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संगीत
के शिखर पर दीप की तरह दीपित हे दीपकंर!
तुम्हें
सैंकडों
मानपत्र मिले होंगे,
एक मानपत्र और!
यह
अवाज विन्ध्य की उन घिसी हुई पहाडियों,
दिल की तरह हजारों पान के पत्तों को छुपाए पनवाडियों,
सूखते चश्मों और इंतजार में थके - बुढाए कस्बे से आ रही
है, तुम्हारे स्पर्श मात्र से जिनमें कभी जान आ
गयी थी।
कामयाबी की इस बुलन्दी पर पहुंच जाने के बाद,
क्या पता तुम उसे पहचान भी पाओगे या नहीं,
मगर वह भले ही तुम्हारे दृष्टि - पथ से ओझल हो,
तुम एक बार भी उसकी नजरों से ओझल नहीं हो पाए दीपंकर!
वह कौन
- सा दिन था,
कौन - सी बेला, कौन - सा
मुहूर्त, जब बागेश्वरी के स्टेशन पर पहली बार
तुम्हारे मुबारक कदम पडे थे! याद आ रहा है कुछ -
स्टेशन से ही दिखता हुआ पर्वत के कलश पर वह शुभ्र मन्दिर,
जिसे देखकर तुमने कहा था, ''
ऐसा लग रहा है, मानो काले - नीले गजराज के मस्तक
पर किसी ने श्वेत शंख रख दिया हो।''
घिसी हुई पहाडियों से अनेक राहें जाती थीं ऊपर को,
मगर ऊपर तक पहुंचने के लिये पहले नीचे के मुकाम तय करने
होते हैं न!
इक्केवाला घाटी के उन चंदोवे ताने हुई पनवाडियों और आगे कस्बे की तंग
गलियों से गुजर रहा था और दूर ही से घाटियों में घुंघरू की आवाज सुनायी दे
रही थी किसी को।
तांगेवाला तनिक चढाई पर बने एक अलग - थलग मकान पर ले आया था तुम्हें।
तुमने
ऊपर से नीचे देखा और नीचे से ऊपर
-
अगर मन्दिर वीणा का एक तम्बूरा था तो वह मकान दूसरा,
जिन्हें पहाडी रास्तों के तार जोड रहे थे।
सहसा
झन्न - सा बजा तुम्हारे कानों में,
'' आप दीपंकर जी हैं न? एक
सोलह - सत्रह साल की लडक़ी सवाल कर रही थी।
सादा -
सा बैठकखाना,
दाढी - मूंछे सब सफेद,
उस्ताद की आंखें चहक उठीं, '' दीपंकर! ''
तब तक
वह लडक़ी चाय - नाश्ता ले आई थी।
बेटी
की तारीफों में उस्ताद की आवाज़ मृदंग - सी धिनक रही थी।
लजाकर
भागी थी आयशा,
तुम्हारी चोर - नजरें परदे तक पीछा करती रहीं थीं उसका।
तुम
ट्रेन के थके - मांदे सोये तो ऐसे सोये कि वक्त तक का खयाल न रहा।
उस्ताद
ने ही जगाया था,
'' उठो दीपंकर, आओ चलें,
वरना नसीब से मिली वो मुबारक घडी,
क्या कहतें हैं,
हां,
शुभ घडी हाथ से निकल जायेगी।
सूरज
डूबने के पहले ही पहुंच जाना है देवी के मन्दिर में और अब ज्यादा वक्त नहीं
रह गया है सूरज के डूबने में
-
फकत घण्टे भर! '' उस्ताद
वाद्य यन्त्रों की ही भाषा जानते थे, सो वाक्य
गढने , संवारने में देर लगती उन्हें।
पहाड
पर अच्छा - खासा रास्ता बन गया था।
उस्ताद
को सहारा देने को कोई आगे बढता मगर उन्होंने मना कर दिया,
हालांकि चढने में उन्हें खासी मशक्कत उठानी पड रही थी।
मन्दिर
नीचे से ही छोटा लग रहा था,
जैसे तुम आगे बढते गये,
पत्थरों,
पेडों
- लताओं से आंख - मिचौनी खेलता हुआ वह बडा होता गया।
मौसिकी
का यह काफिला जब ऊपर पहुंचा तो सूरज डूबने की तैयारी कर रहा था।
उसकी
लाली से दिशाओं के रोसनदान सुर्ख हो रहे थे और उसका गुलाल
पहाडों
और
घाटियों में बिखर रहा था।
परिन्दे अपने - अपने बसेरों की ओर उडे
आ
रहे थे
और उनकी मिली - जुली चहचहाहट से फज़ा/ गुलजार थी।
देवी
को प्रणाम कर सामने के चबूतरे पर बैठ कर उस्ताद ने पहले नमाज अता की,
फिर वीणा संभालने लगे।
तुम्हें उनकी मशक्कत पर रहम आ रहा था,
तभी उन्होंने टोका था, ''
पहले तुम कुछ सुनाओ दीपकंर।''
फिर तो
उस्ताद जैसे खुद में ही खो गये।
तारों
को कसकर समताल करने के बाद ठीक सूर्यास्त को उन्होंने राग यमन का आलाप साधा।
जोड पर करामत ने तबले पर थाप दी।
तब तक
तुम्हें यकीन न था कि झाला तक सब कुछ निर्विघ्न निभ जायेगा।
लेकिन
झाला तक आते - आते तुम चकित रह गये थे।
जो
शख्स पहाड पर ठीक से चढ भी नहीं पा रहा था,
उसके हाथ किस तरह उठती - गिरती उंगलियों के साथ ऊपर
नीचे दौड रहे थे।
इन
बूढी उंगलियों में क्या इत्ता कमाल अभी छुपा पडा है।
पहाड
क़ा जर्रा - ज़र्रा,
फुनगी - फुनगी, पत्ते -
पत्ते कान उठा कर कनमनाकर ताकने लगे थे।
एक
रूहानी झंकार थी कि पहाड से उतरते झरने की तरह पूरी घाटी में बह रही थी और
अग - जग डूब - उतरा रहा था।
घण्टे
भर तक धरती गमकती रही फिर उस्ताद ने वीणा सिर पर रख कर एक साथ ही साज और
बागेश्वरी दोनों को प्रणाम किया था।
''
आप कमाल
के बीनकार हैं।''
उस्ताद
को सहारा देकर उतरने लगी आयशा,
तो जैसे तुम्हारा कर्तव्यबोध जागा।
आगे
बढक़र तुमने दूसरी बांह पकड ली थी।
उस्ताद
ने अचकचाकर तुम्हें देखा और बोले,
'' लगा, जैसे तुम्हारी जिल्द
में मेरा बेटा निसार ही लौट आया है विदेश से।''
रात
दस्तरखान पर उस्ताद ने फिर वही बात उठा ली थी,
'' जब वीणा बजाता
हूं(
उस्ताद की निगाह में वीणा और सितार एक ही थे।
उनका
बस चलता तो सरोद को भी वीणा ही कहते) तो पैंसठ - सत्तर का बूढा नहीं,
बीस - पच्चीस का जवान हो जाता
हूं
और
वीणा बन्द हुई नहीं कि भेडिये की तरह दुबका हुआ बुढापा अपने पंजों और
दांतों से घायल करने लगता है।
अब
बुढापे में मुझसे बागेश्वरी देवी की सेवा नहीं होती,
जी चाहता है, कोई इस सेवा और
इस बेटी दोनों का भार थाम ले और मैं सुकून से रुखसत ले सकूं।
या
अल्लाह!
दिन भर
उस्ताद लोगों को लेकर व्यस्त रहते
-
विन्ध्य के लुप्त होते साज,
लुप्त होती स्वर सम्पदा।
दूर -
दूर से आये प्रशिक्षु।
वे
बारह - बारह घण्टों तक एक - एक सुर का रियाज क़रते।
तुम्हें हैरानी होती।
फिर वह
शाम! बूंदा - बांदी शुरु हो गई थी।
उस्ताद
को रोक लिया था आयशा ने।
बागेश्वरी के पूजन के लिये सिर्फ आयशा थी,
तुम थे टप - टप बरसती बूंदे थीं और भीगी - भीगी पुरवाई
के साथ थी जंगली फूलों की भीनी - भीनी मदमस्त गन्ध! आते समय तुम जानबूझ कर
फिसले थे कामिनी - कुंज के पास।
संभाल
लिया था आयशा ने तुम्हें।
इतनी
भोली तो नहीं थी आयशा! तुम्हें शायद आज भी न पता हो कि अकेले में कितनी बार
चूमा था उसने कामिनी के उस दरख्त को।
उसके
नन्हें चबूतरे पर बैठ कर कितने ही सुरभीले सपने बुने थे उसने।
गति और
दिशा के हिसाब किताब में तुम शुरु से सजग थे।
एक दिन
जा पहुंचे उस्ताद के पास,
'' उस्ताद मुझे शागिर्द बनाइयेगा? ''
और ठीक
गुरुपूर्णिमा को बाबा ने गुरुवन्दना के
- ''
अखण्ड मण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरं तद् पदं दर्शितं
येन्, तस्मै श्री गुरवे नम:
।''
के बीच तुम्हारी कलाई में हरी - हरी दूब के साथ
शिष्यत्व का काला धागा बांधा।
तुमने
कहीं से कर्ज लेकर एक नारियल,
पांच सुपाडियां, शाल और एक
सौ एक रूपए उनके कदमों पर रख दिये।
''
यह क्या?
''
तनिक
संजीदा हो आये उस्ताद,
''
पौद को
जिन्दा रहने के लिये पानी तो चाहिये,
मगर वह पानी इतना ज्यादा भी न हो कि पौद सड - ग़ल ही जाये।''
फिर हंस पडे उदास से,
''
बागेश्वरी
में पंचम वर्जित है और पंचम ही तुम्हारा आधार है।''
हे
बागेश्वरी के पंचम!
पता
नहीं कब बाबा ने क्या कहा और तुमने क्या सुना।
जो भी
हो शुरु हो गया विद्यादान।
बाबा
सैध्दान्तिक बातें बताते जाते,
आयशा उसे बजाकर दिखाती।
तुमने
एकान्त पाकर आयशा की हथेलियों को अपने हाथों में ले लिया था।
तारों
के साथ निरन्तर छेडछाड से खुरदुरी हो आई उंगलियों की पोरों को सहलाने लगे
थे तुम।
लुक -
छिप कर मिलने लगे थे तुम और आयशा
-
कभी मन्दिर में, कभी
पनवाडियों में, कभी पहाड पर और जिस दिन अब्बू को
इसकी भनक मिल गई, उस दिन?
आयशा
की रुकी सांस फिर चलने लगी।
तुम्हारी जान में जान आई।
पखावज
का ऐसा बजाया जाना पहली बार सुना था तुमने।
बिस्तर
पर क्लान्त लेटे थे बाबा।
तुमने
जाते ही उनके पांव पकड लिये।
परदे
की ओट में खडी थी आयशा।
शब्दों
के सटीक उपयोग तो कोई तुमसे सीखता,
दीपंकर! बाबा को रिझाने के लिये तुम्हारे लिये सितार और
वीणा, वीणा और आयशा के लिये अलग - अलग सम्बोधन
नहीं - सिर्फ एक सम्बोधन था वीणा।
बडा
रोमान्टिक है न यह सम्बोधन!
ह्नऔर
उसी बागेश्वरी के मन्दिर में आयशा वीणा बन कर हो गयी तुम्हारी पत्नी! याद
है न वो दिन,
उस्ताद ने दुआ दी तुम्हारे ही पुराने अन्दाज में,
'' तुम दोनों दो तम्बूरों की तरह प्रेम के तारों से जुड
ग़ये आज - इसी तरह बंधे रहें तार,
इसी तरह उठती रहे झंकार!
तो हे
वीणा वादक !
शुरु -
शुरु में तुमने अपनी साधना में कोई कोताही नहीं बरती।
मगर
गुरूकुल की शिक्षा पूरी होते ही तुम्हें ऐसे लगा,
जैसे बन्दीगृह से निजात मिल रही हो।
उस्ताद
का अहसास भी अब पहाड क़ी तरह खडा था तुम्हारी राह में।
तुम्हें जगह - जगह से बुलावे आ रहे थे।
उस्ताद
कहते - ''चले
जाओ''
तुमने
मुडक़र देखा,
वीणा के पैर चलने से पहले तनिक कांपे थे,
इस
उम्र
में घर
से मन्दिर तक घिसटना पडेग़ा अब्बू को।
मगर
हुक्म भी अब्बू का ही था,
सो वह गई, मगर उसका जाना!
वीणा
को आश्चर्य होता,
आखिर तुम चाहते क्या थे।
पहले
तुम्हें वीणा से यह शिकायत थी कि वह नितान्त घरेलू औरत है,
उसे तुम्हारी पत्नी के अनुरूप ढालना चाहिये,
तनिक आधुनिक होना चाहिये।
अब,
जबकि वह हो रही थी तो तुम उसे घरेलू बनाने पर आमादा थे।
तुमने
जवाब देना जरूरी नहीं समझा,
खुद ही पता किया वीणा ने कि तुम्हारे भाईसाहब की तबियत
खराब चल रही है।
मान
धुल गया।
द्रवित
हो आया मन।
मां का
साया पहले ही तुम पर से उठ चुका था,
ले - दे कर एक भाईसाहब ही तो बचे थे जो बीमार थे।
भाईसाहब की हालत वाकई में नाजुक़ थी।
वीणा
अभी बनारस रुकना चाहती थी मगर तुम उसे बागेश्वरी जाने पर जोर दे रहे थे,
'' मैं इन्हें संभाल लूंगा,
तुम जाकर उन्हें संभालो।
अखबारों से ही पता लगा कि बाद में तुमने बनारस और इलाहाबाद में कई
कार्यक्रम किये।
और इन
पर प्रतिक्रिया उधर तुम्हारे भाई साहब तुम्हें सीख दे रहे थे कि तुम्हें
अभी बाबा के पास रहना चाहिये था,
इधर बाबा वीणा को सीख दे रहे थे कि तुम्हें दीपंकर के
साथ ही रहना चाहिये था।
तुम
बागेश्वरी आए तो कलकत्ते की काली छाया को धो - पौंछ कर।
इलाहाबाद ने नई चमक भर दी थी।
सबको
बताते फिर रहे थे कि कलकत्ते में क्या था,
गुणी, जानकार तो दरअसल
इलाहाबाद में ही थे।
वीणा
से मिलतो ही तुमने उसे बांहों में कस लिया और चुम्बनों की बौछार कर दी।
वीणा
को थकाकर तुम थक कर सो रहे थे और वीणा तुम्हारे सुन्दर सलोने चेहरे को देख
- देख कर रीझ रही थी और तुम्हें सम्बोधित करते हुए सोलहवीं शताब्दी की
नायिका की तरह मौन संलाप कर रही थी,
'' मेरे नटखट शिशु, कलकत्ते
में जो हुआ, उससे तुम रूठ गये न?
रूठना ही था।
एक तो
एक ही विधा के लोग,
प्रतियोगी भी न हों तो तमाशबीनों द्वारा बना दिये जाते
हैं, दूजे मैं नारी तुम पुरुष।
इगो की
चरमराहट! अच्छा हुआ कि बनारस और इलाहाबाद ने भरपाई कर दी और तुम फिर ऊपर आ
गये।
तुम्हीं जीते,
मैं ही हारी।
ये लो मैं हारी पिया हुई तेरी जीत रे,
काहे का झगडा बालम नई नई प्रीत रे खुश?
तुम पर वारी जाऊं मेरे सलोने राजकुमार।
तुम
जैसे खुश रहो,
मैं वही करुंगी बस एक ही इल्तजा ही मेरी,
मुझसे रूठो मत!''
बाबा
भी खुश थे अपनी बुढापे की बीमारी के बावजूद! और एक दिन मन्दिर जाने से रोक
लिया उन्होंने तुम्हें।
स्नेह
से गाढे हो रहे थे,
बोले- '' बेटे,
मैं एक पका आम
हूं,
कब टपक पडूं कोई ठीक नहीं।
जाने
से पहले मैं चाहता
हूं
कि
तुम्हें देवी की मूरत गढने के हुनर में उस्ताद बना
दूं।
तुम
जानते हो कि यह हुनर कोई उस्ताद सिर्फ अपने खासमखास शागिर्द को ही देता है।
गौर से
सुनो,
जिस तरह एक नायाब मूरतसाज माटी से मूरत गढता है देवी की
- पांव, कमर,
सीना, गर्दन,
हाथ, उंगलियां,
होंठ, कान,
नाक, आंखउसी काम को एक
मौसिकार अपनी मौसिकी से अंजाम देता है।''
और उस्ताद ने वीणा की सहायता से तुम्हें मूर्ति गढना
सिखलाना शुरु कर दिया।
चोरी -
चोरी प्रेम के सुरभीले दिनों के बाद वे सबसे सुन्दर दिन थे वीणा की जिन्दगी
के।
मन्दिर
परिसर में पति - पत्नी मूर्ति गढ रहे होते
-
तिन - तिन्न! धिन्न- धिन्न! की झंकार दूर - दूर की
पहाडियां सूद सहित लौटा देतीं - ध्वनि भी
प्रतिध्वनि भी! जैसे पूरी प्रकृति, पूरे विश्व,
पूरे ब्रह््माण्ड में सिर्फ मूर्ति रची जा रही थी उन
दिनों।
उस्ताद
ने परीक्षा ली तो बोले,
'' अभी खुरदुरापन है, वीणा
के साथ रियाज क़रते रहोगे तो बाकी बारीकियां भी आ जायेंगी।''
तुमने खीज कर ताका था वीणा की ओर,
जो दांतो - तले जीभ दबा रही थी।
हे
पत्नीव्रती!
यह
तुम्हारे जीवन का नया अध्याय था,
वीणा के जीवन का भी।
संगीत
समारोहों का दौर - दौरा फिर शुरु हो गया।
वीणा
की भूमिका तुम्हें सजा - सवांर कर मंच पर भेज देने की और सबसे पीछे तानपूरा
लेकर बैठने तक ही सीमित हो गयी।
फिर
हुआ कला का जन्म,
मगर यह कोई उल्लेखनीय घटना न बन सकी।
इलाहबाद,
बम्बई, कलकत्ते,
दिल्ली में बंधकर रहने वाले जीव तुम थे नहीं,
सो जैसे ही मौका मिला, तुम
उड ग़ये अमरीका, साथ ही वीणा और कला भी।
वह
तुम्हारा पत्नीव्रत नहीं तुम्हारी अनिवार्यता थी,
कारण, कौनसी पोशाक किस महफिल
को लिये मौजूं है, यह सिर्फ वीणा को पता था
- कभी मुगलिया, कभी
नवाबी, कभी देसी रजवाडों
की तो कभी साफ शफ्फाक सूफियाना, पर सुरुचिपूर्ण।कब
क्या खाना है,
क्या पीना है, क्या बजाना है,
पुराने शास्त्रीय संगीत मैं किस हद तक देसी पंच करना
है - यह भी।
तुम्हें दूल्हे की तरह या कहूं
जादूगर
दूल्हे की तरह मंच पर सजा - संवार कर बैठा देती और खुद तानपूरा लेकर पीछे
बैठ जाती -
स्वरों का आधार बनाती, उसकी
उंगलियां तानपूरे के तारों पर फिसल रही होतीं,
मिजराब के अभाव में खुरदुरे होते पोर, मगर अब
तुम्हें उन्हें चूमने को कौन कहे,
देखने की भी फुरसत न होती।
मिलने
वाले काफी हो गये थे,
खासकर गोरी, चाकलेटी औरतें,
जिनके सम्पर्क में आते ही तुम्हारा चेहरा खिल जाता।
वीणा
ने महसूस किया कि तुम उससे दूर होते जा रहे हो,
मगर एक अजीब किस्म का ठण्डापन उसे घेरने लगा था।
वीणा चुपचाप देख रही थी कि तुम संगीत पर कम,
उसके मायावी प्रदर्शन पर ज्यादा ध्यान देने लगे थे
- मंच से लेकर लिबास तक।
फिर
तुमने समारोह के पूर्व अंग्रेजी,
फ्रेंच या जर्मन में एक वक्तव्य रखना शुरु किया जिससे
तुम्हारे पाण्डित्य की धाक जमने लगी।
निसार
बीच - बीच में आते रहते।
तुम
दोनों की जुगलबन्दी भी हुई जो कि खासी चर्चित हुई।
ये वे
दिन थे जब लोकप्रियता पर तुम छोटे - मोटे प्रयोग करते ही रहते।
उद्देश्य सिर्फ एक होता,
मंच पर छा जाना, भले ही बाकि
कलाकार अंधेरे में चले जायें।
वीणा
को उस दिन तुम्हारा लाइफ में इंटरव्यू पढ क़र कोई हैरानी नहीं हुई जब
तुमने एक तरह से खुद को स्वनिर्मित प्रतिभा के रूप में पेश किया।
प्रचार
की चंग पर चढक़र तुम भारतीयता के प्रतीक बनते जा रहे थे।
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