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जीन - काठी
(भुंडाः पहाडी समाज का एक विचित्र, उत्कृष्ठ और विशेष उत्सव माना जाता है जिसे पुराने समय में हर बारह वर्ष के बाद मनाए जाने की परम्परा थी। लेकिन पहाडों में आज इसके आयोजन का कई कारणों से कोई निश्चित समय तय नहीं है। इसमें 'बेडा' नामक दलित जाति के परिवार से एक व्यक्ति का चुनाव करके उसे यज्ञोपवीत धारण करवाकर ब्राह्मण बना दिया जाता है। उत्सव में बेडा की देवता और ईश्वर की तरह पूजा होती है। पहाडों में इस जाति के अब गिने-चुने परिवार ही बचे हैं।)
सहज
राम उर्फ सहजू अब दलित नहीं रह गया था।उसे
ठण्डे पानी से नहलाया गया।
पूजा
के उपरान्त सारे संस्कार ब्राह्मणों की तरह करवाए गऐ।
यज्ञोपवीत धारण करवा कर उसे द्विज बना दिया गया।
अब वह
नीच जाति का न रह कर ब्राह्मणों की तरह पवित्र हो गया था।
लोग
उसे देवता का रूप मानने लगे थे।
एकाएक
अछूत से ब्राह्मण बन गया था सहजू।
अब उसे
विशेष विधि-विधान का पालन भी करना था जिसमें एक समय खाना खाना,
नख और केश न काटना तथा ब्रह्मचर्य का पूर्ण पालन करना
इत्यादि शामिल था।
भोजन
और कपडे उसे मन्दिर की तरफ से मिलने शुरू हो गए थे।
यहां
तक कि आयोजन की अवधि तक उसके पूरे परिवार का खर्चा भी देवता कमेटी को ही
उठाना था।
लोग
देवता के तमाम वाद्यों के साथ एक पहाडी पर सहजू को लेकर मूंज का घास काटने
चले गए थे।
पहले
सहजू ने ही दराटी से घास काटने की परम्परा का निर्वाह किया था।
इसके
बाद सभी गावों वालों ने घास काटना शुरू कर दिया।
जब
पर्याप्त मात्रा में घास काट लिया गया तो सभी ने घास की गड्डियों को मन्दिर
के प्रांगण में लाकर रख दिया।
इसी
घास से सहजू को भुण्डा के लिए रस्सा बनाना था।
उत्सव
स्थल का मुआयना किया गया तो कुल लम्बाई
500
मीटर की निकली।
इतना
ही लम्बा रस्सा बनना था।
मजबूती
के लिए उसकी मोटाई लगभग
25-30
सेंटीमीटर रखनी ज़रूरी थी।
जब सहजू रस्से बनाने का काम बन्द करता तो गांव के लोग उनके पास आते जाते रहते। उनसे इज्जत से बतियाते। घास कम होता देख फिर काट कर ले आते। भुण्डा जैसे महा-उत्सव का आयोजन भगवान दत शर्मा के दिमाग की उपज थी। तहसीलदार के पद से शर्मा जी कुछ दिनों पूर्व ही सेवानिवृत हुए थे।
जिस
दिन वे सेवानिवृत हुए,
उन्होंने अपने गांव में पूरे ताम-झाम के साथ एक बडी धाम
दी थी।
इसमें
सगे-सम्बन्धियों के अतिरिक्त गांव-बेड
और
परगने
तक से लोग बुलाए गए थे।
दफतर
से तो उनके नए-पुराने साथी आए ही थे।
उन्होंने अपने चुनाव क्षेत्र के विधायक को भी विशेष रूप से आमन्त्रित किया
था।
विधायक
के साथ प्रशासन के भी सभी अधिकारीगण पधारे थे।
गांव
के देवता को भी बुलाया गया था।
शर्मा
जी जब अपने दफतर से गांव पहुंचे तो साथ दस-पन्द्रह छोटी-बडी ग़ाडियां थीं।
अंग्रेजी बाजे के साथ ढोल-नगाडा बजाने वाली पार्टी को बुलाना भी नहीं भूले
थे।
इससे
जहां उन्होंने तहसीलदारी की ठीस बरकरार रखने की कोशिश की थी वहां लोगों के
बीच अपनी छवि को एक धार्मिक दृष्टि देने का भी प्रयास किया था।
अट्ठावन साल की उम्र में भी भगवान दत शर्मा चालीस के आसपास ही लगते थे। अभी भी गाल लाल थे। झुर्रियों का कहीं नामोंनिशां न था। हालांकि बाल कई बरस पहले सफेद हो चुके थे लेकिन मेंहदी से उन्हें काले किए रखते थे। माथा काफी चौडा था। गोल चेहरा ठोडी तक आते-आते थोडा नुकीला था। हल्की मूंछे उन पर खूब जचती थी। माथे पर चंदन और कुमकुम मिश्रित टीका वे हमेशा लगाए रखते। नौकरी में उन्होंने कभी टाई और कोट पहनना नहीं छोडा। कोट की जेब में टाई के रंग से मिलता रूमाल वे हमेशा रखते। इसीलिए ठाठबाठ देख कर उनके वरिष्ठ अफसरों का भीतर ही भीतर फूंके रहना स्वभाविक था। लेकिन रिटायर होने के बाद उन्होंने अपना लिबास बदल लिया था। अब फेरीदार पाजामे-कुरते के साथ वे नेहरूकट सदरी पहनते और जेब में बाहर झांकता लाल रूमाल सजा रहता। इस चमक-धमक से भी उनका व्यक्तित्व कुछ अलग हटकर ही लगता था। शर्मा जी का परिवार गांव में सबसे सम्पन्न था। वे तीन भाई थे। तीन ही गांवों के मालिक। उन्हें बडे ज़मींदार भी कहा जा सकता था। अपने परिवार में उनकी पत्नी, दो बेटे, दो बहुएं और तीन पोतू-पोतियां थे। दो लडक़ियों की शादी हो चुकी थी। छोटा लडक़ा बी0डी0ओ0 लग गया था। बडा कथ्थे का ठेकेदार था। साथ जमींदारी भी संभालता था। पानी लगती ज़मीन थी। फसलों के साथ खूब सब्जियां भी होती थीं जिनसे अच्छी-खासी आमदनी थी। दो क्वालिस गाडियों के साथ दो ट्रक भी थे। गोरखों की एक लेबर लगातार खेती-बाडी क़े काम में लगी रहती थी। पहला काम शर्मा जी ने देवता कमेटी में घुसने का किया था। कई दिनों तक देवता के कार्यक्रमों में आते-जाते रहे। लेकिन जब कमेटी में सरपंच के चुनाव हुए तो लोगों के पास उनसे बढिया विकल्प कोई नहीं था। सर्वसम्मति से सरपंच चुन लिए गए। यह उनके धार्मिक जीवन की शुरूआत थी। यहीं से ही ग्राम पंचायत की प्रधानी तक जाना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने अभी से जुगाड भिडाने शुरू कर दिए थे। शर्मा जी अब कुछ ऐसा करना चाहते थे जिससे गांव-परगने में ही नहीं बल्कि दूर-दराज के इलाकों में भी उनकी साख का डंका पीटना शुरू हो जाए। उनकी खूब वाह-वाह भी हो जाए और विधायक तथा मुख्य मन्त्री तक भी खूब पहुंच बन सके। उनका पूरा गांव ब्राह्मणों का था। पांच गोत्रों के ब्राह्मण वहां रहते थे। इसे एक प्राचीन सांस्कृतिक गांव भी माना जाता था। कालान्तर से यहां बारह बरस के अन्तराल के बाद निरन्तर भुण्डा महोत्सव हुआ करता था। गांव में कई प्राचीन मन्दिर अभी भी मौजूद थे। जिनका धार्मिक ही नहीं बल्कि पुरातात्विक महत्व भी था। गांव में चार-पांच परिवार दलितों के थे। उन्हीं में एक परिवार ''बेडा'' जाति का भी था जो भुण्डा में मुख्य भूमिका निभाया करता था। लेकिन बरसों पहले उनके परिवार का एक सदस्य भुण्डा का रस्सा टूटने से मर गया था। शर्मा जी ने अपने दादा-पडदादाओं से इस कथा को सुन रखा था जो मन में आज भी तरोताजा थी। जब बेडा को जीन-काठी पर बिठा कर रस्से पर छोडा गया तो कुछ दूरी पर वह रूक गई। बेडा बेचारा न आगे खिसक पाया न ही पीछे हट सका। रस्से में बाट पड ग़ए थे। लोगों ने दोनों ओर से बहुत प्रयत्न किए कि बेडा की जीन-काठी आगे खिसक जाए लेकिन सभी प्रयत्न असफल हो गए। उन्होंने जब रस्से को जोर-जोर से लकडी क़े डंडों से पीटना शुरू किया तो रस्सा टूट गया। बेडा कई सौ फुट नीचे चट्टानों पर गिर पडा और मृत्यु हो गई। उस गांव और परगने के लिए वह दिन बडे अनिष्ट का माना गया था। उसके बाद गांव में भयंकर महामारी फैल गई। गांव की आधी से ज्यादा जनसंख्या मौत के मुंह में चली गई। इसीलिए गावों के ब्राह्मणों ने बेडा के परिवार के साथ दूसरे दलितों को भी गांव से भगा दिया और सारे अनिष्ट का ठीकरा उन्हीं के सिर फोड ड़ाला। और सभी दलितों को वहां से चलता कर दिया था। अपना वर्चस्व कायम रखने के लिए शर्मा जी को इससे बेहतर कोई दूसरा आयोजन नजर नहीं आ रहा था। वे जानते थे कि उस हादसे के बाद गांव में कभी भुण्डा नहीं हो पाया था। हालाकि दूसरे गांवों में कभी-कभार बीस-चौबीस बरसों के अन्तराल में यह आयोजन होता ही रहता था। अपनी तहसीलदारी के रहते उन्होंने भी कई आयोजन करवाए थे। परम्पराएं उसी तरह निभाई जाती थीं लेकिन 'बेडा' को जितने लम्बे रस्से पर उतारा जाता उसके नीचे उतनी ही लम्बी जाली भी बिछा दी जाती थी। बेडा किसी कारण गिरे भी तो उसे तत्काल बचाया जा सकता था। कई जगह 'बेडा' जाति का कोई व्यक्ति उपलब्ध न होने पर लोग बकरे को ही जीन-काठी पर बांध कर छोडते थे। शर्मा जी ने यह बात एक दिन देवता कमेटी के सदस्यों से की। सभी को उनकी बात खूब जची थी। देवता के गूर का विचार था कि उनके गांव पर अभी तक उस अनिष्ट का साया बरकरार है। वह तभी मिट सकता है जब गांव में भुण्डा का आयोजन किया जाए। इससे गांव पहले जैसा सम्पन्न और खुशहाल भी हो जाएगा। लेकिन बात लाखों रूपए के व्यय की थी। आज की महंगाई में इतना बडा आयोजन करना नामुमकिन था। इसका समाधान भी शर्मा जी ने ही निकाल दिया था। उन्होंने तत्काल एक लाख रूपए देवता कमेटी को दान देने का वादा कर दिया। इससे सभी सदस्यों का मनोबल बढ ग़या। दूसरा विकल्प यह निकाला गया कि देवता के पास जो बरसों का सोना-चांदी पडा है उसे अच्छी कीमत पर बेच दिया जाए। देवता का धन यदि देवता के ही काम आए तो इसमें बुरा भी क्या? इस बात पर सभी की सहमती बन गई थी। अब समस्या ''बेडा'' को ढूंढने की थी। गांव में किसी को भी पता नहीं था कि बरसों पहले निकाले जाने के बाद वे लोग कहां जा कर बस गए थे। शर्मा जी ने ही इसका समाधान निकाल दिया था। उन्होंने बेडा को तलाश करने और गांव में लाने की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली थी। देवता कमेटी उनकी सक्रियता को देख कर बेहद प्रभावित थी। उन्हें खूब मान-प्रतिष्ठा भी मिलनी शुरू हो गई थी। देवता से लेकर गांव-परगने के कई दूसरे छोटे-बडे क़ाम अब उन्हीं के सलाह-मशविरे से होने लगे थे। यह सुख शर्मा जी को तहसीलदार की कुर्सी से कहीं बढ क़र लगने लगा था।
शर्मा
जी मन ही मन बहुत प्रसन्न थे।
उन्होंने आयोजन की पूरी रूप-रेखा अपने मन में तैयार कर ली थी।
यह भी
तय कर लिया था कि प्रदेश के मुख्य मन्त्री को मुख्य अतिथि के रूप में
बुलाया जाएगा।
गांव-बेड में जब देवता कमेटी के निर्णय का पता चला तो लोग हैरान-परेशान हो
गए।
इतने
बडे
आयोजन
के लिए वे तैयार नहीं थे।
लेकिन
शर्मा जी और कमेटी के अन्य सदस्यों ने उन्हें समझा-बुझा कर मना लिया था।फिर
इतने बडे पुण्य से वंचित भी कौन रहना चाहता था
? शर्मा जी गांव के एक-दो लोगों को लेकर पहले विधायक जी के पास पहुंचे और इस सन्दर्भ में बात की। ''देखो विधायक जी! हमारे गांव में लगभग डेढ सौ सालों बाद भुण्डा होगा। मुख्य अतिथि तो आपको मुख्य मन्त्री जी ही लाने हैं। इससे आपका भी भला और हमारे साथ गांव का भी फायदा।'' शर्मा जी ने विनम्रतापूर्वक विधायक के आगे प्रस्ताव रखा था। विधायक जी को तत्काल कुछ नहीं सूझ रहा था। उन्होंने भी अपने बुजुर्गों से 'बेडा' के रस्से पर से गिरने से हुई मौत की बात सुन रखी थी। वे खुद भी दलित वर्ग से थे। उनका चुनाव-क्षेत्र आरक्षित था। सिगरेट के कश लगाते हुए काफी देर मन ही मन में बैठकें करते रहे। उनका विचार बरसों पहले घटी घटना की तरफ चला गया। उसकी आड में अपने फायदे-नुकसान का हिसाब-किताब लगाया। दलितों की वोटों की तरफ एक सरसरी नजर दौडाई जो उन्हें पिछले चुनाव में बहुत कम मिले थे। दूसरी सबसे बडी ऌस इलैक्ट्रॉनिक युग में अपनी पुरानी परम्पराओं के साथ अपने को जोडने की लगी। तीसरी जो मुख्य बात समझ में आई वह गांव से निष्काशित 'बेडा' और दलित परिवारों को पुनः इस बहाने सम्मान दिलाने की थी। यह अवसर उन्हें 'ऑल इन वन' जैसा लगा। विधायक जी ने मन में खूब जोर का एक ठहाका लगाया लेकिन उसका भाव चेहरे पर नहीं आने दिया। एक बनावटी मुस्कान चेहरे पर उतारते हुए कहने लगे, ''शर्मा जी! धन्य है आप। नौकरी करते हुए भी अपनी परम्पराएं मन में बचा रखी हैं। वरना रिटायरमैंन्ट के बाद तो लोग सठिया जाते हैं। कोई तो इस गम से परेशान होकर दो साल भी नहीं निकाल पाते। आपने तो इतना बडा बीडा उठाया है। बडी समाज सेवा है भई। मैं तो आपके साथ हूं। मेरे लिए आप जो सेवा दें, सिर माथे।'' शर्मा जी खुश हो गए। मन में कुल देवता को नमन किया। उसी के परताप से सब शुभ हो रहा है। पर दूसरे पल कुछ चिन्ताओं की रेखाएं अनायास चेहरे पर उमडी तो विधायक जी ने टोक दिया,
''
कुछ
परेशान दिख रहे हैं शर्मा जी
? ''
जब
दलित परिवार उस गांव से निकाले गए तो वे कई दिनों भूखे-नंगे भटकते रहे।
उन्होंने मांग-मांग कर गुजारा किया था।
कई
सदस्य मर भी गए।
बडी
मशक्कत के बाद एक परिवार ने उनकी मदद की थी और उन्हें कुछ जमीन भी दे दी थी।
मेहनत
से उन्होंने अपना एक छोटा सा गांव बसा लिया था।
शर्मा
जी ने तो कभी उस गांव का नाम तक नहीं सुना था।
शर्मा जी एक पल के लिए सकते में आ गए। पर उसके खाली हाथ देख हिम्मत बटोर कर उसके सामने चले आए। अपनी गरज थी, दोनों हाथ जोड दिए,'' देखो भाई! जो कुछ आपके साथ हुआ, उसमें हमारा क्या दोष? हम उसके लिए आप सभी से माफी ही मांग सकते हैं। इसी खतिर आए भी हैं। आज जो चाहें आप सजा दे सकते हैं। भला-बुरा बोल सकते हैं। सब कुछ सर-माथे। हम ही नहीं सारा गांव उसके लिए शर्मिन्दा भी है। हम चाहते हैं कि आप भुंडा निभाए। हमारे साथ-साथ पुण्य के भागीदार भी बनें।''
''
तुम्हारे
गांव के बुजुर्गों ने अच्छा नहीं किया था। सब कुछ उजाड दिया हमारा। आज किस
मुंह से आप यहां आए। सच,
कैसे सब्र हो गया। बाबा कुछ बीमार है। ठीक होते तो पता नहीं क्या कर देतेहे
भगवान!''यह
कहते-कहते उसने दोनों हाथों से अपना सिर पकड लिया। जैसे कोई बडी अनहोनी टल
गई हो। '' भाई ! मत समझो कि हम यहां अपनी मर्जी से आए हैं। यह देव आज्ञा है। हम कौन होते हैं। हमारी औकात ही क्या? सभी उस देवता-ईश्वर की मर्जी है। हम तो आपके आगे हाथ ही जोड सकते हैं। आपके बुजुर्ग के पांव ही पड सकते हैं।'' शर्मा जी को अपने काम के लिए ''गधे को मामा' बोलने वाली कहावत इस वक्त बिल्कुल उचित जान पड रही थी।देवता का वास्ता सुनकर वह थोडा सा सहज हुआ। कहा कुछ नहीं। उल्टे पांव भीतर लौट गया। दरवाजे पर पहुंचते ही एक लडक़े ने उसे पानी का बडा सा डिब्बा पकडा दिया। उसने खडे ग़ले सारा पानी गटक लिया। शर्मा जी की समझ में कुछ नहीं आ रहा था। उन्हें एक पल लगा कि किए-किराए पर पानी फिर गया है। भीतर वह बुजुर्ग जोर-जोर से अपनी बोली में गालियां बक रहा था। काफी देर बाद वह आदमी जब दोबारा बाहर आया तो हाथ में तीन प्लास्टिक की कुर्सियां थीं। शर्मा जी ने देखा तो जान में जान आई। कुर्सियां आंगन में पटका दीं।
अब तक
इधर-उधर से कुछ मर्द और आरतें भी आंगन के उस तरफ इकट्ठे हो गए थे।
पंडितों का उनके आगे इस तरह गिडग़िडाना सभी को अकल्पनीय लग रहा था।वातावरण
में भरी उमस जैसे हल्की हें गई।
उसने
तीनों को कुर्सी पर बैठने का इशारा किया।
वे
चुपचाप बैठ गए।
फिर
किल्टा उठाया।
बिल्ली
के दोनों बच्चे भाग खडे हुए।
ऊन की
टोकरी और हुक्का एक किनारे रखते हुए अपना नाम बताने लगा,''
मैं सहज रामघर में सहजू ही बोलते हैं।
वो
मेरे पिता जीसौ पार कर गए है।''
'' सौ पार?''
सहज
राम की बातचीत करने के ढंग से लग रहा था कि वह कुछ पढा लिखा भी है।
शर्मा
जी लम्बी भूमिका नहीं बांधना चाहते थे।
उन्होंने उससे सीधी बात की और पहले की घटना पर दोबारा अफसोस ही नहीं जताया
बल्कि गांव और देवता की तरफ से माफी भी मांग ली थी।
सहजू
ने कुछ देर मन में विचार-विमर्श किया।
फिर
भीतर चला गया।
बाहर
खडे लोग भी भीतर हो लिए।
उन सभी
की काफी देर खुसर-फुसर होती रही।
काफी
देर बाद बाहर आया और भूंडा में आने के लिए अपनी स्वीकृति दे दी।
शर्मा
जी और उनके साथी हाथ जोड क़र खडे हो गए।
उन सभी
का आभार जताया और वहां से खिसक लिए।
तीनों
के चेहरे पर इसका सुख तो झलक रहा था लेकिन मन पर पडी चोटें इतनी गहरी थीं
कि सडक़ तक किसी ने कोई बात ही नहीं की। भुण्डा उत्सव की प्रक्रियाएं प्रारम्भ हो गईं थीं। सबसे पहले गावों वालों की एक सभा बुलाई गई। सभा का आयोजन मुख्य देवता के मन्दिर के प्रांगण में हुआ था। मन्दिर के मुख्य द्वार के सामने लगभग डेढ मीटर ऊंचाई पर स्थित चौंतडा था। गांव के पंच और देवता के कारदार इसी पर बैठकर ऐसे कार्यक्रमों के निर्णय लिया करते थे। इस पर पंचो के बैठने के आसन बने थे जिनके पीछे ऊंचे पत्थर लगे थे। शर्मा जी सरपंच थे इसीलिए उनका स्थान मध्य में था। चारों तरफ दूसरे कारदार और मुखिए बैठ गए। गांव के लोग चौंतडे क़े चारों तरफ नीचे बैठ गए थे। देवता के गूर के साथ बैठ कर पुरोहितों ने लम्बी बातचीत के बाद मुहूर्त और तिथियों को अन्तिम रूप दे दिया और सहजू को सर्वसम्मति से 'बेडा' नियुक्त कर लिया गया। मुहूर्त के मुताबिक जब सहजू को शर्मा जी ने इस बारे बताया तो उसने एक शर्त यह रख दी कि रस्सा उतना ही लम्बा बनेगा जितना कि पिछले भुण्डे में उनके बुजुर्ग ने बनाया था। दूसरी शर्त यह थी कि रस्से के नीचे बचाव के लिए कोई जाली इत्यादि नहीं लगाई जाएगी। शर्मा जी के लिए यह शर्त काठ की तरह सिर पर पडी थी। उन्होंने तत्काल कुछ कहना ठीक नहीं समझा लेकिन यह बात परेशानी की तो थी ही। रस्से के नीचे बिना जाली लगाए यदि दोबारा वही हादसा हो गया तो किए किराए पर पानी फिर जाएगा। बहुत सोचने-विचारने के बाद भी जब कोई समाधान न सूझा तो सारी बात देवता के हवाले कर दी गई। पर 'बेडा' की शर्तें मानने के इलावा उनके पास कोई चारा भी न था। अब सारा गांव भुंडा की तैयारियों में जुट गया था। देवता के पंचों ने गांव के लोगों के लिए कई कार्य निर्धारित कर दिए थे। साथ ही उत्सव के आयोजन के व्यय को देखते हुए प्रत्येक परिवार को पांच सौ रूपए और एक-एक मन चावल की जोड भी डाल दी गई थी। इसे लोगों ने स्वीकार कर लिया था। सभी अपने-अपने घरों की लिपाई-पुताई में लग गए थे। प्रत्येक घर में से एक सदस्य देवता कमेटी के साथ सार्वजनिक कार्यों के लिए नियुक्त कर लिया गया था। पूरे गांव के रास्ते साफ होने लगे थे। कोई बर्तन इकट्ठे करता, तो कोई जंगलों से पत्तों को लाकर पतलियां बनाता तो कोई घर-घर जाकर निर्धारित जोड क़ी गुहराई करता रहता। शहर से रोज ही अब एक आध ट्क सामान का भी आ जाता जिसकी ढुलाई लोग मिलजुल कर मन्दिर तक करते। भुण्डा के आयोजन की खबर जब इधर-उधर पहुंची तो प्रशासन के भी कान खडे हो गए। हालांकि अभी देवता कमेटी की तरफ से कोई विधिवत निमन्त्रण नहीं निकला था लेकिन प्रशासन के अधिकारी और कर्मचारियों ने वहां आना-जाना शुरू कर दिया था। कभी कोई प्रशासन का आदमी, कभी कोई पुलिस वाला तो कभी विधायक के चमचे भी पहुंचने लगे थे। शर्मा जी इस आयोजन के दूल्हे बन गए थे। सारे काम उनकी सलाह-मशविरे से हो रहे थे। उनकी आंखों में उज्जवल भविष्य के सपने तैरने लेगे थे। कुछ दिनों की सेवानिवृति ने जो ऊंघपन उन्हें दिया था वह चेहरे पर बैठी रौनक ने भगा दिया था। उन्हें कुछ ऐसा ही महसूस होने लगा था मानो वह नए-नए तहसीलदार बन गए हैं। कार्यक्रम के अनुसार नियुक्त किए गए लोग सहजू को लाने उसके गांव चले गए थे। उसे बाजे-गाजे के साथ गांव लाया गया था। साथ उसकी पत्नी और एक बच्चा भी था। जिस दिन सहजू बेडा को गांव लाया गया उस दिन से भूण्डा का आयोजन छः माह बाद होना था। सहजू और उसके परिवार को मुख्य देवता के मन्दिर के एक कमरे में रखा गया था। यह सुखद आश्चर्य ही था कि जिन देवता के मन्दिर प्रांगण में आज भी किसी दलित को नहीं जाने दिया जाता, सहजू 'बेडा' और उसके बच्चे देवता के मन्दिर में वास करने लगे थे। जैसे-जैसे उत्सव के दिन नजदीक आते गए रस्सा लम्बा होता गया। जिस रोज रस्सा पूरा हुआ सहजू और उसकी पत्नी उसे एकटक देखते रहेमानो रस्सा पूरा न होकर कोई जीवन ही सम्पूर्ण हो चला हो। अपने हाथों से मौत का सामान तैयार करने का दर्द उन दोनों के मन में बसा था। लेकिन भुण्डा जैसे कालान्तर से चले आ रहे महोत्सव में एक दलित से देवता बनने का सुख भी मौजूद था। यह सुख उस मौत के एहसास से कहीं बडा था। शायद उससे भी कहीं ज्यादा बरसों से निर्वासित जीवन जीने के बाद पुनः मिलता आदर। ब्राह्मणों की बैंठ और देव-पक्ति में मिला उच्च स्थान का क्षणिक अपितु अविस्मरणीय आनन्द। रस्से को पूर्ण निर्मित देख कर देवता के कारदारों ने निर्धारित स्थान पर बने हवन कुण्ड को खोल दिया था। मुहूर्त के मुताबिक अब आग लाने की रस्म अदायगी थी। हवन जलाने के लिए आग केवल क्रौष्टु ब्राह्मण(कृष्ण गौत्र) के घर से ही लाई जानी थी। गांव में एक शास्त्री जी इस गौत्र से थे। देवता के कारदार और अन्य लोगे कुछ सुनारों के साथ आधी रात को बाजा-बजंतर लिए उसके घर पहुंच गए। उनके साथ एक तांबे की अंगीठी और एक मेढा(नर भेड) भी थे। कई विधि-विधानों के तहत् देवदार के वृक्ष की लकडी ज़लाकर आग तैयार की गई और उसे तांबे की अंगीठी में डाल दिया गया। अंगीठी को अब सुनारों ने मेढा के सिर पर रख लिया और उसे लेकर वापिस लौट आए। मेढा बेचारा ढोल-नगाडों और दूसरे पारम्परिक वाद्य संगीत के बीच कई पल अग्नि-वाहक बना रहा। सभी उसकी सेवा में जुटे थे। वह उस दौरान सहजू की तरह अपने आप को भी ब्राह्मणों से ज्यादा सम्मानित समझ बैठा होगा। परन्तु जैसे ही हवनकुंड के पास लोग पहुंचे तो आग की अंगीठी उसके सिर पर से उतार कर कुंड में रख दी गई और तत्काल उसकी बलि उस पर दे दी गई। अग्नि प्रज्जवलित कर दी गई थी। हवन कुण्ड पर यज्ञेश्वरी देवी की प्रतिमा का निर्माण किया गया। उसकी प्राण-प्रतिष्ठता हुई। मेढे की जान लेकर? अब यहां भुण्डे के अन्तिम दिन तक हवन चलना था। अब मुख्य देवता की मूर्ति को मंदिर से बाहर निकालना था। यह विशेष महत्व लिए था। देवता की मूर्ति एक गुफा मन्दिर में प्रतिष्ठित रहती थी जिसे केवल भुण्डा जैसे विशाल आयोजन में ही बाहर निकाला जाता था। इसके साथ कई अन्य छोटी मूर्तियां और सामान भी होता था। दैनिक पूजा और दूसरे अनुष्ठानों एवं जातराओं इत्यादि के लिए देवता की एक अन्य मूर्ति नीचे की मंजिल में रखी होती थी। लोग जानते थे कि पिछले भुण्डा के दौरान मन्दिर के किवाड बन्द कर दिए गए थे। इसीलिए लोगों की उत्सुकता ज्यादा ही दिखाई दे रही थी। देव मूर्ति को निकालने का कार्य हर कोई नहीं कर सकता था। विधिनुसार यह काम उस गांव के एक ब्राह्मण को तीन सुनारों के साथ करना था। इन तीनों के सिर भीतर जाने से पूर्व मूंड लिए गए थे। मुंह में पंचरत्न डाल दिए गए। वस्त्र के नाम पर उनके शरीर से एक कफन लिपटा दिया गया। वे अन्धेरे में ही भीतर गए थे और जिस के हाथ जो मूर्ति और दूसरी वस्तुएं लगीं उन्हें बाहर उठा कर ले आए थे। देवता के गूर ने जैसे ही मूर्ति के दर्शन किए वह सकते में पड ग़या। वह नकली मूर्ति थी। किसी सस्ती धातू की इस मूर्ति को मूल रूप दे दिया गया था। गूर के सिवाए किसी को यह पता नहीं लग पाया कि वह मूर्ति असली नहीं थी। श्रध्दा और अपार आस्था में रत लोग देवता का जयकारा कर रहे थे। असली मूर्ति को कुछ सालों पूर्व ही मन्दिर से चुरा लिया गया था। देवता की वह प्रतिमा बेशकीमती धातू की बनी थी जिसके माथे पर एक हीरा जडा था। जब वह बाहर धूप में रखी होती तो उससे खूब पसीना निकलता और नीचे रखी कटोरी भर जाती। वह चरणामृत के रूप में लोगों में बांट दी जाती थी जिसे लोग अत्यन्त श्रध्दा से ग्रहण करते थे। उसकी कीमत भी करोडाें में आंकी जाती थी। लेकिन किसी को क्या पता था कि जो मूर्ति आज उनके समक्ष मौजूद है वह है नकली है? गूर अभी तक स्तब्ध खडा था। उसने पुनः उन लोगों को भीतर भेजा लेकिन वे पुनः खाली हाथ लौट आए थे। गूर में तत्काल देव छाया ने प्रवेश कर लिया। उसकी हालत देखने वाली थी। पूरा शरीर कांप उठा था। चेहरा काला और डरावना हो गया था। आंखों में खून तैरने लगा था। इस तरह का आक्रोश पंचों ने कभी नहीं देखा था। यह किसी अनहोनी का संकेत था। लेकिन यहां ''पंचो के मुंह में परमेशवर'' की कहावत चरितार्थ होने लगी। सभी पंच,कारदार और देवता कमेटी के सदस्य हाथ जोड क़र यही विनती कर रहे थे कि जैसे-कैसे इस आयोजन का निपटारा देव-कृपा से हो जाए। बाद में देवता की जो भी आज्ञा होगी वह सिर-माथे। मुश्किल से काफी देर बाद गूर से देव छाया चली कई। सब कुछ शांत हो गया तो गूर ने केवल सरपंच शर्मा जी से ही बात की। इस बात को सुन कर वे हैरान-परेशान हो गए। उन दोनों ने इस बात की भनक किसी को भी न लगने का तत्काल निर्णय ले लिया। यदि इस बात का खुलासा हो जाता तो इतना बडा आयोजन पानी में चला जाता। उत्सव के पहले दिन लोग वाद्यों के साथ मुख्य देवता के मन्दिर से निकले। सभी छोटे-बडे मन्दिरों में जाकर एक-एक दिया जलाते रहे और देवी-देवताओं को उत्सव के लिए बुलाते चले गए। बाहर से आमन्त्रित देवतागण भी पधारने शुरू हो गए थे जिनका धूम-धाम से स्वागत किया गया। दूसरे दिन सभी देवता एक स्थान पर एकत्रित किए गए। देव-कलशों को गोल दायरे में रख दिया गया था। बीच में गांव की मुख्य देवी का कलश था। अब क्रौष्टू ब्राह्मण ने पुराण पढना शुरू कर दिया था। उसके पास एक पुरानी हस्तलिखित पुस्तिका थी जिससे मंत्र पढ क़र वह सभी देवताओं का स्वागत कर रहा था। देवता के मंदिर की दूसरी मंजिल पर स्थित कमरे के फर्श पर देवता के एक कारदार ने इसी बीच देवदार के वृक्ष का एक चित्र सिंदूर से बना दिया था और अब सारे कलश उस चित्र पर प्रतिष्ठित कर दिए गए थे। तीसरा दिन जल यात्रा का था। इस दिन वरूण देवता की पूजा होनी थी। गावों की महिलाएं पारम्परिक परिधानों में तडक़े ही मन्दिर के प्रांगण में पहुंच गई। वे वहीं से आ रही थी जहां सहजू और उसकी पत्नी को ठहराया गया था। सभी उन्हें सिर झुका कर प्रणाम कर रही थीं। सहजू की पत्नी के लिए यह भी एक सुखद आश्चर्य जैसा ही था। वह जानती थी कि उनकी जाति की अस्सी साल की बंढिया को भी ब्राह्मणों की दस साल की लडक़ी के पास मथा टेकना पडता है। लेकिन आज उससे उत्ट था। वह कई बार मन ही मन हंस लेती थी। लेकिन रस्से पर जैसे ही उसकी नजर जाती वह कांपने लगती। जैसे मौत का एक भयानक राक्षस रस्से में लिपट गया है और वह कभी भी उसके पति को झपट कर खा लेगा। कभी तो उसे रस्से के बाटों में असंख्य भेडिए रेंगते नजर आते जैसे वह रस्सा न हो कर जंगल के बीहड की कोई टेढी-मेढी पगडंडी हो और उस पर वे दौडते उनकी ओर चले आ रहे हों। उन औरतों के सुन्दर पहनावे ने उसके मन में कुछ क्षणों के लिए रंगीनियां भर दी थीं। उसी पल मन्दिर से ढोल, नगारा, शहनाई, करनाल, रणसिंघा आदि वाद्ययंत्रों के संगीत के साथ देवताओं के पूजारियों, ब्राह्मणों, गूरों और नर्तकों का जलूस निकला। उसमें नौ ब्राह्मण कन्याएं सजी-संवरी थी। उनके सिर पर लाल कलश थे। जुलूस पूर्व दिशा की ओर एक बांवडी क़ी तरफ चल दिया था। वहां पहुंच कर कलशों में ताजा जल से भर दिया गया। विधिवत पूजन हुआ और उन्हें यथावत कन्याओं के सिर पर रख कर वापिस मन्दिर लाया गया। भुण्डा के आखरी दिन से पूर्व मूल मन्दिर और गांव को प्रेतात्माओं से सुरक्षित करना था ताकि उत्सव में कोई अपशकुन न हो। भूत-प्रेत बाधाएं उत्पन्न न कर सकें। देवताओं के गूरों ने मिल कर इस विधि को पूरा किया था। वे अपने-अपने देवता के सामने हाथों में एक विशेष पात्र लिए खडे हो गए थे। अर्ध-नग्न अवस्था में काफी देर मन्त्रोच्चारण करते रहे। फिर उनमें देव छाया प्रवेश हो गई थी। देवताओं के वाद्ययन्त्र भी बजने शुरू हो गए। मुख्य देवता के गूर को लोगों ने अपने कन्धे पर उठा लिया था। उसी के दिशा निर्देश में कार्य होने लगा था। शेष गूर और लोगों का जुलूस पीछे-पीछे चल रहा था। गांव के बाहर का चक्कर काटा गया। जुलूस में कई बंदूकधारी बंदूके चला रहे थे। जगह-जगह बकरों के सिर धड से अलग हो रहे थे। पगडंडियां उनके खून से सराबोर हो रही थी। परिक्रमा पूरी हुई तो जुलूस वापिस मन्दिर लौट आया और वहां हवन शुरू हो गया। यह तांत्रिक विधि थी। देवता का गूर मन्दिर की छत पर चढ ग़या था। वह चारों दिशाओं में घूम रहा था। मन्दिर के चारों कोनों पर एक-एक मशालची तैनात था। हर कोने पर एक-एक बकरे की बलि दी गई। गूर छत से नीचे उतरा तो महमान देवताओं के गूर मन्त्रोच्चारण के साथ अपनी मूल अवस्था में लौट आए। यह शिखफेर प्रक्रिया थी। सहजू ने अपनी पत्नी को बताया था।अब यहां से सारी प्रेतात्माएं भाग गई हैं और भुण्डा के कार्य में कोई भी विघ्न नहीं डाल सकता। लेकिन वह पति के मुख की ओर कई पल टकटकी लगाए देखती रही थी। पता नहीं कितने प्रश्न उसके मन में जागे थे जिन्हे वह सहजू से पूछना चाहती थी।पूछना चाहती थी कि भुण्डा के बाद देवता क्यों न उन्हें ब्राह्मण ही बना रहने दें ? फिर क्यों वे अछूत हो जाएं ? क्यों एक अछूत को कुछ दिनों के लिए देवता की तरह पूजा जाएऔर यदि दुर्भाग्य से उसके पति की रस्से से गिरकर मौत हो जाए तो कौन सा देवता, जिन्होंने अभी-अभी असंख्य मेढों और बकरों की बलि प्रेतों और भूतों को भगाने के लिए दी हैउसके पति को बचा देगा ? ऐसे कितने प्रश्न थे जो उसके मस्तिष्क में कौंध रहे थे लेकिन वह चुपचाप बैठी रही। भय से कांपती हुई। जैसे सारे भूतों और प्रेतात्माओं ने उसके भीतर घुस कर आश्रय ले लिया हो। सहजू ने अपनी पत्नी के मन में उग रहे प्रश्नों को पढ लिया था। पर उनके उत्तर उसके पास नहीं थे। मन पर एक भारी पन थाशायद ऐसे ही अनगिनत प्रश्नों का बोझ? वह उत्तर भी किस से पूछता ? कोई कारदार, देवता का गूर या खुद देवता भी उनके उत्तर न दे पाते। उसे आज ये क्रियाएं बिल्कुल ढोंग लगने लगी थीं। रात को सहजू और उसकी पत्नी नहीं सो पाए। न ही एक दूसरे से किसी ने कुछ बात की। अपनी-अपनी उधेड-बुन में दोनों लगे रहे। सहजू के मन में भय तो था ही पर खुशी भी कम नहीं थी। अपने दादा-पडदादाओं को वह बार-बार याद कर रहा था जो न जाने पित्र-देवता बन कर कहां-कहां प्रतिष्ठापित होंगे।उसका भुण्डा में 'बेडा' बन कर उतरना बरसों पहले खोए हुए मान को दोबारा हासिल करना भी था। सुबह हुई। आज भुण्डा का अन्तिम और मुख्य दिन था। सहजू के ब्राह्मणत्व का आखरी दिन।दोनों तडक़े-तडक़े उठ गए थे। मुहूर्त के अनुसार निश्चित समय पर रस्से की विधिवत पूजा की गई। सहजू ने अपने हाथों से रस्सा खश जाति के राजपूतों को सौंप दिया। उन्होंने रस्से को कन्धे पर अत्यन्त सावधानी से उठाया ताकि उसका कोई भाग जमीन से स्पर्श न करे। फिर बांवडी क़े पास ले जा कर उसे खूब भिगोते रहे। पूरी तरह से भीगने के पश्चात् उसे पहले की तरह ही कन्धे पर उठा लिया गया। उसका वजन दुगुना हो गया था। कडी मशक्कत के बाद खशों ने रस्से को भुण्डा-आयोजन के मूल स्थान पर पहुंचाया था। वहां ढांक के सिरे पर एक खम्बा गाडा गया था जिसमें रस्से का एक सिरा मजबूती से बांध दिया गया। ढांक की ऊंचाई बहुत थी। नीचे देखने पर आंखे पत्थरा जाती थीं। दूसरे सिरे को पहाड से नीचे फैंक दिया गया। नीचे खडे लोगों ने उसे तत्काल पकड लिया और वहां गडाए दूसरे खम्बे में खींच कर बांध दिया। सहजू की शर्त रस्से के नीचे जाली न लगाने की मान ली गई थी। फिर भी किसी दुर्घटना की आशंका से निपटने के लिए पहाडी क़े नीचे लम्बी कतार में पुलिस और होमगार्ड के जवान तैनात कर दिए गए थे। सहजू 'बेडा' का देवता की तरफ से विशेष स्नान हुआ और यज्ञोपवीत धारण करवाकर उसे शुध्द ब्राह्मण बना दिया गया। उसे पगडी और एक सफेद लम्बा चोगानुमा कुर्ता पहनाया गया था। उसकी विशेष पूजा होने लगी थी। देवता की तरह। जैसे वह कोई मनुष्य न होकर एक घडी क़े लिए ईश्वर का अवतार बन गया हो। अब समय मुख्य उत्सव में शामिल होने का आ गया था। एक कारदार भीतर गया और अत्यन्त आदर से उसे अपनी पीठ पर उठा कर मंदिर से बाहर ले आया। सहजू की पत्नी को पति से अलग होना था। यह बिछोह का दर्दनाक समय था। उसे भी मन्दिर की तरफ से नए कपडे दिए गए थे। ये वस्त्र सफेद रंग के थेविधवा का लिबास। उसे गांव की कई औरतों ने घेर लिया था। न चाहते हुए भी उस बेचारी को होते पति से विधवा बनना पडा था। मन नहीं मान रहा था लेकिन भूंडा की रस्मों ने उसे असहाय बना दिया था। औरतों ने उसके बाल खोल दिए। कलाईयों की चूडियां उतार दीं। मांग से सिंदूर पोंछ लिया गया। माथे की बिंदिया भी छीन ली गई। सुहागिन से बिधवा बनने तक के वे क्षण अति दुखदायी थे। जब सुहाग की प्रतीक ये चीजें उसके बदन से उतारी जा रही थीं तो उसे ऐसा लग रहा था जैसे कलेजे के टुकडे क़िए जा रहे हो। वह बच्चे को लेकर उस स्थान के लिए लोगों के साथ चल पडी ज़हां रस्से का दूसरा सिरा बांधा गया था। बच्चा यह सबकुछ विस्मित होकर देख रहा था। उसकी समझ में कुछ नहीं आ रहा था कि यह सब क्या हो रहा है? उसके बापू को इस तरह उठा कर कहां ले जा रहे हैं? पुरोहितों ने अब संकल्प पढने शुरू कर दिए थे। ये उसी तरह थे जैसे किसी बलि के अवसर पर पढे ज़ाते थे। वाद्ययन्त्रों पर वही संगीत बज रहा था जो शवयात्रा पर बजाया जाता था। वातावरण में इस संगीत ने एक अजीब सी मायूसी पैदा कर दी थी। चारों तरफ एक घडी क़े लिए उदासी छा गई थी। यह नजारा कुछ-कुछ वैसा ही था जैसे किसी घर से मृत्यु ने किसी अपने को छीन लिया हो। माहौल अत्यन्त गमगीन होने लगा था। मूल स्थान तक पहुंचते-पहुंचते कई जगह सहजू पर कफन की तरह कपडा ओढाया गया और मुंह में पंच रत्न डाल दिया गया। मुख्य मन्त्री भी पहुंच गए थे। विधायक भी उनके साथ थे। प्रशासन के कई अधिकारी भी थे। उनके लिए एक ढलान पर मंच बनाया गया था। शर्मा जी ने उनकी आव-भगत की खूब तैयारियां करवा रखी थीं।शर्मा जी की नजर इस मध्य एक पालकी पर पडी। उसके साथ कुछ लोग भी चल रहे थे। पहले उनकी समझ में कुछ नहीं आया। पालकी नजदीक पहुंच गईं। उसमें एक बुजुर्ग बैठा हुक्का गुडग़ुडा रहा था। शर्मा जी को पहचानते ज्यादा समय नहीं लगा। वह सहजू का पिता था जिससे उनका सामना सहजू के आंगन में हुआ था। साथ उसी गांव के तमाम लोग भी थे। शर्मा जी स्तब्ध रह गए। अब पांव पीटने के अतिरिक्त उनके पास कुछ नहीं बचा था। उन्होंने कभी सोचा भी नहीं था कि सहजू के गांव के लोग इस शान से उत्सव में पधार जाएंगे। समक्ष एकाएक कई प्रश्न खडे हो गए। पर उनके उत्तर कहां से आते? मुंह बांध कर बैठना ही उचित जान पडा। शर्मा जी कुछ कारदारों को साथ लेकर उनके पास गए और बनावटी अपनापन दिखाकर उन्हें उसी मंच के साथ बिठा दिया जहां मुख्य मन्त्री बैठे थे। पालकी में एक दलित का इस तरह पधारना न तो शर्मा जी पचा पा रहे थे और न ही गांव के दूसरे लोग। क्योंकि पालकी में बैठने का अधिकार तो वे लोग अपना ही मानते रहे थे। शर्मा जी वहां से झटपट खिसक लिए और खम्बे के पास जा कर खडे हो गए जहां सहजू को भुंडा के रस्से पर से सरकते हुए पहुंचना था। सहजू की घरवाली चुपचाप डरी, सहमी रस्से के अन्तिम छोर के पास बैठी उन सभी देवताओं से अपने पति की जिन्दगी मांग रही थी जिन्होंने पिछली रात उस गांव को भूत-प्रेतों और दुष्ट आत्माओं से निवृत करवाया था। उसका मन विचलित होने लगा था। एक मन करता कि इस लिबास को उतार कर जला दें और पति के पास जा कर विनती करें कि हमें नहीं बनना है देवता। न बनना है भगवान। हम जैसे हैं वैसे ही रहना चाहते हैं। हम बिना मान-प्रतिष्ठा के भी अपने छोटे से परिवार में सुखी हैं। ईश्वर न करे कि रस्सा टूट जाए? इतना भर सोच कर वह जमीन पर गिर पडी थी। पास खडी औरतों ने उसे न संभाला होता तो उसका सिर चट्टान पर लग जाता। शर्मा जी उसकी स्थिति देखकर घबरा गए थे। उन्होंने तुरन्त पानी के छींटे उसके चेहरे पर मारने शुरू कर दिए। कुछ देर बाद उसे होश आया तो उनकी जान में जान आर् गई। एक सुहागिन को इस पल अपने पति के जीते जी एक विधवा होने के तीखे दर्द और अथाह वेदना से गुजरना पड रहा था। सहजू जब खम्बे के पास पहुंचा तो निगाह तराईयों से उतरती अपनी पत्नी के पास चली गई। वे तमाम वेदनाएं उसने अपने भीतर महसूस कीं जिसे उसकी पत्नी सुहागिन से विधवा बन कर सह रही थीं। आंखें छलछला गई। मन में एक तीखी टीस उठी जो सुई की तरह नसों में चुभती रही। यह चुभन असहनीय थी। सहजू को एक पल लगा कि उसकी सासें जीन-काठी पर बैठने से पूर्व ही निकल जाएगी। जैसे-कैसे अपने को सम्भाला और हजारों लोगों की उमडती भीड क़े बीच उसका ध्यान चला गया।हजारों आंखें उसी की ओर ताक रही थीं। उन आंखों में एक याचना थी। लालच था। उसकी जिन्दगी के लिए दुआएं भी थीं लेकिन उस जीवन के साथ सभी का अपना-अपना स्वार्थ निहित था। सारी प्रार्थनाएं केवल अपने लिए थीं। वे आंखें उसे अपने लिए जिन्दा रखना चाहती थीं ताकि उनका जीवन सुखमय हो। घर-परिवार में खुशहाली आए। जमीन-जायदाद और पशु धन सलामत रहे। उन पर किसी तरह की अनिष्ट की छाया तक न पडे। सभी का ध्यान रस्से पर नीचे सरकते सहजू पर था। उसकी पत्नी के भीतर जो अथाह दर्द और भयानक भय पसरा था उसका न कोई चश्मदीद था न ही कोई उसके आंसूओं को पोंछने वाला था। एक महा स्वार्थ-पूर्ति उत्सव था वह? एक घडी क़े लिए तो सहजू को यह भी लगा कि वह आज दुनिया का सबसे बडा और धनवान आदमी है जिसके आगे ब्राह्मण और ठाकुर तो क्या देवता तक भी पुण्य की भीख मांग रहे हैं। शर्मा जी तो आज अपने आप को सबसे प्रतिष्ठित और व्यस्त आदमी समझ रहे थे। हर जगह उन्हीं का बोल-बाला था। सहजू की पत्नी के बिल्कुल साथ खडे थे शर्मा जी। वे भी लोगों के साथ उनकी दुआओं में शामिल थे लेकिन उनकी एक-दो दुआएं कुछ अलग ही थीं। वह दुआएं मांग रहे थे गांव को कलंक से छुटकारा पाने की और साथ अपने यश और प्रतिष्ठा की जिसके सहारे उन्हें राजनीति में प्रवेश पाना था। मन में और भी कई विचार कौंध रहे थे। उनकी इच्छा थी कि जैसे ही 'बेडा' नीचे सही सलामत पहुंचेगा तो वे उसे सबसे पहले उठाकर अपने चूल्हे के पास ले जाएंगे ताकि अपने ऊपर लगे कलंक, अनिष्ट, भूत-प्रेत आदि की छाया से छुटकारा मिल जाए। साथ ही अपने परिवार के लिए पहला आशीर्वाद भी लेना चाहते थे। वह जानते थे कि 'बेडा' आज के दिन देवता और भगवान के समान होता है और उसका घर के भीतर प्रवेश अति शुभ होता है। वह सबसे पहले इस पुण्य के भागीदार बनना चाहते थे। गांव के दूसरे सवर्णो की भी यही इच्छा थी। सहजू ने ईश्वर को प्रणाम किया। अपने इष्ट देवता को याद किया और अपने पिता को नमन किया। उस पित्र को स्मरण किया जो इसी आयोजन में वर्षों पहले रस्से से गिर कर मौत के मुंह में चला गया था। फिर रस्से को हिला दिया। अब जीन-काठी पकडी और टिका कर रस्से पर बांध दी। इसे सहजू ने स्वयं बनाया था। उसके दोनों तरफ रेत की बोरियां टिका दी गर्इं थीं ताकि बराबर भार रहे। सहजू के लिए वह सचमुच की घोडी थी जिस पर सवार होकर उसे मौत का एक लम्बा और खतरनारक सफर तय करना था। गांव का कलंक धोना था और लोगों के पुण्य का भागीदार बनना थाएक अछूत होकर नहीं बल्कि ब्राह्मण, देवता और भगवान बन कर। उसके मन में कई तरह के ख्याल आने लगे थे। वह सोच रहा था कि उसकी यह दुर्लभ 'बेडा' जाति एक जीन-काठी ही तो है जिसका इस्तेमाल अपनी स्वार्थपूर्ति और तमाम पुण्य के भागीदार बनने के लिए शर्मा या उस जैसे तमाम उच्च वर्ग के लोग सदियों से करते आ रहे हैं। इसके एवज में उस अछूत को क्या मिलेगा? सिर्फ कुछ क्षणों का ब्राह्मणत्वऔर देवत्व। वह जोर से हंसा और जीन-काठी पर बैठ कर रस्से से नीचे सरक गयाहाथ में एक सफेद रूमाल को लहराता हुआ। उसे ऐसा लग रहा था मानो वह आसमान से धरती पर उतर रहा हो। मध्य में पहुंच कर वह थोडा घबरा भी गया। एक बार जरा सा संतुलन बिगड ग़या था, पर उसने अपने आप को संभाल लिया। अन्यथा इतनी ऊंचाई से गिर कर वह कहां बच पाता? देवता के वाद्य पूरे जोश और ताल में बज रहे थे। वातावरण पूरी तरह देवमय हो गया था। लेकिन उन वाद्यों के बीच एक पल के लिए सहजू की पत्नी की सांसे रूक गई थीं। सहजू जैसे ही दूसरे खम्बें के नजदीक पहुंचा उसने चलती हुई जीन काठी रोक दी और रस्से पर मजबूती से बैठ गया। वह ऊंचाई से जितनी तेजी से नीचे आया था उस रफ्तार को रोकना कतई संभव नहीं था। परन्तु उसने अपने आप को जिस संयत से रस्से पर रोका था वह आश्चर्यजनक था। एक पल के लिए जैसे सब कुछ ठहर गया था। सभी उपस्थित जनों के दिलों की धडक़ने ही रूक गईं। बाजा-बजंतर भी चुप हो गया। एक गहरा सन्नाटा चारों तरफ पसर गया था। शर्मा जी के साथ सभी कारदार और लोगों के मन में किसी अनहोनी ने जन्म ले लिया। दोबारा कोई बडा अनिष्ठ तो नहीं होने वाला? सहजू बिल्कुल सुरक्षित था लेकिन उसकी काठी नहीं चल रही थी। देवता के कारदार और गूर शर्मा जी के साथ खम्बे के पास एकत्रित हो गए थे। शर्मा जी एकाएक जोर से चिल्लाए,''सहजू ! तुम्हारी मंजिल आ गई है। नीचे उतर जाओ।''यही अन्य लोगों ने भी दोहराया था। लेकिन सहजू अभी भी चुपचाप था। जैसे कुछ सुना ही न हो। भीतर बहुत कुछ फूट रहा था। टूट रहा था। उस टूटन की किरचों ने उसे भीतर ही भीतर आहत कर दिया था। शर्मा जी ने हाथ जोड दिए और गिडग़िडाते हुए सहजू को नीचे उतर जाने का निवेदन करते रहे। सभी कारदारों और गांव के ब्राह्मणों ने भी हाथ जोड रखे थे। लेकिन सहजू नहीं उतरा। उसके मन में बहुत बडा तूफान उमड पडा था। उसे लगा कि वह सहजू बेडा नहीं बल्कि किसी सरकस का नर्तक भर है, उसे जैसा चाहो नचा दिया जाए। खेल खत्म तो उसका अस्तित्व भी शून्य। जो लोग आज उसकी जय जयकार कर रहे है कल वही उसकी परछाई से भी दूर भागेंगे। फिर न कोई सम्मान और न ही कोई इज्जत-परतीत। उसे शर्मा जी, देवता के तमाम कारदारों के साथ सारे ब्राह्मण उस पल शैतान की तरह लग रहे थे जैसे वह उनके पल्ले पड ग़या हो और उनके हाथों की कठपुतली हो। जहां वह रस्से पर रूका था वहीं तक सब कुछ था। देवता भी और भगवान भी। सम्मान और प्रतिष्ठा भी। इज्जत और परतीत भी। नीचे उतरते वह फिर वही दलितनीचअछूत। हाथ खाली के खाली। उसका मन आक्रोश से भरता जा रहा था।उसने भीड में एक नजर दौडाई। सामने से पालकी में उसके पिता आ रहे थे। दोनों हाथ ऊपर उठाए हुएजैसे उन्हें आज सब कुछ मिल गया हो। उसने पिता की आंखों में अपनी विजय की चकाचौंध तो देखी लेकिन उसके पीछे छिपे दर्द और अपमान को भी पढ लिया। सहजू की नजर अब उस तरफ गईं जहां दलितों के परिवार खडे थे। वहीं से सबसे ज्यादा जय जयकार की आवाजें गूंज रही थी। उनके मन साफ थे। मन की आवाजें थीं। जिनमें सहजू को कोई स्वार्थ नजर नहीं आया। हां, उनके कपडे फ़टे हुए थे। कुछ औरतों की छातियां फटे कुरतों के बीच से बाहर झांक रही थी। उनके बाल बेतरतीबी से उलझे हुए थे। फूलदार रिब्बनों की जगह उनमें घास और पत्तियां फंसी थीं। उनके साथ उनके बच्चे भी थे। नंगी टांगे। बदन पर महज एक लम्बा सा फटा कुरता। छालों से रिसते पांव। आंखों में अथाह दर्द।सहजू को अपने देवत्व पर शर्म आ गई। उसके कानों में फिर अवाजें गूंजी ''शाबाश सहजू! शाबाश! नीचे आ जाओ। तुम आज भुंडा के सबसे बडे देवता हो।''
इस बार
वह जोर से हंस दिया।
''
कैसा देवता? कौन सा देवता।
मैं तो
एक अछूत हूं।
कठपुतली मात्र हूं।
सारे
पुण्य तो तुम सभी के लिए हैं।
अपने
स्वार्थ के लिए तुम ऊंचे लोगों ने क्या-क्या परपंच रचे हैं?जानते
हो शर्मा जी, मैं इस घडी तो सबसे बडा पंडित हूं।
देवता
हूं और सभी का ईश्वर।
लेकिन
नीचे उतरते ही मैं सहजू अछूतऔर तुम सभी उच्च कुल के पंडित और ठाकुर।
तुम्हारे जो ये देवता आज मेरी विजय पर नाच रहे हैं।
मुझे
भगवान मान रहे हैं।
कल
इन्हें मेरी परछाई से भी दोष लगने लगेगा।
अपवित्र हो जाएंगे ये।''
''
ऐसा मत
सोचो सहजू,!
तुम्हारे बिना इतना बडा आयोजन कैसे सम्पन्न होता। तुम आज हमारे सब कुछ हो।''
शर्मा
जी सकपका गए।
स्थिति
भांपने में उन्हें देर नहीं लगी।
सीधी
बात पर आ पहुंचे।''
ऐसा मत करो सहजू।
भगवान
के लिए ऐसा मत करो।
बोलो
तुम्हे क्या चाहिए?
आज तो वह समय है कि जिस चीज में भी तुम हाथ लगाओगे वह
तुम्हारी हो जाएगी।'' उत्सव अब पूरे यौवन पर था। चारों तरफ का माहौल उमंगों से भर गया। पर शर्मा जी के भीतर एक सन्नाटा पसर गया था। लोग उनके पास आकर बधाई दे रहे थे। इस आयोजन की सफलता के लिए उनकी तारीफ कर रहे थे। लेकिन उनका मन विचलित था। जैसे यह भुंडा नहीं किसी विनाशोत्सव का आयोजन हुआ हो। उनकी स्थिति विचित्र हो गई थी। मानसिक संतुलन बिगड ग़या था। कोई जब पास आता तो वे हंस देते। चला जाता तो अजीब सी हरकतें करने लगतेकभी कुछ गाने लगते तो कभी नाचना शुरू कर देते। बिल्कुल पागलों जैसी हरकतें करने लगे थे।जैसे गांव से देवताओं द्वारा भगाए गए भूत-प्रेत उनके भीतर नाचने लगे हो। शर्मा जी की इस हालत को देख कर देवता के कारदार, गुर और गांव के दूसरे लोग परेशान हो गए थे। उन्होंने शर्मा जी को घेर लिया था। तभी मुख्य मन्त्री और विधायक उनके पास पहुंचे। शर्मा जी की पीठ थपथपा कर कहने लगे,'' भई शर्मा जी मान गए आपको। इतना बडा आयोजन तो आप ही करवा सकते थे। सांप भी मर गया और लाठी भी सलामत। आपने हमारी तो एक बडी दुविधा ही मिटा दी। क्या नाम था इस बेडा का? हां, सहजूसहज राम। क्यों विधायक जी यही था नउसने तो कमाल कर दियाहमें तो लोक सभा के लिए कोई दलित मिल ही नहीं रहा थाबई शर्मा जी कमाल कर दिया आपने।'' यह कहते हुए मुख्य मन्त्री और विधायक वहां से निकल लिए। पर शर्मा जी उनकी बात सुन कर बुत की तरह खडे रह गए। काटो तो खून नहीं। जैसे कोई जोर का सहजू को लोगों ने अपने कंधे पर उठा लिया था। वह, उसकी पत्नी और परिवार के दूसरे सदस्य खुशी-खुशी लोगों से ईनाम के पैसे और जेवर इकट्ठे करने में मशगूल थे।
एस0
आर0 हरनोट |
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