मुखपृष्ठ  |  कहानी कविता | कार्टून कार्यशाला कैशोर्य चित्र-लेख |  दृष्टिकोण नृत्य निबन्ध देस-परदेस परिवार | फीचर | बच्चों की दुनिया भक्ति-काल धर्म रसोई लेखक व्यक्तित्व व्यंग्य विविधा |  संस्मरण | साक्षात्कार | सृजन स्वास्थ्य | साहित्य कोष |

 

 Home | Boloji | Kabir | Writers | Contribute | Search | FeedbackContact | Share this Page!

 

आत्म-समर्पण

'सुनो कंवर साब! आज एक अजीब बात सुनी है।' पापाजी ने आकर बैठते हुए कहा।

'क्या पापाजी?'परेश ने कुर्सी की तरफ ईशारा करते हुए मुस्कुराकर पूछा।

'पूरी कॉलोनी में सबने अपने घरों के मुख्य-द्वार पर दोनों ओर हल्दी और मेंहदी के थापे मार रखे हैं।' उन्होंने अचरज के साथ बताया।

'क्या?'सुनकर परेश अचम्भित रह गया।

'हां,मुझे तो सुबह विपिन ने बताया तो एकाएक मुझे तो विश्वास ही नहीं हुआ। मगर जब मैं शाम को टहलने गया तो देखा,वाकई सबने थापे लगा रखे हैं।जगह-जगह औरतें भी खडी ख़ुसुर-फुसुर करती दिखी' उन्होंने आगे बताया।हम दोनों की बातें सुनकर प्रतिभा भी पास आकर बैठ गई।

'देखो प्रतिभा, पापाजी क्या बता रहे हैं?' परेश ने पत्नी की ओर मुखातिब होकर कहा।

'हां पापा, सुबह सामने वाली भी बता रही थी। कहते हैं तीन चार चुडैलें कहीं से छूटकर यहां आ गई हैं। घर-घर जाकर रोटी-प्याज माँगती हैं। यदि कोई तरस खाकर रोटी-प्याज दे देता है, तो रोटी तो वहीं फेंक देती हैं, प्याज को दरवाजे पर ही मुठ्ठी में भींचकर फोड देती हैं और उसका रस चूसकर पी जाती हैं। जिस-जिस घर में उन्होंने एसा किया है,उसी घर के बच्चे बीमार पडने लग जाते हैं। घर में भी तरह-तरह की मुसीबतें आने लगती हैं। प्रतिभा ने पूरी बात बताई। परेश जानकर हैरान रह गया कि हमेंशा पढाई-लिखाई में लगी रहने वाली उसकी पत्नी इस तरह की बातों में भी रुचि लेती है।उसने इस तरह से पूरी घटना का
वर्णन किया कि वो देखता ही रह गया।

'अच्छा,इसलिए सबने अपने घरों के मुख्य-द्वार पर दोनों ओर हल्दी और मेंहदी के थापे मार रखे हैं।क्यों? लोग भी बस, बात का बतंगड बना लेते हैं और अंधविश्वास में कुछ भी करने लगते हैं। रोटी मांगने-खाने वाली आती ही रहती हैं। चांस की बात है उसी दिन किसी के घर में कोई बच्चा बीमार पड ग़या होगा। बस फिर क्या था?अफवाह उडते देर लगती है भला? रोटी-प्याज का किस्सा लोगों ने घड लिया और बस शुरु हो गये हल्दी और मेंहदी के थापे।' परेश के गले नहीं उतर रही थी ये बातें।

'हां, कंवर साब! मैं तो खुद ये देखकर हैरान हूं। आज जबकि आदमी चांद पर जा रहा है। हम अब भी अंधविश्वासों से घिरे पडे हैं।'

'और नहीं तो क्या?' परेश ने तुरन्त जोड दिया।

'लेकिन सुनो, कुछ तो जरूर होता होगा। तभी तो सबने ऐसा किया है।हम भी थापे लगा लें क्या? देखो,अपने भी छोटे-छोटे बच्चे हैं।' प्रतिभा के चेहरे पर भय के भाव स्पष्ट दिख रहे थे।माँ जो ठहरी।

'क्या बेवकूफों जैसी बातें करती हो? इन सबसे क्या होता है? तुम तो पढी लिखी हो प्रतिभा। तुम एसी बातें करोगी?' परेश ने हल्के-से क्रोध के साथ कहा।

'देखो पापा,आप समझाओ ना। यहां भी रोटी माँगने वाली आती रहती हैं। एक तो कल ही आई थी।' प्रतिभा ने अपने पिता को एप्रोच किया।किन्तु पिता इस पशोपेश में थे कि दामाद की बात को कैसे काटें? हालांकि उनके मनोभावों से भी लग तो एसा ही रहा था कि वो भी वही चाहते हैं जो प्रतिभा चाहती है। लेकिन वे कुछ कहते उससे पहले ही परेश बोल पडा 'देखो पापाजी।कैसी बातें करती है?'

'नहीं प्रतिभा एसा नहीं करते बेटा। ऐसा कभी होता है क्या? ये सब अफवाहें हैं। अंधविश्वास के सिवा कुछ भी नहीं।अच्छा कंवर साब मैं चलता हूं।'कहकर वो उठ खडे हुए। परेश बाहर तक उनको छोडक़र आया और वापस कुर्सी पर आ बैठा।अखबार देखने लगा। प्रतिभा जाकर बच्चों का होमवर्क कराने लगी।

रात को सोते समय अचानक प्रतिभा ने बात शुरू की 'देखो सब कह रहे हैं वो चुडैलें यहीं घूम रही हैं कभी-कभार नजर आती हैंअक्सर नजर नहीं आतीसामने वाली कह रही थी , प्रतिभा तेरे तो छोटे-छोटे बच्चे हैंतुझे तो अपने घर के बाहर जरूर लगाने चाहिए हल्दी और मेंहदी के थापेआप समझते क्यों नहीं? कल को कुछ हो गया तो?' उसके स्वर में डर था

'अरे पगली! कुछ नहीं होगा। एसा कभी होता है?' परेश ने उसकी सामने झूलती लट को सम्हाल कर कान के पीछे करते हुए कहा।

'मुझे तो डर लग रहा है।'

'डरने की क्या बात है?मैं हूं तो सही।'

'आप तो दिनभर ऑफिस में रहते हैं। मैं बच्चों के साथ घर में अकेले रहती हूं। आपके पीछे से वो आ गई तो?'

'कोई नहीं आएगा। तुम तो बेवजह इतना डर रही हो। तुम इतनी पढी-लिखी होकर कैसी बात करती हो?'

'माँ हूं ना।ममता कब पढी-लिखी होती है?'उसने ब्डी ही मासूमियत से कहा।

'पगली कहीं की।'लाड में परेश ने उसे गले से लगा लिया और वो बच्चों की तरह उससे लिपट कर सो गई। पास ही बच्चे भी सो रहे थे, निश्चिंत। परेश भी आंखे बन्द कर के लेट गया।

सुबह का समययानि भागदौड का समय बच्चों को नहलाना धुलानाफिर उनको नाश्ता कराना,दूध पिलानापरेश को ऑफिस की जल्दी अलगसबकुछ के बीच प्रतिभा बेचारी फिरकी हो जाती हैतिस पर बच्चों का खाने पीने मे नाक-भौं सिकोडना। प्रतिभा उनको डांटती रहती है और बडबडाती रहती है

पम्मी तो एसी बदमाश है कि घण्टों मुंह में खाना लिए बैठी रहती हैखाती ही नहीं है प्रतिभा बार-बार उसको टोकती रहती है ' जल्दी खा लेऑटो वाला आने वाला है जल्दी-जल्दी दूध पी फिर' लेकिन वो है कि मुंह में रखे कौर को ही चिगलती रहती है

'देखो, आप कुछ कहते क्यों नहीं इसको? देखते रहते हो बैठे बैठे।' उसने परेश को डपट दिया।

'बेटा जल्दी-जल्दी खाओ। देखो बॉबी कितना अच्छा बच्चा है? फटाफट खा लेता है।' उसने तुरन्त बच्ची को टोक दिया।पास ही बैठा बॉबी मुस्कुरा दिया।परेश ने उसके गाल पर एक चपत लगा दी और झडका कर मौजे पहनने लगा।

'ले खा।' प्रतिभा ने पम्मी के मुंह में एक कौर और ठूंस दिया था।उसका मुंह बिल्कुल भर गया था। उसको चबाने में भी बडी दिक्कत हो रही थी।बॉबी अपना नाश्ता पूरा करके अपना बैग सम्हालने में लगा था। अचानक पम्मी ने जबरदस्त उल्टी कर दी। पूरी यूनिफॉर्म और डाईनिंग टेबिल गंदी हो गई। परेश ने दौड कर उसे सम्हाला,' 'क्यों तुम इसके साथ जबरदस्ती करती हो? जितना खाये ख़ाने दो।बेकार क्यों ठूंसती हो?' प्रतिभा एकदम जैसे जड हो गई थी। उसको समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करे? 'कोई कपडा लाओ भई।'परेश ने जोर से कहा ,तब उसकी चेतना लौटी।भागकर उसने कपडा दिया। बच्ची के हाथ-मुंह धुलवाए,कपडे बदले। इतने में ही ऑटो वाला आ गया और बच्चे स्कूल चले गए।अनमनी- सी प्रतिभा काम में लगी रही। परेश भी खा-पीकर ऑफिस के लिए निकल गया।

लंच के समय उसको याद आया कि बच्चे स्कूल से आ गए होंगेचलो,पम्मी की तबियत पूछ लूं। फोन मिलाया,घंटी बजने लगी उधरकाफी देर बाद प्रतिभा ने उठाया, 'हैलो'

'मैं बोल रहा हूं। बच्चे घर आ गए? पम्मी की तबियत कैसी है?' इधर से परेश ने रूटीन टोन में पूछा।

'बच्चे तो आज घण्टे भर बाद ही आ गए थे। स्कूल की वैन छोड गई थी। पम्मी को स्कूल में भी दो-तीन बार उल्टी हो गई थी।'

'अब कैसी है उसकी तबियत?' उसके मन में अजीब-सी घबराहट होने लगी ।

'अभी तो सो रही है।'

'बॉबी क्या कर रहा है?' परेश घबरा रहा था। कहीं प्रतिभा की बात ही सच ना हो रही हो।

'वो भी सो रहा है।'

'ठीक है। मैं आज जल्दी निकलने की कोशिश करता हूं।'

'नहीं, आप आराम से आओ। अब तो वो ठीक है।' क़हकर प्रतिभा ने फोन रख दिया। किन्तु परेश के मन में अजीब-सी अकुलाहट होने लगी थी। किसी काम में जी नहीं लग रहा था।बार-बार मेंहदी हल्दी को थापों वाली बात याद आ रही थी। रात को जिसे उसने अंधविश्वास कह कर प्रतिभा को समझाया था। बार-बार उसका ध्यान अब उसी दिशा में जा रहा था। जी उचाट होता देख, अपने सहयोगी को काम सम्हला कर 'सिरदर्द हो रहा, यार।' कह कर वो ऑफिस से जल्दी निकल गया।

कभी मन में खयाल आता कि 'कहीं प्रतिभा जो कह रही थी वे सच तो नहीं' फिर अगले ही पल सोचता 'एसा होता है कहीं? खाने पीने में कोई गडबडी हो गई होगीबच्चे हैं, सो चीजें खाते हैं दिनभर में' बस इसी उधेड-बुन में खोया वो घर की तरफ स्कूटर दौडा रहा था पता ही नहीं चला कि कब घर आ गयाजल्दी से उसने स्कूटर को स्टैण्ड पर लगाया और तेजी से भीतर की ओर दौडाउसने देखा घर के दरवाजे के दोनों ओर मेंहदी और हल्दी के दो-दो थापे लगे थेना जाने क्यों, उन थापों को देखकर उसको एक अजीब-सा संतोष हुआ और उसकी चाल अपने आप धीमी पड ग़ई

संजय विद्रोही
अप्रेल 15, 2005

Hindinest is a website for creative minds, who prefer to express their views to Hindi speaking masses of India.

 

 

मुखपृष्ठ  |  कहानी कविता | कार्टून कार्यशाला कैशोर्य चित्र-लेख |  दृष्टिकोण नृत्य निबन्ध देस-परदेस परिवार | बच्चों की दुनियाभक्ति-काल डायरी | धर्म रसोई लेखक व्यक्तित्व व्यंग्य विविधा |  संस्मरण | साक्षात्कार | सृजन साहित्य कोष |
 

(c) HindiNest.com 1999-2021 All Rights Reserved.
Privacy Policy | Disclaimer
Contact : hindinest@gmail.com