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कम्बोज की पद्मिनी
आज का कम्बोडिया पहले कम्बोज या कम्पूचिया के नाम से जाना जाता था जिसके भारत से सीधे गहरे सम्बन्ध थे।
ईसा के पूर्व भारत की सभ्यता पूर्णतया विकसित थी। जीसस क्राइस्ट के काल में ही भारत से एक प्रतिभाशाली ब्राह्मण कौडिण्य ने मीकॉग के तट पर पर्दापण किया। शीघ्र ही उनके गुण बुद्धि चातुर्य और रूप की ख्याति सारे देश में फैल गयी। उन्होंने राज्य का विश्वास जीतने के साथ ही राजकुमारी की प्रीति भी प्राप्त की। राजकुमारी सोमा और कौडिण्य के प्रणय बंधन से जो वंशावली चली उसने महान अंकोर सम्राज्य की नींव डाली। कहते हैं कौडिण्य के नाम के अपभ्रांश रूप में देश का नाम पडा।
धार्मिक़ बौद्धिक़ कला सांस्कृतिक और व्यावसायिक हर दृष्टि से अंकोर राज का भारत से सम्पूर्ण सामंजस्य था। चंदेलों की भॉति अंकोर महाराजाओं की पदवी वर्मन थी। वह विष्णु उपासक थे। चंदेलों की तरह ही अंकोर सम्राटों ने अदभुत मंदिरों की स्थापना की जो वाट के नाम से विख्यात हैं। ये वास्तुकला के बेमिसाल नमूने संसार के आश्चर्यों में सामिल हैं। अंकोर सभ्यता काल के गर्त में विस्मृत हो गयी है। विशाल वाट श्रखलायें जंगलों में समा गयी हैं।
देश की राजधानी ईसानपुर इन्द्रप्रस्ध के नाम से जानी जाती थी। ईसानपुर शिक्षा का केन्द्र था। दूर दूर से शिक्षार्थी और विद्वान ईसानपुर आते थे। बात उन्हीं दिनों की है। समय काल था बारहवीं शतार्ब्दी सूर्यवर्मन द्वितीय का राजकाल। भारत में मुहम्मद गौरी के हमले हो रहे थे। कम्बोज का वैभव उतार पर था। इन्द्र भगवान भी रूठ गये थे। दीर्घकाल से वर्षा नहीं हुयी थी। देश में दुर्भिक्ष फैल गया। राजकोष खाली हो गया। समय पर वेतन भुगतान के भी लाले पड़ने लगे। जब कभी भी नील श्रेष्ठी के कोष से धन आता जिसकी राजकोष बृद्धि पर पूर्ति कर दी जाती।
नील श्रेष्ठी धन कुबेर थे अथाह धन धान्य से परपूरित। सारे देश में और विदेशों मैं उनका मणि माणिक्य से ले कर द्रव्य बूटियों का काम फैला हुआ था। उनका गृह राजप्रसाद से टक्कर लेता था। विस्तृत पाट बाली मीकॉग नदी के तट से ऊंचायी तक सीढियॉ एक विशाल चौक तक जातीं थीं जिसके पीछे धवल पाषाण का भव्य राज भवन फैला हुआ था। नील श्रेष्ढी की उच्च अट्टालिका नगर के मध्य में राजमार्ग थी जिसके आगे भी एक विशाल चौक था। उनका गृह राज भवन से तो सीमित था पर वास्तुकला में अपनी विशिष्टता लिये हुये था।
नील श्रेष्ढी एक आचार विचार बाले सीधे ढंग से रहने बाले व्यक्ति थे। उनके एक ही कन्या थी। उसने पिता की सरलता पायी थी और मॉ का रूप। लम्बी कृष कंचन सी काया बल्लरी सी देह और अरूणोदय पर खिले कमर्लकुसुुम सी मुर्खछबि। अपने रूप दर्प और पिता के धनमान से अछूती सोमावीरा के हावभाव बोल चाल में एक अपना ही लुभावना ओज था एक आत्मविश्वास जो उसकी ओर बॉध लेता था। सहज चाल में अपना ही अंदाज और गुरूत्व।
रूप और वैभर्व सोमावीरा में वह सब कुछ था जिसकी एक श्रेष्ठ पुरूष कामना कर सकता है। नील श्रेष्ठी ने उसका वाग्दान कर रखा था। राज सम्मानित कम्बोज देश के जाने माने एक श्रेष्ठी के पुत्र रूद्रक से एक समारोह में मिले तो बेहद प्रभावित हुये। रूद्रक सुदर्शन युवक था जो अपने पिता के काम को नया रूप दे रहा था। सोमावीरा को भी वह पसंद आया। अकेले तो नहीं पर तीज त्योहार पर आयोजनों में वह मिलते रहते थे।
वैसे तो ईसानपुर शिक्षा और कला का केन्द्र बना हुआ था पर सम्बोरप्री का विशेष स्थान था जहॉ दक्षिणपूर्व एशिया भर से ऊंचे कुल और राज घराने के युवक युवतियॉ पढने आते थे। कम्बोज राजकुमारी चारूलता भी यहीं पढती थी। उसका बड़ा मान सम्मान था जिसका उसको भी वोध था। जहॉ जाती संग सहेलियों का एक झुण्ड साथ चलता। विद्यालय के उत्सव समारोहों में उसको ऊंचा स्थान दिया जाता।
नया सत्र शुरू हुआ तो सोमावीरा ने सम्बोरप्री में प्रवेश लिया। विद्यालय में हलचल मच गयी। अभी तक तो एक राजसी अश्वरथ मुख्य द्वार के बाहर खड़ा रहता था अब उसके मुकाबले का दूसरा भी आ खड़ा हुआ। नील श्रेष्ठी की प्रभुता जिन से विद्यालय को बड़ा अनुदान प्राप्त होता था और उसका अद्वितीय रूप सोमावीरा की अपनी पहिचान बन गयी। राजकुमारी चारूलता को अपना एक मात्र प्रभुत्व छिनता दिखा। ऊपर से उसकी सहेलियों ने आग में घी का काम किया। राजकुमारी के मन में सोमावीरा के प्रति कटुता भर गयी। राजकुमारी की भॉति वहुत सारी लड़कियॉ सोमावीरा के ईदगिर्द आने में जुट गयीं। पर सोमावीरा सरल स्वभाव की थी। सबसे मृदुल व्यवहार रखा। अपना कोई गुट नहीं बनाया।



विद्यालय में बसंत पंचमी पर विद्यादायनी वीणावादिनी मॉ सरस्वती जन्मदिवस का भव्य आयोजन होता था। महाराज से ले कर देश भर के गण्यमान अतिथि और कलाकार आमंत्रित होते थे। सारे दिन सांस्कृतिक कार्यक्रम होते थे। इस बार भी जन्मदिन धूमधाम से मनाया गया। रंगमंच के एक ओर अतिथि मंच और दूसरी ओर संकाय मंच थे। बाकी तीनों तरफ चार स्तर पर मचान लगे थे। सामने सबसे ऊपर के मचान पर एक विशेष जगह बना दी गयी थी जिस पर राजकुमारी और उनको घेर कर नीचे मचानों पर उनकी मंडली बैठती थी। सब के मन में मुख्य मंच को ले कर उत्सुकता थी। वहॉ कौन बैठेगा राजकुमारी या सोमावीरा
?

राजकुमारी के मन में उनकी सहेलियों ने शंका डाल दी थी। राजकुमारी और उनके गुट ने समय के पहले ही आसन ले लिया।
देखते ही देखते रंगशाला भर गयी।
सोमावीरा ने अकेले ही प्रवेश किया। जैसे ताजा हवा का झौंका अन्दर आया हो। बसंती पीत वसन में उसकी पीत कान्ति की झांई एक द्विति हो रहे थे। सोमावीरा ने सब ओर देखा। उसके लिये ऊंचे मचान पर एक जगह थी। पर वह अपनी मंथर गति से चलती हुयी राजकुमारी के आगे जा पहुची। थोड़ा झुक कर नम्रता से कहा
``राजकुमारी चारूलता को नील पुत्री सोमा का प्रणाम''
और उनके सामने ही नीचे के मचान पर बैठ गयी। राजकुमारी ने हाथ बढा कर उसको अपनी बगल में बैठा लिया। उनकी सरी कटुता गल गयी थी। तब से सोमावीरा और राजकुमारी अभिन्न मित्र बन गयीं। हर जगह एक साथ देखी जातीं।



मीकॉग के दूसरे तट पर ऊंचे ऊंचे देवदार के पेड़ लगे थे। झर झर की आवाज से हवा में झूलते देवदार ऐसे लगते से जैसे बादलों से कानाफूसी कर रहे हों। दूर तक विस्तृत जल का फैलाव था। सुदूर से आते जलपोत हंस से लगते थे। राजभवन के उद्यान से ये सब मनोरम द्र्रृश्य पेश करते थे।
सुबह का समय था। सोमावीरा और राजकुमारी परिचारिकाओं के साथ उद्यान में थीं। मंद मंद वयार में झूमते देवदार और उनकी हिलती डुलती परछाइं से सम्मोहित सोमावीरा उद्यान के आगे तक चली आयी। सामने से आती एक नाव पर ऑखें अटक गयी। विशाल कोतिब श्रेणी की यह नाव बनावट में भिन्न थी। अग्रभाग प्रत्यंचा सा खिचा हुआ जिस पर कलात्मक शिल्पकारी की हुयी। स्तंभ पर चमकते ताम्रपट का चिन्ह कम्बोज देश का तो नहीं था।
देखते देखते वह नाव तट पर आ लगी। नाविकों ने आनन फानन में लंगर डाल दिया। छलांग लगा कर एक नवयुवक तट अधिकारी के पास कुछ समय के लिये रूका फिर लम्बे डग भरते हुये उद्यान की ओर बढा। उससे भी आगे उसकी लम्बी परछाइंर् देवदार की परछाइंर् से कभी अलग होती कभी एकाकार हो जाती। जैसे जैसे वह नजदीक आता जा रहा था उसकी लम्बी कदकाठी सुन्दर आकृति और बहुमूल्य वस्त्राभूषण स्पष्ठ होते जा रहे थे। वह उद्यान की ओर ही बढ रहा था।
वह सोमावीरा के आगे जा खड़ा हुआ तो सोमावीरा चौंकी। युवक ने विनीत स्वर में कहा
``राजकुमारी जी को कावेरीपटनम के बालाजी पुत्र भुवन विक्रम का प्रणाम''।
सोमावीरा जब तक कुछ समझे युवक ने एक भेंट मंजूषा उसके यंत्रचलित से हाथों में पकड़ा दी।
उसको इस ओर बढता देख कर एक परिचारिका राजकुमारी को सूचित करने गयी थी उसने आ कर कहा
``आप राजकुमारी से भेंट कर सकते हैं''।
युवक की मुद्रा देखने लायक थी। वह भौंचक सा परिचारिका की ओर देखने लगा।
सोमावीरा उन्मुक्त हो हंस पड़ी जैसे जल तरंग बजे हों। युवक परिचारिका के पीछे जाने लगा तो सोमावीरा ने उपालम्भ किया
``और अपना ये राजकुमारी का उपहार नहीं ले जायेंग
?''
युवक ने जल्दी से मंजूषा थामी और उस ओर बढ गया।
सोमावीरा की हॅसी गूंजती रही।

उसी संध्या भुवन विक्रम नील श्रेष्ठी से मिलने उनके गृह गया। परिचय की औपचारिकता पूरी भी नहीं हुयी थी कि सोमावीरा वहॉ अचानक आ पहुॅची। भुवन विक्रम विश्मित हो उसे देखता ही रह गया।
सोमावीरा ने उसे टोका
``राजकुमारी को प्रणाम नहीं करोगे
?''
पिता के चेहरे के भाव देख कर वह हॅसती हुयी बोली
``पिता श्री आज सुबह यह मुझे राजकुमारी समझ बैठे थे''।
नील श्रेष्ठी हॅस पड़े।
वह फिर बोली
``और राजकुमारी का उपहार
?''
अल्पभाषी सोमावीरा भुवन विक्रम को छकाने के लिये मुखरा हो उठी थी।
भुवन विक्रम संकुचित हो उठा। फिर अपने को सहज कर उसने नाव की बीथिका के शुभारंभ के लिये नील श्रेष्ठी से अनुरोध किया।
सोमावीरा से भी आग्रह किया। सोमावीरा अलग से आने के लिये राजी हो गयी।



जैसे ही सोमावीरा पहुंची भुवन विक्रम दौड़ा हुआ आया जैसे वह उसके लिये प्रतीक्षारत था। झुक कर बोला
``राजकुमारी जी को भुवन विक्रम का प्रणाम''।
सोमावीरा संकुचित हो उठी, उसने धीरे से कहा
``अब उस बात को जाने दीजिये''।
पर भुवन विक्रम अड़ा रहा
``आप मेरे लिये हमेशा राजकुमारी ही रहेंगीं। ये आपकी दो भैंटें जो मेरे ऊपर कर्ज थीं''।
उसने दो रत्नजणित मंजूषायें आगे बढा दीं।
भुवन विक्रम पूरे समय उसके साथ रहा बड़े यत्न और लगन से संग्रह दिखलाया।
उसने इत्र और श्रंगार के भाग का शुभारंभ सोमावीरा से करने का अनुरोध किया।
सोमावीरा सकपका गयी ``ये कैसे हो सकता है
?''
भुवन विक्रम ने अनुनय की ``यह अभूतपूर्व होगा मेरे लिये सुखदायी''।
प्रचारित न करने पर भी सोमावीरा द्वारा शुभारंभ की बात फैल गर्यी सर्वथा नवीन और कौतुकभरी। युवावर्ग को बहुत आकर्षक और रूचिकर लगी। उनकी भीड़ जमा होने लगी।
नाव बहुमूल्य पदार्थों से अटी पड़ी थी। सोमावीरा को नाव की बीथिका और बास्तुकला बहुत पसंद आयी। वह आये दिन आने लगी। पहले सहेलियों के साथ फिर अकेली।
खबर पाते ही भुवन विक्रम सब कुछ छोड़ दौड़ा हुआ आकर अभ्यर्थना करता
``राजकुमारी को प्रणाम''।
भेंट पेश करता जो सोमावीरा स्वीकार नहीं करती। सोमावीरा जैसे जैसे उसको ज्यादा जानने समझने लगी वह उसको भाता गया।
उनकी मुलाकात रोज के मिलने में परिवर्तित हो गयी। कभी वह गृह की वाटिका में मिलते कभी नाव पर और कभी मीकॉग के किनारे घूमने निकल जाते।
जब तक नहीं मिलते भुवन विक्रम को चैन ही नहीं पड़ता था। सोमावीरा सारा दिन इन्तजार करती रहती थी। भुवन विक्रम की बातों पर उसकी घंटियों सी हॅसी विखरती रहती।
कब यह प्रणय में बदल गया इसका सोमावीरा को लेशमात्र भी बोध नहीं हुआ।
फैलते फैलते बात रूद्रक के पिता के कानों में भी पड़ी। उन्होने नील श्रेष्ठी से जिज्ञासा की तो उन्होंने राजकुमारी बाली बात कह कर हॅसी में टाल दिया।
भुवन विक्रम का व्यापार बहुत सफल रहा। उसने प्रचुर धन अर्जित किया जिसका श्रेय वह सोमावीरा को देता था, कहता
``सोमा उसकी भाग्यश्री है''।
दिन जाते समय नहीं लगता। भुवन विक्रम की बापिसी का समय आ गया। प्रस्थान की पूर्व संध्या को उसने मन की बात उजागर करदी।
उसने सोमावीरा के हाथ थाम कर अनुराग से कहा
``सोमा प्रिया तुम्हारे बिना मेरा रहना संभव नहीं। मैं पूज्य नील श्रेष्ठी से विनय करने आउंगा''।
सोमावीरा ने झट से हाथ छुड़ा लिये। कुछ रोष के साथ बोली
``तुम ऐसा सोच भी कैसे सकते हो। तुम्हें पता है मैं वाग्दत्ता हूं''।
और वह वहॉ से भाग ली।



सोमावीरा घर आ कर शैया पर गिर कर रोती रही। दूसरे दिन जाने के पहले भुवन विक्रम उससे मिलने आर्या हारा थका टूटा हुआ सा। परिचारिका के द्वारा उसने मिलने से मना कर दिया। बस वह रोये जा रही थी।
संध्या वंदना के बाद नील श्रेष्ठी ने अपनी पत्नि से पूछा
``पुत्री कहॉ है सुबह भी नहीं दिखायी दी''।
वह उठने लगीं तो एक परिचारिका ने धीरे से बतलाया
``श्री तो कल शाम से रोये जा रहीं हैं। ना कुछ खाया है ना पिया है ना कुछ कहतीं हैं। बस रोये जा रहीं हैं''।
प्राण प्रिय बेटी की दशा सुनकर नील श्रेय्ठी को अपार कष्ट हुआ। उन्होने वेदना से कहा
``अभी तक किसी ने बताया नहीं। जल्दी से वैद्यराज को खबर करो''।
इसी बीच सोमावीरा की निजी परिचारिका जो उसकी अन्तरंग थी गृहस्वामिनी के कान में कुछ फुसफुसा कर कह गयी। उन्होने श्रेष्ठी को जा बताया।
नील श्रेष्ठी की भौह में बल पड़ गये। उन्होने आदेश दिया
``अभी वह दूर न जाने पाया होगा तुरत उसकी नाव घेर लो। उसको यहॉ ले आओ। मैं राजाज्ञा के लिये महाराज के पास जाता हूं''।
नील श्रेष्ठी के महाराजा के यहॉ से बापिस आते ही सोमावीरा भागी हुयी आयी। उसकी ऑखें सूज गयीं थीं शरीर पीला पड़ गया था।
वह रोते रोते बोली
``पिता श्री सुना है आपने भुवन को बॉध कर लाने का आदेश दिया है''।
नील श्रेष्ठी ने गंभीरता से कहा
``हॉ वह चोरी करके भागा है''।
सोमावीरा ने बड़ी दयनीयता से कहा
``पिता श्री उनको छोड़ दीजिये वह चोरी नहीं कर सकते हैं''।
नील श्रेष्ठी ने उसी स्वर में पूछा
``तुम कैसे जानती हो वह चोरी नहीं कर सकता
? जरूर कर सकता है''।
सोमावीरा ने नील श्रेष्ठी के का सहारा लेते हुये बिलखते हुये कहा
`` क्यों कि मैं उनको प्यार करती हूं। वह चोरी नहीं कर सकते। उनको छोड़ दीजिये''।
और वह अचेत हो गयी।



जब सोमावीरा को चेत हुआ तो वह बड़े कक्ष में ही एक ओर शैया पर पड़ी थी। नील श्रेष्ठी, माता वैद्य जी और परिचारिकायें नौकर चाकर मौजूद थे।
एक सुरक्षाकर्मी ने खबर दी
``भुवन विक्रम को पकड़ के लाया गया है''।
नील श्रेष्ठी बोले
``उसको यहीं ले आओ''।
सोमावीरा वहॉ से उठ कर जाने को उद्यत हुयी। परिचारिका ने नील श्रेष्ठी के इशारे पर उसको उठने नहीं दिया।
भुवन विक्रम को दो सुरक्षाकर्मी पकड़े हुये ले आये।
सोमावीरा उस ओर देखा। भुवन विक्रम को लगा जैसे एक दिन में ही वह महीनों की बीमार र्हो पीला चेहरा सूखी ऑखें मलिन काया।
उसने बड़ी कातरता से भुवन विक्रम को देखा और करबट बदल ली।
भुवन विक्रम ने झुक कर नील श्रेष्ठी के प्रणाम किया
``श्रीमन्त के सुरक्षाकर्मी पता नहीं क्या जान कर मुझे पकड़ लाये हैं
?''
नील श्रेष्ठी ने गंभीरता से कहा
``तुम चोरी कर के भागे हो''।
भुवन विक्रम ने आश्चर्य से कहा
``मैने चोरी ...।। भला मैं आपकी चोरी क्यों करूंगा
?''
नील श्रेष्ठी ने जोर देकर कहा
``की है जरूर की है। तुमने मेरी बेटी का दिल चुराया है और उसको रोती छोड़ कर भाग खड़े हुये हो''।
सोमावीरा ने फिर से दृष्टि इस ओर की। उसकी ऑखें हर्ष से छलक उठी थीं। चेहरे पर लाली आ गयी थी।
भुवन विक्रम से कुछ कहते न बना।
नील श्रेष्ठी ने आगे कहा
``तुम्हारे लिये सजा सोमा तय करेगी। तुम्हारे पिता श्री को सूचना भेज दी गयी है उनके आते ही तुम को सजा दी जायेगी''।
न जाने कहॉ से सोमावीरा में स्फूर्ति आ गयी। छलॉग लगा कर वह नील श्रेष्ठी के कंधे आ लगी। मुंह से केबल इतना निकला
``पिता श्री''।
 

डॉ. राम गुप्ता
जनवरी 1, 2006


 

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