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सपने का सच
रवीन्द्रनाथ टैगौर के अनुसार रचना का जन्म लेना और प्रसवपीडा एक समान है। स्वानुभूत कहानी हो तो कहानी लिखना, सूखते खुरंटों को उखाड - उखाड क़र हरा करना है। कल्पना या फन्तासी हो तोकहानी लिखना अवचेतन की गुह्य, अनदेखी गलियों से गुजरना है। कहानी लिखना, कोकून में कैद कीडे क़ा, अपनी ही बनाई कैद से तमाम जद्दोजहद के बाद बाहर निकलना है। मुझे नहीं पता यह कहानी कल्पना है या सत्य? फंतासी है या अर्धसत्य? मेरे जीवन से उलझ कर, गुजर गई कोई घटना है या मन पर पडा कोई अतीत का निशान! मुझे सच में नहीं पता। जब से इसे लिखना शुरु किया तबसे मैं सोते - जागते इसी कहानी की प्रेतबाधा से ग्रसित हूं। इसे लिखते - लिखते मैं स्वयं इन्सोम्निया का शिकार हो गई हूं, पूरे हफ्ते से सोई कहां हूं? अजीबो - गरीब सपनों के बीच - बीच में से पसीना - पसीना हो कर कई बार मध्यरात्रि में उठ बैठी हूं। यकीन मानिये अब इस कहानी के आदि - अंत पर भी मेरा अधिकार नहीं रहा है। मुझे नहीं पता अंत होते - होते यह कहानी कहां पहुंचने वाली है। कहानी लिखने के पहले ही दिन की तो बात है, मैं ने उस रात सपने में देखा - शहर के बीचों - बीच, एक रेजीड़ेन्सी कैम्पस है। इतिहास कहता है, पहले यहां अंग्रेजों की रेजीड़ेन्सी थी, पर अब इस रेजीड़ेन्सी के पेडों से भरे विस्तृत क्षेत्र और इमारतों में एक कन्या महाविद्यालय, उसका हॉस्टल, एक सीनियर सैकेण्ड्री गर्ल्स स्कूल, एक एस टी सी गर्ल्स स्कूल और उनका छात्रावास, एक मेडिकल कॉलेज का पी जीगर्ल्स हॉस्टल है, एक उजाड क़ोने में आदिवासी कन्या छात्रावास भी है। इनमें से कुछ इमारतें नई हैं, कुछ पुरानी ऐतिहासिक इमारतों को बढा - घटा कर स्कूल - कॉलेज लायक बना लिया गया है। इस रेजीड़ेन्सी के तीन गेट हैं। एक कन्या महाविद्यालय का मेन गेट है, जो बाकि शहर की बढिया मुख्य सडक़ों से जुडा है। एक कन्या महाविद्यालय को हॉस्टल से जोडती सडक़ है, उसके बीच से काट कर एक सडक़ रेजीड़ेन्सी सीनीयर सैकेण्ड्री स्कूल को जाती है तो उसके उस तरफ स्कूल की निकासी का एक बडा गेट है, उसके बाहर पुलिस चौकी है। पुलिस चौकी के बाहर निकल कर चेतक सर्कल है, जहां शहर के पिक्चर हॉल हैं, कुछ उम्दा रैस्टोरेन्ट्स भी हैं। तीसरा गेट पीछे को है, एस टी सी स्कूल का प्रवेश व निकास। इसके बाहर कई अच्छी सभ्रान्त बस्तियां हैं और थोडा बाहर निकल कर, थोडा रोड चढ क़र चौराहे के पार मेडिकल कॉलेज है। बीच की सडक़ें यहां - वहां से गर्ल्स हॉस्टल्स से जुडी हुई हैं।
लेकिन रेजिड़ेन्सी सीनीयर सैकेण्ड्री गर्ल्स स्कूल के खेल के मैदान के पार, जिधर आदिवासी हॉस्टल है, उधर से बाहर निकलने का गेट नहीं है न पुलिस चौकी न शहर को जोडती चहल - पहल से भरी सडक़ेंन कॉलोनियां जैसा कि पहले मैं ने कहा वह उजाड क़ोना हैउसके पार भी शहर की मध्यमवर्गीय या गरीब बस्तियां हैं। इस बडे मैदान के एक कोने में एक कैन्टीन है। यह मैदान हर हॉस्टल, कॉलेज स्कूल के ठीक बीचों - बीच है। वैसे यह कैन्टीन रेजिड़ेन्सी सीनियर सैकेण्ड्री गर्ल्स स्कूल का है। कन्या महाविद्यालय का भी अपना अलग कैन्टीन है। लेकिन इस कैन्टीन वाले के समोसे बढिया हैं और चाय सस्ती तो इस वजह से यहां गंगा - जमुनी मिलन रहता है लडक़ियों का। यहां हरी टयूनिक पहने सीनियर सैकेण्ड्री गर्ल्स स्कूल की लडक़ियां तो घिरी होती ही हैं। गुलाबी चैक का कुरता और सफेद सलवार - चुन्नी पहने कन्या महाविद्यालय की लडक़ियां भी समोसों - चाय पर टूटी रहती हैं। सफेद एप्रन पहने एक दो पी जी डॉक्टर भी कभी खडी दिख जाती हैं। एस टी सी स्कूल की नीली साडी वाली छात्राएं भी दिख जाती हैं। कभी - कभी बाउण्ड्री फांद कर आई दो चार धाकड आदिवासी लडक़ियां भी दिख जाती हैं, चाव से समोसे खाती, जिनके चेहरों व हाथों पर गुदने गुदे होते हैं, गहरा चमकीला काला रंग, अनगढ नक्श! अरे! और यह मैं हूं, यहां एन्टीगोनम की बेल के गुलाबी फूल तोडती! हां! यहीं तो कन्या महाविद्यालय के हॉस्टल में रहती हूं मैं। मेरी नींद खुल गई है - वह माहौल और वे दिन कल की ही की - सी बात तो लगते हैं। मैं ने अपना ग्रेजुएशन और पोस्ट ग्रेजुएशन यहीं से तो किया था। मैं चकित हूं - कैसे वह पूरा का पूरा माहौल सपने में उतर आया? पर कल रात क्या मैं कुछ ऐसा ही लिख रही थी हॉस्टल वगैरह? हां, कल रात मैं ने एक कहानी की शुरुआत की थी कुछ दिन पहले न्यूज म़ें देखी हुई एक विवादास्पद घटना पर लिखने की कोशिश कर रही थी - '' सर्वोदय विद्यालय के कन्या छात्रावास में दो लडक़ियों ने यौनशोषण से त्रस्त होकर आत्महत्या की ''
वह शहर, वह रेजीड़ेन्सी कैम्पस हू - ब - हू मेरे सपनों में आता रहा जब तक मैं कहानी लिखती रही उस इलाके में अंग्रेजों के लगाये बडे दुर्लभ पेड थे मोर पंखी के लम्बे - लम्बे पेड, ज़ैकेरेण्डा, गुलमोहर, अमलतास जाने कौन - कौन से लाल, जामुनी, पीले, नीले फूलों के पेड। क़ितने तो फलों के पेड थे। आम, इमली, जामुन, अमरूद, बेल फलों के मौसम में लडकियां उन पर झूली रहती थीं।अंग्रेजों की लगायी एन्टीगोनम की गुलाबी फूलों वाली लतरें तो अब पूरे कैम्पस में खरपतवार की तरह उगती थीं। लेकिन इन पेडों का बहुतायत में होना बहुत अच्छा भी नहीं था। कई बार किन्ही - किन्ही रास्तों और पुरानी सडक़ों पर दिन में भी रात का सा अंधेरा छाया रहता था। मुझे अर्धजाग्रत अवस्था में वह बात याद आ गई । बी एस सी में एडमिशन के पहले वर्ष और पहले ही महीने की बात है। जूलोजी प्रेक्टीकल में डिसेक्शन के बाद ही लैब में मुझे उलटी हो गई , तो हमारी लैक्चरर ने मुझे हॉस्टल जाकर आराम करने को कहा। और और मैं शॉर्टकट लेकर जूलोजी डिपार्टमेन्ट के पिछवाडे से निकल, आदिवासी कन्या छात्रावास की पगडण्डी पकड हॉस्टल की तरफ मुड रही थी कि मुझे एक अधेड आदमी दिखा, पेड क़ी तरफ मुंह करके लघुशंका से निवृत हो रहा था मैं चलती रही हाय! वह जिप खोले हुए ही अपने जननांग का प्रदर्शन करता हुआ अचानक सीधा हो गया। मैं बेवकूफ ठिठक कर खडी हो गई मैं ने जो देखाउससे मेरी मितली बढ ग़ई और मैं हाथ में पकडी प्रेक्टीकल फाइल और पेन्सिल बॉक्स वहीं फेंक कर भागती चली गई। वह उम्र और वह अनुभव दोनों ही ऐसे थे कि चाह कर भी मैं किसी से कह नहीं पाई। न वार्डन से शिकायत की, न मेट्रन को बताया। आज सोचती हूं, सीधे पुलिसचौकी क्यों नहीं भागी? हॉस्टल जाकर इतना क्यों रोई? अपनी एक मेडिकल गर्ल्स हॉस्टल में रहने वाली चचेरी बहन के अलावा किसी को क्यों नहीं बतायाउन्होंने भी तो यह कह कर टाल दिया।'' - अरे, कितनी उलटियां करेगी? हम तो रोज ही जिन्दा और मुर्दों का यही सब देखा करते हैं। ले, खा यह गोली और यहीं मेरे कमरे में सो रह। शाम को वार्ड से आकर तुझे हॉस्टल छोड दूंगी। उस वक्त मुझे दिन ही कितने हुए थे, कॉलेज में एडमिशन लिये हुए? फिर तो पुराने हो गये थे हम, मैं ने सबक सीख लिया था , अकेले नहीं आना - जाना है। पहले मैं बहुत धाकड थी, एन सी सी कैडेट, लगता था, मेरा कोई क्या बिगाड लेगा? पर उस घटना ने, उस विकृत प्रदर्शन ने ऊपर से तो मेरा कुछ नहीं बिगाडा पर अन्दर मन के, जाने कहां जाकर एक गन्दगी सी चिपक गई थी, जो रगड - रगड क़र भी नहीं छूटती थी। वह पहला कटु अनुभव था, लडक़ी होने का! अब तो फर्क ही नहीं पडता, इन्हीं रास्तों पर कितने शोहदे, अधेड ग़न्दी - गन्दी बातें बुदबुदाते चले जाते हैं। हालांकि बात पहुंची थी, वार्डन तक - प्रिन्सीपल तक, पुलिस चौकी तक भी, फिर तो दिन में भी एक सिपाही गश्त भी करने लगा था। जल्दी ही हॉस्टल की छतों पर घूम - घूम कर, पढते - पढते, मुझे पढने के लिये एक एकान्त और धूप - छांव वाला कोना मिल गया था। बस तभी मुझे पता चला था कि हमारे हॉस्टल के पीछे की विंग की छत से रेजिड़ेन्सी का खेल - मैदान लगा है, पीछे से वह आदिवासी हॉस्टल भी दिखता है। यह मेरा प्रिय कोना था, एंटीगोनम की लतर से ढंका, मोरपंखी के एक विशाल पेड क़ी छांव लेता, पानी की टंकी के पीछे छिपा यह दुर्लभ स्थान। जहां मैं पढती तो थी ही, कभी - कभी नई बहार के उन नये दिवास्वप्नों में खो जाती थी, कभी - कभी एक सहज उत्सुकता के तहत मैं अपने प्रिय कोने से पढते - पढते आदिवासी हॉस्टल की गतिविधियां देखा करती थी। वे लडक़ियां कभी कपडे धोते, बाल सुखाते, कभी - कभी एक - दूसरे की चोटी गूंथती कोई लोकगीत गाते दिख जाती थीं। मुझे लगता वह हॉस्टल दिन के इतने उजालों में भी एक किस्म के अंधेरों में घिरा रहता है। इस हॉस्टल की लडक़ियों के चेहरों की तरह इनकी दीवारें, मुंडेरें काली क्यों हैं? यहां कभी क्या कोई पुताई नहीं होती? सरकारी बातें तो इतनी होती हैं। मुफ्त शिक्षा, बेहतर सुविधाएं, बेहतर अवसर - आदिवासी लडक़ियों के लिये आरक्षण का एक बडा हिस्सा। फिर भी ये हम से बेहतर क्यों नहीं हैं? मैं उस कोने से देखती, हर उम्र की आदिवासी लडक़ियां, आठ साल से लेकर अठारह साल तक, ये सभी रेजिड़ेन्सी स्कूल में पढती थीं। वे सभी मुझे कभी कपडे धोती दिखतीं तो, कभी बाहर चूल्हे पर चाय बनाती। लेकिन कभी वे हमारी तरह शोर नहीं मचातीं थीं, न खेलती थीं। हालांकि उनमें से दो राज्यस्तरीय पुस्कार प्राप्त एथलीट भी थीं। मैं ने उन्हें अपने कॉलेज के खेल मैदान में प्रेक्टिस करते देखा था। एक दिन हमारी हॉस्टल की एक सीनीयर, सोशयोलॉजी में एम फिल कर रही पद्मा दीदी ने मुझसे पूछा, क्या मैं उनके साथ जरा आदिवासी छात्रावास तक चलूंगी? मैं ने अपनी उसी पुरानी उत्सुकता के तहत हां कर दिया। दीवारें पास से उतनी काली नहीं थीं, जितनी दूर से दिखती थीं, थोडी सलेटी थीं। बडा सा गेट था, जिस पर लिखा हुआ शासकीय आदिवासी महिला छात्रावास धुंधला पड ग़या था। एक टूटी दीवार पर शिलन्यास का अवशेष - वह पत्थर किसी नेता की गौरव - गाथा कह रहा था। हम खेल मैदान पार करके, मोटे लोहे के खुले गेट के अन्दर हॉस्टल के अहाते में खडे थे। सूखा, झडबेरी की झाडियों, जंगली पेडों, बडी - बडी सूखी घास से भरा वह अहाता, जिसमें जगह - जगह जंगली झबरी पूंछ वाले चूहों के बिल थे। हमें देखते ही उछलकूद मचाते चूहे गङ्ढों में घुस गये थे।एकाध दु:स्साहसी चूहा दोनों हाथ गिलहरी की तरह उठाए पीछे के पैरों से खडा एक सूखी रोटी खा रहा था। पास ऊंचाई पर टूटी फूटी सीढियों पर चढक़र एक पंक्ति में कुछ मटमैले कमरे थे। दुपहर ढल रही थी पर एक अलसायापन माहौल पर तारी था। एक अलसाई शान्ति धूप के साथ - साथ मैदान और हॉस्टल की छत पर पसरी थी। पद्मा दीदी के हाथ में उनके डेजटर्ेशन वर्क के कुछ छपे हुए पर्चे थे, यह शायद एक प्रश्नावली थी, अजीबोगरीब प्रश्नों वाली। वे हमसे भी कई बार यह सब भरवा चुकी हैं। यहां कोई चौकीदार नहीं था। एक मैट्रननुमा अधेड आदिवासी स्त्री एक पेड क़े नीचे चारपाई पर बैठी थी। गले में लटकी चिमटी से दांत खोदती। पास ही बीडी क़ा बण्डल पडा था। गोल - गोल भेदक आंखें और चपटी नाक और मोटे होंठ। माथे पर गोदने की कई बिन्दियां थीं, पर उसने सिन्थेटिक, छींट का हरा सलवार कुर्ता पहना था, दुपट्टा चारपाई पर, तकिये की जगह सिरहाने गोल - मोल बिछा था। वह हमसे बुरी तरह बोली -
''
क्या है?''
तब तक लडक़ियां जो पढ तो कतई नहीं रही थीं। कमरों से बाहर निकल आईं। मैं ने उन्हें ध्यान से देखा, छोटी - छोटी लडक़ियां जंगली मैना सीमानो यहां आकर वह स्वच्छन्दता भूल गई हों, जबरन एक उदासीनता तह जमा कर चेहरे पर पोते हुए थीं पर कहीं भीतर एक मिट्ठू सा कौतुहल आंखों की कोटरों में से झांक रहा था। बडी लडक़ियां एक तटस्थता के साथ हमारे कपडों और हमारे चेहरों को आंक रही थीं। वे गलियारे के चूना उखडे ख़म्भों से सटी खडी थीं । खम्भे ही नहीं एक - दूसरे से भी सटी। लगभग एक से कटाव के अनगढ सांवले चेहरे। एकाध थोडा गोरा चेहरा, और बाल भूरे भूरे। तरह - तरह के गोदने। सभी के नाक कान छिदे हुए पर आदिवासी गहने नदारद थे। वे सभी अलग - अलग रंगों के मगर लगभग एक सी प्रिन्ट के सूती कपडे पहने थीं, उम्र के हिसाब से। बच्चियों ने फ्रॉक, लडक़ियों ने सलवार - कुर्ते। शायद खाना - फीस, किताबों के साथ कपडे भी उन्हें सरकारी अनुदान से मिलते हैं।
''
ए,
सुना नहीं क्या?''
मैट्रन फिर गुर्राई। पद्मा दीदी ने रास्ते में आदिवासी लोगों के बारे में बहुत कुछ बताया था - कि इनमें ज्यादातर लडक़ियां भील जनजाति की हैं। सही अर्थों में वन कन्याएं। सर्वे का क्वेश्चनायर भरवाते में पता चला कि कुछेक लडक़ियां जो थोडे ग़ोरे रंग की थीं, वे कंजर जनजाति की थीं, ये कंजर कन्याएं जरा फैशनेबल सी थीं। सुर्ख नेलपॉलिश लगाये, काजल लदी आंखें और उनमें एक कटाक्ष, तीखे होंठ जिनमें एक जन्मजात विलास! एक लडक़ी गाडियालोहार जनजाति की भी थी। गाडियालोहार वही लोग हैं , जिन्होंने महाराणा प्रताप का युध्द में साथ दिया था अपनी कृषिभूमि दान कर कसम खाई थी कि वे अब कभी घर बना कर नहीं रहेंगे, गाडियों में घर बनाएंगे और प्रदेशभर में घूमेंगे। भील, कंजर, गाडियालोहार कुल मिला कर दस बारह आदिवासी लडक़ियां। आधे कमरे लगभग खाली ही थे। पद्मा दीदी को लडक़ियों ने घेर लिया था। वे स्वयं ही पूछ - पूछ कर प्रश्नावली भर रही थीं, और खरीद कर लाया केक बांट रही थीं। मैं एक बैंच पर बैठ कर यहां - वहां ताक रही थी। इस छात्रावास के कमरे क्या थे, दडबे ही थे। न जाने कब से पुताई नहीं हुई थी। मैं ने बैंच पर बैठे - बैठे कमरों में झांका, कमोबेश हर कमरे का एक ही सा परिदृश्य - अलमारियां नदारद, बस कुछ ताखें थीं जिनपर आदिवासी लडक़ियों ने अपने पीतल - कांसे के बर्तन जमा रखे थे। या कंघा और शीशा। कमरे के बीच में चारपाई की मूंज की रस्सी बंधी थी जिस पर कपडे, स्क़ूल की यूनिफॉर्म बेतरतीबी से टंगे थे। टेबल नहीं थी, डेस्क थीं उन पर किताबें थीं। प्रकाश के लिये मकडी क़े जालों से ढका धूमिल बल्ब, कांच की खिडक़ी बन्द थी उस पर मोटा काला कागज चिपका था। कैसे पढती होंगी इतनी कम रोशनी में? - आगे पढें |
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