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तरन्नुम मुझसे कितनी अलग है

भाग - 1

तरन्नुम की डोली को उठे हुए एक घंटा हो गया था। रात की शादी होने के कारण तरन्नुम के विदा होते ही सभी मेहमान एक-एक करके उसी एक घंटे में चले गए। मैं और राहुल सभी मेहमानों को विदा करके अंदर आ गए। मैंने राहुल को व्हील चेयर पर से सहारा देकर पलंग पर बिठाया। राहुल ने मेरा हाथ पकड़कर मुझे अपने पास बिठा लिया और कहा-"तुमने मुझे जीवन की सारी खुशियाँ दी हैं। तुम सबसे अलग हो।" यह कहकर उन्होने मेरा माथा चूमा और मुझे अपनी बांहों में भर लिया। मुझे उस समय बहुत खुशी हुई। यही खुशी मुझे न चाहते हुए भी अतीत में ले गई।

जीवन बचपन से शुरू होता है। इस जीवन को शुरू करती है माँ। परन्तु मेरी माँ मुझे जन्म देते ही भगवान के पास चली गई। मेरी माँ पर एक बोझ था-पुत्र की चाहत का बोझ। इसी चाहत के पूरी होने की आस में मेरी माँ ने एक के बाद एक करके चार बेटियों को जन्म दे दिया। गरीबी के कारण मेरी माँ को कभी अच्छी खुराक नहीं मिली और अब उसमें और संतान पैदा करने की ताकत नहीं रही। परन्तु मेरे माँ-बाप ने पुत्र की चाहत में मुझे जन्म दिया। इसका नतीजा यह हुआ कि मेरी माँ मुझे छोड़कर चली गई और पिताजी अंदर से इतने टूट गए कि उन्हें चार-पाँच सालों में कैंसर जैसी भयानक बीमारी ने घेर लिया। पिताजी ने किसी तरह चारों बहनों की शादी कर दी। इस दौरान मैं भी बडी हो रही थी और पिताजी को मेरी शादी की चिंता होने लगी थी। एक दिन वे मेरी शादी की बात करने कहीं जा रहे थे। अचानक वे चक्कर खाकर गिर पड़े। पड़ोसियों ने उन्हें हस्पताल पहुँचाया। डॉक्टरों ने साफ कह दिया था कि वे दो दिन से ज्यादा नहीं रहेंगे। कुछ देर बाद उन्हें होश आया तो उन्होंने मुझे अपने पास बुलाकर कहा-"बेटी, मेरे पास ज्यादा टाइम नहीं है। लेकिन मैं इस दुनिया से जाने से पहले अपने-आपको यह विश्वास दिलाना चाहता हूँ कि मेरे जाने के बाद मेरी बेटी को कोई दुख ना पहुँचे। इसीलिए मैंने तुम्हारा रिश्ता एक अच्छे घर में कर दिया है। उस घर में तुम्हें बहुत प्यार मिलेगा। लड़का भी बहुत अच्छी नौकरी करता है। बस! लड़के में एक कमी है कि लड़का चल नहीं सकता।" उनको बोलने में तकलीफ हो रही थी इसलिए मैंने उन्हें बीच में ही रोकते हुए कहा-"ठीक है पिताजी, आपने सोच-समझकर ही तय किया होगा।" उस समय मुझे अपनी किस्मत पर रोना आ रहा था कि मुझे एक अपंग के साथ जिंदगी निभानी पड़ेगी। परन्तु पिताजी के अंतिम समय में मैं उनका दिल तोड़ने की हिम्मत नहीं जुटा पाई। अगले दिन पिताजी ने लड़के यानि कि राहुल के घरवालों को हस्पताल में ही बुला लिया था। पिताजी ने राहुल को अकेले में बुलाया और बात करने लगे। मैं खिड़की से राहुल को पिताजी से बात करते हुए देख रही थी। राहुल बहुत ही अजीब तरीके से बात कर रहे थे। बात करते हुए उनका मुँह टेढ़ा-मेढ़ा हो जाता था और उनकी आँखें बंद हो जाती थीं। यह सब देखकर मुझे घुटन-सी महसूस होने लगी। मुझे लग रहा था कि राहुल मेरे सपनों का गला घोंट रहे थे। राहुल से बात करने के बाद पिताजी ने सब को अंदर बुला लिया। राहुल की बहन ने गहने और कपड़े लाकर मुझे तैयार किया। पिताजी के सामने राहुल ने मेरी मांग भर दी। पिताजी ने हम दोनों को आर्शीवाद दिया और सदा के लिए अपनी आँखें बंद कर ली।

मैं राहुल के घर आ गई। शादी के बाद की पहली रात राहुल ने बडे प्यार से मेरा हाथ पकड़ा और कुछ कहना चाहा। परन्तु मैंने अपना हाथ छुड़ाकर गुस्से में कहा-"खबरदार! मेरे पास आने की कोई जरूरत नहीं है। मैं एक अपंग के साथ नहीं रह सकती। तुम तो खुद को नहीं संभाल सकते, मेरा साथ क्या दोगे। तुम्हारे घरवालों को एक नौकरानी चाहिए थी सो मिल गई, वो भी बिना पैसों की नौकरानी।"
"संचिता जी, यदि आप मेरे साथ खुश नहीं रह सकते तो आप अपने लिए एक अच्छे जीवन-साथी ढूँढ सकते हो। इस काम में मैं आपकी पूरी मदद करूँगा क्योंकि मैंने आपके पिताजी को वचन दिया था कि मैं आपको हमेशा खुश रखूँगा। आज से हम दोनों मित्र की तरह रहेंगे। मैं आपको वचन देता हूँ कि मैं कभी भी मित्रता की इस सीमा को पार नहीं करूँगा। रही नौकरानी वाली बात, तो संचिता जी अपने को दीन अवस्था में दिखाने के लिए अपनी तुलना एक नौकरानी से करके उसके काम को गंदा मत समझिए। नौकरानी भी काम करके अपने परिवार का पेट पालती है और हम भी। मैं तो ईमानदारी से किए गए हर काम को ईश्वर की पूजा मानता हूँ। लेकिन आप चिंता मत कीजिए मैंने और मेरे घरवालों ने आपसे कोई भी काम नहीं करवाना है। आपसे बस एक ही गुजारिश है कि मुझे कभी भी अपंग ना कहना क्योंकि मैंने स्वयं को कभी अपंग या विकलांग नहीं माना है और ना ही मेरे घरवालों ने", यह सब राहुल ने होंठों पर हल्की-सी मुस्कान लिए हुए और इतनी सहजता से कह दिया कि मैं उनकी तरफ देखती रह गई। उनके अंतिम वाक्य को सुनकर मैं अपने जीवन में पतझड़ आने की आहट महसूस करने लगी। राहुल नीचे दरी बिछाकर सो गए। परन्तु मेरी सारी रात नींद आने के इंतजार में ही गुजर गई।

अगले दिन से मेरी जिंदगी की नई शुरूआत होनी थी। लेकिन मैंने इस शुरूआत को महसूस ही नहीं किया। नए घर को लेकर जो उमंग, रोमांच और दिल में गुदगुदी पैदा करने वाला भय हर लड़की महसूस करती है, वह सब-कुछ मेरी इस कुंठा के घने कोहरे में छिप गया कि एक विकलांग के साथ जिंदगी गुजारनी पड़ेगी। वैसे राहुल के घरवालों ने मुझे आँखों पर बिठाया हुआ था। राहुल के मम्मी-पापा मेरा ध्यान एक बेटी की तरह रखते थे। उन्होंने प्यार से मेरा नाम 'मुनिया` रखा था। राहुल की बहनें जब भी ससुराल से आतीं तो मेरे लिए कुछ-न-कुछ जरूर लेकर आतीं। मैं खुश तो हो जाती लेकिन फिर मेरे मन में यह अभिमान आ जाता कि ये सभी मुझे खुश रख रहे हैं कि कहीं मैं राहुल को ठुकरा न दूँ। धीरे-धीरे राहुल की मम्मी ने घर की सारी जिम्मेदारियाँ मुझे संभला दी। परन्तु मैं इसको मेरे खिलाफ एक साजिश मान रही थी। कई बार मन में आया कि सब-कुछ छोड़कर भाग जाऊँ, लेकिन राहुल के दिए हुए वचन को याद करके रुक जाती। पता नहीं क्यों, मेरा मन मुझे राहुल पर विश्वास करने को कह रहा था। शादी की पहली रात को जिस पतझड़ के आने की आहट को मैंने महसूस किया था, वह अब आ गया था और सूखे हुए पत्ते लगातार झड़ रहे थे।

राहुल सुबह पाँच बजे उठ जाते थे और मेरे उठने से पहले ही तैयार हो जाते थे। ऑफिस जाने से पहले वे मुझे धीरे से 'संचिता जी` कहकर उठा जाते थे क्योंकि उनके ड्राइवर ने उनको कार तक ले जाने के लिए व्हील-चेयर में बिठाना होता था। उनको तैयार हुआ देख मैं सोच मे पड़ जाती थी कि राहुल इतनी अच्छी तरह से अपने-आप कैसे तैयार हो जाते थे। एक दिन मेरी नींद सुबह चार बजे ही खुल गई। उसके बाद मुझे नींद नहीं आई। पाँच का अलार्म बजते ही राहुल उठ गए। उन दिनों सर्दियों का मौसम था। राहुल एक ही अंत:वस्त्र में नंगे बदन ठंडे फर्श पर सरकते हुए बाथरूम में नहाने चले गए। यह देखकर मैं अंदर तक सिहर गई। यह जानने के लिए कि कितना ठंडा फर्श है, मैंने अपना पैर फर्श पर रखा। फर्श के ठंडेपन से मेरा पैर सुन्न हो गया। मैं सोचने लगी कि जब मुझसे अपना एक ही पैर ठंडे फर्श नहीं रखा गया तो कैसे राहुल नंगे बदन बाथरूम तक जाते होंगे। उस दिन के बाद मैं उनके हर काम को बडे ही ध्यान से देखने लगी। वे सारे काम अपने-आप किया करते थे। उन्हें केवल व्हील-चेयर में बिठाने और कार में बिठाने के लिए दूसरों की मदद की जरूरत होती थी। उनको अपने सारे काम स्वयं करते देखकर कभी-कभी मन में आता कि वे मुझे कभी तो मदद के लिए बुलाएँ और मुझे अहसान जताने का मौका मिले। परन्तु ऐसा नहीं हुआ। सूखे हुए पत्ते लगातार झड़ रहे थे।

एक दिन ऑफिस से आने के बाद राहुल मुझे किताबों का एक पैकेट देते हुए कहा-"संचिता जी, आपने दसवीं तो पास कर ही रखी है और मैं चाहता हूँ कि आप आगे की पढ़ाई पूरी करें। यदि आप अपनी पढ़ाई पूरी करके किसी अच्छी जगह नौकरी लग जाती हैं तो मैं आपको तलाक दे दूँगा। फिर आप अपनी जिंदगी अपने तरीके से जी सकती हैं।" यह कहते समय उनके चेहरे पर मेरे प्रति जरा भी द्वेष-भावना नहीं थी। बल्कि उनके चेहरे पर खुशी थी। मैं भी बहुत खुश हुई कि एक विकलांग से छुटकारा तो मिलेगा। हम दोनों की खुशियों में कितना अंतर था! इसी अंतर के कारण कुछ ही देर में मुझे लगा कि खुद मेरी ही खुशी मेरा मजाक उड़ा रही थी। सूखे हुए पत्ते लगातार झड़ रहे थे।

राहुल एक विभाग में प्रशासनिक अधिकारी हैं। हमारी शादी से कुछ ही दिन पहले उनकी नौकरी लगी थी। विकलांगों के लिए निर्धारित कोटे में आरक्षण के कारण उन्हंे यह नौकरी मिली थी। यही कारण था कि उनका एक अधिकारी के पद पर आसीन होना मेरे लिए कोई बडी बात नहीं थी। वैसे कभी-कभी जब मुझे पढ़ाई में मुश्किल आती थी तो मैं उनके पास अपनी मुश्किल हल करने के लिए सिर्फ इसलिए जाती थी ताकि मैं स्वयं को तसल्ली दे सकूँ कि उनको कुछ भी नहीं आता और यह नौकरी सिर्फ आरक्षण से ही मिली है। परन्तु वे मुझे इतनी अच्छी तरह से समझाते कि मैं उनकी तरफ देखती रह जाती। उनकी हर विषय पर पकड़ इतनी अच्छी थी कि उनके पास हर प्रश्न का उत्तर था। वे ऑफिस से आते ही किताबें पढ़ने लग जाते और किताबों से फुर्सत मिलते ही कम्प्यूटर से कुछ-न-कुछ लिखने लग जाते। यही उनकी विद्वता का कारण था। उनकी कई किताबें भी छप चुकी थीं। परन्तु मेरे लिए वे सिर्फ विकलांग ही थे। मैं सोचती थी कि किताबें पढ़कर कोई भी कुछ भी जान सकता है। उनकी लिखी हुई किताबों के बारे में भी मैं यही सोचती थी कि यह सब उन्हांेने इधर-उधर से पढ़कर लिख दिया होगा। मैं नहीं जानती थी कि ज्ञान केवल किताबों से ही नहीं मिलता है बल्कि ज्ञान पाने के लिए ज्ञान को महसूस करने की भावना का होना जरूरी है, किताबें तो केवल प्रेरणा ही दे सकती हैं। परन्तु मैं तो केवल उनकी विकलांगता ही देख सकी। जब मनुष्य किसी दूसरे मनुष्य में कमी देखने का आदी हो जाता है तो उसे उस मनुष्य में विशेष गुण भी दिखाई नहीं देते। मैंने राहुल का विकलांगता से संघर्ष नहीं देखा और उनका जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण नहीं देखा। देखी तो सिर्फ उनकी विकलांगता, जो शायद थी ही नहीं। परन्तु सूखे हुए पत्ते लगातार झड़ रहे थे।

अगले सात-आठ सालों में मैंने एम.ए. पास कर ली। इस दौरान राहुल ने मेरा बच्चों की तरह ध्यान रखा-परीक्षा के दिनों में मुझे सुबह चार बजे उठाना, अपनी मम्मी से सुबह-सुबह मेरे लिए दूध गर्म करवाना और तरह-तरह की हिदायत देना। परीक्षा के दिनों में सुबह जल्दी उठने के कारण पढ़ते हुए कभी-कभी मुझे नींद की झपकी आ जाती थी। उस समय राहुल मेरे सिर पर हल्की-सी थपकी देते हुए मुस्कराकर कहते-"संचिता जी, सोना मना है।" और जब परीक्षा का परिणाम आने को होता तो उनमें मुझसे भी ज्यादा बेचैनी हो जाती थी। उनकी वजह से ही मैं हर बार प्रथम श्रेणी में पास होती थी। अब तो मुझे भी परीक्षा के दिनों का इंतजार-सा रहने लगा था क्योंकि इन दिनों मैं अनायास ही राहुल के करीब हो जाती थी। आखिर मैं भी कब तक अजनबी बनकर रह सकती थी। परन्तु अब भी मैं राहुल को विकलांग के रूप में देखती थी। परन्तु सूखे हुए पत्ते लगातार झड़ रहे थे।

एम.ए. पास किए हुए दो महीने हो गए थे। एक दिन राहुल ने ऑफिस से आते ही मुझे कुछ कागजात देते हुए कहा-"संचिता जी, मुबारक हो! एक स्कूल में आपकी नौकरी लग गई है। स्कूल में ही आपको रहने के लिए एक कमरा भी दे दिया जाएगा। तनख्वाह भी अच्छी-खासी है। ये रहा आपका अपॉएंमेंट-लेटर। और हाँ, तलाक का कागज भी साथ में है, मैंने दस्तखत कर दिए हैं आप भी कर देना। मैं कल सुबह ऑफिस जाते समय आपको छोड़ आऊँगा। संचिता जी, आज मैं बहुत खुश हूँ क्योंकि मैंने अपना वादा पूरा कर दिया। फिर भी अगर कोई भूल हो गई हो तो एक मित्र समझकर माफ कर देना।"
"मम्मी-पापा को क्या बताऊँगी?" मैंने घबराते हुए पूछा।
"उसकी चिंता मत आप कीजिए। हमारी शादी के दूसरे दिन ही मैंने घरवालो को सब बता दिया था", यह बताने के बाद राहुल अपनी व्हील-चेयर को धीरे-धीरे चलाते हुए कमरे से चले गए। मैं निढाल-सी होकर बैठ गई। मैं सोचने लगी कि सब-कुछ जानते हुए भी इस घर में मुझे बहुत स्नेह मिला। मैं यह सब सोच ही रही थी कि मम्मी आई और बोली-"मुनिया, राहुल के पापा कह रहे थे कि कल तो तुम चली जाओगी; क्यों न आज सारे साथ मिलकर खाना खाएँ। वो तो यह भी कह रहे थे कि आज खाना भी तुम ही बनाओ लेकिन उनके यह कहने से पहले ही मैंने खाना बनवा दिया था। मुझे क्या पता था कि वो तुम्हारे हाथों का बना खाना चाहते थे। खैर! फिर कभी अपने घर बुलाकर उनको खाना खिला देना। अब जल्दी-सी आ जाओ, खाना ठंडा हो रहा है।" मेरी आँखें भर आईं। मुझसे उठा नहीं जा रहा था। परन्तु फिर से मम्मी की आवाज आने पर मैं बडी मुश्किल से उठकर गई। वहाँ राहुल को न पाकर मैं पहली बार राहुल की कमी महसूस कर रही थी। मम्मी से पूछने पर पता चला कि वे अपने दोस्त की शादी में गए हुए थे। न जाने क्यों मैं मन में राहुल को कोसने लगी कि कम-से-कम आज तो उनको यहाँ होना चाहिए था। यह सब सोचते हुए मैं खाना खा रही थी। बीच में कभी-कभार मेरी नजर मम्मी-पापा पर चली जाती जो चुपचाप खाना खा रहे थे। हम तीनों एक-दूसरे से बात करना चाहते थे परन्तु बात कर नहीं पा रहे थे। मम्मी-पापा तो मेरे जाने के दुख में कुछ बोल नहीं पा रहे थे और मैं एक अनजाने-से अपराध-बोध के कारण कुछ बोल नहीं पा रही थी। आखिरकार पापा ने बात शुरू करते हुए कहा-"मुनिया, मैंने तुम्हे हमेशा अपनी तीसरी बेटी माना है और इसीलिए एक बात कह रहा हूँ कि जिंदगी की इस नई शुरूआत में जब भी कोई मुश्किल आए, हमें बुला लेना। और हाँ, अपनी शादी में हम को जरूर बुलाना। भगवान करे तुम्हारा घर जल्दी ही बस जाए।" पापा के इतना कहते ही मेरी रुलाई फूट पड़ी। मम्मी ने मुझे चुप कराया लेकिन उनकी आँखों में भी आँसूं थे। पापा उठकर दूसरे कमरे में चले गए क्योंकि वे अपने आँसूं किसी को दिखाना नहीं चाहते थे। मैं बिखरी जा रही थी और भगवान से प्रार्थना कर रही थी कि कोई मुझे बिखरने से बचा ले। सूखे हुए पत्ते लगातार झड़ रहे थे।

मैं अपने कमरे में आ गई थी। सुबह जल्दी जाना था इसलिए सामान रात को ही बांधना पड़ा। मैं अपना सामान बांधती जा रही थी और मेरी आँखों से आँसूं बहते जा रहे थे।
मेरे सारे प्रमाण-पत्र राहुल की अलमारी में पड़े थे वही निकाल रही थी। अचानक मेरी नजर एक फाइल पर पड़ी जिसपर लिखा था-'मेरी डायरी`। सारा सामान बांधने के बाद मैं सोने लगी लेकिन नींद नहीं आने पर मैंने सोचा कि रात काटने के लिए क्यों न राहुल की वही फाइल पढ़ लूँ। मैं वह फाइल पढ़ने लगी। उस फाइल में उन्होने स्वयं के बारे में सब-कुछ लिखा हुआ था। उसमें लिखा था:-

"जब बच्चा जन्म लेता है तो उसे अपने बारे में केवल इतना ही पता होता है कि वह एक नन्हा-सा जीव है। उसे तो यह भी मालूम नहीं होता कि वह एक मनुष्य भी है। और यदि रिश्तों की बात करें तो उस समय वह केवल माँ के साथ ही रिश्ते को महसूस करता है। जैसे-जैसे वह बडा होता है उसके साथ अनेक अस्मिताएँ जुड़ जाती हैं-नाम की अस्मिता, लिंग की अस्मिता, कुल की अस्मिता, धर्म की अस्मिता, जाति की अस्मिता आदि। बच्चे को इन सभी अस्मिताओं का अहसास समाज ही कराता है। मैं कभी-कभी सोचता हूँ कि काश! मुझे इन अस्मिताओं का अहसास ना होता तो कितना अच्छा होता और मुझे केवल माँ की गोद की गरमाहट का अहसास ही होता तो कितना अच्छा होता। परन्तु मैं बडा हुआ और मुझे भी इन सभी अस्मिताओं का अहसास कराया गया। इन सभी अस्मिताओं के साथ-साथ मुझे मेरी एक और अस्मिता का अहसास कराया गया-'विकलांगता` की अस्मिता। इसी 'विकलांगता` के नाम पर इस समाज ने मुझसे मेरे सपने छीनने चाहे, मेरे पौरुष को गाली दी, मेरी भावनाओं को छलनी किया और मेरे हर कार्य को 'विकलांगता` वाले दृष्टिकोण से देखा। इसी बात ने मुझे और मेरे माता-पिता को मेरी इस 'विकलांगता` से संघर्ष करने के लिए प्रेरित किया। और एक दिन ऐसा भी आया जब मैंने स्वयं को 'विकलांग` मानने से इन्कार कर दिया। मेरे अंदर ऐसा आत्मविश्वास मेरे माता-पिता की वजह से आया। मैं वह पल कभी नहीं भूल सकता हूँ जब मेरे पापा मुझे गोदी में उठाकर परीक्षा दिलाने के लिए कॉलेज की ऊँची सीढ़िय़ाँ चढ़ जाते थे। मैंने भी दिन-रात मेहनत करके हर परीक्षा में अच्छे अंक प्राप्त किए। परन्तु यह सब नहीं देखा इस समाज ने, देखी तो सिर्फ मेरी 'विकलांगता`। और जब भी इस समाज ने मेरे परिवार वालों को दुख पहुँचाना होता था या कोई ताना देना होता था तो वह मेरी इसी 'विकलांगता` को ही साधन बना लेता था। जैसे कि एक बार हमारी रिश्तेदारी में किसी विवाद में एक नवविवाहित वधु का पक्ष लेने पर मेरे पापा को उसके पति से यह सुनना पड़ा कि अगर आपको यह इतनी ही प्यारी है तो अपने अपंग बेटे से इसकी शादी क्यों नहीं कर देते। इसी तरह एक दिन हमारे पड़ोस में एक महिला ने मेरी मम्मी से कह दिया कि आपका तो आगे वंश ही नहीं चलेगा। तो ऐसा है हमारा समाज।.....कभी-कभी मैं अपने अंदर एक अनजाना-सा अकेलापन और दर्द महसूस करता हूँ। आज भी जब मेरी बहनें ससुराल से आतीं हैं तो मेरा मन भी दरवाजे पर खड़े होकर उनका स्वागत करने का होता है। और जब घर के सभी लोग मिलकर आपस में बात करते हैं तो मेरा मन भी उनकी बातों में शामिल होने को करता है। पापा जब भी बीमार हो जाते हैं और तीन-चार दिन अस्पताल में रहते हैं तो उस समय मैं भी पापा को देखने के लिए तड़प उठता हूँ। मैं घरवालों से कहना चाहता हूँ कि मुझे भी पापा से मिलाने ले जाओ। परन्तु मैं कहते-कहते रुक जाता हूँ क्योंकि मैं जानता हूँ कि मुझे हर समय साथ रखना घरवालों के लिए असम्भव है फिर भी पता नहीं क्यों मैं अपने अंदर एक अनजाना-सा अकेलापन और दर्द महसूस करता हूँ।.....मेरे मन में सदा एक अपराध-बोध रहता है कि मैं अपने परिवार को कुछ भी नहीं दे पाया। आज मेरी बहनों के बच्चे भी हैं और जब वे आते हैं तो घर में रौनक आ जाती है। परन्तु जब वे चले जाते हैं तो उस समय घर में सूनापन छा जाता है और मेरे मम्मी-पापा बहुत उदास हो जाते हैं। उनको उदास देखकर मैं सोचने लगता हूँ कि यदि समाज मुझे शादी करने देता तो अब तक मेरे भी बच्चे हो जाते और मेरे मम्मी-पापा का उन बच्चों में दिल लग जाता। वैसे शादी और बच्चों की जरूरत तो मुझे भी है। इस बारे में मैं आगे बताऊँगा। हाँ तो मैं बता रहा था कि मैं अपने परिवार को कुछ भी नहीं दे पाया। शायद यही कारण था कि मैं स्वयं को मेरे पापा से दूर होता हुआ महसूस कर रहा था। आखिर मेरी बहनों की शादी के बाद मेरे पापा मेरी बहनों के ज्यादा नजदीक आते गए और मैं दूर होता गया। मेरे पापा घर के सभी निर्णय बहनों की सहमति से लेने लगे। मुझसे कभी भी कुछ भी नहीं पूछा जाता है। वैसे भी मैं कई बार पापा को फोन पर दूसरों से यह कहते हुए सुनता हूँ कि मेरा बेटा विकलांग है इसीलिए मैं अपनी बेटियों को सब-कुछ मानता हूँ। उनके यह कहने से मुझे निराशा होती है। मेरे मन में प्रश्न उठता है कि बेटियों को ज्यादा प्यार देने के लिए मेरी विकलांगता को कारण क्यों बनाया जाता है। बेटियाँ तो वैसे ही सबसे प्यारी होती हैं। पापा अपनी सारी समस्याएँ, अपना दुख-दर्द और अपने दिल की सारी बातें बहनों को ही बताते हैं। और मैं उनके दुख में शामिल होने को तरस जाता हूँ। आपसी संवाद कम हो जाने के कारण मेरे और पापा में गहरे मतभेद हो गए। अब तो मैं पापा से नजर मिलाने से भी संकोच करने लगा हूँ। इन सबके बावजूद मैं पापा को कोई दोष नहीं दे सकता हूँ क्योंकि मुझे बार-बार याद आता रहता है कि कैसे पापा मुझे गोदी में उठाकर परीक्षा दिलाने के लिए कॉलेज की ऊँची सीढ़िय़ाँ चढ़ जाते थे। यह याद करके मेरी आँखों में आँसूं आ जाते है। ये आँसूं ही मुझे पापा से दूर होने से रोक देते हैं। इस समाज ने ही पापा को मुझसे दूर किया है।.....मेरी मम्मी मेरे लिए सब-कुछ है। जब मैं पैदा हुआ था तो मुझे जन्म के बाद से ही 'सेरेब्रेल पाल्सी` (एक ऐसा रोग, जिसमें शरीर की सारी माँसपेशियाँ अकड़ जाने के कारण मस्तिष्क के संकेत माँसपेशियों तक ठीक प्रकार से नहीं पहुँच पाते हैं।) के कारण दो-तीन साल तक सारे शरीर में दर्द रहने लगा। इस दर्द के कारण मैं दिन-रात रोता रहता था। इस दर्द में मेरी मम्मी ने मेरा पूरा साथ दिया। मम्मी मुझे गोदी में लेकर दिन-रात सहलाती रहती थी। मैंने आज तक उन्हें मेरे लिए दुखी होते हुए नहीं देखा। आज भी मम्मी मुझे अपने हाथों से खाना खिलाती है हालांकि मैं अपने-आप भी खा सकता हूँ परन्तु मम्मी को संतुष्टि नहीं मिल पाती है जब तक वो मुझे अपने हाथों से खाना नहीं खिला देती और शायद मुझे भी संतुष्टि नहीं मिल पाती है। मेरी मम्मी मेरे अस्तित्व के साथ जुड़ी हुई है।.....पिछले कुछ दिनों से मैं अपने अंदर एक बदलाव-सा महसूस कर रहा हूँ। आजकल मुझे मेरी हमउम्र की लड़कियों को देखना और उनसे बातें करना बहुत ही अच्छा लगने लगा है। टी.वी. पर प्रेम-प्रसंग के दृश्य देखकर मेरे मन में गुदगुदी-सी होने लगी है। रात को मन करने लगा है कि कोई लड़की मेरे सपनों में आए। जब भी मैं किसी लड़की से बातें करने लगता हूँ तो दिल की धड़कनें तेज हो जाती हैं और सारा शरीर रोमांचित हो उठता है। शायद इसी बदलाव को मनुष्य का यौवन कहते हैं। अब मुझे एक जीवन-साथी की जरूरत महसूस हो रही थी। इस बदलाव के साथ-साथ मैं अपने अंदर एक और बदलाव महसूस कर रहा हूँ। जब भी मैं किसी बच्ची को देखता हूँ तो मैं स्वयं को उस बच्ची का पिता मानने लगता हूँ और उसे अपनी गोदी में लेने के लिए तड़प उठता हूँ। इन दोनों बदलावों ने मुझे इतना भावुक बना दिया है कि मैं किसी भी नारी की आँखों में आँसूं नहीं देख सकता हूँ चाहे वह मासूम बच्ची ही हो।.....आज रात मेरी आँखों से आँसूं बह रहे हैं। आज मैंने पहली बार मम्मी-पापा को कहा कि मेरी शादी कर दो। उस समय मैंने मम्मी-पापा के चेहरे पर एक विवशता देखी। उसके बाद पापा ने जो बातें कही उन बातों ने मेरे दिल को रुला दिया। पापा ने पहली बात कही कि क्या तुम अपनी बहन की शादी एक विकलांग से कर देते? मैं इस बात का जवाब तो दे देता परन्तु इससे मुझ पर स्वार्थी होने का आरोप लग सकता था और इसके अलावा न जाने कितनों के साथ अन्याय हो जाता। दूसरी बात पापा ने जो कही उस बात ने मेरे अस्तित्व तक को हिला दिया। पापा ने कहा कि ठीक है हम तुम्हारी शादी भी कर देंगे परन्तु उसके बाद जो संतान पैदा होगी उसको लेकर कई सवाल उठेंगे। पापा की यह बात मेरे पौरुष को गाली थी। इस बात ने मेरे मन में उस समाज के प्रति घृणा पैदा हो गई जिसने मेरे पापा को इतना कठोर बना दिया। मैंने कई बार समाज को यह कहते हुए सुना है कि बुढ़ापे में मनुष्य अकेला पड़ जाता है। परन्तु यही बात हमारे लिए लागू नहीं होती क्योंकि हम 'विकलांग` हैं। खैर! मैं कोई गुरू नानक या कबीरदास नहीं हूँ जो इस समाज को बदल सकूँ।.....मैं अक्सर फिल्मों में प्रेमी-प्रेमिकाओं को एक-दूसरे के हाथों को थामे घूमते हुए देखता हूँ, समुद्र की लहरों के बीच दौड़ते और एक-दूसरे पर पानी फेंकते हुए देखता हूँ और भी न जाने क्या-क्या देखता हूँ। यह सब देखकर प्रत्येक लड़का-लड़की यही चाहते हैं कि उनका जीवन-साथी इन सब का आनंद लेने में भरपूर सहयोग दे। मैं यह सब नहीं कर सकता। इसीलिए कोई लड़की मुझसे शादी नहीं करेगी। आखिर वह भी तो इसी समाज में रहती है।.....आज मैं सचमुच समाज से हार गया। जहाँ मैं नौकरी करता हूँ वहाँ एक लड़की से लगाव हो जाता है और मैं इसी लगाव को प्यार समझ बैठा। आज जब मैंने उससे पूछा कि क्या आप मुझसे शादी करेंगी? उसने हँसते हुए कहा कि आप एक विकलांग होकर शादी की बात कैसे कर सकते हैं। उस लड़की का यह कहना मेरा मजाक उडाना ही था। मेरे सामने समाज का भयावह चित्र प्रकट हो गया। मुझे संस्कृत भाषा की वह उक्ति याद आ गई जिसमें कहा गया है:-
दंत: केश: नख: नर: न शोभन्ते स्थान: च्युत।
इस घटना ने मुझे समाज के प्रति इतना कठोर बना दिया है कि आज मैंने यह फैसला किया है कि आज से मैं इस समाज के लिए नहीं रोऊँगा। आज से मैं सिर्फ अपने लिए जीऊँगा। अभी कुछ ही देर पहले एक कविता लिखी है। अब मुझे अपने अंदर अभी-अभी उत्पन्न हुए कवि के लिए जीना होगा।.....आजकल मेरे मम्मी-पापा मेरे लिए लड़की ढूँढ़ रहे हैं। परन्तु अब मैं सोचने लगा हूँ कि मुझसे कौन लड़की शादी करेगी। वो भी एक 'विकलांग` से!.....आज जब मैं ऑफिस से आया तो मम्मी ने बताया कि हमने तुम्हारा रिश्ता पक्का कर दिया है; लड़की के पापा जीवन की अंतिम सांस गिन रहे हैं इसलिए शादी परसों ही है। मैं मम्मी को केवल इतना ही कह पाया कि मैं कल उस लड़की के पापा से मिलूँगा।.....आज मैं उस लड़की के पापा से मिलने गया। मैं उनको शादी से मना करने गया था परन्तु मैंने उनकी आँखों में अपनी बेटी के भविष्य को लेकर चिंता देखी। मेरा मन भर आया। मैंने पहली बार एक पिता की बेचैनी को महसूस किया और इसी बेचैनी को देखकर ही मैं मना नहीं कर पाया। मैंने उनको पूरी तरह आश्वस्त करते हुए कहा कि मैं संचिता (लड़की का नाम) को खुश रखूँगा। मैंने जाते हुए संचिता की थोड़ी-सी झलक देखी थी। बहुत ही मासूम चेहरा था उसका। वह बहुत ही सहमी हुई थी मेरा टेढ़ा-मेढ़ा शरीर देखकर। कहीं उसकी मासूमियत के साथ कोई अन्याय ना हो जाए, यही सोचकर मैंने निश्चय किया है कि मैं संचिता को एक मित्र की तरह रखूँगा और उसको इतना आत्मनिर्भर बना दूँगा कि वह आगे का रास्ता खुद तय कर सके।.....आज मैं बहुत खुश हूँ। संचिता की नौकरी की बात पक्की करके आया हूँ। परसों वह अपनी मंजिल की तरफ पहला कदम रखने जा रही है। पता नहीं क्यों इन सात-आठ सालों में मैं संचिता से प्यार करने लगा हूँ। इस प्यार में एक ऐसा अहसास है जिसे मैंने जीवन में पहली बार महसूस किया है। इस अहसास को मैंने उस समय भी महसूस नहीं किया जब मैंने एक लड़की से शादी का प्रस्ताव किया था (जिसका जिक्र मैं पहले ही कर चुका हूँ)। उस समय मुझे उस लड़की से बहुत-सी अपेक्षाएँ थीं। परन्तु संचिता से कोई भी अपेक्षा नहीं है और सच्चा प्यार वही होता है जिसमें कोई अपेक्षा न हो। मैं संचिता से बहुत प्यार करता हूँ।....."

इस फाइल का एक-एक शब्द बादल बन मेरी आँखों से बरस रहा था। इस बरसात ने मेरे मन पर पड़ी धूल हटा दी। मुझे मेरे मन में मेरा प्यार साफ-साफ दिखने लगा। साथ ही याद आने लगा कि कैसे मैंने उनको बार-बार 'विकलांग` कहा और समझा भी। मेरे मन में नारीत्व जाग उठा जो अभी तक यौवन के नशे में सोया हुआ था। जब नारी में उसके नारीत्व और यौवन का मेल होता है तो ऐसी बरसात होती है जो आसपास हरियाली ला देती है और नारी खुद भी हरी-भरी हो जाती है। मेरे जीवन में भी सूखे हुए सारे पत्ते झड़ चुके थे और ऐसी बरसात हुई कि मैं राहुल के प्यार में हरी-भरी हो गई। यदि कोई राहुल के लिए मेरे इस प्यार के बारे में जानता तो कहता कि यह सब फिल्मी बातें हैं; भला एक लड़की जो इतने सालों से नफरत करती रही उसके अंदर केवल एक डायरी पढ़कर इतना प्यार कैसे जाग सकता है? परन्तु मैं इस समाज को कैसे बताऊँ कि इस प्यार की शुरूआत तो बहुत ही पहले हो चुकी थी मैं ही नहीं जान पाई। वैसे इस समाज को बताने की जरूरत नहीं थी क्योंकि यह समाज मन की आवाज के लिए बहरा है। मेरी किस्मत अच्छी थी जो इस समाज का अंग बनने से बच गई। मैंने फैसला कर लिया कि मैं राहुल को वो सब दूँगी जो इनसे समाज 'विकलांगता` के नाम पर छीनता आ रहा था।

अगले दिन सुबह राहुल अपने दोस्त की शादी से लौट आए। ड्राईवर ने उन्हें हमारे कमरे में व्हील-चेयर पर से पलंग पर बिठाया। उनके आने की आहट सुन मैंने रजाई में मुँह ढक लिया। मुझे सोया हुआ समझ उन्होंने मुझे उठाने के लिए दो-तीन आवाजें दीं। मैं जानबूझ कर नहीं उठी। मेरे नहीं उठने पर उन्होने मेरा हाथ धीरे से पकड़ा और कहा-"संचिता जल्दी उठो, तुमने आज स्कूल में ज्वॉइन करना है। पहले दिन देर नहीं होनी चाहिए।" उनका वह हल्का-सा स्पर्श मुझे बहुत अच्छा लगा और उनका वह 'तुम` कहना मुझे उनके और भी नजदीक ले आया। जब किसी के लिए मन में प्यार उत्पन्न होता है तो उसकी साधारण-सी बात भी अपनेपन से भरी होती हैं। मैं रोजाना मम्मी के कमरे वाले बाथरूम में नहाती थी। परन्तु उस दिन मैं दरवाजे की ओट में छिपकर राहुल को देखने लगी। शादी में जाने के कारण वे उस दिन जल्दी नहीं नहा सके इसीलिए वे उस समय नहाने जा रहे थे। उनके बाथरूम में जाते ही मैं कमरे में गई और पहली बार उनके लिए ऑफिस जाने का सामान तैयार करने लगी। बहुत अच्छा लग रहा था यह सब करते हुए। मैं सोच रही थी कि क्यों मैं इतने दिन इस खुशी से दूर रही। मैं यह सब सोच ही रही थी। इतने में मम्मी आई और मुझसे कहने लगी-"मुनिया बेटी, राहुल बता रहा था कि अभी-अभी किसी मंत्री की मृत्यु हो गई है इसलिए आज शहर में सभी ऑफिस और स्कूल-कॉलेज बंद हैं। बेटी, आज तो तुम्हें यहीं रुकना पड़ेगा।" मैं बहुत ही खुश हुई कि अब मुझे रुकने के लिए कोई बहाना नहीं बनाना पड़ेगा। संयोग से एक बात और हुई कि मम्मी-पापा को कहीं जाना पड़ गया। उनका अगले दिन सुबह तक लौट आने का कार्यक्रम था। सारी बातें मेरे पक्ष में जा रहीं थीं। उस दिन मैं बहुत खुश थी क्योंकि मैं अपने जीवन में आने वाली बहार को देख रही थी।

मम्मी-पापा के जाने के बाद मैंने चुपके-से नौकर को एक दिन के लिए उसके अपने घर भेज दिया। जब राहुल को नौकर के जाने के बारे में मुझसे पूछा तो मैंने कहा-"उसकी पत्नी बहुत बीमार थी इसलिए मैंने उसको घर भेज दिया। आप चिंता मत कीजिए, मैं सब संभाल लूँगी एक दिन की तो बात है।" इस पर राहुल हल्के-से मुस्करा दिए जोकि शुरू से ही उनकी आदत थी। उस दिन सुबह मैंने बडे ही चाव से उनके लिए खाना बनाया। मैं हम दोनों का खाना इकठ्ठा डाल लाई। जब वे अपने-आप खाना खाने लगे तो मैंने उनपर थोड़ा-सा अधिकार जताते हुए कहा-"मैं हम दोनों का खाना इकठ्ठा यूँ ही नहीं लाई, आज मैंने आपको अपने हाथों से खाना खिलाना है। आप मना करेंगे तो भी....।" राहुल एक बार तो मेरी तरफ देखते रह गए परन्तु हर बार की तरह वे हल्के-से मुस्करा दिए और खाना खाने के लिए तैयार हो गए। जब मैंने उनके मुँह में पहला कोर डाला तो मेरी उँगलियाँ उनके होंठों से छू गईं। उस पहले स्पर्श से मेरे पूरे शरीर में लहर-सी दौड़ गई। दूसरा कोर मैंने खाया तो मुझे खाना इतना अच्छा लगा जितना पहले कभी नहीं लगा। मुझे इतनी ज्यादा खुशी हुई कि मैं रोने लगी। मुझे रोता हुआ देखकर राहुल घबरा गए। उन्होने घबराकर पूछा तो मैंने फटाफट आँसूं पोंछते हुए ऐसे ही झूठमूठ कह दिया-"नहीं, कोई बात नहीं है। वो तो मैं यह सोच रही थी कि कल मैं अकेली रह जाऊँगी। मुझे आप सभी की बहुत याद आएगी। बस यही सोचकर रोना आ गया।" इसपर राहुल ने मेरे गालों को हल्के-से थपकाते हुए कहा-"अकेली कैसे रह जाओगी? मैं और मम्मी तुम्हारे पास आते रहेंगे। और वैसे भी भगवान ने चाहा तो जल्दी ही तुम्हारा अपना संसार भी बस जाएगा। चलो अब जल्दी-सी खाना खा लेते है फिर शतरंज खेलेंगे।" अनजाने में ही उन्होने मुझे वह आर्शीवाद दिया जिसकी मुझे आज सख्त जरूरत थी।

शतरंज खेलते-खेलते शाम हो गई। मुझे शतरंज खेलना इतनी अच्छी तरह नहीं आता था। परन्तु उस दिन मैं जीत रही थी। मैं हर जीत पर बच्चों की तरह उछल उठती और राहुल बच्चों की तरह झुँझलाकर कहते-"इस बार जीतने नहीं दूँगा।" उनकी झुँझलाहट देखकर मुझे और भी हँसी आ जाती। परन्तु आखिरी तीन बाजियों में उन्होने मुझे चार-पाँच चालों में ही हरा दिया। मुझे पता लग गया कि वे दिनभर जानबूझ कर हारते रहे। मेरे बार-बार पूछने उन्हें इसका कारण बताना पड़ा। उन्होने कहा-"मैं तुम्हारे चेहरे पर मुस्कान देखने के लिए कभी भी हार सकता हूँ।" यह सुनकर मैंने कहा-"आप हारकर भी जीत गए।" फिर वही हल्की-सी मुस्कान थी उनके चेहरे पर।  ---


भाग - 2

कुलदीप सिंह ढाका 'भारत`
फरवरी 1, 2007

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