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o शिशु संत्रास
होली के पास प्रिंसीपल
साहब और उनकी मिसेज मिलने घर आये थे।
बातों ही बातों में
मैं ने पूछ लिया, ''
सर कोई डिमोन्ट्रेटर की पोस्ट खाली है क्या?
अपने एक सहपाठी दोस्त के लिये पूछ रहा
हूँ।'' मन तो भारी था ही खिन्न भी हो गया। प्रिंसीपल साहब के जाते ही मैं ने अपने दोस्त की चिट्ठी निकाली और उसे पत्र लिखने से पहले उसे पढने लगा। बीवी ने बिना कुछ कहे चाय लाकर लिख दी और बोली, '' आय एम सॉरी!'' मैं पत्र पढने लगा: मेरे अजीज दोस्त, मन में निश्चय किया था तुम्हें पत्र नहीं लिखूंगा। तुम्हें आगे ही बहुत परेशान किया है अब और नहीं करुंगा। लेकिन कुछ तो परिस्थितियों की मजबूरी और कुछ मन की बेचैनी, कि आखिर लिख ही रहा हूँ। लिख दूंगा तो मन कुछ हल्का हो जायेगा। तुम और मधुप दो ही तो हो जो मेरी अन्त:स्थिति और मजबूरी समझ सकोगे। वरना तो किसी को कुछ भी नहीं पता। कोई समझेगा भी नहीं। तीन दिन हुए सस्पेन्शन आर्डर आ चुके हैं। शीघ्र ही बर्खास्तगी होने के आदेश भी आने वाले हैं। मैं ने अपनी इस्तीफा भेज दिया है। अगर वह स्वीकार हो गया तो अपने आपको खुश समझूंगा। एक डॉक्टर के लिये इस तरह जलील होकर नौकरी से निकलने से बढक़र शर्मनाक और क्या हो सकता है? लेकिन मैं क्या करुं। तुम तो जानते ही हो कि प्रसव अवस्था वाले केसेज में मैं कैसा लाचार हो उठता हूँ। मैं उनको हाथ लगाने से डरता हूँ। प्रसूता के दर्द और नवजात शिशु को हाथ लगाने मात्र की कल्पना से हाथ कांपने लगते हैं। वैसे तो गांव में मर्द डॉक्टर को डिलीवरी केसेज में कोई भी नहीं बुलाता लेकिन जब कोई केस खराब हो जाता है तो आखिर बुलाते ही हैं। सौभाग्य से ऐसे केस कम होते हैं। लेकिन मेरा दुर्भाग्य ही समझो कि 15 दिन पहले एक केस आया। जैसा कि ऐसे केस में मैं करता हूँ, मैं ने बिना देखे उसे शहर ले जाने को कहा। स्त्री के पति की आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं थी कि उसे शहर ले जाता। कहने लगा जो करना है मैं ही करुं। हमारी नर्स, जो गांव में दाई का काम करती है, ने बताया कि दर्द तो दिन से उठ रहा है लेकिन तेज नहीं। बच्चेदानी का मुख पूरी तरह से खुला नहीं है लेकिन झिल्ली फट चुकी है और पानी बह चुका है। शायद बच्चे का हिलना डुलना भी बन्द हो चुका है। मुझे जाकर देखना चाहिये था। लेकिन में नाखून चबाता अपने कमरे में चक्कर लगाता रहा लेकिन मरीज क़ो देखने नहीं गया। मन को बहलाया कि जाकर भी क्या करुंगा। अगर बच्चा जिन्दा भी है तो मैं ऑपरेशन नहीं कर सकता और वह शहर लेकर जायेगा नहीं। अत: बच्चा पेट में मर गया है तो जो होना है हो जाये। मैं देखकर करुंगा भी क्या? मन धिक्कारता रहा लेकिन मैं बेबस था। मैं ने मरीज क़ो एनिमा लगवा दिया, उसे दवाइयां भी दिलवायीं, जिससे तेज दर्द हो लेकिन स्वयं नहीं गया। उस स्त्री के पति ने समझा कि मैं पैसे नहीं मिलने की वजह से नहीं गया। वह किसी से मेरी फीस के पैसे मांग लाया। लेकिन मैं अपने कमरे से निकल कर नहीं गया। उसके प्रश्न का कि आप एक बार चलकर देख तो लीजिये मैं क्या उत्तर देता? आखिर उसके मरा हुआ बच्चा पैदा हुआ। गनीमत है उस स्त्री को कुछ नहीं हुआ। लेकिन इस केस में मेरी बदनामी बहुत हो गयी। कुछ लोगों ने डायरेक्टर के पास शिकायत भेजी और मुझसे सफाई मांगी गई, पूछताछ हुई और फिर एक वार्निंग मिली। यह तो गांव के लोग मुझसे खुश थे वरना तबादला हो गया होता। अभी गांव के लोग उस घटना को भूले नहीं थे कि मेरे दुर्भाग्य से फिर एक वैसा ही केस हो गया। मेरे क्वार्टर के सामने एक खुशहाल किसान का पक्का मकान है। उसके लडक़े की बहू के बच्चा होने वाला था। प्रथम संतान। घर में काफी दिनों बाद बच्चा हो रहा था। वे उस नर्स को बुलाकर ले गये। उसने देखकर बताया था कि अभी समय है। रात में मुझे रह रह कर उसकी चीख सुनाई देती रही। मुझे नींद नहीं आई केवल इस डर से कि कहीं कोई बुलाने न आ जाये। सोचा कहीं चला जाऊं। लेकिन रात को गांव से कहीं जाना भी संभव नहीं होता। इस तरह कई घण्टे बीत गये। दर्द बार बार आते ही रहे। उसके घर में नर्स, पास पडोस की कुछ औरतों आदि का जमघट था पर नतीजा कुछ नहीं निकला। मैं ने किसी और को कहते सुना कि बच्चा टेढा है। सोचा हे, भगवान! क्या ट्रांसवर्सलाई है? अगर ऐसा है तो स्वाभाविक डिलीवरी तो नहीं हो पायेगी। तब क्या वे मेरे पास आयेंगे? मेरे हाथ पांव कांपने लगे। तुम विश्वास नहीं करोगे खिडक़ी से बार बार छुपकर देखने और कमरे में चहलकदमी करते करते अपनी उंगली के नाखून दांतों से इतने कुतर डाले कि लहू बहने लगा। तभी किसी औरत में पितर जी को बुलाया गया। मैं खिडक़ी से देखता रहा। एक औरत के सामने दिया जलाया गया, कुछ टोटका टमका किया और फिर वह औरत झूमने लगी। पितर आ गये, उनकी पूजा की गई। फिर उनसे पूछा गया कि क्या किया जाये। पितर जी ने कहा कि अपने आप बच्चा हो जायेगा। उन्होंने खबरदार किया कि डॉक्टर को न दिखाया जाये वरना बच्चा और जच्चा दोनों मर जायेंगे। मुझे उनकी अन्धविश्वास भरी इस मूर्खता पर क्रोध भी आया और सांत्वना भी मिली। सांत्वना इसलिये कि चलो मैं तो बचा। ळोकिन जब और कुछ घण्टों बाद हालत बिगडी तो पौ फटते ही एक आदमी पास के एक बडे ग़ांव से सयानी दाई को ले आया। शायद अब दर्द कम पड चुके थे। उस दाई को पटाखा लाने को कहा। गांव में पटाखा कहां मिलता? आखिर एक चाभी में माचिस का रोगन डाल कर उसमें एक कील लगा कर जोर से पटाखा छोडा गया। खूब जोर से धमाके की आवाज हुई। मैं हैरत से देख रहा था कि यह सब क्यों किया जा रहा है। फिर सोचा शायद इस जोर की आवाज से डर के मारे जच्चा की मांसपेशियां सिकुडें यही सोच कर ऐसा किया जा रहा है। बाद में मैं ने किसी से सुना कि हाथ बाहर निकल आया है। हालात की नजाकत का अंदाजा कर मुझे कंपकंपी हो रही थी। गुस्सा आ रहा था कि कमबख्त दाई उन्हें शहर ले जाने को क्यों नहीं कह रही है? बच्चा तो शायद मर ही गया होगा। जच्चा की जान पर भी बन आयेगी।लोकिन शायद वह हाथ डालकर बच्चे को घुमाने की कोशिश करती रही या उसे उल्टा खींच बाहर निकालने की कोशिश करती रही कि हठात घर में भागदौड मच गई। जच्चा की हालत बहुत खराब हो गई। नाडी नहीं मिली। भागा भागा एक आदमी मुझे बुलाने आया। मेरा हाल बेहाल! इधर उधर का बहाना बनाया कि अभी आता हूँ पर गया नहीं। उस बच्चे के हाथ की काल्पनिक तस्वीर मात्र से मेरे हाथ इतने कांप रहे थे कि उसे छुपाने में पीठ पीछे कर बांधे था। एक आदमी फिर बुलाने आया और मैं ने कांपते कांपते अभी आने का दिखावा भी किया। दो कदम पर घर था परन्तु मैं नहीं गया।तभी वहां से चीखने और रोने की आवाज सुनााई दी। वैद्य जी आ गये थे, वह स्त्री मर चुकी थी। अभी कुछ दिन पहले तो होकर चुका ही था और आज फिर यह कांड। वैसे भी मन ग्लानि और क्षोभ से डूबा था। उधर लोगों के गुस्से का ठिकाना न था। उस दाई और वैद्य जी ने भी सारा दोष मुझ पर मढ दिया। उस स्त्री की मृत्यु के लिये मैं कितना दोषी था यह तो अलग बात है पर फल यह हुआ कि मुझे सस्पेंशन ऑर्डर मिल गये हैं।
मैं ने अपना सामान बांध
लिया है और आज ही यहां से जा रहा
हूँ,
अपने गांव नवलगढ।
अपने मां - पिताजी
और बहन के पास रहूंगा।
बडी मुश्किल से
तुम्हारी और मधुप की कोशिश से यह नौकरी मिली थी,
और आज यह भी गई।तुम
तो मेरे परिवार की आर्थिक स्थिति जानते ही हो।
अगर शीघ्र ही नौकरी
की व्यवस्था नहीं हुई तो बडी मुश्किल होगी।
लेकिन ऐसी नौकरी
ढूंढना जिसमें मरीज न हों। मैं ने विनय को पत्र लिख दिया कि वह एप्लीकेशन भेज दे। उसकी इच्छा के मुताबिक ही किसी नौकरी की व्यवस्था करुंगा। उसको यह भी लिखा कि हताश न हो और अगर किसी तरह की आवश्यकता हो तो निस्संकोच मुझे लिखे। आखिर में उसे लिखा कि उसकी भाभी उसे याद कर नमस्ते लिखवा रही है। और कह रही है, कुछ दिनों के लिये यहां आ जाओ। मन उदास था, मैं अपने कमरे में चहलकदमी कर रहा था। बीवी के यह पूछने पर कि ऐसी क्या बात है कि विनय किसी भी डिलीवरी केस से ऐसा डरता था। मैं ने कहा कुछ ऐसे वाकयात होते हैं कि जो दिल में एक दहशत छोड ज़ाते हैं। उसके साथ ऐसा ही हुआ था। कलकत्ता का मेडिकल कॉलेज। हम अंतिम वर्ष में थे। हर दो लडक़ों को मिलकर चालीस डिलीवरी केसेज क़रवाना जरूरी होता था। कलकत्ते के अस्पताल में अधिकतर डॉक्टर मर्द होते थे और वहां राजस्थान आदि प्रान्तों की तरह औरतों को मर्द डॉक्टरों से इतनी झिझक नहीं थी। डयूटी स्टूडेन्ट्स का कमरा नीचे था। जिसमें बिजली की घण्टी लगी थी, केस टेबल पर आते ही बजा दी जाती थी। भागकर जाना पडता था वरना डर रहता था कि अगर जल्दी बच्चा हो गया तो वहाँ की ट्रेनी नर्स वह केस ले लेगी और हमें अपने चालीस डिलीवरी केस पूरे करने का इंतजार करना होगा। हमारी तरह ट्रेनी नर्सों को भी एक निश्चित नम्बर केस करवाने पडते थे, केवल सीधे सादे केस हमें मिला करते थे। पहली डिलीवरी वाले केस और अन्य सभी केस डॉक्टर लोग करते थे। पहले ये मुआयना कर ऐसे केस छांट दिये जाते थे जिन्हें छात्र करते थे। डॉक्टर और ट्रेन्ड नर्स शुरु में एक दो केस करके दिखाते और बाद में आवश्यकतानुसार मदद के लिये उपलब्ध रहते। वैसे हर छात्र अपनी पढाई के दौरान काफी केस देख लेता था। कमरे में पडे पडे बोर होते थे। अत: हम सभी की यही इच्छा होती कि जल्दी से चालीस केस होजायें तो पिण्ड छूटे। दूसरे दो छात्रों का नम्बर आये। उस रोज सवेर से कोई केस नहीं आया था। न कोई भरती हुआ, ऐसा लग रहा था कि आज कोई आयेगा भी नहीं। मैं ने अपने साथी से कहा कि मैं तो सिनेमा जा रहा हूँ। अगर कोई केस आये तो संभाल ले। इत्तफाक से दो तीन केस आ गये और साथ ही प्रोफेसर भी एक केस करने आ गये। मेरे वहां से लापता होने की सजा मुझे यह मिली कि मुझे दस केस और करने के ऑर्डर्स आ गये। चूंकि मेरे साथी के केस पूरे हो चुके थे अत: विनय मेरे साथ आ गया। दो छात्रों में से एक डिलीवरी करवाता था और नाल काटने के बाद बच्चा दूसरे को पकडा देता था। दूसरा बच्चे को नहलाता, उसकी सफाई करता, नाल की पट्टी करता। जबकि पहला जच्चा के पास नाल गिरने और उसके बाद की देखरेख के लिये रहता। एक बार मैं ने एक डिलीवरी करवाई और नाल काटकर बच्चा विनय को पकडा दिया। छोटा सा नवजात शिशु छोटा और इतना नाजुक़ होता है कि उसे पकडने में डर सा लगता है कि कहीं चोट ना लग जाये। साथ ही उसके शरीर पर चिपचिपा और फिसलना पदार्थ लगा रहता है कि डर लगता है कि कहीं हाथ से फिसल कर न गिर जाये। बच्चे को कैसे पकडा जाता है आदि एक दो बार करने पर ही आता है। कैं ! कैं ! रोते बच्चे को लेकर विनय दूसरे कमरे में पहुंचा ही था कि धप् की आवाज हुई और साथ ही वहां की नर्स और आया जोर से चीख उठीं। बच्चा विनय के हाथ से गिर गया था, किसी ने चीख कर कहा, '' डॉक्टर को बुलाओ।'' भाग दौड मच गई। इधर उसकी मां चीख उठी, उठ बैठी और मेरा बच्चा कहकर टेबल से उतर पडी। अभी नाल निकलना बाकी थी। लडख़डा कर वह वहीं गिर पडी। अब मैं चीखा था, '' सिस्टर! '' क्या भाग दौड और हंगामा मचा था भागती नर्स, डॉक्टर, ऑर्डर, डाँट, आवाजें, स्ट्रेचर - एक अजीब सा माहौल हो गया था। जब जच्चा और बच्चा दोनों की देखभाल हो चुकी और दोनों ठीक और सहज हो गये तो सबकी नजर विनय पर पडी।
वह एक कोने में खडा था,
चेहरा जर्द हो रहा था और हाथ बुरी तरह कांप रहे थे। |
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