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मुलाक़ात

" तुम आ रहे हो न?"

" हाँ बाबा, आ रहा हूँ , चिन्ता नहीं करो"

" ठीक है, मैं राह देखूँगी। पर तुम्हें पहचानूँगी कैसे?"

" मैंने तुम्हारी तस्वीर देखी है, भरोसा रखो, मैं तुम्हें पहचान लूँगा। और फिर तुमने भी तो देखी है मेरी तस्वीर..."

" उम्म्म, ठीक है..."

एयरपोर्ट पर प्रतीक्षा की नज़रें ढूँढ रही थी सुधीर को। सुधीर को उसने कभी देखा नहीं था। कोई एक साल तक लगातार बातें की थी उसने सुधीर से। आज की तकनीकी दुनिया में कम्प्यूटर पर और फ़ोन पर बात कर के एक इन्सान को कुछ हद तक जाना तो जा सकता है मगर कभी मिलने का मौक़ा नहीं मिला था सुधीर से। इन्टरनेट के माध्यम से ही मुलाक़ात हुई थी दोनों की। पहचान बढ़ते बढ़ते दोस्ती तक जा पहुँची थी। आज प्रतीक्षा मुंबई जा रही थी। उसके बचपन की सहेली की शादी थी। सुधीर को एयरपोर्ट पर आने को कहा था उसने। हमेशा दोनों के मिलने की चाह को पूरा करने का ये मौक़ा संयोगवश मिल गया था उन दोनों को।

एयरपोर्ट पर जब सुधीर को तलाशती प्रतीक्षा की निगाहें जवाब दे चुकी तो उसने उसके मोबाइल पर फ़ोन मिलाया। " कहाँ हो?" " "मैं यहीं हूँ, तुम कहाँ हो?" " मैं भी यहीं हूँ, सामान ले रही हूँ, अभी बाहर आती हूँ।"

गाड़ी में बैठ कर प्रतीक्षा रोक नहीं पाई खुद को पूछने से, " क्या मैं तस्वीर से अलग दिखती हूँ?"

" नहीं, बिल्कुल वैसी ही तो हो।"

" अच्छा क्या तुम मुझे सीधे घर छोड़ रहे हो?"

" कहो, कहाँ जाना है।"

" काफ़ी ले लेते हैं।"

"ठीक है।"

काफ़ी की दुकान में काफ़ी भीड़ थी। काफ़ी ले कर प्रतीक्षा सुधीर के पीछे पीछे बाहर आ गयी। पार्किंग लाट में खड़ी गाड़ी में सुधीर के पास सामने वाली सीट पर बैठी प्रतीक्षा ने अपनी काफ़ी के कप से एक चुस्की लगाई। सुधीर ने अपनी काफ़ी की तरफ़ एकटक देखते हुये कहा," और सुनाओ, क्या चल रहा है।"

" बस ठीक।"

" इससे ज़्यादा बातें तो तुम फ़ोन पर करती हो।"

" उम्म्म, हाँ, शायद फ़ोन पर अपने होने का अहसास दिलाना होता है, इसलिये। यहाँ ऐसा नहीं है"

" हाँ, शायद। चलो एक जगह ले चलता हूँ, जल्दी तो नहीं है?"

" कहाँ? नहीं, जल्दी नहीं है।"

सुनसान से पार्क में प्रतीक्षा सुधीर के पास एक बेंच पर बैठी सुंदर शाम को ढलते देख रही थी। अचानक सुधीर की आवाज़ ने उसकी तंद्रा तोड़ी।

" तुम अच्छी लड़की हो प्रतीक्षा"

" तुम भी तो अच्छे हो", एक हल्की मुस्कुराहट के साथ बस इतना ही कह पाई प्रतीक्षा।

" अगर ये कहूँ कि मुझे तुमसे आकर्षण सा हो रहा है तो ग़लत नहीं होगा।"

" उम्म्म"

"मुझे तुममें सबसे अच्छी बात तुम्हारी फ़ेमिनिटी लगती है। तुम बहुत फ़ेमिनिन हो"

"वो तो सभी लड़कियाँ होती हैं, है न?"

"हाँ, सभी होती हैं, मगर कोई ज़्यादा, कोई कम"

"उम्म्म"

"अच्छा, चलो चलें। देर हो जायेगी अब तुम्हें"

" हाँ, चलो"

पार्क के ऊँचे नीचे रास्तों पर से चलते हुये अचानक प्रतीक्षा का हाथ पकड़ लिया सुधीर ने। शरीर में उठे उस कँपकँपी को नज़रअंदाज़ करने की कोशिश करने के बीच उसने सुधीर को कहते सुना," चलो हाथ पकड़ कर ले चलता हूँ।" प्रतीक्षा थोड़ी देर कुछ कह नहीं पाई मगर फिर धीमी आवाज़ में ख़ुद को कहते सुना," हम दोनो के बीच कोई अनकहा संबंध है, हाथ नहीं पकड़ो।"

"ठीक है बाबा, जैसा तुम कहो।"

शादी के झमेलों के बीच भी प्रतीक्षा ने कई बार सुधीर को फ़ोन करने की कोशिश की मगर हर बार फोन सुधीर के जवाबयंत्र पर जाता। एक दो संदेश छोडे प्रतीक्षा ने मगर कोई जवाब नहीं आया। उसकी सहेली की शादी धूमधाम से हो गयी। शादी के दो दिन बाद का प्लेन पकड़ना था प्रतीक्षा को। रात को सबके साथ बैठ कर एक सिनेमा देखते हुये अचानक अपने कमरे में बज रही अपने मोबाइल फ़ोन की तेज़ घंटी प्रतीक्षा के कानों तक पहुँची। भाग कर फ़ोन उठाया प्रतीक्षा ने और सुधीर की आवाज़ सुन कर एक बार फिर कँपकँपी सी दौड़ गयी उसके जिस्म में।

" और क्या हो रहा है?"

" कुछ नहीं, सिनेमा देख रही थी"

"अच्छा, कौन सी? "

"अंग्रेज़ी"

"अच्छा, और कैसी हो?"

"ठीक हूँ, हाँफ़ रही हूँ, दौड़ कर आई हूँ। पता, कमरे का दरवाज़ा बंद कर के बात कर रही हूँ तुमसे, कोई क्या सोचेगा"

" अरे! क्या सोचेगा, कुछ नहीं। तुम बहुत ज़्यादा सोचती हो"

" चलो कुछ भी सोचे, आइ डोंट केयर"

"क्या हो गया है तुम्हें, प्रतीक्षा?"

"पता नहीं सुधीर, कुछ महसूस कर रही हूँ"

"अच्छा, और मुझे नहीं बताओगी"

"क्या"

"यही जो महसूस कर रही हो"

"मगर मैं ऐसा महसूस नहीं करना चाहती"

"अच्छा? चलो ज़्यादा सोचो नहीं। ऐसा होता है, ये कुछ नहीं है। सिर्फ़ नई नई मुलाकात है इसलिये। तुम ठीक हो"

"हाँ, ऐसा ही होगा शायद"

प्रतीक्षा अचानक धीरे से कह उठी," सुनो"

"हाँ"

"तुम कल आ जाओ, तुम्हें लंच करवाती हूँ, कहीं बाहर"

"ठीक है, कल लेने आ जाउँगा तुम्हें"

"ठीक है, बारह बजे आ जाना, मैं इंतज़ार करूँगी"

"ठीक है फिर, कल मिलते हैं"

"ओके, बाय"

रात पास सोये चांदनी ने कब बिस्तर छोडा और कब भोर की किरण आ पड़ी प्रतीक्षा के सिरहाने, उसे पता नहीं चला। दोपहर के बारह बजे सुधीर गाड़ी ले कर हाज़िर था। गाड़ी में बैठ कर प्रतीक्षा ने कहा," कापर चिमनी चलें?"

"नहीं, ऐसा करते हैं, कुछ ले लेते हैं और उसी पार्क में चलते हैं। वहीं खा लेंगे, ज़्यादा भूख तो नहीं है?

"नहीं"

"ठीक है फिर"

दोपहर के सन्नाटे में पार्क के एक कोने में गाड़ी खड़ी कर सुधीर ने कहा," हाँ अब कहो"

"कुछ नहीं, क्या कहूँ"

"'तुम्हें पता है, प्यार ऐसे नहीं होता। हम सोचते हैं ग़लती से कि ये प्यार है, पर ये सिर्फ़ आकर्षण होता है, शारीरिक आकर्षण"

"क्या पता शायद होता हो, मगर मुझे ऐसा नहीं लगता, मुहब्बत तो कभी भी हो सकती है"

"हाँ, औरतें ऐसा सोच लेती हैं जल्दी, मगर आदमी ऐसा नहीं सोचते, आकर्षण और प्यार में फ़र्क करना जानते हैं।"

"उम्म्म, अच्छा। पता नहीं, कभी इतना सोचा नहीं इस बारे में। खै़र, तुम्हारा हाथ दिखाओ" प्रतीक्षा सुधीर के हाथ को अपने हाथ में ले कर देखने लगी, फिर हँस उठी " तुम्हारा हाथ है कि हथौडा, बाप रे कितना बड़ा है, मेरा देखो, तुम्हारे हाथ के सामने कितना छोटा सा है"

"हाँ, ऐसा ही होता है" सुधीर की मुस्कराहट को नज़रअंदाज़ नहीं कर पाई प्रतीक्षा।

कब प्रतीक्षा का हाथ सुधीर के हाथ मॆं ही रह गया, प्रतीक्षा को ख़बर नहीं हुई। सुधीर को कहते सुना उसने बार बार," नहीं...भले ही मुश्किल है खुद को रोकना मगर मैं नहीं चाहता कि हम बाद में पछतायें। और फिर ये प्यार नही है। छलावा, ये सिर्फ़ छलावा है"

प्रतीक्षा ने धीरे से सुधीर के बोलते होठों को छू लिया। और फिर एक पल को उसने सुधीर के उँगलियों की छुअन अपने होठों पर महसूस की मगर दूसरे ही पल सब कुछ सामान्य था।

अचानक ख़ामोशी को तोड़ती सुधीर की आवाज़ प्रतीक्षा के कानों में पड़ी," चलो चल कर कुछ खा लें, फिर तुम्हें घर छोड़ दूँगा"

घर के पास गाड़ी से उतरते समय प्रतीक्षा सुधीर को बस इतना ही कह पाई," धन्यवाद सुधीर, मेरा खयाल रखने के लिये। दिल्ली पहुँच कर मुझे अपने पति का सामना करने योग्य छोड़ने के लिये। ये दिन मुझे हमेशा याद रहेगा। शुक्रिया।"

सुधीर ने मुस्करा कर अपनी गाड़ी में चाभी लगायी, और हवा में हल्के से हाथ हिला कर सर्राटे से चल दिया।

 

मानसी
जुलाई 1 , 2006

 

 

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