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मैं अपनी बडी दीदी सुनीता के यहां रीवा आयी हुयी थी। भाई बहिनों में सब से बडी उनकी उम्र मुझ से 15 साल अधिक थी।मेरे बडे ज़ीजा जी सिंचाई विभाग में इंजीनियर थे।विभाग का असर था उनके यहॉ खुशहाली बिखरी रहती थी।रहने के लिये सरकारी बंगला। नौकर नौकरानियों की लाइन। बाजार से सामान लाने के लिये नौकर घर की सफाई के लिये नौकरानी कपडे धोने के लिये नौकरानी रसोई के लिये महाराज और बच्चो और दीदी के लिये अलग से ड्राइवर।जब नौकर के लिये दीदी कहतीं मस्टर रोल पर नाम लिख दिया जाता और घर में नौकर हाजिर। मैं हर गरमियों में दो तीन हफ्ते के लिये वह जहां होतीं पहुंच जाती। समय बडे रौबदाब और सुख से गुजरता। तीज त्योहार पर जब बडी दीदी दिल्ली मायके आतीं तो उनको और उनके दोनो बच्चों के, और जीजा जी के ठाठ देखते ही बनते। उस समय विनीता दीदी भी आती थीं। वह भी मुझसे 8 साल बडी थी। मेरे मंझले जीजा जी भी एक बडी अन्तर्राष्ट्रीय कम्पनी में बहुत ऊंचे पद पर थे। अच्छा बंगला रहना पहिनना ओढना। पर एक तो बडे शहर का रहना और फिर एक बंधी हुयी आमदनी, विनीता दीदी सुनीता दीदी का सामना कहां कर सकतीं थीं। सुनीता दीदी मंहगी साडियों गहनों से लदी रहतीं।बात बात पर नोटों का ढेर निकाल लेती। बच्चों ने कुछ फरमायश की और चीज हाजिर।शॉपिंग का ऐसा तांता लगता कि रूकने का नाम ही ना लेता। हम लोगों का सम्पन्न परिवार था।अंग्रेज लोगों के समय का मेरे दादा रायसाहव अजुदिया नाथ का दिल्ली में माल रोड पर बंगला। तुर्रीदार पगडी पहने दरबान तो नहीं थे पर लोहे के बडे ग़ेट आठ फुट ऊंची छत बाले रोशनदान वाले फैले हुये कमरे और ऊंचे ऊंचे दरवाजे अपनी भव्यता की कहानी कहते थे। मेरी मां एक दीवान परिवार से थीं। अपने जमाने की अनिन्द्य सुन्दरी। बेटियां एक से एक खूबसूरत। उनको सर्वश्रेष्ठ शिक्षा दीक्षा दी गयी थी। मेरी दोनों बडी बहिनों को अच्छे घरों में ब्याहने में तनिक भी दिक्कत नहीं हुयी थी। इकलौते भाई ने घर का व्यवसाय संभाल लिया था।उसका विवाह दिल्ली के ही एक जाने माने व्यावसायिक परिवार में हुआ था। रजनी भाभी बहुत खुशमिजाज और मिलनसार थीं।वह मुझे खूब चाहतीं थीं।मैं सुख सुबिधा में पली बढी हुयी थी।पर सुनीता दीदी का वैभव देख कर तो मेरी आंखें भी चकाचौंध हो जाती थीं। रजनी भाभी तो सुनीता दीदी और जीजा जी से बहुत प्रभावित थीं। मुझ को ले कर वह कहतीं थीं '' मैं तो अपनी सुमन का ब्याह लाला जी जैसे इन्जीनियर से ही करूंगी''। मेरे लिये इंजीनियर ढूंढने में परेशानी नहीं हुयी। मैं सब बहिनों में खूबसूरत और स्मार्ट समझी जाती थी। शास्त्रीय नृत्य संगीत में पारंगत थी। मंच पर कार्यक्रम देती रहती थी। सम्बन्ध बडी दीदी ने ही सुझाया था।जीजा जी के विभाग में सहायक इंजीनियर था।देखने में अच्छा ऊंचा लम्बा और जीजा जी के अनुसार बडा होनहार।सब लोगों की रजामंदी हो गयी थी।मुझे भी राजन पसंद आया था। मेरे हां भर कहने की देर थी कि सम्बन्ध औपचारिक रूप से तय।मैं शादी से अभी दूर रहना चाहती थी। मेरा गरमियों में एक भव्य कार्यक्रम था। सोचती थी कि उसके बाद ही हां कहूंगी। गरमियां लगते ही मैं बडी दीदी के यहां पहुंचा गयी थी। जीजा जी का पद और बढ गया था। वह अधिशांषी अभियन्ता हो कर रीवा आ गये थे।यानी उनके ठाठबाठ और बढ गये थे। इस बार उन्होने मुझे लालच दे रखा था कि वह मुझे चचाई फाल दिखायेंगे। फाल के रेस्टहाउस में रिजर्वेशन भी हो गया था। हम सब, मैं दीदी जीजा जी और दौनों भतीजे एक हफ्ते के लिये चचाई फाल पहुंच गये। रेस्टहाउस छोटा था। एक बडा गेस्टरूम एक छोटा गेस्टरूम और एक कमरा डाइनिंर्गलाउन्ज का जिसमें एक ओर सोफे और हट कर एक डाइनिंग टेबिल लगी हुयी थी।साथ में किचन था। खानसामा और दूसरे काम करने बाले पीछे रहते थे। हम बडे क़मरे में ठहरे वह हवादार था। सब तरह की सहूलियत का सामान था।पर्दे कार्पेट साफ थे। रेस्टहाउस में काम करने बाले पूरी तत्परता से जुट गये थे।खानसामा ने शाम को अच्छी खासी दावत दे डाली।खाना बडा स्वादिस्ट बना था उस से भी ज्यादा थी उन लोगों की सेवा। बडे साहब का दबदबा बोल रहा था। अभी दो दिन भी नहीं बीत पाये थे। शाम को हम लोग घूम कर लौटे तो रेस्टहाउस में हलचल थी।दो पुलिस की जीपें खडी थीं।दो पुलिस बाले मुस्तैदी से खडे थे। थानेदार बरामदे में घूम रहा था। रेस्टहाउस का अधीक्षक बेचैनी से इन्तजार कर रहा था।
देखते ही वह
लपक कर बोला ''सा'ब
कलैक्टर साहब आ रहे हैं आपको कमरा खाली करना पडेग़ा''।
जीजा जी सकते
में आ गये।
कमरे
में आ कर उनको समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करें।
मुझे
बडा गुस्सा आ रहा था।अभी
थोडा समय भी नहीं बीता था कि इनचार्ज कमरे में आ गया थानेदार उसके साथ ही था।
जीजा जी एक
दम चुप खडे थे।
उनका
रौबदाब हवा हो गया था वह बडे दयनीय लग रहे थे। थानेदार कुछ कहने को था कि तभी लाल लाल बत्ती दिखाती सायरन बजाती हुयी एक जीप आकर खडी हो गयी। उसके पीछे एक कार रूकी।ड्राइवर ने छलांग लगा कर दरवाजा खोल दिया। थानेदार और सिपाही सैल्यूट की मुद्रा बना कर खडे हो गये।
कार से एक
कालिजनुमा लडक़े को उतरते देख कर मैं दंग रह गयी।
मै तो
सोच रही थी कोई भारी भरकम प्रौढ क़लैक्टर साहब उतरेंगे पर छलांग लगा कर एक आकर्षक
नवयुवक वरामदे में आ खडा हुआ। दीदी जीजा जी कलैक्टर के सरल व्यवहार से बहुत सन्तुष्ठ थे पर उस घटना से मेरा क्षोभ नहीं गया था।
रेस्टहाउस
सक्रिय हो गया।
थाने
को अपनी आवाज से गुंजा देने बाला थानेदार दरबान की तरह कमरे के बाहर कुर्सी डाल
कर बैठा था।
बैंच
पर सिपाही बैठे थे।
कलैक्टर के दफ्तर का कोई मातहत भी बाहर आ कर बैठ गया था।
सामने
एक बोर्ड लटका दिया गया था
''शशांक
कोठारी
आई
ए एस''
डिनर के लिये
गये तो उस कमरे की काया पलट हो गयी थी।
नये
पर्दे टांग दिये गये थे,
नया टेबिल क्लाथ बिछा दिया गया था।नयी
क्राकरी सज गयी थी।जहां
जीजा
जी बैठते थे वहां
केवल
एक प्लेट लगी थी।
टेबिल
के दूसरे किनारे हम लोगों की प्लेटें लगी थीं।
मेरा
क्षोभ फिर उभर आया।
कलक्टर शशांक
बडे सहज ढंग से जीजा जी दीदी से बात करने लगे
''कहां
से
हैं ?
कौन सा विभाग है? कब आये?
क्या अच्छा लगा?''।
दीदी की आवाज
एकदम तेज हो गयी ''क्या
तुम मीरा के भतीजे हौ''।
ताज्जुब है
कि दुनिया इतनी छोटी हो सकती है।
उन
में आपस में जान पहचान निकल आयी थी।दीदी
यादें ताजा करने में लग गयीं थीं।
इस
बीच दीदी उसकी आण्टी हो गयी थीं और कलैक्टर शशांक केवल शशांक।बीच
बीच में जीजा जी भी बात करने लगते थे।मुझ
को शामिल करने के लिये शशांक ने पूछा
''आप
गयी हैं ग्वालियर?''
कमरे में आ
कर दीदी मुझ पर बरस पडीं
''पता
नहीं इस लडक़ी को किस बात का घमंड रहता है।
वह इस
से कितनी नम्रता से बोल रहा था और इस के हैं कि मिजाज ही नहीं मिलते''।
बात सच थी।
पता
नहीं मेरी कटुता उसकी तरफ क्यों थी।
शायद
उसके बडप्पन में मैं अपने को हीन समझ रही थी जैसे कि मेरा महत्व घट गया हो।दूसरे
दिन जब हम सो कर उठे तो वह घूमने निकल चुके थे और जब हम लौट कर आये तो कलैक्टर की
सवारी जा चुकी थी।वह
दीदी के नाम एक संदेश छोड ग़ये थे।
आग्रह किया गया था कि हम सब लोग उनके यहां आयें। बापिस रीवा आये तो घर पर भी 'कलैक्टर साहब' का फोन आया था। दीदी ने फोन मिलाया तो फिर वही आग्रह भरा बुलाबा।बच्चे जिद करने लगे तो दीदी राजी हो गयीं। जीजा जी तो अभी छुठ्ठियां बिता कर आये थे इसलिये जा नहीं सकते थे। मैने सोचा मना कर दूं। फिर सोचा यहॉ अकेली क्या करूंगी तो हामी भर दी।
कलैक्टर के बंगले पर पहुंची तो भौंचक रह गयी।सामने जितना बडा गांधी मैदान था उतना ही बडा बंगला था। एक एकड क़ा तो लान ही होगा।घर को सजाने संवारने का मंहगे से मंहगा सामान और फर्नीचर जमा किया हुआ था पर सब बेतकरीबी से बिखरा हुआ था। जीजा जी के यहां नौकरों की लाइन थी यहां तो शाही पलटन थी। पर तरीका सिलसिलाकोई नहीं था।बस सब काम किये जा रहे थे।
दूसरे दिन
शशांक ने हम सब को डिनर पर ले जाने का प्रोग्राम बनाया।
सबसे
अच्छे रेस्ट्रारेंण्ट में खबर कर दी गयी।
शाम
होते ही रेस्ट्रारेंण्ट का मैनेजर आ कर बैठ गया
''साहब
आप को ले जाने आया
हूं।''
घर की हालत
देख कर मुझसेरहा नहीं गया।कोई
सामान ढंग से नहीं रखा था।
मैने
इंटीरियर डिकोरेशन में डिप्लोमा लिया था।
घर
संभालने में मेरी सुरूचि थी।मैने
नौकरों की फौज को इकठ्ठा कर ड्राइंगरूम का रूप ही बदल दिया।
दीदी
मना करती रहीं किसी के घर को उससे पूछे बगैर मत छेडाे।
उसके मुंह से
निकल गया ''वाओ!इसकी
तो काया ही पलट हो गयी है।
धन्यवाद आण्टी''।
शशांक बोला
''आप
में बाकई बहुत हुनर है''।
शशांक ने
ड्राइवर से कहा ''यहां
के थाने की तरफ से निकलते चलो''।
वह मुझे
कलैक्टर की पत्नि समझ रहा था।
मैने
फुसफुसाकर उसको तब तक की कहानी बताा दी।यह
हम लोगों की पहली सीधी बातचीत थी।
मैं राजन से
बातें करती रहती थी पर शशांक से फोन पर सीधे बातें नहीं करती थी।
दीदी
के द्वारा बातें होती थी।
शशांक
ने कहा ''आण्टी
सुमन से कहो कमरे उसकी सजावट का इन्तजार कर रहे हैं''। हांलाकि दीदी ने यह उस से कहा नहीं। गरमियों के अन्त में कला मंच मेरा प्रोग्राम दिल्ली में कर रही थी। उनकी एक सहयोगी संस्था रीवा में थी उन्होंने एक छोटे स्तरपर मेरा नृत्यबैले यहॉ प्रस्तुत किया। जीजा जी ने दीदी ने और मैने अपने जानने बालों को आमंत्रित किया। राजन आ रहे थे। दीदी से कह कर मैने शशांक को भी बुलाया। शो पर भीड तो ज्यादा नहीं थी पर बाहर के लोग भी आये।राजन ऐन मौके पर काम निकल आने से ना आ पाये। शशांक ने सीधा आ कर मुझसे हाथ मिलाया ''सुमन बधाई हो आप बहुत बडी क़लाकार हो''।
दूसरे दिन
नाश्ते की मेज पर सब बैठे थे शो की बात चल रही थी।
इतनी सहजता
से उसने मुझे ऊंचा मान लिया था और अपने गुणों को नकार दिया था।
इसी
को कहते हैं 'विद्या
ददाति विनयम '।
राजन
ने मुझे मेरे किसी काम पर सीधे नहीं सराहा था।
राजन
बहुत अच्छा था पर बातों में कहीं यह जता देता था कि वह भी कुछ है।
शशांक
में यह आग्रह नहीं था। मण्डीहाउस में मेरा प्रोग्राम था।घर बाहर बडा आयोजन किया गया था। मेरे सब रिश्तेदार आ रहे थे।राजन औरब् उसके माता पिता भी आ रहे थे। समझा जा रहा था कि प्रोग्राम के बाद मेरा और राजन का औपचारिक रूप से सम्बन्ध तय कर दिया जायेगा।मैने दीदी से शशांक को भी साथ लाने के लिये कहा। मैं दिखा देना चाहती थी कि उसकी कलक्टरी रूपी कुंये के बाहर भी दुनिया है जहां उस से ज्यादा मेरा महत्व है। लेकिन दीदी ने खबर दी कि वह आजकल बहुत व्यस्त है नहीं आ पायेगा। मैं इतनी विचलित हो गयी कि मुझे स्वयं हैरानी हुयी।उसी समय मैने शशांक को फोन लगाया। मैने उसे यहां आने के बाद कभी फोन नहीं किया था। पता चला साहब मीटिंग में हैं।
मैने अधिकार
दिखाते हुये कहा ''उन
से कहो कि सुमन का फोन है''।न
जाने मैं कैसी हठधर्मी पर उतर आयी थी।
पता
नहीं कितनी महत्वपूर्ण मीटिंग है।
उसने
मना कर दिया तो?
पर यह देख कर
मेरा मन खुशी से नाचने लगा कि दीदी जीजा जी के साथ शशांक भी आया था।
सुनीता दीदी बोलीं ''अपनी सुमन बडी भाग्यवान है। घर बैठे रिश्ते आ रहे हैं।यहां आने के पहले मीरा का फोन आया था।शशांक के लिये सुमन की बात कर रहीं थीं।मैने उनको बतलाया कि सुमन का रिश्ता तो पक्का हो गया है''।शशांक की उदासी का सबब समझ में आ गया। मेरा प्रोग्राम बहुत अच्छा हुआ। बडा पसंद किया गया। शो के बाद पार्टी के लिये मेरे मित्र सहेलियां इकठ्ठे हो गये। राजन और शशांक भी साथ में थे। सब लोग एक दूसरे से मिल रहे थे गपशप कर रहे थे। राजन अपनी पोजीशन और काम की शेखी वघार रहे थे।कैसा फैला हुआ उसका प्राजैक्ट था। कितने सारे लोग उसके नीचे काम करते थे। दफ्तर में क्या धाक थी।एक बार उसने सेक्रेटरी को डांट दिया तो रोने लग गयी थी। सब उसकी बात सुन रहे थे। शशांक भी उसकी बातें सुन रहा था। मुझे राजन पर गुस्सा आ रहा था कि क्या अपने मुंह अपनी महिमा बखाने जा रहा है और उससे ज्यादा शशांक पर क्रोध था एक ये है जो पूरे जिले को संभालता है और चुपचाप सुने जा रहा है। ऐसी भी क्या विनयशीलता।
मेरी सहेली
रीता ने शशांक से पूछ लिया
''और
शशांक जी आप क्या करते है?''।
जब मैं घर
पहुंची तो क्रोध कम नहीं हुआ था।
सीधा
शशांक के कमरे में पहुंची जो हमारे यहां ही ठहरा हुआ था। शशांक ने बडे शान्त ठंग से कहा ''उस से क्या होता? मैं तुम्हारा दोस्त बन कर आया हूंक़लैक्टर बन कर नहीं। देखा नहीं तुम्हारे कहने बाद में तुम्हारी सहेलियां खुली नहीं रह पायीं''।बात सही थी।फिर वह धीरे से बोला ''जिनसे दुबारा मिलना नहीं उनसे क्या फरक पडता है।जिस को इम्प्रैस करना चाहता था उस को ही नहीं कर पाया''। इस बार मेरा चेहरा शर्म से लाल हो गया। मैं वहां और न ठहर सकी।
राजन और उसके
माता पिता होटल में ठहरे थे।
दूसरे
दिन हमारे यहां आने बाले थे।
मेरी
हामी के बाद रस्म अदायगी भी कर दी जायेगी।
रिस्तेदार तो जमा थे ही।
मेरी
रजामंदी तो औपचारिकता समझी जा रही थी।मेरी
हां जानने के लिये सुनीता दीदी मेरे पास आयीं।
मेरे ऊपर
नजरें गडाते हुये बोली
''नौकरानी
की तरह या मालकिन की तरह''।
डॉ राम
गुप्ता |
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