मुखपृष्ठ |
कहानी |
कविता |
कार्टून
|
कार्यशाला |
कैशोर्य |
चित्र-लेख | दृष्टिकोण
|
नृत्य |
निबन्ध |
देस-परदेस |
परिवार
|
फीचर |
बच्चों की
दुनिया |
भक्ति-काल धर्म |
रसोई |
लेखक |
व्यक्तित्व |
व्यंग्य |
विविधा |
संस्मरण |
साक्षात्कार
|
सृजन |
स्वास्थ्य
|
|
Home | Boloji | Kabir | Writers | Contribute | Search | Feedback | Contact | Share this Page! |
|
वकुल,
यानी मेरी परम सहेली आनन्दी की अवैध सन्तान।
आनन्दी
कभी भित्तिकला की शोधछात्रा थी और
इन्हीं
कारणों से कन्या समूह में उसकी पटती न थी।
उनके
दिन रात के शादी ब्याह के कीर्तन
,रीति
रिवाजों के विषयों पर लम्बी पंगतें,
ऐसे बोझिल संलापों
से वह सदा दूर ही रहती।
खींची
गई परिपाटी पर घिसटना वह न चाहती थी।
नियम
तोडने में आनन्द प्राप्त होता है और आत्मविश्वास भी।
मुझे
भी उसकी इन बातों का मर्म समझ न आता था।
अकेले
आदिवासी जंगली
लोगों के साथ रहने में उसे तनिक भय न लगता था।
दिन के
वक्त पानी में
पेडों
की छाल
से निकाले एक लसीले पदार्थ को घोलती,
उसमें तरह तरह के रंग
मिलाती
और आदिवासी स्त्रियों की सहायता से अजीबोगरीब नमूने धरती और मिट्टी की
दिवारों पर उकेर देती।
रात्री
में गुलबकावली की झुरमुटी बेल के मध्य गडे हुए तम्बू में,
मिट्टी के फर्श पर पडी
माँझ
की खाट पर पसर जाती।
उसकी
इस बेढब शोध शिक्षा पर मुझे बेहद आपत्ति थी और क्रोध भी
।
मैं
उससे अपने पत्रों द्वारा रोष व्यक्त करती,
फटकार लगाती किन्तु वह न मानती थी।
कन्धे
पर मोटे सूत का थैला और उसमें ढेरों प्रकार के अल्लम गल्लम कागज पत्तर भरकर
वह जाने क्या - क्या आदिवासी बूढी महिलाओं से सीखा करती।
एक बार
उसने पत्र के साथ कुछ तस्वीरें भेजी थीं।
यह
कोरू हैबढिया,पक्के
और चटख रंग
बनाने
वाला कमाल का रंगैया,
दुबली सी बुढिया स्त्री वह टाकी माई हैएक तजुर्बेकार
भित्ती चित्रकार , हंसते
हुए सांवले
से ,बडी
आखों
वाले,
वे हैं बीजू टोप्पो, एक सधे
हुए उत्कृष्ट सहकलाकार, मेरे अग्रज ,
युनिवर्सिटी में संयोगिक मुलाकात,
तब से साथ ही रहते हैं।
उनकी
काटेज है यहां,
अब वे ही मेरे निरीक्षक हैं,
मेरे सब कुछ
उसके नवीन सहचर का सम्पूर्ण परिचय पत्र द्वारा ही हो गया था।
आदिवासी परिवार से आये उस नवयुवक की अजब त्रासदी थी।
बाप
धान के खेत सींचता था और
माँ
मेलों
में मुर्गे लडवाने का तमाशा दिखाती थी।
स्वभाव
से अत्यन्त कडवी।
मुर्गों को पिंजडों
में
कैद कर,
दस दस दिन फाके पर रखती और तमाशे वाले दिन जठराग्नि से
बिलखते पक्षियों को हुर्र - हुर्र कर खूब लडवाती।
भूख से
व्याकुल जब एकआध पक्षी वहीं दम तोड देता तब ग्राहक
प्रसन्न हो कर ताली पीटते और वह उनसे मनमाने पैसे ऐंठती
।
उस पर
भी जी न भरता तो पीछे से किसी धनी से दिखते तमाशगीर की पाकेट चट से साफ कर
देती।ऐसे
ही तमाशे में एक पहलवान की जेब काटते वक्त चूक गई थी और निर्दयी ने पीट -
पीट कर उसको वहीं अधमरा कर छोड दिया था।उस
रात ही वह अभागी चल बसी थी।
बाप,दुःख
में पागल बना स्त्री को खेतों में लुक छुप ढूंढता
न जाने
कहां
लोप हो
गया था।
दयावश
मिली रोटियों से पलता बढता वह नौजवान अब कला विज्ञान का प्रख्यात
व्याख्याता था।
किन्तु
स्वयं आनन्दी को पहचान कर मुझे काफी तकलीफ हुई।
कायापलट हो गया था उसके रंग
रूप का।यूं
तो वह
सुन्दर कहलाने लायक नाक नक्शे की स्वामिनी न थी,
किन्तु उसका फडक़ता व्यक्तित्व अच्छे भले लोगों को विकल
कर देता था
।
उजबक
से लबादे में लिपटी वह मुझे अनचीन्हे भय से भयभीत कर गयी थी।
पत्र
के अन्त में लिखा था-
'' कुछ आवश्यक बातें कहनी हैं तुझसे मन बेहद अशान्त है
जल्द चली आ।''
उसका चंचल
मस्तिष्क निःसन्देह,
बेढब और विपरीत दिशा में दौड रहा था।
मैंने
कोरापुट जाने का निर्णय जल्द से जल्द ले लिया था।
भुवनेश्वर का स्टेशन जहां
वह
मेरा स्वागत करने आई थी अपनी लम्बी मस्तूल सी बांहो
को
दायें बांए
हिलाते
हुए।
मैं
उसे
आँखें
फाडक़र
देखती रह गई थी कैसी जादूगरनी सी दिख रही थी।गर्दन
में झूलती चम्पाकली
,
कानों से चिपकें गोल गोल अगढ टपके ,चिबुक
पर रखे डिठौने व अस्त व्यस्त
कपडों
में
लिपटी वह मन्द मन्द मुस्कुरा रही थी
।
मेरे
जूट के थैले को शीघ्रता से लपकते हुएकहने लगी-
''चल तेरे
दर्शन हुए बहुत बढिया हुआ ढेर सारी बातें करनी हैं तुझसे ओह कितना वक्त
गुजर गया
यूं
ही।
एक
दीर्घ उसांस
ऐसा
करते वक्त जैसे उसके हृदय पर रखा कोई भीषण बोझ हट गया था।
मैंने
उसकी आखों में झांक
कर गौर
किया,
वह वास्तव में किसी गहरी उलझन में थी
।स्टेशन
से बाहर एक लम्ब तडंग
अजनबी
युवक भी हमारे साथ चल रहा था।मुझे
इसका आभास तब हुआ जब मेरे कन्धे पर हल्की सी थपकी देते हुए आनन्दी ने उस
ताम्बई रंग
के
पुरूष की और इशारा किया।
''
इनको तो
तू पहचान ही गई होगी पत्र के साथ जो तस्वीरें भेजीं थीं उनमें।''
मुझे उसे देख याद आया,
वहबीजू टोप्पो था । टापूदार भद्दी नासिका और भरे माँसल थुलथुल ओंठ उसके
चेहरे पर मरूभूमि पर उग आए कैक्टस की भांति चमक रहे थे। किस हब्शी के
मोहजाल में आ पडी थी मेरी दिग्भ्रमित सहेली। पहुंचने में अनगिनत
अग्निरेखाएं लिये वह मुझे अविश्वास भरी नजरों से घूरता रहा था,
मानो पूछता हो किसने बुलाया था तुम्हें,
क्या कर सकती हो तुम कुछ नहीं कुछ भी नहीं। उसने मुझे कतई नापसन्द कर दिया
था।मुख पर विषाद की गहन कालिमा लपेटे वह चीख - चीख कर जैसे कह रहा था जाओ
चली जाओ यहां से । आनन्दी ने अपने वार्तालाप में उसकी प्रशंसा के पुल बान्ध
दिये थे। घर परिवार का कुशल मंगल जान अपने प्रिय सखा की रास्ते भर पीठ
थपथपाती चलती रही थी -
''
बेहद सधा
हुआ प्रखर हाथ है इनका,
ब्रश को जब कैनवास पर फेरते हैं
,
मैं तो
मन्त्रमुग्ध ही हो जाती हूं इनके बनाए कितने ही चित्र प्रदर्शनियों में
जाते हैं पुरस्कृत होते हैं
,
कितनी
चर्चाएं होती हैं इनकी कला दीर्घाओं में,
कला प्रेमियों के मध्यइस पर भी क्या मजाल कि कोई दंभ - घमंड करते हों। एक
प्रथित वट वृक्ष की भांति अविकल ।''
मैंने गौर किया वह किसी गहरे अवसाद में डूबा था और अपराधी जैसी भाव भगिमाओं
से प्रच्छन्न सिर झुकाकर चला जा रहा था ।
'दुष्ट
मर्कट'
मैंने अपने ओंठ दन्तपंक्ति के बीच हौले से कतर दिये थे। उसकी,
अपने प्रति बेरूखी से मैं बेहद चिढी हुई और उद्विग्न थी। इसी कारण उसके
लिये किया गया अखंड परिकीर्तन मुझ पर कोई असर न दिखा सका था। गङ्ढों और
कीचड से भरे परनालों पर उछलते लुढक़ते मेरी समूची देह ऐंठ गई थी और टांगें
सीधीकर विश्राम करने की इच्छा बलवती हो उठी थी । इस साधनहीन बीहड ऌलाके में
कैसी निर्भीकता से विचरती होगी मेरी विमुक्त सहेली - बस यही सोच सोच कर
विस्मित थी।
''ठहर
जा विनीठहर जा।''
मेरे लडख़डाते पांव एकाएक थमे थे। सामने कच्ची ईटों की एक सफेद धवल
झोंपडेनुमा 'काटेज'
दोपहरी की प्रचण्ड तपती किरणों से प्रकाशित हो जगमगा रही थी । श्रीफल के
वृक्षों से घिरी थी वह
,खुरदुरी
ईंट की दिवारों व फर्श पर अद्भुत चित्र,
अनूठे किन्तु रहस्यमयीप्राणरक्षा के लिये चौकडी मार भागता थरथराता हुआ हिरन,
युद्व में धूल चाटते योद्वा का विवस्त्र विक्षिप्त शरीर
,
किसी
कालदण्डित विरक्त स्त्री के अग्नेय कोटर। प्रत्येक चित्र में एक गहन
अन्तर्द्वन्द्व,
चित्रकार ने जैसेकालविभीषिका का समर छेड रखा था,
अपने चित्रों में ।
''ेयह
काटेज बीजू जी की है और ये सभी चित्र स्वयं मैंने खींचे हैं कह तो कैसे लगे
तुझे ।''
प्रश्न को वहीं अनुत्तरित छोड
,
मैं धीरे
से भीतर की ओर बढ ग़ई थी।अन्धकार से भरी दो छोटी छोटी कोठरियों से घिरे
ओसारे के बीचोंबीच पत्थरीले लाल चबूतरे पर गुडमुडी बन एक आदीवासी बुढिया
बैठी थी।कन्धों पर किसी नवजात शिशु बालिका के कृष्ण कपाल को टिकाए वह सूखी
हथेलियों से उसे हौले होले थपक रही थी ।बालिका का लोमश बदन रह रह कर कांप
उठता था।उसके पीत वर्ण के मलिन मुख पर सूखे सफेद ओठ देख कर प्रतीत होता था
जैसे बूढी क़ी बांहो में कोई व्याधबेधित कबूतर छटपटा रहा हो ।मैंने करूण भाव
से बच्ची के कोमल केशगुच्छ को सहला दिया था,''
जान पडता है किसी संघाती ज्वर की चपेट में हैइसको दवा दारू दो वरन मर
जाएगी।''
बुढिया
सन से सफेद सिर को हिलाती धीमे से उठी थी और अपनी जलविहीन
आँखें
मेरे
चेहरे पर टिका कर
यूं
खडी हो
गई थी जैसे कहती हो
-
यह
बहुत बीमार है बेटी,
पर अब तुम आ गई हो तो धीमे धीमे सब ठीक हो जाऐगा।''
भोजन पर बैठ बेझड क़ी रोती टूंगते
हुए मैने अन्तःकरण में अब तक दबे प्रश्न को दागा था
-
''
किन्तु
मेरा सम्बन्ध तो बेहद गहरा है इसीलिये कहती हूं उसे ले जा।''
उसने रहस्यमयी भाव से मुझे देखा था ।मैं पछाड ख़ा सिर थाम कर बैठ गई थी ।
कैसा अनर्थ कर गई थी मेरी निर्लज्जा सहेली,
मति मारी गई थी उसकी।अपने किये गये दुष्कर्म का परिणाम भोगने के लिये मुझ
दुर्बल स्त्री को पकड लिया।आह नियति का खेल मैंने सिर पीट लिया था।
''
और यह पाप
।''
''
मात्र एक
अनहोनी।''
सहज सपाट उत्तर,
खेद या ग्लानिभाव का लेश मात्र भी अंश नहीं था।
''
फिर इस
कलंक को जीवित रखने का अर्थ!''
''
तो क्या
उस निरीह जीव को नदी नाले में बहा देती
,
कूडे क़रकट
के ढेर के नीचे दाब कर भाग आती क्या,
यह
पाप न होता कहो उत्तर दो।''
वह
आक्रामक हो उठी थी।
मैं
मुंह
फाडे
उसे ताकती रह गई थी।उसके
विकल ,उद्वेलित
करते चित्रों और उसके स्वयं के चरित्र में कितना अन्तर था।
वह
कैसे मुझे एक वन्चिका की भान्ति उलट पाठ पढा रही थी।
यह मैं
भी समझती थी कि उस निविड ग़्राम में उस बालिका को जन्म देने के अतिरिक्त
अन्य कोई विकल्प न था।
वह
चाहती तो शहर जा कर इस समस्या का अन्त करा सकती थी किन्तु न जाने क्यों उसे
मुझ पर अटल विश्वास था।
मैं
बालिका को अपने संग
ले कर
जाऊं
इसी
उद्देश्य से उसने मुझे दिल्ली से इस निर्जन वन तक की दीर्घ यात्रा करने के
लिये विवश कर दिया था।
अब तो
वह त्रिया हठ पर उतर आई थी।इतना
शीथिल व्यक्तित्व हो सकता था उसका,
यह मैं मूर्खा कभी जान ही न पाई।तीस
बरस की परिपक्व स्त्री थी वह।
उस वयस
में जब अमूमन स्त्रियां
जननी
का स्वरूप धारण कर अपनी तुच्छ इच्छाओं का शमन कर देती हैं,
वहां
यह
विहंग रूपी ललना अभी तक लडक़पन के झोंकों से आनन्दित हो रही थी।समस्त
सामाजिक बन्धनों को तोड मस्त मतवाली फिर रही थी
।
मुझे
ठीक से याद नहीं पडता अब तक कितनी ही बैठकों व व्याख्यानों में मैं वर्तमान
युग की नवपीढी क़े प्रति अपना आक्रोश व्यक्त करती आई
हूं ।
दैनंदिन उनमुक्त होते युवा वर्ग को समय समय पर जी भर लताडती रही
हूं ।
''
लिव इन टुगैदर विदाउट मैरिज''
की तर्ज पर मदमस्त हो रहे युगल समाज की कठोरतम भर्त्सना
की है मैंने।
परन्तु
मेरी व्यथा यह कि वल्लभा ही ऐसा कृत्य कर बैठी थी।
समस्त
बन्धन तोडने के लिये कैसा व्याकुल था उसका विप्लवित मन।
मैं
उसे क्या दण्ड देती
हां
इतना
अवश्य कर सकती थी कि उसकी अनैतिक,
मृतप्राय सन्तान को स्वीकार करने से साफ इंकार कर देती
उसे बुरा भला कहती और खूबलड झगड क़र वापिस लौट जाती।
कुछ
ऐसा ही निश्चय कर लिया था किन्तु जब सुखंडी
देह पर
झूलते पीत वर्ण के मलिन मुख पर पुनः दृष्टि गई तो ऐसा आभास हुआ जैसे वह
निरीह बालिका अधिक दिन जीवित न रह सकेगी।मैं
एक प्राणी की मृत्यु का पाप अपने सिर ओढने जा रही थी अकारण ही,
व्यर्थ ही।
''
मैं बच्ची
को लिये जाती हूंइसकी प्राण रक्षा करूंगी पूर्ण प्रयत्न के साथ। किन्तु जब
समय आयेगा तब इसको अपने संग रखने में कोई ऊज्र न करोगी ऐसी आशा भी रखती
हूं।''
यह
कह कर मैं उस नन्हीको अपने अंक में समेट वापिस दिल्ली आ गई थी । शहर लौट कर
कहानी गढ दी कि समाज सेवा हेतु एक अनाथआश्रम से किसी रोगी कन्या के इलाज का
कार्य ले लिया है। पडौसी रिश्तेदार उत्सुकतावश,
सन्देहास्पद दृष्टि से देखते तो थे किन्तु कुछ भी कह पाने के लिये विवश थे।
मैं
उसे एक से एक महंगे
डाक्टर
के पास लेकर जाती,
दवा सेवा में कोई कसर न रखती ,
जी भर कर पैसा लुटाती, बस एक
मात्र ध्येय को लिये कि उस अबोध दुर्भागी को प्राणदान मिल सके।
ईश्वर
की कृपा से वह कुछ ही अन्तराल में स्वस्थ हो चली थी।
गठन व
नाक नक्शे में हूबहू अपने पिता का प्रतिरूप।
दौडती
तो ऐसा प्रतीत होता मानो कोई सिंहनी धरती को प्रकंम्पित कर बढी जा रही हो।पहुंचने
से
झरते वही अग्नि बाण जो मैंने कभी उसके जनक के नेत्रों में देखे थे और वही
बदसूरत टापूदार दीर्घ रन्ध्रों वाली नासिका।
स्वभाव
से भी बेहद विचित्र
,मस्तिष्क
में एक अजीब किस्म की विचलता और खलबलाहट
।छुटपन
में घर के कितने ही कीमती गुलदान,वास्तुशिल्प
उसके नृशंस हाथों की भेंट चढ ग़ये थे और कितनी ही पोर्सिलिन व इरानी मिट्टी
की कलात्मक मूर्तियां
।
अब
पढने स्कूल जाती थी सो बिना कुछ पूछे धरे मेरे बटुए से रूपये पार लगाती और
खाने की छुट्टी में चटोरी,सारे
पैसे खांड
क़ी
चिडिया और चाट के पत्तर चाट कर उडा देती।चोरी
करना उसका प्रिय शगल था।
धराहीन
धात्री व पितृ की अनैच्छिक सन्तान।
यही
विचार कर मैं शान्त रहती कि कल को वह चली जाएगी।
आनन्दी
को अक्सर पत्रलिखती या हर दूसरे तीसरे दिन फोन खटाखटाती कि वह जल्द ही कुछ
निणर्य कर विवाह की व्यवस्था करे।
पढाई
लिखाई तो उसके उपरान्त भी हो जाएगी बिटिया की देह दिन ब दिन मन्जरी की
भांति बेरोक खिंचती जाती है और साथ ही उसकी उटपटांग
हरकतें
भी।
उत्तर
में खेदभरे पत्रों का सिलसिला चलता थोडी बहुत पढाई शेष है,
पण्डित से विचार किया है वे शुभ लग्न देखेंगे अभी
मुहुर्त नहीं है ,बीजू भी नेपाल गये हैं उनसे भी
सलाह करनी है इत्यादि इत्यादि।मैं
मन मसोस कर रह जाती कभी - कभी इच्छा होती कि पगली को उसकी
माँ
के पास
पटक आऊं
पर मैं
पाषाण हृदय न थी।इसी
कारण ही तो आज तक उसके ढंग
- बेढंग
सभी
कृत्यों को उपेक्षित करती आई थी।
मुझे
पहले उससे कभी भय न लगता था पर अब देखती तो देह में सुरसुराहट सी दौड ज़ाती।मैंने
निश्चय किया कि उस को उसके निश्चित स्थान पर छोडना ही श्रेयस्कर होगा।
इसके
उपरान्त भले ही आनन्दी मुझसे आजन्म वैर पाल ले।
मैं
वकुल को ले कर कोरापुट
पहुंच
गई थी
ठीक उसी प्रकार जब कभी आनन्दी का पत्र पाकर मैं इसी स्थान पर कुछ बरस पूर्व
यहां
दौडी
चली आई थी।
पर अब
कोई स्वागत को न था मैं स्वयं ही वकुल का हाथ थामे,
आनन्दी को उसकी तुच्छ धरोहर वापिस करने जा रही थी।
काटेज
पहुंची
तो वह
एक श्रीफल के वृक्ष के नीचे बैठी धूप ताप रही थी।पहले
से कहीं अधिक निराश और अकेली।
मुख पर
घोर कालिमा और दुःख की छाया।
''आओ
विनी आओ,
अकेले ही आ गईंखबर कर दी होती तो मैं स्टेशन पर।''मुझे
देखते ही उसने अपनी जड सी काया को कुर्सी से लगभग धकेल दिया था ।
''बीजू
कहां हैं।''मैंने
उसकी बात बीच में ही काटी थी।
''वह
दुष्ट तो चला गया छोडक़रअब भूल जा उसे,
आजकल किसी आस्ट्रेलियन स्टूडेण्ट से इश्क चल रहा है उसका।''
वह
लगभग हांफने सी लगी थी। क्षण भर में धूर्त प्रेमी की पोल पट्टी खुल गई
थी।आदीवासी छोकरा इतना शातिर निकलेगा किसको खबर थी।
''इस
का क्या होगा ।''मैंने
वकुल की ओर इशारा किया था।
''होना
क्या है किसी अनाथआश्रम में पल जाएगी।''निठुर
जननी ने कडवाहट से मुंह फेर लिया था। सत्य ही है - नीम का वृक्ष फल तो देता
है किन्तु क्षण भर में उसे अपने से विलग कर धुल धूसरित भी कर देता है।
मैं भी
असहाय थी क्या करती।उसी
रात
मुंह
अन्धेरे वकुल को शहर के किसी अनाथआश्रम में जुगत जुगाड क़र डाल आई थी।हृदय
से एक गहरा बोझ हट गया था,
यद्यपि इस बात का अहसास मुझे लगातार कुरेदता रहा था कि
-विनीता
अग्रवाल |
|
(c) HindiNest.com
1999-2021 All Rights Reserved. |