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स्वार्थ
रोज की तरह आज भी रमेश बाबू अपने पोते को अपनी यादों के पालने में झुला रहे थेसूरज अपनी रोशनी चांद को दे चुका था और चांद रमेश बाबू की बातों में दिलचस्पी लेता हुआ थोडा नीचे झुक आया था
''राहुल बेटा, तुझे पता है हमें आजादी
यूं ही नहीं मिली हैइसके लिए हम लोगों ने अत्यंत कष्ट सहे हैं, तब जाकर ये गुलामी की जंज़ीरें टूट पाई हैं'' रमेश बाबू ने उत्साह पूर्वक कहा
''अच्छाऊं दादाजी आप भी तो''
''हां बेटा, मैं भी अंग्रेजी सत्ता के खिलाफ लडा और जेल तक गया
क्या बच्चा, क्या बूढा, क्या जवान सब अंग्रेजी राज के विरूध्द एक साथ लामबंद थेस्वार्थ की काली छाया किसी भारतवासी को छू तक नहीं गयी थीहर काम में सेवा भाव था'' रमेश बाबू ने गर्व से बताया

''ये स्वार्थ की काली छाया क्या होती है, दादाजी? '' राहुल ने उत्सुकतावश पूछा।
इसी बीच बादल के एक टुकडे ने चांद को छिपा लिया था।

''स्वार्थ स्वार्थ'' ये शब्द बडबडाते हुए रमेश बाबू इस भोले प्रश्न का उत्तर देने में सफल न हो सके।

क्योंकि पिछले पन्द्रह वर्षों से इस 'ओल्ड एज होम' में वो शायद इसी प्रश्न का उत्तर तो तलाश रहे हैं।

प्रबुध्द जैन
मार्च 15, 2005

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