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परिभ्रान्ति आमतौर पर वे आजकल बेचैन रहा करते हैं। पहले कहीं भीतर ही भीतर हताश मगर बाहर से सहज रहा करते थे। अब उस किस्म की स्थायी हताशा कम ही तारी होती है उन पर। हमेशा एक उद्विग्नता, अजीब किस्म की सोच, एक भ्रामक आवेश उन पर हावी रहता है। मुट्ठियां भींच - भींच कर अपने आप से बातें करते हैं। पहले लेटे रह कर दोपहर भर किताबें पलटा करते थे। अब झूले पर बैठ कर दोपहर भर अतीत कुरेदा करते हैं। कुछ बुदबुदाते हैं या बेवजह चहलकदमी किया करते हैं। योग - मनन जो कि युवावस्था से ही उनकी नियमबध्द दिनचर्या का हिस्सा रहा है अब धीरे - धीरे वह भी छूट चला है। योग करते ही देह अजीब किस्म की बेचैनी से भर जाती है। दिन भर उबकाइयां सी आती रहती हैं। ध्यान - मनन के लिये एकाग्रता नदारद है। वे अकसर अपने चेतन का छोर खो देते हैं, और अवचेतन की काई लगी सीढियां उतरते हुए अपना चेतन ढूंढते अवचेतन के अन्तिम छोर पर जा कर पारदर्शी झिल्ली के नीचे से मुट्ठियां बांध - बांध कर चीखा करते ऐसी चीख जो कि कण्ठ से बाहर आकर अस्पष्ट गों गों में बदल जाती थी। आखिरकार घबरा जाते और बहुत से अन्धाधुन्ध प्रहारों से वह झिल्ली टूटती और वे चेतन में लौटते। कितनी बार ऐसा होता कि उधर से गुजरते हुए बडी बहू मंजुला या छोटा बेटा निमिष झूले या रॉकिंग चेयर पर उन्हें गों गों करते देख आकर झिंझोडते और जगाते। पूछते - पापा क्या हुआ? पढते - पढते सो गये थे? या कोई सपना देखा! वे निरुत्तर पसीने में तर - ब - तर।
अपनी
इस अनबूझी - सी बेचैनी को वह अपने बेटों से छिपा कर रखना चाहते हैं फिर भी
दोनों में से कोई आकर पूछ ही लेता है
''
पापा! क्या कुछ परेशानी है?''
''
विकास इस
घर की पॉजिटिव एनर्जी को कुछ हो रहा है। तू एक बार आर्यसमाज से वर्मा जी को
बुलवा कर हवन करा ले।''
शायद
वे रह - रह कर उस एक साथी की कमी पूरी शिद्दत से महसूस करने लगे हैं,
जो पिछले 25 सालों से महज एक
तस्वीर बन कर उनके पूजा घर के बगल में रखा रहा है जिसे सुबह उठते ही वे
भगवान के बाद एक बार श्रध्दा से नत हो, स्मरित
करने के बाद दिन भर की अपनी दिनचर्या में व्यस्त हो जाते थे।
लेकिन
अब हर बार वह तस्वीर उनके मन में एक हूक सी उठाती है सुशीला तुम होतीं तो।
आजकल
उन्हें एक बात बार - बार याद आती है कि सुशीला कहा करती थी
-
वह बात
अलग है कि -
उन पर पूत सपूत तो का धन संचय वाली कहावत चरितार्थ हुई
थी।
होनहार
बेटों की कमाई पर सुख से रह रहे हैं।
बेटे
ही नहीं,
बहुएं भी डॉक्टर हैं, पढी -
लिखी अपने काम - काज में व्यस्त, उनके पास फालतू
की चख - चख का वक्त ही
कहां?
सब अपने - अपने दायरों में व्यस्त हैं।
अब तक
स्वयं वे भी तो इसी व्यवस्था में सुखी थे।
अपना
योग,
अपनी पढने की आदत, लाफ्टर
क्लब, गोल्फ, समय पर
खाना, समय पर सैर।
न्यूज,
अखबार पिछले बीस साल से बंधी - बंधाई दिनचर्या में पोते
- पोतियों की आनन्दमयी घुसपैठ के अलावा उन्हें ही कब कुछ सहनीय था?
इसी अकेलेपन और निजता की आरामदेह आदत थी उन्हें।
न जाने
क्यों जीवन के इस आखिरी पडाव पर आकर जिसे वानप्रस्थ आश्रम की संज्ञा दी जा
सकती है -
प्रकृति स्वयं उन्हें अपने युगल रूप में चिढा रही थी।
जब भी
कभी लॉन में,
छत की मुंडेर पर गौरेय्या के जोडे क़ो अठखेलियां करते
देखते, पत्थर मार उडा देते।
गुपचुप
टाइम्स का मैट्रिमोनियल देखते।
देखते
कि ''
सीनीयर सिटिजन,
हाइलीक्वालीफाइड सीनीयर ऑफिसर 59, लिविंग अलोन
वान्ट्स अ लाइफ पार्टनर।''
एक बार
तो उन्हें इंजेक्शन लगाने उनके कमरे में आये उनके बडे बेटे विकास ने लिफाफे
में रखा उनका यह विज्ञापन का पत्र पढ लिया।
ससुर -
बहू के बीच अच्छी - भली बच्चों की पढाई पर बात चल रही होतीतो अचानक वे आजकल
के चैनल पर बात करते - करते सैक्स एजुकेशन पर बात करने लगते,
जहां
तक बात
विषय से जुडी रहती और तथ्यात्मक होती बहुएं बुरा नहीं मानती।
लेकिन
जब वे खूब रुचि लेकर इसी विषय पर आगे बढ ज़ाते और गन्दे चुटकुलों पर उतर आते
या फिर कह देते
''
क्या दिन भर तुम पति - पत्नी बेडरूम में घुसे रहते हो।
कभी
गर्मी की रातों में छत पर सोने का सुख लिया है?
हम और सुशीला तो '' फिर तो
आपत्ति होना स्वाभाविक था।
जब
बहुएं तो अपने - अपने अस्पताल,
मैडिकल कॉलेज चली जातीं हैं,
तब वे घर की मिसरानी के पीछे पड
''
आज खाना
क्या बनाओगी?''
''
फूलवती,
तू
भी ले ले एक परांठा।''
एक दिन
तो हद ही हो गई थी।
मंजुला
की एक बहन है,
अंजलि।
हिन्दी
साहित्य में एम ए कर रही है,
दिल्ली विश्वविद्यालय से।
उस दिन
कॉलेज ऑफ था या क्लासेज ज़ल्दी छूट गयीं थी वह अपने हॉस्टल से मंजुला से
मिलने के लिये चली आई।
मंजुला
तब तक अस्पताल से लौटी नहीं थी वह अपनी बहन के कमरे में ही इंतजार कर ही
रही थी,
उन्होंने उसे गेट से आते देख लिया था वे झूले से उठ कर चले आए,
'' कब आईं अंजलि?''
उस दिन
आसान नहीं था विकास के लिये सो पाना।
अब यह
सब असहनीय हो चला है,
अधिक उपेक्षित किया तो कोई भी हादसा खडा हो सकता है,
घर की नेकनामी में छेद करता हुआ।
सीढियों से सर झुकाए उतरते और पीठ करके अपने कमरे में घुसते हुए पापा का वह
चिरपरिचित चमचमाता प्रभामण्डल छिन्न - भिन्न क्यों लगा?
अचानक उनकी श्रध्दाजनक प्रतिमा में यह दरार क्यों आ गई
है? क्या सच में कोई निर्णायक पल आ गया है?
क्या अब स्वयं लिहाज की जमीन से ऊपर उठ कर और उन्हें
उनके बडप्पन के आसमान से उतार कर आमने सामने बात करनी ही होगी?
कैसे कर सकेगा वह? ना! उससे
नहीं होगा।
निमिष
से बात करेगा,
वह थोडा स्पष्टवादी है।
उसी
रात विकास ने छोटे भाई निमिष को बुला कर बात की
-
''
कम ऑन।
पापा जैसे सोबर और आदर्शवादी इन्सान को लेकर ऐसे मत सोच। अकेलापन या
डिप्रेशन होगा। किसी से बातचीत करने के लिये बडे लोग स्टैण्डर्ड नहीं देखते
मंजुला की मम्मी भी तो सब्जी वाले को रोक कर घर का पुराण सुनाने लगती हैं।''
''
नहीं तुझे
तो पता है पापा को बातचीत करने की शुरु से ही कहां आदत थी। वे बात नहीं
करते थे शान्त रहा करते थे। बोलते थे तो इतनी गहरी बात कि हर कोई कायल हो
जाये।अब हर किसी को पकड क़र उटपटांग बातें करते हैं। कल ही तो मिसरानी से
कह रहे थे -
मैं अलग फ्लैट ले रहा हूं। पैसा है ही मेरे पास। बस नहीं है तो कोई औरत
नहीं है। है कोई तेरी नजर में। विधवा,
छोडी हुई चलेगी।''
''
धीरे बोल
निमिष। अंजलि वाली बात बताई होगी नीलिमा ने तुझे।''
''
निमिष हो
न हो कहीं कुछ गडबड है हो न हो मुझे ये केस प्रोस्टेट का लग रहा है।
प्रोस्टेट के बढने से ही मरीज क़ो इरोटिक फीलींग्स आने लगती हैं।''
''
भैय्या
क्यों न एक बार पापा को साइकियाट्रिस्ट के पास ले जायें। और हां भैय्या पता
नहीं आपको भाभी ने बताया कि नहीं
-
उस दिन
झूले पर एकाएक बेहोश हो गये थे और अजीब आवाज निकाल रहे थेहोश में आकर
मंजुला भाभी से कहते हैं
-
नीति का
एयरोप्लेन क्रेश हो गया है। वह नहीं बची। अब हवन करवाना ही होगा तेरहवीं
का। ये अजीब अजीब से भ्रम होना तो ठीक नहीं है भाई।'' अगले ही दिन विकास सारे काम छोड क़र अपने न्यूरॉलोजिस्ट मित्र अजय के अस्पताल पहुंचा।
''
यस,
ऑफ
कोर्स यार! तू स्थिति की गंभीरता क्यों पहले नहीं समझा! जहां तक मैं अंकल
को जानता हूं एक बाहर वाले की हैसियत से वे बहुत संतुलित व्यक्ति हैं,
अचानक यह भावनात्मक बदलाव किसी खास वजह से ही होगा। कई बार ऐसा हो जाता है।
किसी भी दिन मेरे पास आकर एम आर आई करवा ले।''
जल्दी ही एम आर आई और सी टी स्कैन की रिपोर्ट विकास के हाथों में थी। रिपोर्ट पढते ही उसे ऐसा लगा कि उस पर घडों पानी पड ग़या हो। एक डॉक्टर होकर वह क्या - क्या सोच गया, पापा के बारे में। अजय का शक सही ही निकला। वह तो कह ही रहा था कि - '' हो न हो इस चेन्ज्ड बिहेवियर, इमप्रॉपर बिहेवियर, हेल्यूसिनेशन्स की वजह कोई ब्रेन टयूमर है, वह भी राईट या लैफ्ट फ्रन्टल लोब टयूमर जिसके दबाव से मस्तिष्क का वह हिस्सा सम्वेदनहीन हो जाता है जो हमारी सैक्सुअल इम्पल्सेज क़ो नियंत्रित करता है। वे पर्सनालिटी डिसऑर्डर का शिकार हैं। इसका काफी हद तक फ्रन्टल लोब टयूमर को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। कई बार इस टयूमर वाले मरीज पैडिफिलिक हो जाते हैं यानि बच्चों के साथ सैक्सुअली कुलमिला कर मेरे कहने का मतलब है विकास यह दिमाग के उस हिस्से को नष्ट कर देता है जो हिस्सा हमे चेताता है कि '' थिंक बिफोर एक्ट''। अब तू खुद सोच ले अंकल किस समस्या से दो चार हो रहे हैं। ऐसे में उनके साथ तुम सभी को उन्हें बिना जताये सामान्य रहना होगा। उन्हें प्यार और सहानुभूति की खास जरूरत है। फिर जितना जल्दी हो सके उन्हें आपरेशन के लिये तैयार कर लो।'' वह डॉक्टर होकर भी चकित है, मानव तन के साथ - साथ मन और उसके सम्वेदनों पर मस्तिष्क की अद्भुत नियन्त्रण क्षमता पर। अब एक नयी चुनौती सामने थी पापा को ऑपरेशन के लिये तैयार करना। ऑपरेशन वह भी ब्रेन टयूमर जैसा दुसाध्य ऑपरेशन। आज ही बात करेगा वह।
वह
बहुत देर तक पापा से बात करने की भूमिका पर सोच विचार करता रहा।
टहलता
रहा लॉन में।
फिर
उंगलियां चटखा कर पापा के के कमरे की राह ली।
पापा
कमरे में नहीं थे,
उनकी चप्पलें बाथरूम के बाहर उल्टी पडी थीं।
उनके
कैनवास के जूते वहां नहीं थे शायद टहलने निकल गये हैं।
उसने
पूरे कमरे पर निगाह डाली।पापा
का कमरा,
जो अब पहले की सी तरतीबी से नहीं जमा है।
पापा
के व्यक्तित्व में से जो सधा पन खो गया है,
वही सधापन कमरे से भी गायब है।
सलवटों
से भरा बिस्तर,
उल्टी पडी चप्पलें।
चश्मे
के कांच पर लगे दाग।
ख़ुला
हुआ पैन और यह ! डायरी! पापा तो कभी डायरी नहीं लिखते थे।
लेख
जरूर लिखते थे,
वह भी या तो भारत की विगत युध्द नीतियों पर,
या आध्यात्म पर।
वह
पहले कभी पापा के पत्र या डायरी पढने की बात सोच ही नहीं सकता था।
पर अब
वह स्वयं को रोक नहीं सका।
डायरी
पर उल्टा पडा धुंधला चश्मा,
खुला पेन हटा कर पढने लगा।
वह बात
अलग थी कि सुशीला के साथ गुजारे वक्त में इतना सुख और तृप्ति थी कि उसके
जाने के बाद कभी कोई तृष्णा जगी ही नहीं।
उसके
हंसमुख विनम्र स्वभाव,
लुभावने चेहरे और सम्पूर्ण फिर मैं बुरा कैसे बन सका? मेरे आस - पास तो सज्जनता का निवास है। ऊंचे आदर्श ह्ह्
सुशीला
के जाने के बाद मैं ने किसी से कोई इच्छा रखना छोड दिया था।
मेरे
बच्चे - बहुएं भले ही मेरी इच्छानुसार हू - ब हू न चलते हों पर वे मेरा
सम्मान हमेशा करते थे।
मेरी
अपनी इच्छाओं को लेकर मैं कभी कोई प्रतिक्रिया करता ही कब था?
और शायद वे यही सोचते रहे कि मैं इच्छाओं से रहित इंसान
हूं।
ऐसा
सोच कर वे कितना खुश थे! है ना! एक ऐसी उत्कण्ठा जो देह को सुरसुराती हुई मन को छील कर मस्तिष्क को सुन्न करती है। एक ऐसी उत्कण्ठा जो पैरों के नीचे से जमीन छुडा''
बस
यहीं छूट गया था पेन शायद।
मनीषा
कुलश्रेष्ठ |
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