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परेश भाई ने एक - दो - तीन की गिनती को आगे खिसकाना शुरु किया नहीं कि कमरे की खुसुर - पुसुर थम सी जाती है। बीस के आंकडे तक जाकर यह गिनती फिर एक से प्रारंभ हो जाती है। पहले वार्मिंग अप की कुछ कसरतें लेकिन थोडी देर में गाडी दौड प्राय: हो जाती है। चार - पांच की गिनती तक परेश भाई हर ऐंठन - पैंठन को बतौर नमूना साथ करते हैं ताकि हर कोई गाडी क़े साथ ताल बिठा सके। शुरुआती कसरतों के बाद कभी ऐंठने वाली कसरतें करते हैं तो कभी खींचने वाली या दौडने वाली। उसके बाद बैठ कर। अन्त में बारी आती है लेटकर करने वाली कसरतों की - ज्यादातर सीधे सीधे ही, एकाध पेट के बल। यह पूरा क्रम करीब चालीस - पैंतालीस मिनट चलता है। पूर्ण विराम लगता है शवासन से जिसका सभी लोग प्रार्थनामिश्र होकर इंतजार करते हैं। कम से कम पिछले दो सप्ताह, यानि जब से मैं ने इस व्यायाम क्रम में हिस्सा लेना शुरु किया है तब से तो यही स्थिति है। इन कसरतों में ऐसा कुछ नहीं जिन्हें मैं या आप अपने घर या घर के लॉन में न कर सकें। लेकिन वह एक किताबी और अल्पकालिक उपक्रम होगा। परेशभाई की गिनतियों की गूंज पूरे समूह का उन गिनतियों पर समर्पण तथा दीवारों के स्पीकरों से उमडता - धधकता संगीत - कुछ ऐसी चीजें हैं जो घर पर मुहैय्या नहीं है। और यही है वह चीज ज़ो हर रोज इतने लोगों को सुबह सुबह यहां हाजिर करा देती है। यही है या कुछ और भी है। अरे नहीं भाई, और क्या होगा। कुछ भी नहीं है। तो क्या वह खूबसूरत चेहरा भी नहीं? वे हृष्ट - पुष्ट अलबत्ता थोडे स्थूल गुदगुदे बदन भी नहीं? अब आप जबरन कोई शरारत मुझ पर थोपना चाहें तो मैं क्या कर सकता हूं? आप स्वतन्त्र हैं। मैं तो चुपचाप पौने सात बजे उठकर, नित्यकर्म से निवृत्त होकर, दूध की थैलियों को फ्रिज में ठूंसकर, कचरे की बाल्टी को दरवाजे के बाहर रखकर, पत्नी और बेटे - बेटी को सोता छोडक़र साढे सात तक इस स्वास्थ्य - केन्द्र में आ धमकता हूं। उस समय घर पर तो सभी सो ही रहे होते हैं और इस स्वास्थ्य - केन्द्र में ठहरे निरे अपरिचित। यूं समझिये कि मैं आता हूं और चला जाता हूं। बिस्तर त्यागने और वापस घर पहुंचने का अन्तराल दो घण्टे का हो जाता है और यही वक्त है जब मैं नि:शब्द रहता हूं। वरना न तो मुझे ऑफिस की हायतौबा बख्शती है और न पत्नी - बच्चों की संलग्नता। मित्रों, पडोसियों और टेलीविजन की कांय - कांय को तो मैं कहीं गिन ही नहीं रहा हूं। मगर आपको एक बात की दाद देनी पडेग़ी। आपको दुनिया की खैर - खबर पूरी है। इस तीसरे सप्ताह के बाद मुझे यह महसूस होने लगा है कि प्रसिक्षक की गिनतियां, समूह के अनुसासन तथा भडक़ते संगीत ( वह भी ताजातरीन और शुध्द फिल्मी) के अलावा उसकी मौजूदगी का भी कुछ वजूद होता है। इत्तफाकन मैं ने दो तीन रोज उसके पीछे खडे होकर वर्जिशें क्या कर लीं, बाहर के साथ - साथ अंदर भी एक ऐंठन संचरित होने लगी। वह अकसर ऊपर तो कोई झबली सी टी - शर्ट पहनती है लेकिन टांगों पर प्रतिदिन श्लैक्स ही चिपका कर लाती है। बदन जितना गठीला है, उतना ही गुदगुदा। भाई कम से कम मुझे तो तीन फुट के फासले से यही लगा। वक्षों के उभार भी ठीक - ठाक कहे जायेंगे। महिला खिलाडियों ( या बकौल मेरे एक मित्र के, मैनचेस्टरों) जैसा कुछ भी नहीं। और हां आपको भी यह इसलिये बता रहा हूं क्योंकि कोई लाग - लपेट करने की आदत अपन को नहीं है। अपने अन्दर कोई ऊलजलूल चीज नहीं पालता हूं। वैसे भी पांच सात वर्ष के शादीशुदा व्यक्ति से जो दो बच्चों का पिता भी है, किसी अपराधिक मानसिकता की उम्मीद नहीं की जा सकती है। मेरा मतलब है जब तक उसमें विशेष वृत्ति की झलक न हो।
मैं यह भी
दर्ज कर दूं कि मैं ने उसकी ऐंठनों और वक्रों को पीछे से देखा जरूर,
कुछ हद तक तृप्त भाव से पिया भी लेकिन अंतत: सच कुछ ऊपरी -
ऊपरी घर्षण से अधिक नहीं कहा जा सकता है।
एक दो
बार जब मैं और वो उस वर्गाका उस दिन सोमवार था। यानि साप्ताहिक रविवारीय अवकाश के बाद का दिन। अमूमन मैं नियत समय से पहले ही आ जाता हूं। व्यायामों के पहले के समय को या तो कमरपट्टी के सहारे रगडता हूं या एकाध डम्बल - सम्बल संभालकर। मुझे मिस्टर भारत की तरह स्टड आकार नहीं बनाना है। मैं ठहरा एक पढा लिखा आदमी। अपने हाजमे और तंदुरुस्ती के रखरखाव की खातिर मैं यहां आता हूं। जो लोग जी तोड क़र बाजुओं की मछलियों और छाती की धमनियों को उजागर करने की नियत रखते हैं, मुझे आला दर्जे के ठुस्स गंवार लगते हैं। निकम्मे कहीं के। अक्ल नहीं, शक्ल नहीं, बस शरीर के पीछे पड ग़ये हाथ धोकर। इनके पास इतना समय आता कहां से है? हां तो मैं कह रहा था कि उस दिन मैं थोडा देरी से पहुंचा था। प्रवेश पर रखे रजिस्टर पर फटाफट अपने हस्ताक्षर घसीटे, समय लिखा और अर्दली के अभिवादन को स्वीकारता दरवाजे में प्रवेश ही कर रहा था कि कि वह सामने। पसीने से सराबोर। मुझे एक दो तीन के बिगुल में घुसटने की जल्दी थी। लेकिन यकबयक सामना होते ही उसने ऐसी मुस्कान बिखेरी कि मैं कुर्बान नहीं, नहीं, गदगद हो उठा। मेरा अपना चेहरा भी कैसे मुस्कुराहट में डूब गया, पता नहीं। धडक़न जैसे धम्म से ठहर गई ठहर गई या कुंलाचें मार कर भभड - भभड क़रने में जुट गई, कह नहीं सकता। ऊपरी तौर पर एक बेहद ही सामान्य प्रक्रिया से गुज़रने के बाद में उस वर्गाकार कक्ष की नियत कतार में थोडा झांक - झूंक कर सम्मिलित हो गया। चालू व्यायाम की गिनती को बीस तक पहुंचा कर परेशभाई ने जब पैंतरा बदलकर फिर से एक - दो - तीन की गुहार की तो मुझे लगा वह अब बिलकुल सही आंकडा गिन रहा है। उस तरह से यंत्रवत् तो कतई नहीं जैसा पिछले एक महीने से ऊपर हो आये समय से बोलता आया है। क्या इसी को कहते हैं बर्फ का पिघलना। ये परेश भाई भी अजब हैं। बीस के बाद फिर से एक - दो - तीन क्यों करता है। गिने आगे तक। चलने दे सिलसिला। झूठ नहीं बोलूंगा, उस पारदर्शी विभाजन में भी पता नहीं किस वैज्ञानिक अविष्कार की खातिर वह मुस्कुराहट बिम्ब लेने लगी थी। कहीम् बहुत पहले पढा था कि व्यक्ति की लिखावट और मुस्कुराहट व्यक्तित्व के बारे में बहुत कुछ उंडेल देती हैं। लिखावट में फिर भी दो राय हो सकती है, मुस्कुराहट के लिये तो यह सौ फीसदी सच होगा। बिना मुंह खोले ही एक गहरी पिंक लकीर एक गाल से दूसरे गाल तक खिंच गयी। त्वचा की उस सिकुडन में आंखें भी कुछ मिंच सी गईं। चेन्ज, एक, दो, तीनये तेरी पलकें झुकी -झुकी, ये तेरा चेहरा खिला - खिला ठीक - ठीक है, मुझे लगता है जैसे हंसने का आवाज से रिश्ता है, उसी तर्ज पर मुस्कुराने का आंखों से सम्बन्ध है। किसी आमंत्रित मुस्कान को तो आंखों के बिना मुकम्मल माना ही नहीं जा सकता है। थोडा मिच जाने के बावजूद छलकने का आभास जहां होता हो। बहुत पुरातन और ढर्रेदार चाहे लगे लेकिन मैं फिर भी कहूंगा कि जैसे वहीं - कहीं गुलाब का फूल खिल आया था। और कमाल ये कि पहल उसीने की थी। मैं तो दरवाजे में प्रवेश बहुत ही निरपेक्ष होकर कर रहा था। उसी ने ऐसा पासा फेंका तो मैं क्या करुं सोलह सत्रह अठारह कितना सही बोल रहा है परेशभाई। इससे ज्यादा तो वह नहीं होगी, और बीस से ऊपर तो हर्गिज नहीं। चलो शवासन।
गुलाब का फूल
हर सांस के साथ मेरे अन्दर उतरने लगा है।
सांस
दर सांस।अहम्। खैर, यह मेरी निहायत ही व्यक्तिगत सोच है जिससे दुनिया की आधी से अधिक आबादी हो सकता है, इत्तफाक न करे। मर्दों को वैसे भी अपनी सुविधा के लिये हर मौलिक तर्क आता है। अरे, इसमें औरत मर्द की क्या बात है। किसी मादा के लिये भी यह उतना ही सच है जितना कि किसी पुरुष के लिये। लेकिन क्या सच है, क्या नहीं इसे जांचने का कोई मौका तो हो। न सूत न कपास और.. अगले दिन हमारा आमना - सामना तो नहीं हुआ लेकिन व्यायाम करते करते ही एक क्षण ऐसा आया जब हमने अपनी मुस्कानों का हौले से विनिमय कर लिया था। फिर से वही गुलाब का फूल। मेरी जुबान तो बेआवाज ही हलो कहकर पलट गयी। क्या भरपूर मुस्कान है। बात आगे बढी तो कभी समझाऊंगा कि सरेआम थोडा हल्के से खिला करो। तुम नहीं जानतीं, ये दुनिया वाले कितने कमीने और लीचड होते हैं। एक स्वस्थ, सकारात्मक मुस्कान के भीतर ही हजारों तरह की दुर्गन्ध सूंघ लेते हैं। अबी उम्र में कच्ची है ना, इसीलिये ऐसा करती है। समय आने पर खुद ब खुद... उसके बाद पूरे दस दिन बीत गये। इक्की - दुक्की मुस्कानों के आदान - प्रदानों के अलावा कुछ भी नहीं हुआ। एक दो रोज तो उसमें भी नागा। मैं भी कौनसा उघारा बैठा था। नजरें मिल जाती हैं तो कुछ हो जाता है, नहीं तो किसे फुर्सत है। बोनस है, कोई पगार थोडे ही है।
उस दिन
शनिवार था।
पूरे
पैंतालीस मिनट की परेशभाई की एक - दो - तीनी रगडाई से चूर होकर हमदोनों ने साथ -
साथ ही बाहर आकर जूते पहने।
क्या
सुखद संयोग।
अभी
तक कभी वो बीच में ही
'' हैं''
बोलकर खिसक जाती थी या मल्टीजिम
पर आजमाईश करती थी।
हो न
हो आज किसी उद्देश्य के तहत रुकी हो।
मेरी
हलो के बटन के साथ गुलाब का फूल फिर खिल उठा।
पहली बार ऐसा
हुआ कि किसी ने एक सूत भी आगे कदम नहीं बढाया।
कोई
बात नहीं।
आगे
कभी मुलाकातों में तो उसे पता लगेगा ही।
तब तो
प्रभाव और अधिक तल्ख हो जायेगा।
मुझे
ठण्डा खाने की
आदत
है।
सिलसिला जारी रखते हुए मैं ने पूछा।
तब तक हम लोग
केन्द्र की इमारत के बाहर आ चुके थे।
सामने
ही पार्किंग थी।
वह
ओके कहकर अपनी गाडी क़ी तरफ मुडी तो मेरे मुंह से एकदम तहेदिल से सी यू निकल गया।
मैं
अपनी सडक़ की तरफ भी नहीं मुडा था कि उसकी मारुति मेरे बराबर से हूम करके चली गई।
शीसे
चढे ही हुए थे और जाते जाते अलविदा का हाथ कहीं भी नहीं उठा हुआ था।
चलो
गाडी क़ा नम्बर तो पता लगा : बारह अठहत्तर
।
किसी भी बडे मुकाम की इससे बेहतर शुरुआत और क्या हो सकती है।
कितने
आराम - आराम से बातचीत होती रही।
संक्षिप्त ही सही,
पर कम नहीं कही जा सकती है।
भई,
पहली बार में ही सब कुछ थोडे ही हो जाता है।
लेकिन
मानना पडेग़ा लडक़ी में आत्मविश्वास की कमी नहीं है।
कितने
सामान्य भाव से बोल रही थी।
कोई
जल्दबाजी नहीं,
कोई लडख़डाहट नहीं।
नाम
भी कितना अद्भुत और अनसुना।
लावन्या।
सही
नाम लावण्या है और हर चीज नाम के कितने अनुरूप।
लेकिन
लावन्या क्या?
गुप्ता, सिंह या मिश्रा।
जो भी
हो क्या फर्क पडता है।
मैं
भी कभी -कभी कितना सिकुड क़र सोचने लगता
हूं। आगे क्या बात की जाये? स्कूल - कॉलेज की पढाई, अभिरुचियां, फिल्में, टी वी तथा समाज के साथ साथ साहित्य और कला जैसे विषयों पर मैं कुछ न कुछ बात तो कर ही सकता हूं। मौका मिला, चाहे थोडा विलम्ब से ही सही, तो अपनी कोई कविता भी सुना सकता हूं। कविता की वैसे उसे समझ होगी नहीं। पचास फीसदी कवियों को नहीं है। लेकिन सबकुछ मौका देखकर ही किया जायेगा। कहीं कविता सुनकर मेरे बारे में ऊलजलूल अवधारणा बना बैठी तो सब मिट्टी पलीत हो जायेगी। वैसे मैं जो सोच रहा हूं उसकी नौबत आने वाली नहीं है। उम्र में मुझसे दस वर्ष तो छोटी है ही। बाप की गाडी में चाहे सेहत सुधारने जरूर अकेले आ जाती है, दीन दुनिया की कोई खास खबर इसे कहां होगी। इस उम्र में होती भी कहां है। लडक़ियों का मन तो और अधिक चंचल होता है। वो किसी बोरियत के मोड पर कहां टिकने देगी। रविवार का दिन जैसे तैसे कटा। वह लगातार अपने अक्स से मेरे दिलोदिमाग पर दस्तक देती रही। मैं अखबार की रविवारी पत्रिका को गौ से पढा करता हूं लेकिन उस रोज जैसे सब तितर - बिखर रहा था। कभी वह नैख ट्विस्ट करने की मुद्रा में हाजिर होती तो कभी जूडे क़ी पिन पिन को दांतों में दबा कर गर्दन नीची करके बालों का जल्दी जल्दी घेरा लगाते हुए। कभी कभी तो यह लगता कि किसी आलीसान रेस्तरां में अधपिये गिलास के बराबर में पंजे पर अपनी ठोढी साधे वह मुझे निहारे जा रही है। लेकिन एक बात माननी पडेग़ी मेरे जैसा हवाई पुलाव बनाने वाला भी चिराग ढूंढे न मिले। सर्विस के पांच साल, शादी के सात साल और दो बच्चों का पिता बनने के बाद एक लडक़ी की गिरफ्त में ऐसे चला जा रहा हूं जैसे सदियों से कुंआरा बैठा था। आखिर वह मुझे ऐसा क्या दे सकती है जो पहले से ही मेरे पास नहीं है? कभी सोचता हूं कि क्या वकई मुझे उसकी तरफ बढना चाहिये। अपना एक भरापूरा हंसता खेलता परिवार है। दो चार दिन लुक छिप के उससे मिल भी लिया तो क्या हासिल हो जायेगा। इस सहर में हर आठवां - दसवां आदमी तो मुजे जानता ही होगा। पल्लवी तक बात पहुंचते देर न लगेगी। मेरे हाव भाव या चाल ढाल से मुमकिन है वह एक रोज मेरी चोरी पकड ले। तब जो कुरुक्षेत्र मचेगा उसे कैसे संभालूंगा। फैमिना या सैवी में कई औरतों मर्दों के आडे तिरछे संबंधों के बारे में समस्यायें होती हैं लेकिन दूर से उन्हें रस लेकर पढना एक बात है उनका भुक्तभोगी होना निहायत दूसरी। एक स्टेज के बाद कहीं ऐसा न हो कि कोई विकल्प ही न रहे। लेकिन यूं अनायास किसी से प्यार किये जाना पूरे जीवन में कौनसा रोज रोज या सबके साथ होता है। स्थितियां यदि ऐसी बनती जा रही हैं तो मुजे उनसे भागना नहीं चाहिये, अनुभव करना चाहिये। आगे जो होगा, देखा जायेगा। आखिर प्यार करना इतना अमानवीय कृत्य तो नहीं। महज दोस्ती तो आप किसी से भी कर सकते हैं। पल्लवी भी तो अपने कॉलेज के एक दो पुराने साथियों से बराबर मिलती रहती है - मेरी अदृश्य इच्छा के खिलाफ। कभी कभी उन सालों को फोन तक करने की हिमाकत हो जाती है।
जब तक
शारीरिक संबन्ध नहीं है तब तक तो कम से कम कोई डर जैसी चीज दिल में लानी ही नहीं
चाहिये।
और
मान लो किसी आवेग या परिस्थितिवश ऐसा कुछ हो भी गया तो इससे मेरी पल्लवी के प्रति
जो निष्ठा है या नीयत है उसे तो एक झटके से निरस्त नहीं किया जा सकता है।
पिछले
पांच सात वर्षों से हर महीने की तनख्वाह और सुबह से शाम तक की दौड भाग पल्लवी और
परिवार को ही चढावे की तरह अर्पित करता आया हूं।
निष्ठा अपनी जगह फिर भी रहेगी।
मुझे
लगता है हमारे समाज ने निष्ठा से शारीरिक संबन्धों को उद्भूत मानकर बहुत संर्कीण
और सरासर गलत नजरिया अपनाया है। चार पांच वर्षों पहले मेरी एक महिलामित्र (शादीशुदा) ने स्त्री मानसिकता को लेकर एक काबिले गौर गुरुमंत्र दिया था - बाद में चाहे वह आपकी दासी बन जाए, लेकिन स्त्री कभी पहल नहीं करती है, इसी में उसकी गरिमा है। लेकिन यहां तो पहल उसी ने की है। वो ठीक है लेकिन मुझे भी तो उसमें अपनी रुचि को जाहिर करना चाहिये। सबकुछ उसी पर छोड दिया तो संकोच सबकुछ नेस्तनाबूद न कर दे।
तो कल सुबह
फिर मुलाकात हुई तो क्या कहूं - करुं?
उसके नाम और सौम्दर्य को लेकर उकसया जाए?
कौन स्त्री अपने बारे में अच्छा सुनकर गद्गद नहीं होती है।
पल्लवी तो कोई भी नई साडी या सूट पहनने के बाद अच्छी लग रही हूं की अदम्य
अपेक्षा आज भी पालती है।
नहीं,
शुरुआत में यह कहना अटपटा लगेगा।
कुछ
और मेलजोल और सहजता आने के बाद ही इतने अधिकार भाव पर सवार हुआ जा सकता है।
ईद के
चक्कर में रोजे न पीछे पड ज़ायें।
क्यों न
हॉली डे इन में जाया जाये।
वहां,
बस यही है कि मैनेजर समेत दो चार लोग मुझे जानते हैं।
अभी
दसेक रोज पहले ही तो अपने नये डी जी पी को वहां दारु पार्टी दी है।
पुलिसिये परिवारों समेत।
कोई
आके सहाब - सहाब करने लगा तो सब खाली - पीली गुड ग़ोबर हो जायेगा।
रॉक
रिजैन्सी कैसा रहेगा?
नहीं, वो भी नहीं।
उसकी
लोकेशन बहुत केन्द्रीय है।क्यों
न इस फैसले का अधिकार उसके ही सुपुर्द कर दिया जाये?
जो होगा देखा जायेगा। इस तरह जरूर हो जायेगी स्लिम - ट्रिम। स्वास्थ्य का एक अपना अनुसासन होता है। घूमते - फिरते दुनिया को दिखाने के लिये ही हाथ - पैर चटकाने हैं तो न तीन में रहेगी न तेरह में। मैं उसकी उमर का था तो कैसे इकहरा और दुबला सा था। वो तो नौकरी ऐसी मिल गयी कि दफ्तर में बैठने को मिला ए सी कमरा और दौड - धपड क़े लिये सरकार ने थमा दी जीप। थोडा सा डबल चिन तो इस हालत में कंकाल भी हो जाये। फिर भी घर से इस केन्द्र तक रोजाना जॉग करके आता हूं। देख लेना, एक दो महीने में ही डबल चिन न गायब कर दूं। परेश बाई वैरी गुड - एक - दो - तीन चेन्ज विन्डमिल्स। कभी आये न जुदाई, जुदाई, जुदाई।
बुधवार को
जरूर बारह अठहत्तर मुस्तैद थी।
कोई
जरूरी काम लग गया होगा।
तभी
तो दो दिन नहीं आई।
कोई
बात नहीं।
आज तो
आ गयी।
लेकिन
समूह के साथ व्यायाम करने के बजाय आज वह फिर मल्टीजिम से उलझी रही।
मुझे
पता नहीं क्यों यह विचार कौंधा कि कहीं उसे वो जरूरी तीन दिन तो नहीं हो रहे थे।
अपनी
सोच पर जहां एक तरफ मुझे विस्मय हुआ वहीं उसके प्रति मन में सहानुभूति भी तैरने
लगी।
उसका
दो दिन न आना,
चेहरे पर हल्की सी मुर्दनी और व्यायामों की बजाय आज मल्टीजिम
को तरजीह।
गुरुवार यानि अगले दिन सब कुछ ठीक ठाक रहा।
वर्गाकार हॉल में फिर एक बार गुलाब का फूल खिला।
कितनी
मुद्दत बाद।
परेशभाई की नजरों ने संभवत: लक्ष्य भी किया।
और भी
किसी ने देखा हो तो कह नहीं सकता।
ये
हरी कमीज पहन कर जो सफेद घुटन्नेबाज आता है,
मुझे बेहद शक्की और खडूस लगता है।
साले
को कतई सौंदर्यबोध नहीं है।
उसे
और कभी कभी मुझे कैसी गिध्द नजरों से देखता
वर्जिश पूरी
होने के बाद मैं अपने जूते चढा रहा था कि वह भी अपनी चप्पलें पहनने लगी।
मैंने
फीते बांधने के बहाने प्रस्थान को उसके साथ एक - स्वर किया।
उसकी
झबले सी टी सर्ट पर लिखे शब्दों से मैं ही जानता था कि वह मैक्स पैज के लिये काम
करती है।
शरीर
वैसे पुलिस विभाग के लिये भी चलेगा।
गठित
और गुंथा हुआ है।
थोडी
मांसलता ( या कहूं लावण्य)
अधिक
है।
रंग
भी ज्यादा दूधिया है।
लेकिन
किसी चौराहे पर सुबह शाम तीन - तीन घंटे डयूटी बजायेगी तो सब कुछ एक साथ चाक
चौबन्द हो जायेगा।
मेरा पूछने
का मन है कि क्या नतीजा रहा है अभी तक?
मतलब कुछ वजन कम - कुम हुआ?
पार्किंग तक
जाने में बस चार छह कदम और लगने हैं।
आज भी
कोई ब्रेक थ्रू नहीं।
अभी
भी वक्त है।
लेकिन
अब ये ही बचकाना हरकतों पर उतर रही है तो मुझे क्या।
आज का कब से
इंतजार था लेकिन सब कुछ ऐसे फिसका गया जैसे रेत से सांप।
इतने
गैप के बास्द तो मुलाकात हुई थी,
वो भी यूं ही खाली चली गई।
कहीं
उसे ये तो नहीं लगता कि मैं उसके मुकाबले
उम्रदराज
हूं या कम हैसियत का मालिक हूं।
यदि
उम्र के फेर के कारण उसका रुख उदासीन है तो पहल करके उसने पानी में कंकड मारा ही
क्यों?
वैसी बीस और तीस में क्या अंतर होता है।
सोलह
सोलह साल की लडक़ियों के चालीस पार पुरुषों के साथ संबंधों से घरेलू पत्रिकाएं
रंगी पडी रहती हैं।
तो दिखा दूं
इसे अपनी हैसियत और सफलता।
फिर
तो दौडी चली आयेगी।
लेकिन
सोचता हूं क्यों इस फालतू पचडे में पडूं।
मैं
यहां कसरत करने आता हूं
,
कौनसा इश्क लडाने।
दिल
के सुरक्षित कोने से तो मैं खुद नहीं चाहता कि इसके साथ कुछ बात बनेक्योंकि जानता
हूं इस सबकी कीमत कितनी विध्वंसक हो सकती है।
यहां
तक कि अभी तक कोई विशेष प्रगति के न होने से मेरे अंदर एक गुमनाम सा
विजय भाव भी उखडने लगता है।
आज सुबह आई
थी।
व्यायाम भी किये।
मैं
चार छह दफा सायास होकर,
एक - दो - तीन के दौरान ही नजरें मिलाने की कोशिश की।
लेकिन
वह वर्जिशों में मशगूल रही मुझे लगता है वह जानबूझ कर तटस्थ हो रही है।
आते
वक्त मेरे सामने से ही गुजरकर अपनी कार तक गई थी लेकिन कहीं भी गुलाब का फूल नहीं
दिखा।
लडक़ियों की इसी जटिलता से मुझे चिढ है।
जो
उनमें रुचि लेगा उसके प्रति तो हो जायेंगी तटस्थ और बेरुख,
और जो उन्हें नजरअन्दाज क़रे उसके लिये करेंगी सांगोपांग
समर्पण।
मित्रों मुझे
यह स्वीकारने में कोई संकोच नहीं है कि उसी दुगुनी तटस्थता को जीते हुए अब डेढ
महीना और गुजर गया है।
वापस
आए मेरे कदम अब परेसभाई की एक - दो - तीन के साथ अधिक तालमेल बिठाने लगे हैं हरी
कमीज और
सफेद
घुटन्ने ने मध्यान्तर में एकाध बार अपने गोभी के फूल से मेरा स्वागत भी किया है।
ओमा शर्मा |
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