मुखपृष्ठ |
कहानी |
कविता |
कार्टून
|
कार्यशाला |
कैशोर्य |
चित्र-लेख | दृष्टिकोण
|
नृत्य |
निबन्ध |
देस-परदेस |
परिवार
|
फीचर |
बच्चों की
दुनिया |
भक्ति-काल धर्म |
रसोई |
लेखक |
व्यक्तित्व |
व्यंग्य |
विविधा |
संस्मरण |
साक्षात्कार
|
सृजन |
स्वास्थ्य
|
|
Home | Boloji | Kabir | Writers | Contribute | Search | Feedback | Contact | Share this Page! |
|
मां पढती है
कई महीनों बाद गांव गया
हूँ।
वहां मां अकेली रहती है।
आज घर का दरवाज़ा
खुला है।
वरना ऐन तडक़े दरवाजा ओट
बाहर का काम निपटाने चली जाती है।
सुबह का सारा वक्त
गोशाला में बीतता है।
पशुओं को घास -
पत्ती देते।
गाय दुहते।
गोबर फेंकते।
इस समय भी मां भीतर नहीं
है।
मैं उनके कमरे में चला आया
हूँ।
सूरज निकलते ही पहली किरण
उनके कमरे में पडती है।
आज किरणों के साथ
मैं हूँ।
उनका कमरा जितना अपना लगता
है उतना ही अकेला है पर तरह - तरह की चीजों
से भरा हुआ।
उसी तरह जैसे उजास
भीतर भर जाया करता है।
ऊपर लकडी क़ी छत में
जगह - जगह मकडी क़े जाले हैं।
नीचे की तरफ झूलते।
उनमें कई मक्खियां
मरी - फंसी है।
यही हाल दीवारों का भी है।
कई जगह जालों पर
कीरा जम गया है।
जगह - जगह सामान बिखरा पडा
है।
कोई चीज तरतीब से नहीं है।
दरवाजे से भीतर आते
दाईं ओर दूध बिलाने का घडा रखा है।
उस पर मैला सा कपडा
है।
मां जब चूल्हे के पास दूध
बिला के फारिग होती होगी तो इसे यहां ले आती है।
बांई तरफ एक टोकरा
है।
उसमें भेड क़ी अनकाती ऊन
भरी है।
उसकी तहों के ऊपर कुछ
थींगे हुए ऊन के फाहे हैं।
एक किनारे तकली रखी
है।
एक कोने में खजूर की
पत्तियां बिखरी पडी हैं।
उनके बीच कई बुनी
हुई खजूर की पट्टियां हैं,
दूसरे कोने में छोटा सा पुराना मेज।
उस पर टेलीविजन रखा
है।
सिरहाने बिलकुल साथ कनस्तर
पर मैला सा कपडा है।
उस पर टेलीफोन है।
बिजली के बल्ब पर
कीरे ने पूरी तरह अधिकार जमा लिया है।
उसका रंग बदरंग हो
गया है।
मां के सिरहाने ऊपर की ओर
भीत पर एक कील में लकडी क़ा चकौटा टंगा है।
उस पर ढिबरी रखी है।
छत के धुंए ने एक
लम्बी लकीर बना दी है।
जब बिजली चली जाती
होगी तो मां इसे जला लिया करती है।
कमरे में बीडी क़ी
बास पसरी है।
चारपाई के नीचे देखता
हूँ
तो वहां भी कई - कुछ चीजें
बिखरी हैं।
अधबुझी बीडी क़े टुकडे।
दियासलाई की जली
तिल्लियां।
एक खजूर के पटडे पर सूखा
अनारदाना।
कुछ आंवले।
आठ - दस अखरोट।
पांच अनछीली हुई
पकी हुई मक्कियां।
एक दूसरे में बंधी
हुई।
पहली फसल की मक्कियां
देवता के लिये रखी होंगी।
दो चार गठडियां
जिनमें कई किस्म की दालें हैं।
इतनी चीजें मां के साथ रहती हैं।
उनसे जुडी हैं।
उनकी साथी - संगी
हैं।
लेकिन मैं इनके बीच उस
कमरे में अकेला पखला बैठा
हूँ।
वे जैसे मुझे पहचानने का
प्रयास कर रही हैं।
कभी लगता है कि वे
सभी मेरा उपहास उडा रही हैं।
मां घर
आंगन द्वार खेत खलिहान जमीन जायदाद सब मेरे हैं,
पर आज मैं इनसे कितना दूर चला गया
हूँ।
सूरज घर की छत के कोने से
आगे सरक गया है।
किरणें सिमटती हुई
आंगन में चली गई हैं।
कमरे के उजाले को
अपने साथ लेती हुई सुबह की बेला में अंधकार का एहसास होने लगा है।
यह अंधेरा बाहर से
कहीं ज्यादा मेरे भीतर पसरा है।
हालांकि मैं मां के
कमरे में हूँ।
उनके बिस्तर पर बैठा स्नेह
की गंध में भीग गया
हूँ, लेकिन
बरसों घर के बाहर रहने का अहसास उस स्नेह को मन तक नहीं पहुंचने देता।
याद ही नहीं रहा कि मेरे
हाथों में किताबों का एक पैकेट भी है।
इन नई पुस्तकों को
मैं मां को भेंट करने लाया
हूँ।
आज तक एक भी पुस्तक छपने
के बाद उन्हें नहीं दे पाया।
न ही उन्हें कभी
पुस्तक विमोचन समारोहों में ही बुला पाया।
जब भी कोई किताब आई
है मैं ने उसे राज्यपाल या मुख्यमंत्री से ही रीलीज क़रवाया है।
यह जानते हुए भी कि
उन लोगों का साहित्य से कुछ लेना - देना नहीं है।
बिलकुल उसी तरह
जैसे मंचों से गरीबी हटाने के नारे लगाने वालों का गरीबों से कोई लेना -
देना नहीं होता।
कागज़ों पर गांव और
उसके परिवेश की सौंधी खुश्बू बिखेरने वाले हम लेखकों का जैसे वहां की गोबर
- मिट्टी से कोई वास्ता नहीं होता।
यानि पल भर का
छलावा।
झूठी शान या यूं कह लें कि
घर फूंक तमाशा देखने भर की बात।
ऐसा भी नहीं था कि मां को
बुलाना नहीं चाहता था।
या कि उनकी यादें
उस समय मेरे साथ न होती थीं।
लेकिन कई डर मन में
घर किये रहते।
सोचा करता कि आज का माहौल
बिल्कुल अलग तरह का है।
मां कैसे इन बडे
लोगों के बीच अपने का एडजैस्ट कर पाएगी।
सबसे पहले तो उसका बस में
बैठना ही किसी मुसीबत से कम नहीं।
बैठते ही उनकी
तबियत खराब हो जायेगी।
उल्टियां करने
लगेंगी।
थोडा आराम मिलेगा तो जेब
से बीडी और
माचिस निकाल लेंगी और शॉल
की ओट में झटपट सुलगा कर पीने लग जायेंगी।
एक - दो दम लेते ही
खांसी ऐसे शुरु होगी कि अभी प्राण निकल लिये।
जैसे - कैसे समारोह में
पहुंचेगी तो लोगों की नजरें उन पर बराबर लगी रहेगी।
बिना प्रेस किये
कपडे,
प्लास्टिक के जूते उपहास बनने लगेंगे।
फिर उनके मुंह से
बीडी क़ी बास आती रहेगी।
उनके बाल भी ठीक
तरह से नहीं होंगे।
हालांकि शॉल सिर पर
ओढे रखेंगी पर काले - सफेद बालों की आपस में बंटी लडियां नीचे तक लटकी
होंगी।
उनके बीच घास के तिनके और
सूखी पत्तियां फंसी होंगी।
जैसे ही लोगों को
मालूम होगा कि मेरी मदर आई हैं तो वे बार - बार उनके पास बधाई
देने जायेंगे।
बातें करना चाहेंगे।
कई कुछ पूछने
लगेंगे।
लेखक - पत्रकार बन्धु तो
बातें कुरेदेंगे।
फिर पता नहीं मां
किस तरह बात करेंगी।
पता नहीं क्या
उल्टा - सीधा बोल देंगी।
बातें करते - करते
उन्हें खांसी आ गई तो किरकिरी हो जायेगी।
फिर उन्हें कहीं
बीडी क़ी तलब हो आई तो झट से सुलगा कर वहीं पीना शुरु कर देंगी।
उसके बाद जलपान शुरु होगा तो वह छुरी कांटे से तो खा नहीं सकेगी।
खाते हुए सभी का
ध्यान उसके हाथों पर अवश्य जायेगा।
गांव में घास पत्ती
काटते, गोबर
फेंकते, दूध बिलाते,
लकडियां काटते, चूल्हे में रोटी सेंकते,
हाथ बिवाइयों से भरे होंगे उनसे गोबर - मिट्टी की बास
भी आएगी भले ही लोग मुंह पर कुछ नहीं बोलें पर बातें तो बनाएंगे ही कि इतने
बडे लेखक की मां ऐसी है।
निपट गंवार।
यह सब कुछ सहन भी
कर लूंगा फिर बच्चों की खरी - खोटी सुननी पडेग़ी।
इन स्मृतियों में खोए -
खोए मां के बिस्तर पर लेट जाता
हूँ।
ऐसा लगता है कि मेरा बचपन
लौट आया है।
उस चारपाई पर जैसे मां की
गोदी में सोया हूँ।
पालने में मां मुझे
झूला झुला रही है यह सुख औृ स्नेह बरसों बाद मिला है।
मन कर रहा है कि
यहीं सोया रहूँ
कभी उठूं ही नहीं।
अपने ऊपर आश्चर्य हो रहा
है कि मेरी रचनाओं में गांव है,
वहां का पूरा अंचल है।
गरीब लोग हैं,
खेत खलिहान हैं।
मां है।
उनका स्नेह है
लेकिन उन वास्तविकताओं से खुद कितना दूर चला गया
हूँ
कोसों दूर
।
मां के बिस्तर पर लेटा
अपने भीतर के लेखक को ढूंढने लगता
हूँ
पर वह कहीं नहीं है।
उसके कई चेहरे हैं।
या उन चेहरों पर कई
तरह के मुखौटे लगाये गये हैं।
अपने को उस शहरी
परिवेश और इलीट सोसायटी में ऊंचा दिखाने के लिये।
नाम,
प्रतिष्ठा कमाने के लिये लोगों की वाह वाह लूटने
के लिये पर उस उत्कर्ष का सही मायनों में मेरे भीतर के आदमी से जैसे कोई
सम्बन्ध नहीं रहा है।
अनायास फिर एक ओर
रखी अपनी किताबों पर हाथ जाता है
।
उनका स्पर्श पुन: उसी
उत्कर्ष पर ले जाता है।
क्या हुआ मां को
नहीं बुलाया तो चलता है,
सब कुछ चलता है।
हम इक्कीसवीं सदी
में जी रहे हैं,
फिर क्यों उन रूढियों का बोझ कन्धों पर ढोए चलें।
गांव - पहाड,
ग़ोबर - मिट्टी, खेत - खलिहान
कागज़ों की पीठ पर उगते अच्छे लगते हैं, पर
वास्तविक जीवन में तो नर्क है नर्क? फिर
मैं तो मां का सम्मान करने ही आया
हूँ,
इधर तो ऐसे भी लेखक हैं जो या तो मां - बाप से अलग हो
गये हैं या उन्हें किसी वृद्वाश्रम के हवाले कर दिया है।
मैं मां के चरणों
में इन पुस्तकों को रख कर उनसे आर्शीवाद लूंगा पश्चाताप करूंगा वे खुश
होंगी कि उनका बेटा कितना बडा आदमी है।
लेखक है।
वे पुस्तकें जैसे
मेरे अहं को और भी भव्य बनाए जा रही हों।
यही सब सोचते - विचारते
मां के सिरहाने पर हाथ पडता है।
कुछ चुभता महसूस
होता है।
मैं लेटे - लेटे दायां हाथ
पीछे करके सिरहाने के नीचे डालता
हूँ।
चौंक जाता
हूँ।
हडबडी में उठता
हूँ
और सिरहाने को एक तरफ खींच
देता हूँ।
कोई किताब है।
बाहर खींचता
हूँ
तो स्तब्ध रह जाता
हूँ।
आंखे उसके आवरण पर धंसती
चली जाती हैं।
मेरी सांस रुकने लगी है।
जिस्म का सारा खून
जैसे शिराओं में जम गया है।
यह मेरी नई पुस्तक
है।
पागलों की तरह सिरहाने की
तरफ के खिंदडों
की तहों को हटाता
हूँ
और उसके नीचे रखी सभी
किताबों को बाहर खींच लेता
हूँ
सभी मेरी हैं।
भ्रम होता है कि
कहीं अतीत में विचरते हुए मैं ने ही अपना पैकेट वहां तो नहीं रख दिया है।
पर वह पूर्ववत था।
मेरे ही पास पडा
हुआ।
उसे खोलता
हूँ।
जो पुस्तकें मैं लाया
हूँ
वे सभी उसी में हैं।
मां के सिरहाने तो
दूसरी प्रतियां हैं।
पहली पुस्तक हाथ में लेता
हूँ।
उसे उलटता - पलटता
हूँ।
उसके भीतर पृष्ठों में जगह
- जगह घास के तिनके हैं।
कुम्बर हैं।
दूसरी पुस्तक उठाता
हूँ।
उसे देखने लगता
हूँ।
उसके पन्नों से सरसों के
फूलों की भीनी - भीनी खुश्बू आ रही है।
पन्नों को उलटता - पलटता
हूँ
कई जगह पीले फूलों के
पत्ते चिपके हैं एक - आध गेहूं की बाली भी है।
अब तीसरी किताब हाथ में
लेता हूँ।
यह मेरा उपन्यास है।
उसके भीतर से रात
की रानी की खुश्बू आ रही है और कमरे में फैलने लगती है।
अनायास ही नजर आंगन
के उस पार चली जाती है।
वहां रात की रानी
का पौधा है।
कितना बडा हो गया है।
उसकी टहनियां चारों
तरफ बिखरी हैं।
मन बहुत पीछे चला जाता है।
गर्मियों की रातें
जब चांदनी से नहाई होती तो मां अक्सर मुझे गोदी में लिये यहां बैठा करती।
कई कहानियां सुनाती।
किताब के पृष्ठों के बीच रात की रानी के फूल पडे थे।
चौथी पुस्तक में आटे और
लस्सी की सुगन्ध रची - बसी है।
पृष्ठों पर जगह -
जगह आटे सने हाथों की उंगलियों के निशान हैं।
कहीं - कहीं मक्खन
की चिल्हट ने अक्षरों को मिटा दिया है।
पांचवी कृति अब मेरे हाथ
में है।
उसके पन्नों से घने अंधरे
की गंध आने लगती है।
उसमें बीडी क़ी बास
घुल - मिल गई है।
पुस्तक के बरकों को
देखता - पलटता हूँ।
कई जगह अक्षर धुल
गए हैं।
बीच - बीच में जली हुई
बीडी क़ी राख भी लगी है।
एक जगह मरा हुआ
जुगनु चिपक गया है।
अब छठी पुस्तक सिरहाने के
नीचे से खींचता हूँ।
मन अस्थिर होने लगा
है।
भीतर बौखलाहट होने लगती है।
माथे से पसीना चू
रहा है।
उस किताब के भीतर पिता की
कई पुरानी तस्वीरें हैं।
उसमें कहीं मां है
तो कहीं मैं हूँ।
उसे किनारे रख कर सिरहाने
में फिर कुछ ढूंढने लगता
हूँ।
बिस्तर की तहों में एक और
किताब मिलती है।
उसे निकालता
हूँ,
यह मेरी सातवीं पुस्तक है।
देखता
हूँ
तो आश्चर्य की सीमा नहीं
रहती है।
यह नई किताब है,
इसका विमोचन सप्ताह पूर्व ही हुआ है।
उसके बरकों से गोबर
की गन्ध आ रही है।
बाहर - भीतर कई जगह
गोबर सने हाथों के निशान पडे हैं।
एक - दो जगह भेड क़ी
सफेद ऊन के रेशे भी हैं।
आंखों से आंसुओं की झडी लग
गई है।
याद नहीं आता कि अपने जीवन
में कभी इतना रोया
हूँ। मेरे भीतर का
वैभव,
उत्कर्ष, बडे बने रहने का दंभ,
बूंद - बूंद मां के बिस्तर पर झरने लगा है।
मैं जैसे उस बिस्तर
की तहों में खटमल की तरह घुसता - धंसता चला जा रहा
हूँ।
मेरा रोआं
- रोआं अचरज और शर्मिन्दगी से भर गया है।
सिर टांगों के भीतर
धंसता जा रहा है।
इस दीनता - हीनता
की स्थिति के बावजूद भी उस रोने का कोई सुख मुझे अधिक गिरने नहीं देता।
ऐसा लगने लगता है
कि मां के कमरे की वे सभी चीजें मेरे अंतस में अगाध स्नेह और ममता के सागर
उडेलती चली जा रही हों।
मुझे सामान्य और
सहज होने में मेरी भरपूर मदद करती चली जा रही हैं।
मैं अपने को
संभालता हूँ।
अचरज होता है कि मन हल्का
होगया है।
बिलकुल उसी तरह जैसे बचपन
में किसी जिद में रोते - रोते मां की गोद में सो जाया करता था और जब उठता
तो बिलकुल सहज।
तभी किसी की आवाज भीतर के
सन्नाटे को तोड देती है।
मां इस समय गोबर फेंक रही
है।
आवाज सुनते ही टोकरा नीचे
फेंक दिया है और झटपट डाकिये के हाथ से अखबार छीन लिया है।
मैं बिस्तर से उठ
कर दरवाजे क़ी ओट से सब कुछ देखता
हूँ।
वह अमर सिंह डाकिया है।
उसका घर हमारे घर
से कुछ दूरी पर है।
वह बराबर मां के
पास आता - जाता रहता है।
सारी बातें समझ आने लगी
हैं।
मां अखबार देख रही है।
और डाकिया बीच के
पृष्ठों में कुछ मां को दिखा रहा है।
मां उस अखबार को
भीतर ले जाकर कहीं गोशाला में रख देती है और पूर्ववत गोबर फेंकने लग गई है।
मैं मां के बिस्तर पर
बिखरी किताबों को समेटने लगता
हूँ।
और उसी तरह उनके सिरहाने
रख देता हूँ।
अपनी किताबों का पैकेट
उठाकर बाहर निकल जाता हूं।
लग रहा है कि कई
मनों बोझ किसी ने सिर पर लाद दिया है।
ह्न मां अब बाहर का काम
निपटा कर भीतर आ रही हैं।
मैं बिल्ली के पांव
वहां से खिसक लेता
हूँ।
एस आर हरनोट |
|
(c) HindiNest.com
1999-2021 All Rights Reserved. |