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जवाब

ट्रेन के उस डिब्बे में वह गंगापुर से चढा था अपनी आरक्षित सीट पर बैठने के बाद उसने सहयात्रियों पर एक नजर घुमाई तो उसकी नजर सामने की सीट पर बैठी उस महिला को देख कर ठहर सी गई उसे वह कुछ पहचानी सी लगी वह बहुत याद करने की कोशिश करने लगा कि उसने उसे कहां देखा था, पर याद नहीं कर पा रहा था

लगातार उपन्यास पढने में तल्लीन उस महिला ने एक बार भी सिर उठा कर नहीं देखा कि ठीक उसके सामने वाली सीट पर कौन आकर बैठा है उसने सोचा कि उपन्यास में गडी नजरें यदि ऊपर उठें तो शायद वह उसे पहचान पाए, क्योंकि यदि सचमुच वह उससे कहीं मिला है ,तो नजर -नजर को पहचानने में मदद करेगी वह लगातार उसकी ओर देखता रहा, पर न उसने नजरें उठाईं और न ही वह दिमाग पर लाख जोर मारने के बावजूद कुछ याद कर पाया
लगातार किसी महिला को देखना अशिष्टता की श्रेणी में आता है, इसलिए उसने अपना दिमाग इधर-उधर लगाना शुरू किया पर, वह जितना ही अपना ध्यान उस ओर से हटाना चाहता, उतना ही उसके बारे में सोचने लगता उसे अपने ऊपर झुंझलाहट सी आने लगी और वह बर्थ पर लेट गया


    
उसकी आंखें बंद थीं, फिर भी वह चेहरा उसकी आंखों के सामने घूम रहा था उसे लगा , वह उस महिला को जानता ही नहीं है, बल्कि बहुत अच्छी तरह जानता हैइस विचार के साथ ही वह उठ कर बैठ गयामहिला का उपन्यास पढना बदस्तूर जारी था उसने ध्यान से देखा,महिला की उम्र पचास-पचपन के आस-पास की होगी वह स्वयं भी तो साठ की उम्र में पहुंच गया था एसी डिब्बे में सफर करने वाली उस महिला के संभ्रान्त होने में तो कोई शक ही नहीं थाचेहरा भी शांत और स्निग्ध नजर आ रहा था उसका बार-बार मन कर रहा था कि वह उससे परिचय प्राप्त कर ले, पर वह तो उपन्यास में ही डूबी हुई थी

अचानक वह उपन्यास बंद करके उठी और बिना उसकी ओर देखे शायद टायलट के लिए निकल गई जब वह वापस लौटी और अपनी सीट पर बैठने लगी तो अनायास दोनों की नजरें आपस में टकरा गईं उसने महसूस किया कि उसकी आंखों में भी क्षण भर के लिए कुछ पहचान का भाव उभरा था, पर उसने फिर से अपना उपन्यास उठाया और उसे पढने लगी उसने नोट किया कि वह महिला अब पहले जैसी तन्मयता से उपन्यास नहीं पढ पा रही थी वह चोर नजरों से कभी-कभी उसकी ओर देख लेती और उसे अपनी ओर ही देखता पाकर नजरें चुरा लेती उसे लगा शायद वह भी उसे पहचानने का प्रयास कर रही है

उसने पहली बार उपन्यास बंद करके अपनी गोद में रखा और सीधे उसे संबोधित करके बोली- ''माफ कीजिए, कहीं आप दीपक उपाध्याय तो नहीं?'' अपना नाम सुनकर वह चौंक गया और बोला-''आपने सही पहचाना, मैं दीपक ही हूं, पर आप ? मैं भी बहुत देर से आपको पहचानने की कोशिश कर रहा हूं, पर याद नहीं आ रहा है'' वह हल्का सा मुस्कराई और बोली -''मैं ज्योति गिडवानी हूं, कुछ याद आया?''

नाम सुनते ही उसे वह किशोरी याद आ गई जो उसके साथ हायर सैकंडरी स्कूल में पढती थीकहां दसवीं कक्षा की वह कमनीय छात्रा और कहां यह बुढ़ापे की देहलीज को छूती प्रौढ़ महिलाकैसे पहचान पाता वह उसे कि वह वही ज्योति गिडवानी है जिसके पीछे स्कूल के लडक़े मंजनू की तरह घूमते थे,लेकिन वह थी कि किसी को घास भी नहीं डालती थीउसे याद आया कि वह उसे भी अच्छी लगती थीशायद वह अकेला लडक़ा था जिससे वह कभी-कभी बात कर लेती थी ज्यादातर बातें पढाई को लेकर ही होतीं उसने महसूस किया था कि ज्योति अधिकांशतः चुप रहना ही पसंद करती थी और किसी से ज्यादा घुलती-मिलती नहीं थी बस काम भर की बातें करती और फिर ज्यादा लिफ्ट नहीं देती वह बार-बार उस ज्योति की कल्पना करने और सामने बैठी उस महिला से उसकी मन ही मन तुलना करने लगा कितनी बदल गई है ज्योति विश्वास ही नहीं होता कि यह वही लडक़ी है

वह यह सब सोच ही रहा था कि ज्योति की आवाज ने उसे फिर चौंका दिया वह कह रही थी -''कहां खो गये अरे भई मैं ज्योति ही हूं हां, उम्र का असर जरूर है और वह तो तुम पर भी दिखाई दे रहा है कहां वह मासूम सा दीपक, जो मुझसे बात करने में भी झिझकता था और कहां सफेद बालों वाला यह दीपक जो मुझे लगातार घूरे जा रहा है'' यह कह कर वह खिलखिला कर हंस पडी वह भी हंसी में उसका साथ देने से अपने को नहीं रोक सका

ज्योति शरीर से ही नहीं स्वभाव से भी बदली हुई लग रही थी पहले चुपचुप रहने वाली ज्योति लगातार बोल रही थी और बात-बात में ठहाके लगा रही थीउसने अपने बारे में बहुत सी बातें बताईं ग्रेजुएट होने के बाद काफी समय तक उसने छोटे बच्चों के स्कूल में पढाने का काम किया था फिर, अच्छा लडक़ा देख उसकी शादी कर दी गई थी लडक़ा सिंधी ही था और सालगाने लगा पैसा खत्म होने पर वह फिर ज्योति के पास पहुंच जाता ज्योति ने उसे बहुत समझाया, पर हर बार वह अपने वादे का कच्चा निकला
ज्योति काफी परेशान रहने लगी थी उसे अपनी जि
दगी में कोई मजा नहीं आ रहा था जिन सपनों को लेकर वह अपने पति को छोड़ कर मुंबई आई थी, वे न जाने कब के बिखर गये थे जुगल कौन था उसका, कुछ भी तो नहीं सिर्फ सपने बेचने वाला सौदागर, जिससे वह आजिज आ गई थी इस बीच उसने यह महसूस किया कि जिस कंपनी में वह काम करती थी, उसका मालिक उस पर कुछ ज्यादा ही मेहरबान होता जा रहा थाउसने इस मौके का फायदा उठाया और उससे बाकायदा शादी कर ली वह जुगल के साथ बिना शादी किए रह रही थी इसलिए उससे तलाक की भी कोई जरूरत नहीं थीजुगल को इससे परेशानी जरूर हुई, लेकिन वह चाह कर भी कुछ नहीं कर पाया

ज्योति सिर्फ अपने बारे में ही बोलती रहीउसने उसके बारे में कुछ नहीं पूछा उसे अजीब सा लगावह अपनी व्यक्तिगत बातें भी उसे खुल कर बता रही थी वह उससे इतने लम्बे अंतराल के बाद मिला था, यहां तक कि दोनों एक-दूसरे को आसानी से पहचान भी नहीं पाये थे फिर भी वह सारी बातें ऐसे बताती जा रही थी जैसे उसे अनायास एक अच्छा श्रोता मिल गया हो और वह अपनी सारी बातें उसे बताने को बेताब हो गई हो यहां तक कि एक के बाद एक पति बदलने और जुगल के साथ बिना शादी किए रहने की बात भी वह उसे ऐसे बता गई थी जैसे कोई बहुत मामूली सी बात हो

उन्होंने साथ ही खाना खाया शायद ज्योति बोलते-बोलते थक गई थी, इसलिए जल्दी ही सो गई वह भी अपनी बर्थ पर लेट गया पर, उसे नींद नहीं आई वह ज्योति के बारे में ही सोचता रहा कोई इतना बदल सकता है, उसे विश्वास नहीं हो रहा था स्कूल के दिनों में ही नहीं कालेज जाने के बाद भी ज्योति में कोई परिवर्तन नहीं आया था वह चुप बनी रहती, इसीलिए लोग चाह कर भी उसके निकट नहीं हो पाते थे वह स्वयं भी कभी उससे खुल कर कुछ न कह पाया उसे पता था कि ज्योति स्वयं केवल उससे ही बातें करती है, बाकी किसी से कभी-कभार ही और बहुत जरूरी होने पर ही बात करती इस सबके बाबजूद वह उससे अपने मन की बात कहने की कभी हिम्मत नहीं जुटा पाया उसकी ओर से भी उसे कभी कोई वैसा संकेत नहीं मिला

बीकाम करने के साथ ही, उसने कालेज छोड़ दिया और वह एक सरकारी कंपनी में नौकरी करने लगा बाद में उसे मालूम हुआ कि ज्योति ने भी कालेज छोड़ दिया है उसने कई बार सोचा कि वह ज्योति से मिले, पर उसके घर का पता मालूम न होने की वजह से यह संभव नहीं हो पाया ज्योति ने भी उससे मिलने की कभी कोई कोशिश नहीं की फिर,नौकरी की व्यस्तता ने धीरे-धीरे पुरानी बातों को पीछे छोड़ दिया

वह उस सरकारी कंपनी में अकाउंटेंट के पद पर काम कर रहा था अपने काम के बल पर उसने अपने सीनियर अधिकारियों के बीच अपनी एक अलग जगह बना ली थी चीफ अकाउंट्स आफिसर श्रीवास्तव जी तो उसे बहुत मानने लगे थे श्रीवास्तव जी के बारे में लोगों की कोई अच्छी राय नहीं थी लोग दबी जुबान से कहते कि वे बिना पैसे लिए पार्टियों के बिल पास नहीं करतेलेकिन, उसने कभी भी ऐसा महसूस नहीं किया था अकाउंटेंट की हैसियत से उसके द्वारा पार्टियों के बिलों में लगाए गये आब्जेक्शनों पर श्रीवास्तव जी ने कभी कोई आपत्ति नहीं की थी पार्टियां जब तक वे कमियां पूरी न कर देतीं, उनके बिल पास नहीं होते हां कभी-कभी वे किसी पार्टी का बिल जल्दी पास करने के लिए उसे अवश्य कहते इसमें उसे कोई बेजा बात नहीं लगती थी क्योंकि समय पर भुगतान कराना उनका फर्ज था उसने यह भी महसूस किया था कि श्रीवास्तव जी पार्टियों से ज्यादा मिलना पसंद नहीं करते थे कोई जरूरी काम होने पर ही वह उन्हें अपने केबिन में आने देते कई बार ऐसे समय वह भाी केबिन में होता वे काम की ही बातें करते इन्हीं सब कारणों से वह श्रीवास्तव जी के बारे में चलने वाली चर्चाओं से कभी भी सहमत नहीं हो पाया

उस दिन आफिस बंद होने के समय श्रीवास्तव जी ने उसे अपने केबिन में बुलाया और पूछा कि शाम को उसका कोई खास प्रोग्राम तो नहीं है उसके मना करने पर वे बोले -''ठीक है, अगर आप फ्री हैं तो आज हमारे साथ चलिए'' उसने उनसे पूछा कि कहां जाना है तो वे हंस कर बोले -''जहन्नुम में नहीं ले जाऊंगा, मेरे साथ चलने में कोई ऐतराज है क्या'' वह मना नहीं कर पाया था हां, उसे आश्चर्य जरूर हुआ था क्योंकि उससे पहले उन्होंने कभी ऐसा कोई प्रस्ताव उसके सामने नहीं रखा था

आफिस बंद होने के तुरंत बाद वे निकल पडे श्रीवास्तव जी का ड्राइवर शायद छुट्टी पर था, इसलिए वे खुद कार चला रहे थेरास्ते में वे उसके और उसके घरवालों के हालचाल पूछते रहे वह उन्हें उत्तर देता जा रहा पर, मन ही मन इस उधेड़-बुन में लगा रहा कि वे उसे आखिर कहां ले जा रहे थे और क्यों करीब बीस मिनट बाद कार एक मकान के सामने रूकीनिश्चित रूप से वह उनका मकान तो नहीं था क्योंकि उसे मालूम था कि उनका घर कृष्णपुरा में है जबकि वे जवाहर नगर में थे कार रूकने की आवाज सुनते ही मुख्य द्वार खुला और -''आइये,पधारिये'' कहते हुए जो सज्जन बाहर निकल कर आए उन्हें वह देखते ही पहचान गया वे रेवाचंद गिडवानी थे जो उनकी कंपनी को कच्चा माल सप्लाई करते थे उन्हें देखकर वह ठिठक गया और हैरानी से श्रीवास्तव जी की ओर देखने लगा उसे अपनी ओर देखते पा कर वह हंस कर बोले- ''क्या हुआ, आप तो गिडवानी जी को जानते ही हैं ये हमारे सप्लायर जरूर हैं, पर उससे बढ क़र हमारे मित्र भी हैं मित्र के घर आना कोई गुनाह नहीं है न?''इस बीच गिडवानी जी उसके पास आकर खडे हो गये थे और उसका हाथ अपने हाथ में लेकर बोले थे-''अरे भाई , आप हमारे मेहमान हैं, आइये अंदर चलिए'' वह यंत्रवत उनके साथ चल पडा था

वे जिस कमरे में पहुंचे वह एक सजा हुआ ड्राइंग रूम था फर्श पर कालीन बिछा थासेंट्रल टेबिल के साथ सुंदर सा सोफासेट शोभायमान था और कोने में जो दीवान रखा था उस पर बडे-बडे गाव तकिये रखे थे नीचे दीवार के सहारे बडा गद्दा पडा था, जिस पर सफेद बुर्राक चादर बिछी थी और गोल तकिए करीने से लगे थेवहां पहुंचते ही गिडवानी साहब की पत्नी भी आ पहुंची जिन्होंने उनका बहुत खुलूसी से स्वागत किया गिडवानी साहब ने उसका परिचय भी अपनी पत्नी से कराया और उन्हें बताया कि वह घर में आने से शरमा रहा था तो वह बहुत अपनत्व जताते हुए बोलीं-''आपको ऐसा नहीं करना चाहिए, इसे अपना ही घर समझिए श्रीवास्तव जी तो हमारे अच्छे मित्र हैं आप भी आज से हमारे मित्र हुए'' यह कह कर वे खिलखिला कर हंस पडीं उनके साथ श्रीवास्तव जी और गिडवानी जी के ठहाकों से घर गूंज उठा

कुछ औपचारिक बातों के बाद गिडवानी जी ने ताश खेलने का प्रस्ताव किया श्रीवास्तव जी ने तुरंत ही उनके प्रस्ताव को मान लिया वे उससे पूछने लगे -''आप फ्लैश खेलना पसंद करेंगे या रमी'' वह कुछ असहज सा हो आया और अपनी जान छुड़ाने के लिए उसने कह दिया कि उसे ताश खेलना आता ही नहीं है श्रीवास्तव जी बोले-''कोई बात नहीं आप सिर्फ मेरे पास बैठिए और खेल देखिए देख कर आप खेल को समझ सकते हैं मैं आपको बताता जाऊंगा कि रमी कैसे खेली जाती है'' उसे न चाहने पर भी उनके साथ बैठना पडा

श्रीवास्तव जी, गिडवानी जी और उनकी पत्नी जमीन पर बिछे गद्दों पर बैठ गये और उनकी ताश की बाजी शुरू हुई एक रूपया पाइंट पर खेल शुरू हुआ श्रीवास्तव जी बीच-बीच में चुटकुले सुनाते जाते और उस पर गिडवानी जी और उनकी प जर डाल रहा था उसे यह देख कर बहुत आश्चर्य हुआ कि गिडवानी जी अच्छे पत्ते होते हुए भी हार जाते थे उनकी पत्नी तो इतनी अनाडी थीं कि जिन पत्तों की जरूरत श्रीवास्तव जी को होती वही पत्ते फेंक देतीं चूंकि वह कह चुका था कि उसे ताश खेलने बिल्कुल नहीं आते, इसलिए वह सिर्फ चुपचाप खेल देख रहा था उसे लगा कि गिडवानी जी और उनकी पत्नी रमी के अच्छे खिलाडी नहीं हैं, उन्हें इस खेल के बारे में अभी बहुत कुछ सीखना है इस बार जब पत्ते बंटे तो उसने देखा गिडवानी जी के पास बहुत अच्छे पत्ते आए थे और उतने ही खराब पत्ते श्रीवास्तव जी के पास आए थे यदि वह श्रीवास्तव जी की जगह खेल रहा होता तो पत्ते फेंक देता पर श्रीवास्तव जी ने खेल जारी रखा उसे यह देख कर बहुत आश्चर्य हुआ कि गिडवानी जी अपने लगे-लगाए पत्ते फें कते रहे और बिल्कुल जीती बाजी हार गये उसे अब कुछ-कुछ समझ में आने लगा था वे दोनों सिर्फ श्रीवास्तव जी को जिताने के लिए खेल रहे थे और श्रीवास्तव जी के सामने पडा जीते हुए रूपयों का ढेर लगातार बढता जा रहा था बीच-बीच में गिडवानी जी कहते जा रहे थे ''श्रीवास्तव जी आज तो आपका लक बहुत जोर मार रहा है'' श्रीवास्तव जी उसका जवाब ठहाके से देते

 

अभी वह इस सबको ठीक-ठीक समझने की कोशिश कर ही रहा था कि घर के अंदर की ओर जानेवाले दरवाजे का पर्दा उठा और ट्रे में कीमती शराब की बोतल और गिलास उठाए जिस लडक़ी ने प्रवेश किया उसे देखते ही वह चौंक गया हां, वह ज्योति गिडवानी ही थी वह भी उसे देख कर जड हो गई थीफिर अपने को संभाल कर उसने टेबिल पर ट्रे रखते हुए श्रीवास्तव जी को नमस्ते कहा श्रीवास्तव जी ने उसके गाल थपथपा कर उसका अभिवादन स्वीकार किया उससे भी ज्योति का परिचय कराया गया दोनों ने ही अपरिचय दर्शाते हुए एक-दूसरे को नमस्ते की उसने सभी को जाम भर कर देना शुरू किया जब उसे जाम दिया गया तो उसने यह कह कर मना कर दिया कि वह शराब नहीं पीता उसके लिए चाय लेने के लिए ज्योति अंदर चली गई उसे कुछ देर लगी तो उसकी मां ने आवाज लगा कर उसे जल्दी आने के लिए कहा थोड़ी देर में ज्योति चाय लेकर बाहर आई और उसके सामने रख कर वहीं बैठ गई श्रीवास्तव जी ने प्लेट से काजू उठाते हुए ज्योति से कहा - अरे, हमसे नाराजगी है क्या जो उतनी दूर जाकर बैठ गई हो वह खिसक कर श्रीवास्तव जी के थोड़ा और नजदीक हो गई श्रीवास्तव जी को नशा चढने लगा था, उन्होंने ज्योति की कमर में हाथ डाल कर उसे अपने और नजदीक खींच लिया वह थोड़ा सकुचा कर अलग हट गई तो श्रीवास्तव जी खीं-खीं करके हंसने लगे और उससे बोले - ''देखो, आज हमारे साथ एक नये मेहमान हैं,जरा उनका भी ख्याल रखना'' यह कह कर उन्होंने उसकी ओर देख कर आंख मारी थी

वह वितृष्णा से भर उठा था क्या हो रहा था यह सब ज्योति के माता-पिता इस पर कोई आपत्ति क्यों नहीं कर रहे थे? स्कूल और कालेज में लडक़ों से दूरी बनाए रखने वाली ज्योति को क्या हो गया था वह इसका विरोध क्यों नहीं कर रही थी? क्या वह भी इस गंदगी का एक हिस्सा थी ? श्रीवास्तव जी का यह कौन सा रूप था? वे उसे वहां क्यों लाए थे? ऐसे सैंक़डों प्रश्न उसे बेचैन करने लगे वह अपने को रोक नहीं पाया और उठ कर खडा हो गया श्रीवास्तव जी ने प्रश्न भरी निगाह उसकी ओर डाली तो वह बोला -''सर, मुझे जरूरी काम याद आ गया है, मैं चलता हूं'' उन्होंने कहा-''बस थोड़ी देर रूको मैं भी चलता हूंपर, वह बैठने को तैयार नहीं हुआ तो वे भी उठ खडे हुए जीते हुए रूपये उन्होंने अपनी जेब में ठूंसे, गिडवानी जी की पत्नी और ज्योति की पीठ थपथपाई और लडख़डाते कदमों से बाहर निकल आए उन्हें कार तक छोड़ने गिडवानी जी और उनकी पत्नी भी बाहर तक आए लेकिन ज्योति उनके साथ नहीं आई थी

गिडवानी जी ने उसे विदा करते हुए कहा-'' आप तो कुछ भी नहीं लेते, ताश भी नहीं खेलते, हम आपकी कोई सेवा नहीं कर पाए फिर कभी आइये और सेवा का मौका अवश्य दीजिए'' उसने सिर्फ हाथ जोड़ दिए थे और कार में बैठ गया था

श्रीवास्तव जी कार चलाते रहे और वह चुपचाप बैठा रहा वे भी चुप थे थोड़ा आगे जाने पर सडक़ के किनारे उन्होंने अचानक कार रोक दी और बोले-''देखो, इस सबका कोई और अर्थ मत लगाना गिडवानी जी हमारे मित्र हैं कभी-कभी समय काटने और रिफ्रेश होने के लिए मैं यहां चला आता हूं ताश भी हम सिर्फ मनोरंजन के लिए खेल लेते हैं मैं शराबी भी नहीं हूं, बस दोस्तों का साथ देने के लिए कभी-कभार ले लेता हूं और वह भी गिडवानी जैसे दोस्तो के साथ''

वह सब समझ रहा था रिश्वत लेने का इससे अच्छा तो और कोई तरीका हो ही नहीं सकता थाफिर मनोरंजन के नाम पर वह बेशर्मी जिसमें मां-बेटी दोनों शामिल थे, क्या था वह सबउसके मुंह से निकल पडा था-''सर मैंने आपके बारे में कभी ऐसा नहीं सोचा था खैर यह सब आपका अपना मामला है, लेकिन आप मुझे क्यों ले गये उनके घर?'' श्रीवास्तव जी एक मिनट चुप रहे फिर बोले-''गिडवानी का एक मामला आपके पास है मुझे उसमें आपकी मदद की जरूरत पडेग़ी गिडवानी भी हर तरह से आपकी मदद करने को तैयार है मैं चाहता था कि आप उससे मिल लें और उसके बेहतरीन आतिथ्य का आनंद लेंयह दुनियां बहुत हसीन है, बस इसका आनंद उठाने वाला होना चाहिए'' फिर जेब में से जीते हुए पैसे निकाल कर उसमें से कुछ नोट जबरदस्ती उसकी जेब में ठूंसने लगे वह बोला-''सर, मुझे इसकी जरूरत नहीं है आप शायद मुझे गलत समझे हैं वे अविश्वास से उसे देखने लगे नशे में उनकी आखें एकदम लाल हो रही थीं न जाने क्या सोच कर उन्होंने पैसे वापस अपनी जेब में रख लिए और फिर उसके दोनों हाथ पक़ड कर बोले-''ठीक है, पर मेरी आपसे एक विनती है, आज जो कुछ भी हुआ वह आप भूल जाइए, इसका जिक्र किसी से मत करिए उसने कहा -''सर, मैं एक ही शर्त पर ऐसा कर सकता हूं कि आप भविष्य में कभी मुझे इस सबमें शामिल करने की कोशिश नहीं करेंगे'' उन्होंने सहमति में अपनी गरदन हिलाई और फिर ''थैंक्यू '' कह कर कार स्टार्ट कर दी वे उसे उसके घर के नजदीक के चौराहे पर छोड़ कर चले गये

उस रात उसे नींद नहीं आईजो कुछ भी घटा था ,वह उसके जेहन में घूमता रहा श्रीवास्तव जी के व्यक्तित्व का वह विद्रूप पहलू, गिडवानी की पत्नी और ज्योति की भूमिका वह सबसे अचंभित तो ज्योति की बेशर्मी को लेकर था जिस ज्योति को वह जानता और मानता था, उसका यह रूप पचा नहीं पा रहा था ऐसा करने की उसे क्या जरूरत थी उसका बार-बार मन कर रहा था कि वह जाकर ज्योति से इन प्रश्नों के उत्तर पूछे पर, उसे न तो इसका कोई अवसर ही मिला और न ही वह इसके लिए हिम्मत जुटा पाया

आफिस में उसने श्रीवास्तव जी के सामने कभी यह नहीं जताया कि उस दिन जो कुछ घटा था, वह उसका बोझ अपने मन पर लिए है वह सामान्य ढंग़ से अपना काम करता रहा श्रीवास्तव जी भी प्रत्यक्षतः ऐसा जताते रहे जैसे कुछ हुआ ही नहीं था हां, उन दोनों ने अपनी-अपनी सीमा जरूर तय कर ली थी कुछ ही दिनों में उसके स्थानांतरण का आदेश आया तो उसे यह समझते देर नहीं लगी कि यह स्थानांतरण श्रीवास्तव जी ने ही कराया है शायद वे उसकी उपस्थिति में असहज महसूस करते रहे होंगे उसे भी स्थानांतरण वरदान की तरह लगा क्योंकि वह श्रीवास्तव जी के साथ अब पहले की तरह सहजता से काम नहीं कर पा रहा था और उसे घुटन महसूस होती थी

 

दूसरे आफिस में जाने के बाद बदले हुए वातावरण में ढलने में उसे कुछ समय अवश्य लगा पर, वहां वह धीरे-धीरे सब कुछ भूलने लगा फिर वर्ष पर वर्ष बीतते गये और समय के साथ-साथ वह घटना विस्मृति के गर्भ में समाती चली गई आज इतने दिनों बाद वह सब कुछ ताजा हो गया था सामने की सीट पर जो औरत सोई हुई थी,वह वही ज्योति थी जिससे पूछने के लिए कुछ प्रश्न उसके पास आज भी जिंदा थे संयोग ने ही उसे ज्योति से मिलाया था उसने निश्चय किया कि वह ज्योति से उन सवालों के जवाब अवश्य पूछेगा

ज्योति के जागने पर उसने दोनों के लिए चाय मंगा ली  चाय बनाते-बनाते ज्योति ने उससे कहा-'' दीपक, सिर्फ मैं ही अपने बारे में बताती रही और मैंने तुमसे कुछ पूछना चाहती हूं, पूछूं?'' फिर उसके जवाब का इंतजार किये बिना ही बोली- ''तुम मुझे चाहते थे न? लेकिन कभी कह नहीं पाए? '' अचानक आए इस प्रश्न ने उसे स्तंभित कर दिया वह कुछ जवाब नहीं दे पाया तो वह बोली-''तुम जवाब दो या न दो मैं सब समझती रही पर मैंने इसे कभी व्यक्त नहीं होने दिया क्योंकि मैं अपने को तुम्हारे लायक नहीं समझती थी आज तुम्हें इतने दिन बाद देख कर भी मैं थोड़ी सी कोशिश से ही तुम्हें पहचान गई लगा ही नहीं कि तुम कोई पराये आदमी हो और मैंने अपनी जिदगी के सारे आयाम तुम्हारे सामने खोल कर रख दिये मुझे मालूम है, तुम्हारे पास भी कुछ प्रश्न हैं, पूछोगे नहीं मुझसे?'' वह असमंजस में पड ग़यासच, कुछ प्रश्न तो थे उसके पास जिनका जवाब वह पाना चाहता था उसे असमंजस में देख वह बोली-''देखो,दीपक मन में कुछ मत रखो, आज मौका मिला है तो पूछ ही डालो मैं भी चाहती हूं कि तुम्हारे प्रश्नों का जवाब तुम्हें मिल जाए''

 

उसने कहा -''सचमुच मैं तुमसे कुछ सवाल पूछना चाहता हूं शायद तुम जानती भी हो कि मैं क्या पूछना चाहता हूं हां, मैं जानती हूं, फिर भी चाहती हूं कि तुम अपने नजरिये से अपने सवाल मेरे सामने रखो मैं तुम्हें यकीन दिलाती हूं कि मैं बिना लाग-लपेट के उसका जवाब दूंगी''

''तो ठीक है , तुम मुझे बताओ,हमारा बास श्रीवास्तव तुम्हारे घर क्यों आता था? क्यों तुम उसे जाम भर कर देती थीं, उसकी अश्लील हरकतों को तुम और तुम्हारी मां क्यों सहन करती थीं क्यों तुम्हें और तुम्हारे घर वालों को अपनी इज्जत की बिल्कुल भी परवाह नहीं थी?'' वह एक सांस में बोलता चला गया।

''किस इज्जत की बात कर रहे हो तुम, क्या होती है इज्जत?'' वह बिफर पडी थी ''सुनना चाहोगे तो लो सुनो पाकिस्तान बनने से पहले हमारा परिवार लाहौर में रहता था पापा ठेकेदारी करते थे, घर में किसी चीज की कमी नहीं थी समाज में हमारी इज्जत थी मैं वहां के अच्छे स्कूल में पढती थी दुनियां बहुत सुहानी नजर आती थी पर, तभी देश विभाजन की खबरें आने लगी थीं और चारों ओर दहशत का वातावरण बनने लगा था जब पाकिस्तान बनने की घोषणा हुई उस समय मैं मुश्किल से पंद्रह वर्ष की रही होऊंगी लाहौर में जबरदस्त मारकाट शुरू हो गई थीहम अपना घर छोड़ने के लिए तैयार नहीं थे हमारे अधिकांश पडौसी मुसलमान थे,उन सभी से हमारे संबंध बहुत अच्छे थे शुरू में तो हम लोगों को वे पूरा ढाढस बंधाते रहे, पर जैसे-जैसे दंगे बढने लगे, वे भी अपने को असहाय पाने लगे।

वह रात मुझे अभी भी याद है हमारे पडौसी याकूब खां घबराये हुए हमारे घर आए और बोले जितनी जल्दी हो सके यहां से निकल जाओ दंगाई कभी भी यहां पहुंच सकते हैं हम सभी बेहद घबरा गए और कीमती चीजें और पहनने के दो-चार कपडे लेकर रात के अंधेरे में ही घर से निकल पडे ज़गह-जगह उठती आग की लपटों और चीख -पुकार ने हममें अजीब दहशत भर दी थीसमझ में नहीं आ रहा था कि कहां जाएं उस माहौल में किसी को किसी की नहीं पडी थी हम छुपते-छुपाते दिशाहीन आगे बढ रहे थे दंगाइयों के हुजूम जब भी नजर आते हम बदहवास हो जाते हमारे पास ईश्वर का नाम लेते हुए और पेड़ों-झाडियों का सहारा लेते हुए चलने के अलावा और कोई चारा नहीं था

अचानक कुछ दंगाइयों की नजर हम पर पडी हाथों में तलवार और चाकू-डंडे लिए दंगाइयों को अपनी ओर आता देख हमारी घिग्गी बंध गई सामान के साथ भागना संभव नहीं था हमें पकड लिया गयावे कुल सात लोग थे हमें घेर कर पास की एक गली में ले गये हमारे पास जो कुछ था उसे लूट लिया मेरी मां और मेरे साथ उन्होंने पापा की उपस्थिति में बलात्कार किया हम कुछ भी नहीं कर पायेतभी पुलिस की गाडी क़े साइरन की आवाज आई और वे हमें उसी दशा में छोड़ कर भाग गए पुलिस वालों ने हमें अपनी गाडी से कैम्प में पहुंचाया पापा के चेहरे की लाचारी और शर्मिंदगी हमें भुलाए नहीं भूलती पापा अपना मुंह छुपाए बैठे रहते और हम दोनों सदमे में थे एक दिन हमें भारत के लिए रवाना कर दिया गया यहां पहुंच कर हम रिफ्यूजी कैम्प में रहे सरकार की ओर से कैम्प में जो कुछ मिल जाता वही खा कर सो रहते

हमारे पास में एक भी कौड़ी नहीं थी सरकार ने एक छोटा मकान हमें रहने के लिए दिया तो कुछ आसरा बंधा पर, पापा जहां कहीं काम मांगने गये ,निराश हो कर ही लौटे उस समय की त्रासदी शब्दों में बयान नहीं की जा सकतीर् कई बार हम भूखे पेट सोये

हमारे बगल वाले मकान में जो परिवार रहता था, उससे हमारी दशा छुपी नहीं थी उनकी सहायता से पापा ने मूंगफलियों का ठेला लगाना शुरू किया वे सुबह से निकलते और रात को लौटते इतनी मेहनत के बाद भी दोनों वक्त की रोटियों का जुगाड मुश्किल से होता था ये वही पापा थे जो लाहौर में खुद लोगों को रोजगार देते थे उनकी दशा हमसे देखी नहीं जाती थी मम्मी ने भी कुछ काम करने की कोशिश की , वे जहां भी जातीं, भूखी निगाहें मौजूद होतीं काम मिल सकता था, बस लोगों को खुश करने की देर थी एक दिन वे मेरे सामने रो दी थीं बोली -''इस झूठी इज्जत को लेकर क्या करूं, यह तो दो वक्त की रोटी भी नहीं देती मेरे पति के सामने लुट चुकी है यह इज्जत मैं क्यों इसकी और समाज की परवाह करूं''

शायद उन्होंने एक फैसला कर लिया था कुछ ही दिन बाद उनकी ही नहीं पापा की भी नौकरी लग गई और हम समाज के इज्जतदार लोगों में शामिल हो गये

पापा ने फिर से ठेकेदारी शुरू की वे कई कंपनियों को माल सप्लाई करने लगे दीपक साहब, माल सप्लाई करने के आर्डर यूं ही नहीं मिलते श्रीवास्तव जी जैसे लोगों को चुग्गा फेंकना होता है हम, यानि कि मेरी मां और मैंने सिर्फ पापा के काम में हाथ बंटाया है लाहौर की उस रात के बाद कोई भी स्थिति हमें स्वीकार थी जो कुछ भी था, वह उससे बुरा तो नहीं हो सकता था न? तुम्हारे श्रीवास्तव जी जैसे लोग तो सिर्फ जाम भर कर देने, हंस कर बोल लेने और स्पर्श सुख से ही संतुष्ट हो जाते थे यह उस जलालत से बहुत कम थी जो हम भोग चुके थे लाहौर की उस रात ने हमें क्या दिया था - खुद से नफरत, ज़माने से नफरत और पापा को न किये अपराध की ग्लानि साथ ही हमें दी थी भूख, गरीबी और वितृष्णा'' यह कहते-कहते वह रो पडी थी

 वह अवाक सा सब सुनता रहा उसका मन किया कि वह उठे और उसके आंसू अपनी मुट्ठियों में समेट ले ,पर वह वैसा कुछ नहीं कर पाया

ज्योति ने अपने आंसू पौंछ डाले और उसकी आंखों में आंखे डालते हुए बोली-''मिल गया ना तुम्हें जवाब?'' वह ''हां'' में अपना सिर भी नहीं हिला पाया था

-डा रमाकांत शर्मा
जनवरी 1, 2005

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