थी, उन आंखों का वीतराग भाव उसे पता था, उन होंठों से झरे शब्दों से ज्ञान, आदेश, उपदेश के अलावा कब कुछ सुना था उसने? पर सुनना चाहती थी! यही वीतराग भाव था, जो एक प्यास जगाता था उसमें। जितना दुर्लभ और रहस्यमय था वह व्यक्तित्व, उतना ही अणिमा को उसका मोह छलता था। उसे बस इतना पता था कि उनके ज्ञान की विरासत उनके सैकडों स्टूडेन्ट्स में से सिर्फ उसे मिली है जितनी निकटता उसे मिली हैसर के सहयोगियों और जूनियर्स को भी नहीं मिली थी। इसी को पाथेय बना उसने एकाकी सा रास्ता चुन लिया था। सर के जर्मनी से लौट आने से बहुत पहले वह अमेरिका चली गई एक बडे प्राेजेक्ट के तहत, फिर लेखन, रिसर्च और फिर मानवाधिकार की एक विश्वप्रसिध्द संस्था एमेनेस्टी इन्टरनेशनल से जुड कर उसने अपने जीवन की सार्थकता पा ली थी।वहां कई बार उसे सर का पत्र मिलता था, उसकी उपलब्धियों पर बधाई के साथ। कई बार उसने सर को सेमिनार्स में पेपर पढने के लिये आमंत्रित किया पर उनका जवाब नकारात्मक ही मिला। उनकी पत्नी के देहान्त की खबर दोस्तों से मिली थी। धीरे - धीरे उनका लेखन भी कम पढने को मिलता था, जरनल्स में। अन्तत: सम्पर्क टूट ही सा गया था। उसका भी फिर कभी भारत आना अगर हुआ भी तो जल्दबाजी में। उनसे कभी मिलने का संयोग ही नहीं हो सका। इस बार एक बडे सम्मान के लिये भारत आने के नाम पर उसे सर से मिलने की बहुत इच्छा हुई थी। आखिर यह सम्मान उन्हीं की बदौलत मिला था, उन्होंने ही उसे वह दृष्टि दी थी कि - वह महज लैक्चरर बनने के लिये नहीं बनी है। उसे इस विषय का, इस विषय में उनके दिये ज्ञान का सही उपयोग करना है।
फोन करते हुए उसका दिल
जोर
से धडक़ गया था।
उसे कुछ नहीं पता
था कि उसे कौन उठायेगा,
उसे क्या उत्तर मिलेगा, रह
रह कर आशंकित हो रही थी वह! अब तक तो रिटायर होने वाले होंगे।
देह ढल गई थीतेज वही था!
आंखों की खामोश चमक वैसे ही थी।
सफेद कुर्ते
पायजामे में सर को देख आत्मीयता से भर गई थी।उन्होंने
जल्दी - जल्दी कुछ ही देर में कितनी - कितनी बातें पूछ लीं
- उसकी उपलब्धियों
की, पीछे छूट गये सूत्रों की,
मानवशास्त्र के नये आयामों पर संभावनाओं की।
इतने बातूनी तो
सर कभी नहीं थे।लंच
कर चुकी थी पर सर के साथ फिर लंच किया था।
तुअर की दाल,
कच्चे आम की लौंजी, सूखे
आलू, चावल और रोटी।
उस दुपहर सर ने बहुत सी
बातें की अतीत की।
जे एन यू
के दिनों की।
न जाने कहां से पिछली
आत्मीयता दोनों के बीच प्रश्न बन कर उभर आई।
शाम टंगी थीसमुद्र के इस
पार ही अभीनारियल के
पेडों
परउस पार जाने की लम्बी
दूरी को देख ठिठकती सीवह पल करवटें ले रहा था वक्त के गर्भ में
चाय लेकर वह बालकनी में
आ गई थी सर ने कन्धों से उसे थाम कर झूले पर बिठा दिया था''
बैठो।''
स्वयं आराम कुर्सी पर बैठ गये थे।
चाय के घूंट भरते
हुए वे दोनों कुछ नहीं बोले सर बस उसे ही बहुत ध्यान से देखते रहे जब तक
कि उसकी प्रकाशवान परछांई सिल्हट न बन गई।
पर कुछ नहीं कहा
कि बहुत बदल गई हो जैसा।
चाय खत्म होने पर
वह फिर जाने को कसमसाई।
अब वे दोनों उनकी स्टडी
में आ गये।
किताबें देखते देखते
उन्होंने उसे एक डायरी दिखाई जिसमें अणिमा के लिखे लेखों की कतरनें थीं।
स्वयं को शीघ्र ही सहज
कर सर उठ कर अपने बेडरूम में चले आये थे।
वह ही पीछे चली
आई थी।
वे वार्डरोब से अपनी
शर्ट पेन्ट लेकर फिर स्टडी में लौट गये
-
अब वह पल जन्म लेने की
कुछ घडियों बाद अणिमा को छोड वैताल सा सर के कन्धे पर चढ ग़या था।
जब वे उसे
क्लान्त छोड रसोई में पानी लेने गये थे।
घबरा कर लौटे और
उसके कपडे ज़ल्दी जल्दी उसे पकडा कर बोले थे
-
वह रुआंसू हो कर एक
कुर्सी पर सर पकड क़र धंस गई।
जब सर सलिल की
कार पार्किंग में न पाकर लौटे तब उन्होंने आकर अणिमा से कहा।
यह कैसा पल था जो अणिमा
की प्रेतकामना के साथ आया और उन पर वैताल की तरह चढ बैठा।
उनके एकान्त में
साल साल भर कोई नहीं झांका था तब कहां मर गया था यह पल?
आज आया भी तो कितना भीषण अपमान लेकर।
वह पल था एक बरसों
संजोये प्रेम का! एक बीज था एक दुर्लभ पौधे का बीज! जिसके उगने के लिये
कभी अनुकूल परिस्थितियां न बन सकीं थीं।
समाज,
परिवार, प्रतिष्ठा
सब कुछ यथावत बने रहें, इसी संयम के तहत।
उन्होंने उस बीज
को कभी एक नरम निगाह की नमी तक नहीं दी थी।
बस उसे दूर कर
सूखे पात्र में रख छोडा था।
आज जब कुछ भी शेष
न था इर्द गिर्द -
न समाज, न परिवार,
न प्रतिष्ठा कुछ भी नहीं तो बहुत दिनौं बाद इस बीज की
याद आ गई थी उसे निकाल कर प्रेम से सींच भर दिया था हाय! सच नहीं पता था
यह बीज नमी के एक अणु मात्र सेअपने तन्तु इतने फैला लेगा कि उन पर उगे
चमकीले चिकने हरे हरे पत्ते उसे पूरा ढंक लेंगे।
वह वल्लरी उनसे
लिपट जायेगी और उसकी शाखाएं दूर दूर तक फैल जायेंगी।
यहां तक कि उसके
भूले हुए अपनों तक भी -
कि वे बरदाश्त नहीं कर सकेंगे और उसे अमर बेल समझ
बैठेंगे वह कैसे समझायेंगे कि - ना! यह परजीवी
अमरबेल नहीं, आर्किड हैअपनी आजाद
जडों
को अपने आप पोषित करता
सुन्दर फूलों में खिलता औरों को मोहता हुआ!
''
मना कर दो जी,
सलिल से आप बहू की
बातों में न आए इसी शहर में होकर अलग घर में ना रहे। आप रोक लो तो रुक
जायेगा। बहू को दवाओं की गन्ध बुरी लगती है तो,
मुझे अस्पताल में
एडंमिट करा दो थोडे दिन। काम के लिये एक आया,
एक नर्स रख लो ना।
नियम धर्म बहू बेटे से ज्यादा नहीं अब क्या इतनी कडवी दवाएं खालीं
नौकरानी के हाथ का खाना भी खा लेंगे।'' जया के चले बाद सलिल उन्हें ले जाने को आया था अपने घर तब भी उन्होंने अपने पोतों की किलकारियों के बीच चुभते तानों की जगह अपना आत्मसम्मान चुना। दिव्या के पास जाने की तो कोई समस्या ही नहीं थी। वहां तो स्नेह ही स्नेह था। पर वही नहीं गया। बेटी के घर जाकर रहे इतने भी बुरे दिन नहीं आये हैं। पचपन भी कोई उम्र है, किसी के सहारे पड ज़ाने की? यह पल तब टूटा कहर बन के , जब वे एक आदर्श पिता की तस्वीर में बंधे बंधे वे थक गये थे। एक आवेशित पल में वे बाहर निकल आये इस फ्रेम से तो! क्या अब वह छवि बिखर जायेगी पूरी की पूरी जिन्दगी की तपस्या से बनी तस्वीर में बाल आ जायेगा? कभी वह कुछ नहीं कह सकेंगे अपनी सफाई में चुपचाप बेटे की नजर में गिरना देखते रहेंगे? वे सलिल की गाडी क़ो मोड से सर्र से गुजरते देख चुके थे। आधी पी हुई सिगरेट फेंक दी। पूरा दृश्य मानो इस एक पल की निर्लज्जता से स्तब्ध था। हवा रुक गई थी, नारियल के पेड दम साधे खडे थे, समुद्र भी मानो चीख चीख कर रोने के बाद अब कहीं धीमी धीमी लहरों में हिचकियां सी ले रहा था बादल घिर आये थे बॉलकनी में बढती तेज उमस और अन्दर की अकुलाहट से घबरा कर वे अन्दर आकर बिस्तर पर जा गिरे। उनका अकेलापन और गहरा हो गया था।अणिमा तक को वे कुछ समझा न सके, उसने क्या सोचा होगा। उस पल वह शायद नहीं समझ पा रही थी - एक एकाकी पिता को सिहराती, स्वयं को एक स्त्री के साथ सहवासरत होते हुए अपने ही बेटे के द्वारा देख लिये जाने की भीषण ग्लानि कैसी होती है!
बिस्तर पर अणिमा की देह
के आकार की सलवटें बनी थीं।
एक नई गन्ध बहुत
दिनों से अनछुए बिस्तर में आ बसी थी।
थकान,
रुला देने वाले तनाव,
ग्लानि, खुमारी,
दुखके मिलेजुले भाव से त्रस्त, वे उस गन्ध को
खोजते हुए बिस्तर पर गाल रगडते रहे।
दो चार आंसू उन
सलवटों पर जा गिरे कुछ देर पहले बीत कर चुके पलों ने फिर जकड लिया वे तो
चैन से उस खुमार को भी न पी सके थे जो इतने दिन बाद के देह सुख से निथरा
था।
देह सुख से ज्यादा सत था
उन आत्मीय दिनों की बातों में उनकी आत्मीया अणिमा के नेहभरे सान्निध्य
में।
उन्हें फिर चाह हो आई
अणिमा की रोक ही लेते उसे! हमेशा के लिये! एक विद्रोह जगा इस नई जन्मी
परिस्थिति से लडक़र उनमें -
'
सठिया ही गया हूं मैं। वह
क्यों रुकेगी?
क्या दे सकूंगा उसे?
और वहसलिल! उन्हें
बार बार याद आ जाता वह पल कि उफ! कितना भीषण होगा वह पल
स्वयं सलिल के लिये भी ?
सच ही फिर सुबह सलिल का
फोन आया था, वह पल अब जगमगा रहा था। अपनी प्रेतबाधा से मुक्त नया जन्म लेकर हंसता खिलखिलाता! वह पल बह रहा था निर्बाध होकर, वक्त की लहरों के समानान्तर। |
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