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वह खबर
पर कम,
कानम के चेहरे पर अधिक उत्सुकता और एकाग्रता से देखने
लगे।
पहली
बार उसकी आवाज में एक सम्पूर्णता और विश्वास महसूसा था उन्होंने।
उसकी
आंखों में एक तीव्रता थी।
नयापन
था।
शायद
उस खबर को पढा लेने की शीघ्रता थी।
इसके
पूर्व कि छोटे पापा पास पडी एेनक उठाएं कानम खुद पढने लगी थी।
छोटी
अम्मा के आने की आहट भी उसने नहीं सुनी।
अबाध
पढती रही।
''
तहसील के
दो युवकों ने अपने कुछ साथियों के सहयोग से गांव की एक लडक़ी को,
जो
उसकी सहेली के साथ पास के स्कूल में टूर्नामेन्ट देखने जा रही थी,
जबरन उठा लिया। उसे पास की गुफा में ले गये। बाकी युवक तो चले गये लेकिन जो
उसके साथ विवाह करने का इच्छुक था वह उसके साथ वहीं रहा और लडक़ी की इच्छा
के विरूध्द सहवास किया''
कानम
इतना पढ क़र अचानक रुक गयी।
कमरे
में गहरा सन्नाटा था।
सुबह
का सूरज धीरे धीरे ऊपर चढ रहा था।
किरणें
खिडक़ी के भीतर पडने लगी थीं।
इस
उजाले ने भीतर एक नयापन भर दिया।
कानम
उसे भीतर तक महसूस करने लगी थी।
उसके
छोटे पापा और अम्मा अभी चुपचाप थे।
कानम
ने उनकी आंखों में एक भय पसरा देखा।
यह भय
बरसों से उस घर में था।
या
कहीं छोटे पापा के मन के भीतर या कानम की उन उनींदी आंखों में जो उसे कभी
चैन से सोने नहीं देता था।
इस खबर
के भीतर वह भय और भी गहराता चला गया।
छोटी
अम्मा दहलीज के साथ हाथ में चाय की ट्रे लिये स्तब्ध खडी थीं।
कानम
ने इस भय और सन्नाटे को पाटते हुए अम्मा को पास बुलाया।
ट्रे
हाथ में लेकर मेज पर रखी और उन्हें बिस्तर पर बिठा दिया।
वह आगे
पढने लगी थी
-
''
इस आशय को
लेकर लडक़ी के अभिभावकों ने अदालत में एक केस दायर कर दिया। यह पहला मौका था
जब इस प्रथा के विरुध्द किसी परिवार ने चुनौती दी थी।''
यह सुन
कर छोटे पापा ने बिस्तर छोड दिया था और कानम के साथ खडे होकर बॉक्स में छपी
इस खबर पर निगाहें टिका दी थीं।
कुछ
देर पहले का सन्नाटा और भय भीतर आई सूर्य किरणों के साथ बाहर जाता महसूस
हुआ।
एक
अनूठा उजास कमरे में फैल गया था।
अब
कानम आगे इस खबर को इस तरह पढने लगी थी जैसे मंच पर से कोई भाषण दे रहा हो,
कानम
ने खबर सुना कर अखबार को छाती से भींच लिया।
सचमुच
चौंका देने वाली खबर थी।
शायद
ही कानम और छोटे पापा ने कभी ऐसा सोचा होगा कि गांव की लडक़ी या उसके माता -
पिता इस तरह अदालत में जायेंगे।
दोनों
के चेहरों पर प्रात: की लालिमा उग आई थी।
पर
छोटी अम्मा चुपचाप बिस्तर पर बैठी थी।
वे
दोनों जैसे भूल गये हों कि कमरे में कोई तीसरा भी है।
छोटे
पापा को उबासी आई तो कानम की नजर ट्रे में रखी चाय की तरफ चली गई।
चाय
ठण्डी हो गई थी।
अम्मा
को झिंझोडते हुए कानम उनके गले ही लिपट गई
-
''
अम्मा,
अब
तो चाय पिला दो न।''
छोटी
अम्मा रसोई में चली गयी थी।
पर
कानम उस खबर को गली,
मोहल्ले और सडक़ पर जाकर जोर - जोर से पढना चाहती थी।
सबको
सुनाना चाहती थी।
वह
इतनी खुश उस दिन भी नहीं हुई थी जिस दिन उसका एम ए का परिणाम आया था और
यूनिवर्सिटी में उसे प्रथम आने पर स्वर्णपदक मिला था।
आज
जैसे यह फैसला उसके अपने पक्ष में हुआ हो।
छोटी
अम्मा चाय लिये पुन: कमरे में आ गई थी।
सभी ने
चाय ले ली और पीने लगे।
काफी
देर तक किसी ने कुछ नहीं कहा।
कानम
ने फिर चुप्पी तोडी थी
-
फिर
वही अतीत बाहर - भीतर टहलने लगा था।
यह एक
छाया की तरह कानम और छोटे पापा का पीछा करता रहा।
उसके
बावजूद कि वह इन परम्पराओं की परिसीमाओं से दूर शहर में रहे थे जहां ऐसा
कोई भय नहीं था।
पर
जाने क्यों कानम यहां भी अपने भीतर वह भय बराबर महसूस करती रही थी।
लडक़ियों जैसी चंचलता उसमें नहीं थी।
उसका
आत्मविश्वास चरमराया सा रहता।
हालांकि उस घर में उसे अथाह स्नेह मिल रहा था।
सुरक्षा थी।
अपनापन
था।
पर हर
वक्त कोई घटना उसके भीतर तूफान मचाये रखती।
वह
बौरा सी जाती।
उसकी
आंखों में से अनायास आंसू बहने लगते।
इसमें
सिसकना नहीं होता।
एक
विश्रान्त प्रवाह रहता।
नदी
जैसा अबाध।
जैसे
किसी बुत की आंखों से कृत्रिम जल प्रवाहित किया जा रहा हो।
वह
अतीत,
कानम की बडी बहिन थी।
उसे
बरसों पहले,
उसकी आंखों के सामने, इसी
तरह कुछ युवकों ने उठा लिया था।
वह
असहाय –
सी
सब कुछ देखती रही।
आज भी
वह पूर्वरत उसके भीतर था।
उसे
लगता वह जैसे कल ही घटा हो।
लौट -
लौट कर वह लडक़ी उसकी यादों में चली आती।
भीतर
कहीं डर बन कर बैठी रहती।
कभी
आंसू बन कर बहने लगती।
कभी
आंखों में इस तरह बस जाती मानो कहीं यहीं आस - पास हो और चिल्ला रही हो,
'' दीदी।
दीदी।
मुझे
बचा लो।''
कानम को उस बात का दर्द आज भी वैसा ही दुखा देता।
भीतर
ही भीतर काटता।
वह
पूरी नींद नहीं सो पाती।
खुल कर
किसी से बात नहीं करती।
मानो
चलती - फिरती एक लाश हो गयी हो।
अपने
छोटे से जीवन को पहाड क़ी तरह ढोये जा रही हो।
रात को
उठ कर रोने लगती।
अंधेरे
को चीरती बालकनी में खडी
आते
- जाते वाहनों और लोगों को कई घण्टों तक देखती रहती।
छोटे
पापा को उसकी आहट सुनाई दे जाये तो उठ कर उसे बांहों में भर लेते।
उसके
बालों को सहलाते।
उसे
दुलारते।
हाथों
के स्पर्श से ही उसे हौसला देते।
उसे उस
अतीत को भूल जाने की नसीहत भी।
फिर
उसे चुपचाप बिस्तर पर सुलाकर बच्चों सा थपथपाते रहते।
कानम
नहीं चाहती कि उन्हें उसकी वजह से आधी - आधी रात उठना पडे।
पर
उसके वश में कुछ नहीं।
वह फिर
नींद आने का नाटक कर देती।
ताकि
छोटे पापा चले जायें।
पापा
महसूस करते हैं,
जानते हैं कि कानम कितनी भावुक है।
वह
इतना कब पढ ग़ई उसे याद नहीं आता।
जैसे
उंगलियों पर गिनते इतने बरस गुजर गये।
इतना
कुछ होने के बावजूद भी कानम के भीतर एक ऊर्जा थी जिसे छोटे पापा बराबर
महसूस करते थे।
वह उसे
उनमुक्त देखना चाहते थे।
उसके
भीतर एक आत्मविश्वास जगाना चाहते थे।
और
कानम को परिवेश और शिक्षा भी उन्होंने वैसी ही दी थी।
आज उस
समाचार को पढते हुए कानम के बाहर - भीतर उसकी छवि उन्होंने अवश्य देखी थी।
उस
ऊर्जा की तपन को महसूस किया था।
आज वह
मन ही मन खुश थे।
जैसे
यह खबर उनकी दी हुई शिक्षा का परिणाम बन कर आई हो।
उन्होंने कानम के भीतर का बांध टूटते देखा था।
हालांकि वह नहीं जानते थे कि इस बांध की सीमाएं कहां खत्म होंगी,
फिर भी वह इस उनमुक्तता से प्रसन्न थे।
उन्होंने कानम को बांहों में ले लिया था।
बरसों
बाद पापा की छाती से सट कर वह खूब रोई थी।
कई बार
ऐनक उतारकर आंखों में भर आई बूंदों को उन्होंने पौंछा था।
छोटी
अम्मा ने भी दुपट्टे से अपनी आंखें ढक लीं थीं।
भला इस
दृश्य को देख कर वह कब तक अपने भीतर को रोक पातीं।
कोई
देखता तो जान लेता कि इस घर में बरसों से ठहरा बांध अनायास ही कैसे टूटा है।
काफी
देर तक यह सब कुछ चलता रहा।
फिर
तूफान के बाद का ठहराव था।
सबकुछ
सहज सा होता गया।
कानम
को छाती से हटा अपने सामने ले आए छोटे पापा।
उसका
चेहरा अपने हाथों में भर लिया।
अंगूठे
से आंसू पौंछे।
उसे जी
भर के देखा और देखते ही रहे।
पहली
बार उसकी आंखों के दर्द को बहुत नजदीक से जाना था।
दर्द
के अंबार।
उसमें
छुपे हुए भविष्य के कई सपने।
उसका
अपना गांव।
अकेली,
असहाय मां।
और पता
नहीं क्या - क्या।
वे
कहने लगे थे
-
बेटे,
समाज, अदालत या उसके फैसले
से बदलने वाला नहीं है।
उसके
रीति - रिवाजों की सीमाएं कहीं ऊंची हैं।
भले ही
उनमें दोष ज्यादा हैं।
इनको
दूर करने के लिये लोगों के बीच जाकर उनके विश्वास को जीतना होता है ताकि वे
इनके अच्छे - बुरे
नतीजों
को समझ पायें।
मुझे
विश्वास है हम ऐसा कर पायेंगे।''
कानम
चुपचाप सुनती रही।
कानम
छ: बरस की रही होगी जब मां ने कई दबावों के बीच उसे शहर भेज दिया था।
क्योंकि जबसे उसकी बडी बहन को जबरदस्ती उसके पास से उठा कर ले गये थे;
उसी
दिन से उसका बचपन कहीं खो गया था वह सहमी - सहमी रहती।
जरा -
सी आहट से भी कांप जाती।
घर के
भीतर मां के पास दुबकी रहती।
वह कुछ
नहीं खाती।
रात को
सोई - सोई जाग जाती।
चिल्लाती
-
''
मेरी
दीदी को उठा कर ले गये हैं।
उसे
कोई बचाओ।''
वह फिर
घंटों कांपती रहती।
उसका
पूरा बदन तप जाता।
वह अब
गांव खेलने भी नहीं जाती।
जहां
मां रहती,
वहां
कानम भी चली जाती।
घर में
उसके बडे पिता उसके लिये भय हो गये थे।
घर में
मां के अतिरिक्त बडे पिता थे।
छोटे
पिता दसवीं के बाद घर से भाग कर शहर आ गये थे।
मंझले
पिता दोघरी में रहते।
उनके
साथ कानम का बडा भाई भी रहा करता था।
दोघरी
में उसके जिम्मे भेड - बकरियों का पालन - पोषण था।
दस -
बारह घोडे भी थे।
जब वह
दोघरी में रहते तो दूसरे दिन घर आ जाते थे।
सर्दियों के आने से पहले वह और उसका भाई कुछ नौकरों के साथ भेड - बकरियों
और घोडों
को
लेकर मैदानों में चले जाते थे या वहां,
जहां बर्फ नहीं गिरती थी।
फिर
गर्मियां पडते ही वापस लौट आते थे।
वे तीन
भाई थे।
कानम
के बडे पिता ने ही शादी की थी।
इसीलिये वही अब तीनों की पत्नी थी।
सबसे
छोटे भाई को शायद यह बात अच्छी नहीं लगी थी,
इसलिये वह शहर चला आया था और वहीं किसी रिश्तेदार के
यहां रहकर उनका काम भी करता रहा और पढता भी गया।
बाद
में वहीं नौकरी से लग गया।
शादी
भी वहीं कर ली।
उसके
बाद कभी लौटकर गांव नहीं आया।
मंझले
ने उसी परिवेश को स्वीकार करते हुए भेड - बकरियों के साथ ही अपना जीवन बांध
लिया।
उन
दोनों के कुल दो बेटियां और एक बेटा हुआ था।
कानम
उनमें से सबसे छोटी थी।
मां ने
लडक़े को मंझले पति का नाम दिया।
दोनों
बेटियां बडे पति के नाम रहीं।
हालांकि बडे पति को इस बात का गिला बराबर रहा था कि लडक़े का हक सबसे पहले
उसी का बनता था।
कानम
के पिता गांव के जाने - माने व्यक्ति थे।
वह
पहले गांव के मुखिया और बाद में लगातार प्रधान बने रहे।
घर में
भी उनका उसी तरह दबदबा था।
लेकिन
कानम की मां ने अपने को उनके दबदबे में पूरी तरह नहीं दबाया।
कानम
को उस समय मां के बारे में बहुत कम पता होगा लेकिन वह आज मां की पीडा भी
बराबर अपने भीतर महसूस करने लगी थी।
उसे
इतना अवश्य याद था कि जो युवक उसकी बहन को उठा कर ले गये थे,
मां उस घर में रिश्ता करने को कतई राजी नहीं थी।
परन्तु
पहला सवाल लडक़ी का था।
दूसरा
बडे पति की इच्छा का।
उन्हें
सब कुछ मानना पडता था।
कानम
को उसके बाद की सारी घटना याद थी।
जिस
दिन यह सब कुछ हुआ उसके एक सप्ताह बाद कुछ लोग उनके घर आये थे।
कानम
के लिये यह आश्चर्य था कि उनमें से दो युवक वही थे जिन्होंने उसकी बहन को
जबरदस्ती उठाया था।
उनके
बीच एक अधेड
आदमी
भी था।
कानम
ने उन्हें देखते ही शोर मचा दिया था।
बडे
पिता ने चांटा मार कर उसका मुंह बन्द कर दिया था।
कानम
के गालों पर आज भी वह दर्द बरकरार है।
जिसके
मायने इस उम्र में ही वह समझ पायी थी।
उसके
भीतर का भय और दुख इस चांटे से और भी गहरा गये थे।
बडे
पिता के साथ वे लोग काफी देर तक बातें करते रहे।
कानम
दरवाजे की ओट से सबकुछ देखती रही थी।
अधेड
व्यक्ति माजोमी था
-
यानि
मध्यस्थता करने वाला।
रिश्ते
में उस युवक का मामा भी,
जिसके घर में लडक़ी रखी गयी थी।
वह
बातें करते - करते कभी बडे पिता के पांव छू लेता,
कभी उनकी दाढी में हाथ लगाता तो कभी अपनी टोपी उतार कर
उनके पांव में डाल देता।
काफी
देर तक ऐसा ही चलता रहा।
फिर
माजोमी ने झोले से शराब की बोतल निकाली उसके साथ एक डिब्बा मक्खन और पांच
रूपए भी थे।
उन्हें
बडे पिता के पास रख दिया।
उन्होंने इस भेंट को स्वीकार कर लिया था।
नहीं
करते तो यह तय था कि लडक़ी का विवाह उस घर में करने के लिये राजी नहीं हैं।
कानम
की मां ने उन्हें एक बार ऐसा करने के लिये कहा भी था।
इसके
बाद माजोमी ने उठकर उन्हें गले लगा लिया।
दोनों
प्रसन्न थे।
युवकों
ने उनके पांव छुए।
जिसके
साथ शादी तय थी यानि जिसने लडक़ी को उठवाया था उसे उन्होंने अपने गले लगा
लिया
'
माजोमी
ने इज्जत का रुपया न केवल कानम के बडे पिता को दे दिया था बल्कि गांव के
देवता को भी चढाया था। दूसरे दिन देवता के मंदिर में पूरे गांव के लोग
इकट्ठे हुए। खूब शराब पी गई। नाच - गाना हुआ। देवता की शादी के लिये
स्वीकृति भी मिल गई थी। कई बार ऐसे मामलों में देवता की स्वीकृति भी कठिन
हो जाती है,
कानम के बडे पिता जानते हैं। भले ही शराब की बोतल और मक्खन के साथ इज्जत
का रुपया वधु पक्ष ने ले लिया हो पर वह स्वयं तो गांव के मुखिया थे। उसके
ऊपर देवता कमेटी के सरपंच। उसके बाद वे लौट गये।
कुछ
दिनों बाद कानम के मंझले पिता उनके घर गये थे।
वे जब
लौट कर आये तो उनके साथ कानम की बहन भी थी।
यह
क्षण कानम के लिये अतीव प्रसन्नता के थे।
बहन को
देख कर उसकी खुशियों की सीमा न रही।
वह दौड
क़र उसकी बांहों में चली गई।
छाती
से लिपट गई।
रोती
भी रही और हंसती भी।
पर
उसकी बहन खामोश रही।
कानम
ने उसे मायूस देखा था।
उसकी
आंखें लाल थीं।होंठों
पर शिकन थी।
सूखे
हुए होंठ।
सूजी
हुई आंखें बता रही थीं कि वह कई रातों से सोई नहीं है,
रोती रही है।
कानम
आज समझती है कि वह बहुत कुछ उससे कहना चाहती थी,
जो कुछ उसके साथ घटा उसे बताना चाहती थी,
पर उम्र के पडाव आडे
आते
रहे।
कानम
बच्ची थी।
उसे
बताती भी क्या - क्या?
कितनी
सुन्दर थी,
कितनी चंचल थी।
शायद
ही गांव में दूसरी कोई लडक़ी ऐसी हो।
उसकी
गहरी काली आंखों में झीलें बसतीं।
होंठों
की मुस्कान में गुलाब बिखरते।
हंसी
में गज़ब का मीठापन था।
छातियों का उम्दा उभार उसके यौवन को और भी संवार देता था।
वह
हमेशा गुनगुनाया करती।
नाटियों के बोल उसकी जुबान पर हमेशा रहते।
हर समय
छेडछाड।
छोटा
हो या बडा सब उसके लिये बराबर थे।
पर आज
उसके लिये वह बुत के समान है।
न कुछ
कहती है।
न
गुनगुनाती है उसके साथ खेलती भी नहीं।
उसे
छेडती भी नहीं।
कानम
मन में सोचती है पता नहीं गुण्डों ने दीदी के साथ क्या कुछ किया होगा।
कानम
के मन में वह बुत बस गया था।
उसके
बाद विवाह की रस्में शुरु हुईं।
बारात
में वही युवक दूल्हा बन कर आया था।
कानम
उसे छुप - छुप कर देखती रही।
कई
दिनों तक घर में एक उत्सव - सा रहा।
लोग
रात - दिन नाचते गाते रहे।
शराब
के नशे में धुत्त।
दुनिया
की कोई खबर नहीं।
मर्दों
और औरतों के लिये सब कुछ एक - सा था।
पर
कानम इस भीड में निपट अकेली हो गई।
मां
कभी उसे ढूंढ लेती थी।
उसे
जबरदस्ती कुछ खिला - पिला देती थी।
अन्यथा
दूसरा कौन था जिसे उसकी परवाह थी।
उसकी
दीदी फिर चली गयी।
उससे
जुदा हो गयी।
इस बार
वह रोई भी नहीं।
घर के
ऊपर खेत की मुंडेर पर बैठी बारात देखती रही।
सांझ
ढलते मां न आती तो वह वहीं बैठी रहती।
वह मां
के साथ घर चली आई।
अब वह
न रोती थी।
न रात
को डरती थी।
मां
उसे कभी देख लेती।
जी भर
देख लेती।
और
उनकी आंखें छलछला जातीं।
कानम
का चुप रहना शायद उनके भीतर बैठ गया था।
यही
कारण था कि अपने बडे पिता की इजाजत के बगैर कानम शहर चली आई थी।
उसके
बाद मां को क्या - कुछ सहना पडा होगा,
वह नहीं जानती।
पर आज
सोचकर भी वह सिहर जाती थी।
इतने
बरस कैसे गुजर गये कानम को पता ही नहीं चला।
वह
पढती भी रही और अतीत को ढोती भी रही।
शायद
ही कोई गांव में आज कानम के बराबर पढी - लिखी लडक़ी होगी।
गांव
में ही क्यों दूर - पार परगने तक भी नहीं।
मां ने
सोचा था,
शहर रह कर सब कुछ भूल जायेगी।
पढ -
लिख कर या तो नौकरी कर लेगी या अपनी मनपसन्द की शादी कर लेगी।
लौटकर
उस अतीत में नहीं आएगी।
उसे वह
सब कुछ न झेलना पडेग़ा,
जो उन्होंने खुद झेला है या गांव की दूसरी लडक़ियां झेल
रही हैं।
हालांकि धीरे - धीरे यह सब कुछ पीछे छूटता चला जा रहा था,
लेकिन अभी भी कई परिवार थे जो इन परम्पराओं से बाहर
नहीं आ पा रहे थे।
उनका
संसार वही था।
यहां
तक कि गांव - परगने से कई लडक़े बडे अफसर भी बन चुके थे लेकिन उन्हें झेलना
ऐसा ही पड रहा था।
किसी
ने अगर अपनी मर्जी से शादी कर भी ली तो उसे लौटकर आना न मिलता।
घर
परिवार उसे नहीं मानते।
गांव
का देवता भी रूठ जाता।
पर
कानम की मां के लिये अतीत और वर्तमान में कोई फर्क न था।
उसके
लिये आज भी वैसा ही था,
जैसा बरसों पहले रहा था।
एक दिन
मां के आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब कानम की चिट्ठी मिली थी।
लिखा
था
-
'' अम्मा, मैं तुम्हारे पास
आ रही
हूं।''
मां पढना नहीं जानती थी।
चिट्ठी
गांव के एक लडक़े से पढवाई थी।
यह
सुनकर एक पल के लिये मां की खुशी का पारावार न रहा।
परन्तु
दूसरे ही पल सिहर उठी थी।
जिन
परिसीमाओं और बन्दिशों से कानम को दूर किया था,
वह लौट कर उसी में चली आयेगी,
मां ने कभी सोचा भी न होगा।
लडक़े
से कई बार निवेदन भी किया कि यह बात किसी को न बताये पर गांव में कब तक
छुपती।
मां के
दो मन हो गये।
जहां
वह जवान हुई कानम को देखने के लिये लालायित थी वहीं गांव की परम्पराएं,
रिवाज डराने लगे थे।
मन ही
मन मां खीज उठती।
बौरा गई है कानम।
बेअक्ल
है।
यहां
का प्रपंची माहौल उसे कैसे रास आएगा?
निगल जायेगा यह समाज।
उसके
पढने लिखने का क्या लाभ हुआ?
कोई अपना होता उसे कहती कि उस बौराई लडक़ी को यहां आने
से रोके।
उसे
समझाए।
पर मां
भीतर की बात किसे बताती!
गांव
में सभी को पता लग गया।
कानम
के बडे पिता ने सुना तो आगबबूला हो गए।
घर आकर
कानम की मां से तीखी नोंक - झौंक हुई।
सारा
दोष मां के सिर पर मढ दिया गया था।
''
उस
कलमुंही को तूने ही बुलाया होगा। वहीं मर खप जाती। पहले क्या कम किया था जो
अब होगा। बिरादरी क्या कहेगी। कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं रहूंगा।''
-
और पता नहीं क्या - क्या बकते रहे थे। मां चुपचाप सुनती रही थी। क्या कहती।
उनकी नींद उड ग़ई। जैसे मन में हज़ारों जख्म हो गये हों। सांस भी लेती तो
लगता कलेजा जल रहा है। किसी अप्रत्यासित और अघट घटना की कल्पना मात्र से
सिहर उठती।
मां की
अझर आंखें अब बाट निहारने लगी थीं।
कब
आएगी।
किसके
साथ आएगी।
उसे
इतने बरस बाद पहचान पाऊंगी भी कि नहीं।
हज़ारों
कोशिशें करती कि आज का कानम का चेहरा आंखों में बस जाए,
पर वही डरी - सहमी कानम बार बार उनकी आंखों में बस जाती
और मां घबरा जाती।
कितनी
बार कुलदेवी को याद किया था।
कानम
को छोटी मां और छोटे पापा ने सजल आंखों से विदा किया था।
दोनों
के पांव छूकर आर्शीवाद लिये कानम बस में बैठ गई थी।
गांव
के लिये अब बसें चलने लगी थीं।
कानम
को वहां पहुंचने के लिये दो बसे बदलनी थीं।
शहर
पीछे छूटता चला गया।
आंखों
से भी,
मन से भी।
अब
गांव शेष था,
मां थी।
अतीत
की यादें थीं।
कानम
के लिये यह खुशी की बात थी कि अब गांव तक बसें चलने लगी थीं।
दूर -
दूर
पहाडों
में
सडक़ें पहुंच गई हैं।
उसने
पहले की बनिस्बत अपने गांव को काफी आधुनिक होने की परिकल्पनाएं भी की थीं।
हल्का
अंधेरा हो गया था,
जब कानम की बस गांव पहुंची थी।
कुछ
लोग जो आस - पास के स्टेशनों से बस में बैठे थे उस अनजान लडक़ी को आश्चर्य
से देख रहे थे।
एक दो
युवा लडक़ों ने उससे शरारत करने की कोशिश भी की थी,
लेकिन कानम ऐसे बैठी रही जैसे उसे कुछ पता ही न हो।
गांव
पास ही था।
घर
पहुंची तो कुत्ते ने भौंक कर उसके आने की सूचना घरवालों को दे दी।
बडे
पिता ने ही दरवाजा खोला था।
मां उस
वक्त चूल्हे के पास रोटियां सेंक रही थी।
दरवाजे
पर नजर पडी तो खुशी का ठिकाना न रहा।
कितनी
जवान हो गयी है मेरी कानम।
बरसों
से सहमी - डरी वह छोटी सी लडक़ी आंखों से चली गयी।
कुत्ते
को झाड देकर मां ने ही चुप करवाया था।
बडे
पापा भी एक बार तो हैरान रह गये,
फिर विश्वास हो गया कि वही लडक़ी है।
तनिक
भी न रुके,
जैसे उनकी बेटी नहीं कोई
अडौस
-
पडौस
की
लडक़ी उधार मांगने आयी हो।
मां
सामने खडी थी।
पहले
जी भर कर देखती रही उसे।
फिर
बांहों में भर लिया।
यह भी
होश नहीं रहा कि आटे से सने हाथ उसके नये
कपडों
को
खराब कर देंगे।
छाती
में समेट लिया।
जैसे
कानम एक नन्हीं दुनिया की बांहों में समा गयी हो।
अझर
आंखें अचानक सावन हो गयीं।
भीग
गयी थी कानम।
यह
स्नेह उसे कहां मिला था।
कबसे
तरस रही होगी।
छाती
से हटाया तो फिर उसके चेहरे को हाथों में भर लिया।
देखती
रही।
आंखों
ही आंखों में पता नहीं कितना कुछ बोल गयी मां।
बडे
पिता जानबूझ कर कमरे से नहीं आए।
कानम
की बांहें,
हृदय और आंखें तरसती रहीं।
चाहती
थी वह उसे मां की तरह छाती से लगायें।
प्यार
करें।
बस
भीतर जाकर पांव छूने भर की एक औपचारिकता।
मंझले
पिता भी वहीं थे।
उन्होंने गले जरूर लगाया था,
लेकिन कानम ने उनकी बांहों में वह स्नेह नहीं जाना जो
मां ने दिया था।
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