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बूबा के होंठ
बिलकुल लाल थे और बूबा को मौत बहुत अच्छी लगती थी। बूबा हमेशा बहुत धीरे
- धीरे मरना
चाहती थी।
जाडे
क़ी कुनमुनी धूप जैसे पूरे बदन पर रेंगती है,
बिलकुल उसी तरह बूबा मौत को छूना चाहती थी।
बहुत
पहले एक तपती दोपहर में एक पतंग के पीछे भागता हुआ मैं बूबा के घर में
घुस आया और बूबा ने मुझे रोक लिया।
मेरे
हाथों में चप्पल,
धूल से सना चेहरा, पसीने
और मिट्टी में डूबा पूरा बदन।
''
इतने
गन्दे - सन्दे घूमते हो,
मां नहीं डांटती?'' बूबा फिर मेरा हाथ पकड क़र खींचती हुई अन्दर ले गई थी। मेरे हाथ - पैर धोकर उसने मुझे न जाने क्या - क्या खिलाया। सीने से लगाये न जाने कितनी देर दुलराती रही और मैं उस तपती दोपहर में अपने अकेले बचपन को हथेली में बन्द किये धीरे धीरे पिघल कर बूबा के अन्दर सिमट गया था। उसके बाद मैं रोज आता रहा। शाम होती और मैं भागता हुआ बूबा के घर पहुंच जाता। बूबा तभी नौकरी से वापस आती हांफती हुई। बाबा की दवा के पैसे बचाने के लिये एक दो मील पैदल चल कर आती वह। बूबा अपना काम करती रहती और मैं कमरे की दहलीज पर चुपचाप बैठा बूबा को देखा करता। बूबा खाना बनाती, कपडे धोती, बिस्तर लगाती, बाबा को खिलाती, दवा देती और फिर सुलाती भी। न जाने कितनी देर हो जाती। कभी - कभी मैं ऊंघने लगता। चौंकता तब जब बूबा हिलाती।
''
सो गया
क्या?''
बूबा वहीं बैठ जाती
''
ऐसा
क्यों होता है। सुख आदमी को छूता हुआ क्यों निकल जाता है। उसे अपने में
समेट कर जम क्यों नहीं जाता,
बर्फ की सिल्ली की तरह।''
जमीन
का वह टुकडा बिलकुल लाल हो जाता था।
गुलमोहर सारी रात बरसते और उसकी पंखुरी - पंखुरी से जैसे वह टुकडा खून से
बीग जाता,
बिलकुल बूबा के होंठों की तरह।
मैं
बूबा का हाथ अपने हाथों में ले लेता।
बिलकुल सूखी झुर्रियों वाला हाथ।
बूबा
के पूरे बदन से उसका हाथ बिलकुल अलग था।
जैसे
किसी बूढी
औरत
की
हथेली काटकर बूबा के हाथों में जोड दी गयी है।
''
हां,
बूबा।''
मैं बूबा की हथेली की नीली नसें चूम लेता।
''
तुम
मेरी इकलौती आस्था हो,
मेरी रक्षिता हो,
मेरी कल्याणी।''
मेरी आवाज क़ांपने लगती। बूबा मेरी निगाहों में तब न जाने कितनी ऊपर उठ
जाती। ज्ञानी,
गंभीर,
ममत्वमयी बूबा। कभी कभी मैं सोचता कि बूबा इतनी चुप क्यों रहती है, क्यों ऐसी बातें करती है, तो मुझे समझ में नहीं आता। एक दिन बूबा ने मुझे बताया था, '' मेरी पूरी देह मुर्दा ख्वाबों से गुंथी है रे, और जब कभी उन ख्वाबों में से कोई ख्वाब करवट लेता है तो मैं बिलकुल चुप हो जाती हूं। कहीं वह ख्वाब जाग न जाये'' बूबा रो पडी थी फिर, और तब मुझे बूबा के पूरे बदन पर मरे हुए सपने फैले दिखाई पडे थे। मुझे लगा था कि बूबा की देह का कोना कोना हर वक्त कोई न कोई लडाई लडता रहता है और उन्हीं मरे हुए सपनों के बीच, कोने - कोने की लडाई के बीच मेरी बूबा बडी होती रही है। उसके बाद मैं ने कभी कुछ नहीं पूछा। मैं जानता था। बूबा किसी जमीन का कोई ऐसा टुकडा चाहती है, जिस पर बूबा अपने पांव रख सके। थकी हुई हांफती बूबा अब और नहीं लडना चाहती और इसलिये जमीन वह टुकडा कभी यमी की स्थिति होती, कभी खलील जिब्रान की दि ब्यूटी ऑफ डेथ और कभी मैं।
बूबा
उस रात सर्दी से कांप रही थी।
''
सुनो''
बूबा बहुत देर बाद बोली। बूबा की आवाज बहुत धीमी थी,
''
मैं
महसूस करना चाहती हूं कि मैं हूं।''
बूबा सीधे मेरी आंखों में देख रही थी।
एक
ऐसी औरत जो हमेशा से बूबा के अन्दर थी,
बूबा के साथ बडी होती रही,
लेकिन बूबा ने उसे कभी अपने से बाहर झांकने नहीं दिया।
वह
औरत धीरे धीरे बूबा के जिस्म की एक एक नस में फैल गयी थी और आज वही औरत
जब बाहर निकलना चाह रही थी तो बूबा की एक एक पर्त एक एक नस चटक रही थी।
बहुत
पहले मैं ने पूछा था बूबा से कि यम ने क्या किया बूबा ने कहा था,
उसका कोई महत्व नहीं है।
महत्व है जीवनदृष्टि का,
मूल्यों का और मैं ने फिर पूछा था बूबा से कि मूल्यों
के लिये तुम जिस तरह से सोचती हो, उतना मुक्त
होकर उनको जी सकती हो? ''बूबा'' मैं कुछ कहना चाहता था। लेकिन अचानक ही बूबा की आंखों में, होंठों पर, सैकडों मरे सपने करवट बदलने लगे। बूबा की हांफती सांसों को किसी ज़मीन का एक टुकडा चाहिये था, जिस पर रुककर बूबा कुछ गहरी सांसें ले सके। मैं सिर्फ बुदबुदा कर रह गया। और मैं, सिर्फ एक आदमी, बूबा के, सिर्फ एक औरत के सीने पर हांफता हुआ गिर पडा।
सुबह
जब मैं गया तो बहुत सन्नाटा था।
बाबा
कमरे में सो रहे थे।
कमरे
की दहलीज पर धूप का एक टुकडा रेंग रहा था।
बूबा
कहीं नहीं दिखी।
मैं
वहीं एक कोने में बैठ गया।
कुछ
देर में बूबा बाथरूम से निकली।
वही
पुरानी उदासी से कढी
आंखें।
सूजी
हुईं।
सारी
रात रोई थी शायद बूबा।
होंठ
भी कुछ छिले हुए और सूज रहे थे।
मुझे
देखते ही बूबा चौंक गयी।
मेरी
आंखें झुक गयीं।
मैं
फूट - फूट कर रो पडा।
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