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सपनों का भंवर

कृष्ण पक्ष की अंथेरी रात और भादो का महीना। कंचनपुर गाँव में झम-झम बरसता पानी, बादलों की गरगराहट और बिजली का गुल हो जाना।तेज चलती आंधियाँ रात को भयावह बना रही थी।सभी लोग अपने-अपने घरो मे दुबके पड़े थे और बच्चे अपने माँ के आँचल के नीचे। रधिया काकी ने खिड़की से आसमान की ओर झाँककर देखा तो ऐसा प्रतीत हुआ मानो बड़े-बड़े काले बादलों का समूह भड़भड़ाकर उस पर गिर पड़ेंगे। प्रकृति का ऐसा विकराल रूप देखकर उसने पतोहू को पुकारा और दोनो कोठरी में दुबक के बैठ गई।तभी उसे यादों के बवंडर ने आ घेरा और देह मे झुरझुरी सी दौड़ गई।
रधु जब दो साल का था तभी उसके पिता परलोक सिधार गए। रधु उनका इकलौता बेटा था।उसकी उम्र धीरे-धीरे पढ़ने की हो चली थी। घर में कुछ ऐसा न था जिससे कि उसकी पढ़ाई सुचारू रूप से चल सके।उसे पढ़ाने के लिए उसकी माँ ने जाने कितने जतन किए।मजदूरी करके धीरे-धीरे पैसा जमा कर उसने एक गाय खरीदी।गाय को चराकर घर वापस आती, दूध दुहती व उसके सारे दूध को बेच डालती।उपले थापती और उसे सुखा कर बाजार में बेच आती। इससे जो आमदनी होती उसे वह सिर्फ रघु की पढाई़ के लिए रखती और अपना गुजारा जैसे-तैसे चला लेती।रोज़ जलावन के लिए लकडियां बीनती और वापस आकर चूल्हे के आगे उकडू बैठकर तल्ख कसैले धुंए में खाना बनाती और रघु को खिलाती फिर खुद खाती और सो जाती क्योकि उसे अहले-सुबह उठकर कामों मे लगना होता था।यही उसकी दिनचर्या हो गयी थी।एक ही कमरे मे उसका पूरा संसार समाया था।एक कोने मे गाय और उसका गोबड़। एक ओर बिस्तर दूसरी तरफ़ चूल्हा तथा एक तरफ जलावन के लिए झाड़ियों का बोझा। रघु बड़ा होने लगा था।अब वह विद्यालय से िश्विववद्यालय जाने लगा था।रधिया काकी भी अब बूढ़ी हो चली थी।उसने अपने बेटे से बोला, देखो मैं अब बूढ़ी हो चली हूँ।अब मुझसे ज्यादा काम नहीं होता। आज भी शादी के लिए अगुआ आए थे।अब शादी कर लो तो कुछ राहत मिले।फिर, कुछ समय बाद रघु की शादी हो गई।नयी बहू के आने से घर रौशन हो गया।परंतु शादी के कुछ दिनो बाद ही शिक्षा प्रप्त करन के लिए रघु को अमेरिका जाने का फेलोशिप मिला। उसके खुशी का ठिकाना नहीं था, क्योंकि एक गाँव से वह अब विदेश पढ़ने जा रहा था। विदाई की कारूणिक वेला भी आई । रो-रोकर माँ-बीबी का बुरा हाल था। रघु के अलावे घर में दूसरा कोई न था। फिर भी धैर्य रखकर आशीर्वाद देते हुए माँ उसे विदा करने लगी। रघु भी उसे दिलासा देते हुए जाने लगा।
पहली बार हवाईजहाज मे बैठकर वह बहुत ही रोमांचित होने लगा। कुछ घंटो में ही हवाईजहाज ने उसे अमेरिका की धरती पर ला खड़ा किया।हवाई अडडे से वह अपने हॉस्टल पहुँचा। अपना सारा समान उसने व्यवस्थित किया फिर नहा-धोकर हॉॅस्टल के कैंटिन मे खाना खाकर आराम करने लगा, क्योकि कल से उसकी क्लास शुरू होने वाली थी।विश्वविद्यालय जाने की उत्सुकता की वजह से सुबह होने से पहले ही उसकी नींद खुल गई। जल्दी-जल्दी नित्य के क्रियाक्रमों से निवृत होकर समय से विश्वविद्यालय की ओर चल पड़ा। विश्वविद्यालय पहँुचकर विभिन्न देशो के विद्यार्थियो से मिला। क्रमश:उसके काफी दोस्त बन गये।अब उसे दोस्तों की दुनिया ज्यादा भाने लगी थी। दोस्तों मे आमले ज्यादा ही पसंद आ गई थी। जिस दिन उसके साथ नाईट क्लब नहीं जाता उस दिन हॉस्टल मे ही बियर पीते हुए गप्पें मारते हुए सारी रात उसके साथ बिताता। सुबह होते वो जाना चाहती तब भी रोकता ये क्षण मुझे कहाँ मिलेगा और हिन्दी धुन गुनगुनाता अभी न जाओ छोड़कर कि दिल अभी भरा नहीं ......। दोस्तों के साथ घूमना, नाइट क्लबों मे जाना, नशे करके रंग-बिरंगे बल्व की रंगीनियों के बीच गोरी अप्सराओ के साथ बाँहो मे बाँहे डाल नाचना, उसका कार्यक्रम बन गया था।साथ में ड्रग्स भी लेता था जिसे वह आथुनिकता का परिचायक समझता था।आने के कुछ दिनो तक वह घर पत्र लिखता रहा क्योकि उसके घर में फोन की सुविधा नहीं थी।धीरे-धीरे यह क्रम भी कम होता गया।
उसके जाने के बाद मोहिनी(रघु की पत्नी) अक्सर व्रत रखती और अपने पति की सफलता और कुशलता के लिए मन्नते माँगती थी। एक चिठ्ठी आने के बाद ही मोहिनी दूसरे का इंतजार करने लगती।डाकिया को देखती तो पूछ डालती- मेरी चिटठी आई है क्या भईया...। चिटठी नहीं मिलने से सोचती शायद डाक विभाग वालो ने गड़बडी की होगी, अगले दिन जरूर ही आएगी।लेकिन इंतजार की घड़ियाँ घंटे और सप्ताह से महीने में बीतने लगे। मोहिनी ने पुन: पत्र लिखा तो पता चला रघु अगले महीने मे आ रहा है। दौड़ी-दौड़ी यह खुशखबरी अपनी सासू माँ को सुना आयी। दोनों पलकें बिछाए उसका राह निहारने लगी।आखिरकार वो दिन आ ही गया।मोहिनी दरवाजे पर खड़ी थी तभी उसकी नज़र सूटकेस लिए रघु पर पड़ी। कमरे में आने पर वह दौड़कर उससे लिपट गई। लेकिन ये क्या? वह डाँटने लगा- क्या गँवार-सी हरकते करती हो। उदास होकर मोहिनी रसोईघर की ओर चाय बनाने चली गई।उसके बाद से तो हर दिन टोकाटाकी शुरू हो गया। रघु को मोहिनी निहायत ही गँवार लगने लगी थी। उसका शिक्षा सर चढ़कर बोलने लगा था। मोहिनी के हर काम मे ही उसे खोट नज़र आता। उसे हमेशा डाँटता-फटकारता।माँ अगर कुछ बोलती तो बोलता- तुम चुप रहो। दोनो ही तो गँवार औरत हो। उसकी माँ उदास हो कर फूट-फूटकर रोने लगती सोचती- क्या इसी दिन के लिए दिन-रात इकठ्ठे कर के पाला-पोसा था। जिस माँ ने अपना सबकुछ दाँव पर लगा कर कई ज्ूान बिना खाए उसे खिलाकर बड़ा किया था। उस बेटे ने ऐसा सिला दिया कि माँ की ममता भी दहाड़े मार कर रोती थी...।
इसी तरह उसके छुट्टियों के दिन कट गए और वह फिर वापस अमेरिका चला गया।बहू और सास की पुरानी दिनचर्या पुन: शुरू हो गई। मोहिनी रात के बचे समय मे पढ़ाई करती थी। इसी दौड़ान वह गर्भवती भी हो चुकी थी।इसकी सूचना उसने रघु को दिया तो उसने मोहिनी को गर्भपात की सलाह दी और आमले नाम के लड़की के प्र्रति उसने अपनी सदभावना व्यक्त की। सुनकर, वह जैसे बेहोश सी हो गई। उसे अपने प्यार पर बहुत भरोसा था, वो सोचने लगी नहीं ऐसा नही हो सकता, मै किसी तरह मना ही लूँगी।।उसने रघु को पत्र लिखा तुम जैसा बोलो मै वैसा करने को को तैयार हँू लेकिन ऐसा न करो।उसका पत्र आया लेकिन लिजलिजे माफी से सबकुछ खत्म हो गया।
माँ तो जैसे टूट ही गई।मोहिनी का दिल कभी बदले की भावना से सुलगता कभी आत्म दया से आँसुओं मे डूबकर हिचकियों से भर जाता। भावनाओ का आवेग प्र्रलयंकारी था, उसकी तपस्या भंग हो गई थी। न जाने उसमे कहाँ से इतनी साहस आ गई उसने गर्भपात नही करवाया बच्चे को कोख मे सहेजकर बड़ा करने लगी। साथ मे नौकरी के लिए आवेदन पत्र भी भरती थी। ये उसका आखरी महीना चल रहा था तभी उसे नौकरी के लिए बुलावा आया। उसके खुशी का परावार न था। मोहिनी ने अपनी सासू माँ को खुशखबरी दी और बोली माँ तुम अब चिन्ता न करो मैं हूँ न।समय पर उसने एक चाँद सी बेटी को जन्म दिया।कुछ दिनो की उसको मातृत्व अवकाश मिला।अवकाश खत्म होने पर वह फिर से नौकरी पर जाने लगी।
उधर रघु सपनो के भंवर मे फंसकर उसने अपने साथ पढ़नेवाली फर्राटेदार अंग्र्रजी बोलने वाली गोरी बाला आमले से विवाह रचा लिया। वो लड़की वहाँ नौकरी भी करती थी।रघु को लगने लगा जैसे उसे सपनो की दुनिया मिल गई हो, सोचता मोहिनी कहाँ गँवार और कहाँ ये! कितना अंतर है।घर के अपनेपन से ज्यादा उसे यहाँ की आधुनिकता रास आ रही थी।घर तो जैसे उसके लिए कूड़े-कचड़ा जैसा था जहाँ जिया नहीं जा सकता था। शुरूआती दिन तो मज़े मे बीत रहे थे। वह घर मे होता और खाना बना के पत्नी का इंतजार करता, आमले आती फिर दोनों मिल कर खाना खाते। उसने नौकरी के लिए कई जगह आवेदन भरा लेकिन कहीं से कोई जवाब नहीं आ रहा था। प्रतिदिन की तरह आज भी पत्नी का इंतजार कर रहा था, आज वो काफी देर से आयी उसके साथ कोई और भी था।उसने उस आदमी का परिचय किसी बहुत बड़े कंपनी के मालिक मिस्टर सोलोमॉन के रूप मे करवाया। मिस्टर सोलोमॉन के जाने के बाद वह उसे इस तरह बैठे देखकर झल्लाने लगी। दुसरा तो कोई काम नहीं है, बैठ कर झख मारते रहते हो। फिर रघु बोला-मैं प्र्रयास तो कर ही रहा हँू, नौकरी नहीं मिलती तो क्या करूँ। यह सुनने पर वह जोर-जोर से चीखने लगी।अगर नहीं मिलती तो मक्खियां मारो...फिर दोनांे मे जमकर तकरार हो गई।अब वह रोज देर से घर आने लगी। साथ मे कभी सोलोमन भी होता; रात मे देर तक गप्पबाजी चलता फिर वो घर की ओर रूख करता। कभी-कभी तो इधर ही रूक जाता था। इधर रघु नौकरी के तलाश मे कार्यालयों के चक्कर लगाते-लगाते हताश हो रहा था उसे कहीं कोइ गुंजाईश नज़र नही आ रही थी।आमले को रघु ने कई बार कहा वह अपने कार्यालय मे ही उसके लिए प्र्रयास करे। लेकिन वह सुनते ही झल्ला जाती मुश्किल से तो मुझे मिली है, मै तुम्हारे लिए कुछ नहीं कर सकती। तुम खुद कुछ करो बिना पैसे के तो कुछ होता नही। मेरी सारी आमदनी इसी खाने-पीने मे चली जाती है, उपर से तुम्हारा भार मै वहन नही कर सकती। वह जल्दी ही महसूस करने लगा की आमले की दुनिया बहुत रंगीन है उसके रहने -सहने के स्तर तक पहुँचने में खुद को अयोग्य समझने लगा था। संबंधों में गर्माहट रखने के लिए भारतीय संस्कारों से वशीभूत होकर समझौते के लिए हमेशा तैयार रहता।
इधर मोहिनी की बेटी रागिनी विद्यालय जाने लगी थी। विद्यालय में अक्सर सबके पिता अपने बच्चो से मिलने आते तो वह देखती और अपने आस-पास के बच्चों को अपने पिता के साथ खेलते देख, वह हसरत भरी निगाह से खड़ा होकर देखा करती थी। फिर घर आकर अपनी माँ से अक्सर, पिता के बारे में सवाल किया करती लेकिन कोई न कोई बहाना करके मोहिनी हमेशा टाल जाती थी। एक दिन विद्यालय से आकर, रागिनी अपनी किताबें आलमारी मे रख ही रही थी कि अचानक उसमे की सारी किताबे भड़भड़ाकर गिर पड़ी। किताबों में से एक पत्र छिटककर दूर पड़ा था। उसने सोचा-उठाकर रख देती हँू फिर न जाने उसे क्या ख्याल आया खोला तो अपने पिता का नाम देखकर पढ़ने लगी। उसमे पिता का पता लिखा था।धीरे से जाकर किवाड़ सटा दिया और टेढे-मेढे अक्षर मे लिखा-प्यारे पापा, आप कब आओगे।आपके इंतजार मे -आपकी बेटी रागिनी।रागिनी ने कई लोगो से पत्र डाकघर मे डालने को कहा अन्तत:उसके पास के चाचा को दया आ गई।उसने चिटठी लेकर भिजवा दिया।
रघु कई कार्यालयों केे चक्कर लगाकर लौटा तो चौखट पर अपने नाम की चिटठी देखकर ठिठक गया। सोचा, किसकी हो सकती है, कहीं से नौकरी का बुलावा तो नहीं आया? तभी, उसकी नज़र अपने गाँव के नाम पर गया। यह सोचते हुए कि पत्र किसका हो सकता है निकाल कर वह पढ़ने लगा। पहली बार पापा संबोधन देखकर चौंका लेकिन उसे समझते देर न लगी कि यह पत्र उसकी अपनी बेटी की है उसका पितृत्व भाव जागा। बेटी को गोद मे लेने के लिए वह बेचैन हो गया। सोचने लगा, अब इतनी बड़ी हो गई है कि पत्र भी लिखने लगी है, कैसी दिखती होगी वह?
अभी वह पत्र पढ़ ही रहा था कि आमले के साथ सोलोमॉन भी आता दिखाई दिया। दोनो हँसते हुए बातें करते आ रहे थे। जल्दी से उसने अपना पत्र जेब में डाला और कमरे की ओर जाने लगा।तब तक दोनों नजदीक आ गए थे।आमले ने कहा नौकरी मिल गई क्या? किसका पत्र पढ़ रहे थे।बिना जवाब का इंतजार किए बोली- अच्छा, सुनो हम दोनों ने शादी कर ली है। अब सोलोमॉॅन यहीं रहेंगे, तुम अपनी व्यवस्था सोच लो।़ यँू भी अमेरिकी धरातल पर विवाह जीवन भर का संबंध न होकर एक समझौता मात्र समझा जाता है। जब इच्छा हुई जोड़ लिया, जब मन आया तोड़ लिया। वे केवल अपनी खुशी के लिए जिन्दगी जीते हैं दुसरों की खुशी और संबंध को निभाने के लिए नहीं...।
वह जैसे आसमान से गिरा...।उसने शायद सोचा नहीं था कि गगन की ऊँचाईयों पर उड़ने वालांे को भी खड़ा होने के लिए धरती का ही सहारा चाहिए।वह कभी इन दोनों को देखता कभी जेब़ मे पड़े चिठ्ठी को देखते हुए अवाक खड़ा था...।
मोहिनी सासु माँ को बिल्कुल अपनी माँ की तरह प्यार करती थी। रघु को तो जैसे उसकी माँ बिल्कुल ही भूल गई थी क्योंकि उसने बहुत प्यार करने वाली बेटी को पा लिया था। प्यार और खुशियाँ मिलने से व्यक्ति हर दु:ख और पीड़ा को भूल जाता है। मोहिनी को पाकर उसका जीवन सार्थक हो गया था। बेटी, मेरे अंतिम-क्रियाक्रम के लिए भी रघु को बुलाने की जरूरत नही है। मोहिनी से कहते हुए, रथिया काकी की आँखे भर आयी ...।

मोहिनी हमेशा इमानदारीपूर्वक अपने दफ्तर मे काम करती थी, इधर उसकी पदोन्नति भी हो गई थी। उसकी बेटी बडी होकर विश्वविधालय जाने लगी थी। वह अपनी माँ से कोई जवाब न पाकर दादी माँ से अपने पिता के संबंध में अकसर सवाल पूछा करती लेकिन वह भी टाल जाती। वो सोच सोच कर परेशान रहने लगी आखिर कोई कुछ बताता क्यों नहीं!
रघु की हालत न घर की न घाट की वाली हो गयी थी।दर दर की ठोकरें खाता गली गली भटक रहा था
अन्न के दानों के भी लाले पड़ गये थे।़ तब मानो अपने आकाश को सहारा देने वाली धरती के लिए रात के अंधियारे में घर के कच्चे आँगन में उसके पाँव ठिठके हों। हिम्मत करके उसने घर पर चिटठी लिखी ।
रागिनी कॉलेज जाने के लिए निकल ही रही थी की तभी डाकियें ने आवाज दी-आपकी चिट्ठी। वो झट से चिट्ठी लेकर पढने लगी और अपने पापा का प्र्रत्र और लिखावट देखकर किसी कोने में उसकी सुप्त भावनाएँ फिर से जाग गयी और वह भाववि्हवल हो गई। उसने मन ही मन अपने पापा से मिलने की योजना बनायी और वो अपने पापा के पते को लिखकर लिफाफे को पुन: साट कर घर भिजवा दिया फिर कॉलेज चली गयी।सारे दिन वह उद्विग्न और उदास रही। कॉलेज से वापस आयी तो उसकी रोनी सी सूरत देखकर माँ ने पूछा बेटे क्या बात है तो रागिनी ने कहा कुछ नहीं। मम्मी सर में दर्द हो रहा है फिर उसकी मम्मी ने सरदर्द की टिकिया लाकर दी।
धीरे- धीरे समय बीतने लगे और रागिनी की व्याकुलता बढ़ती जा रही थी क्योंकि उसके पास पर्याप्त पैसे नहीं थे। वो माँ के अलावे दादी माँ से भी कॅलेज के बहाने अक्सर पैसे माँगने लगी तो दादी माँ ने पूछा बेटे इतने पैसे लेकर क्या करोगी तो उसने बताया दादी माँ आजकल कॉलेज में कार्यक्रम आयोजित किये जा रहें हैं उसी में सभी को देना पडता है।स् ाीधी सी दादी माँ ने कहा तो ठीक है बेटे पैसे ले जा। जरूरत होगी तो और ले लेना। वैसे भी इन पैसों का मैं क्या करूँगी। फिर रागिनी को तो जैसे मन की मुराद मिल गयी हो वो खुशी से उनके गले लिपट गयी और बोली -मेरी प्यारी दादी माँ कितनी अच्छी हो.........।
इस तरह थोड़े-बहुत पैसे इकट्ठे कर एक रात वह चल पड़ी अपने पिता की तलाश में। सुबह जब उसकी माँ उठकर उसे जगाने गयी तो वह थी जो मिलती। फिर तो घर मेंे जैसे खलबली मच गयी।दोनों कोई उसे पास -पड़ोस और जाने-पहचाने जगह पर उसे ढूँढ़ने लगे ढूँढते शाम हो गई पर उसकी कोई खबऱ नही मिली तो वो लोग निराश होने लगे।उसकी माँ ने तो खाना पिना भी त्याग दिया और उदास रहने लगी। मोहिनी का मन किसी काम में नहीं लगता सोचती पता नहीं मेरी बच्ची कहाँ चली गई। कोई हादसा तो नहीं हो गया इन्हीं ख्यालों में गुम थी की फोन की घंटी घनघना उठी। वो अनमने उठकर रिसीवर उठायी तो रागिनी की आवाज सुनकर चिहुँक सी गई पूछने लगी मेरी बच्ची कहाँ हो। बिन बताये क्यों चली गई उसने तो सवालों की झड़ी लगा दी।तब रागिनी ने कहा माँ चिन्ता न करो मैं ठीक हँू और उसके बाद सारी बात बता दी। फिर बोली माँ छुपते-छुपाते जैसे-तैसे पहुँच तो गई हँू लेकिन अभी पापा को ढूँढना बाकी है फिर उसने फोन रख दिया।
रागिनी को समझ में नहीं आ रहा था कैसे ढूँढे इधर-उधर भटकते -भटकते उसने एक गाड़ी वाले से पूछा तो उसने अंग्रेजी में जवाब दिया लेकिन उसे अंग्रेजी तो आती नहीं थी वो घबडा सी गई।
तभी एक अप्रवासी भारतीय उधर से गुजर रहा था उसने उसकी व्यथा समझ पूछा तुम्हें कहाँ जाना है तब उसे जान में जान आयी रागिनी ने बोला अंकल इस कागज पर जो पता लिखा है उस्ेा बतायेंगे तो वह बोला हाँ-हाँ क्यों नहीं -दायें गली से मुड़ जाओ फिर सीधे गली के अन्तिम छोर पर यह घर मिलेगा।
वह जैसे ही गली के अन्तिम छोर पर पहँुची की रागिनी के पिता दरवाजे से निकल ही रहे थे तोउसने अपने पिता को देखते हीं पहचान लिया क्योंकि घर में उसने अपने पिता की तस्वीर देखी थी।वह उसके चरणों में झुक गयी।वह विस्मयफारित नेत्रों से उसे देखने लगा और पूछा बेटी तुम तो भारतीय लगती हो किससे मिलना है सुबक क्यों रही हो,यह सुनकर रागिनी जोर-जोर से रोने लगी बोली मुझे आपसे ही मिलना है पापा घर चलिए यह सुनते ही रघु को समझते देर न लगी कि वो उसकी बेटी है।दोनो के सब्र का बाँध टूट गया बाप-बेटी खूब रो लिए फिर रघु ने पूछा लेकिन बेटी तुम यहाँ कैसे पहूँची तो फिर रागिनी अपने को छुप-छुपाकर चोरी से पहुँचने की कहानी बतायी एयरपोर्ट पर ही हाईजैक का हल्ला होने से अफरा-तफरी मच गयी इसी बीच वह लोगों के आँख बचाकर कैसे प्लेन के बाथरूम में घुस गयी।बाद में यह हल्ला झूठा निकला।
रघू बोला लेकिन बेटी अब तो यहाँ रहना भी मुश्किल है और जाना भी क्योंकि तुम्हारा पासपोर्ट नहीं है।
तभी उसे अपने पुराने मित्र की याद आयी जिसने उसे उसकी पासपोर्ट बनाने में मदद की थी।रघु ने मदद के लिए अपने दोस्त से बोला तो उसके दोस्त ने बड़ी मुश्किल से किसी तरह व्यवस्था करके पासपोर्ट बनवाकर भेजा।फिर रघु अपने दोस्त को लाख-लाख धन्यवाद देते हुए अपने बेटी के साथ अपने देश जाने की तैयारी में लग गया।फिर कुछ दिनों बाद दोनों अपने देश की धरती पर ्उतरे । टैक्सी करके दोनों घर की ओर चल दिए जैसे ही टैक्सी दरवाजे पर लगी मोहिनी और रधिया काकी बाहर आ गयी सोचा किसकी टैक्सी है,तभी उसने बाप-बेटी को टैक्सी से उतरते देखा तो दोनो सास-पतोहू अंदर जाने लगी ।तभी रागिनी ने दौड़कर दादी माँ का पैर पकड़ लिया और रो-रोकर कहने लगी दादी माँ माफ कर दो न प्लीज मेरी खातिर इसी तरह वो अपनी माँ का पैर पकड़ कर कहने लगी।रघु जो अबतक खड़ा था सुबकने लगा और अपनी माँ के चरणो मे गिर पड़ा फिर माफी माँगने लगा इस तरह रघु को देखकर उसके माँ का दिल पिघलने लगा उसके साथ वो भी रोने लगी और गंगा मईया की तरह आँसू के साथ उसके सारे पापों को धो डाला फिर उसे सीने से लगा लिया।

रंजना सोनी
सितम्बर 1, 2006

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