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भाग-3
नदी

 मानसी,     
असंख्य दिशाओं में फैली हुई
, असंख्य तरंगों और कणों से भरी हुई यह घनीभूत सृष्टि काल-प्रभाव में उद्भव, विकास और प्रलय परिणामी है। लेकिन ये दिशाएं, इनका कभी कहीं खत्म न होने वाला यह अनंत विस्तार, प्रलय की दषा में भी, स्थिर रहने को..........।

'आधेय', स्वसृष्ट' कहूँ। और क्या? काल' भी प्रागपेक्षा रखता है इस दिक्‌' की। अपने होने के लिए। लिख रहा हूँ यह सबकुछ, इसलिए कि यह सृष्टिट जैसी दिखती है, उसके अतिरिक्त भी कुछ है। इसीलिए कि काल अतीत बनकर मरता नहीं है। और, भविष्य अजन्मा नहीं है। 

सापेक्षता के अपने सत्य हैं, होते हैं। लेकिन निरपेक्ष सत्‌ का निहितार्थ कुछ और होता है। आष्चर्य मत करना एलोहिम' हो तुम, इसलिए लिख रहा हूं मैं!  

जे समझ के भीतर है, वह इतना महत्वपूर्ण नहीं है, जितना वह, जो समझ के परे है। और वह जो समझ के परे है, आखिर उसे समझ के दायरे के भीतर लाना तो पड़ेगा। लिख रहा हूँ मैं यह सबकुछ। मानसी, अग्नि हो तुम, शाश्वत अर्थ हो तुम! तुम नहीं तो और किसे लिखूं सामान्य व्यक्ति हूं मैं। मेरा मानना है, जीनियस दस प्रतिषत होता है, नब्बे प्रतिषत परिश्रम! बचपन से लेकर अब तक परिश्रम के अतिरिक्त और कुछ जाना ही नहीं। ज्ञान,प्रेम और सन्यास यही पुरूच्चार्थ हैं मेरे। नॉन ट्रेडिषनल हूं। कहते हैं, सामान्य व्यक्ति नॉन ट्रेडिशनल नहीं होता। इससे क्या

रविवार का आगमन हो चुका था। जनवरी का महीना। अमावस्या की रात। बारह बज चुके थे और जन्म हुआ मेरा। आष्चर्य है मेरा जन्म, कहती है मेरी मां। कारण वे ही जानें। परिवार में तीसरा हूं।  यूं ही लिख दिया। इसका अर्थ कुछ भी तो नहीं। पढ़ाई में कभी मन नहीं लगा। स्कूल के पास नदी थी, छोटी-सी। वहीं बैठा रहता।  इस संसार में अपने फिर से आने आ अर्थ ढूंढंता। काल में खोता, दिषाओं में प्रवाहित होता और उस अदृष्य रिएल्म' में पहुंचकर आनंदमग्न होता, जहां से आया हूं। यही है मेरे अबोधपन का जानना। और यही, मेरी मां और मेरे पिता की दुष्िचता का विषय, उस समय।  

कक्षा में षिक्षक बतला रहा था एक दिन, सूरज पूरब से उगता है, नदी पहाड़ से निकलती है, दो और दो चार होते हैं। गलत लगता था उस दिन।  गलत लगता है अब भी। सवाल सही या गलत होने का नहीं है, सवाल लगने का है। निरपेक्ष दृष्टि कई बार नकारात्मक लगती है।  दृष्टिट अब भी डिवियेटेड' है। निरपेक्ष' कैसे कहूं स्वीकृत सापेक्ष आकारिकता में नहीं बैठती यह दृष्टिट।  सूरज पूरब से नहीं निकलता। जहां से निकलता है सूरज, वह पूरब होता है। अनकॉमन होती हो तुम और मैं प्रेम में होता हूं।'' पूर्व का अपना सुख है और सूर्य की अपनी नियति। ईश्वर बाधित होता है, अमर होने के लिए। ओम्नी' है ईश्वर, यह उसकी नियति हैं। ऐसी ही किसी स्थिति से घबराकर बुद्ध ने कहा- निब्बान' बुझ जाओं।  लेकिन क्या घट सका यह सबकुछ? नहीं मानसी, संप्रज्ञात है सबकुछ, तभी तो बोधिसत्व की उद्घटना हुई। नदी कभी नहीं मिलती सागर से। कभी समाहित नहीं होती पूरी तरह। निकलती भी कहां है पहाड़ से। अपने होने से निकलती है नदी। अपने अस्तित्व से निकलती है नदी। सबकुछ अपने ही अस्तित्व से निकालता है। मैं भी अपने ही अस्तित्व से निकला हूं शैषव से यह बात जानता रहा हूं। यही है मेरी पीड़ा। मेरा दर्द!
बहुत कुछ लिखना है। फिर लिखूंगा
, बहुत शीघ्र।
तुम्हारी आतुरता का अपनापन हूं मैं!
सिद्धार्थ
सिद्धार्थ!  मैंने उसका नाम अपने होठों से लिया
, छुआ और झुकरकर चूम लिया। बहुत देर तक मेरा सिर उस पत्र पर झुका रहा और मेरे आंसू उसे भिगोते रहे। क्या महज कागज पर लिखे चंद शब्द हैं ये...........। नहीं, तुम्हारे अस्तित्व का एक हिस्सा हैं ये........। जिसने न सिर्फ मुझे बल्कि समूची सृष्टिट को अपने आगोश में ले लिया है। तुम्हारी सोच सिद्धार्थ, सिर्फ मुझ पर नहीं, समूची सृष्टिट पर केंद्रीभूत होती है। तुम्हारे लिए मानसी नहीं हूं मैं, सृष्टिट हूं समूची।  तुम मुझमें समूची सृष्टि देखते हो और सृष्टि में मुझे................।
सिद्धार्थ
, क्या हो तुम, कौन हो तुम? और यह तुम्हारा प्रेम कैसा है? जो ' काल ' और '   दिक्‌ ' की सीमाओं पर पार करता हुआ अखंड ब्रह्यांड में व्याप्त हो गया है। सिद्धार्थ, तुमने मुझे चुना, तुमने मुझे इस प्रेम के लिए चुना तो कोई तो बात होगी। कोई तो रहस्य होगा जो तुमने मुझे बताया नहीं अभी तक। ऐसा कैसे मुमकिन है कि करोड़ों मनुष्यों से अटी पड़ी इस पृथ्वी पर तुमने मुझे बेसाख्ता ढूंढ़ लिया। सिद्धार्थ चुने जाने के भी कुछ रहस्य होते हैं।  जिन्हें हम नहीं जान पाते और ' डेस्टिनी ' कहते हैं। लेकिन जब हम उसके रहस्य जान लेते हैं, तो वह ' डेस्टिनी 'नहीं रह जाती।  यह ' डेस्टिनी 'नहीं है सिद्धार्थ तो बताओं क्या है यह?
लेकिन ये दिषाएं, इनका कभी कहीं खत्म न होने वाला यह अनंत विस्तार, प्रलय की दषाओं में भी स्थिर रहने को.........।''
और सिद्धार्थ, जहां तक मैं तुमको समझ सकी हूं, ' अभिषप्त ' ही तो कहना चाहते हो तुम, लेकिन क्यों आधार पर स्वतः ' आधेय 'भी होता है, तो फिर अभिशप्तता कैसी? ' स्व-सृष्ट ' तो अपने-आपमें आनंदित होता है। मैं खुद भी तो यही जानना चाहती हूं कि आखिर ' काल ' होता क्या है? क्या दो 'आधेय' अपने आपमें 'स्व-सृष्ट' नहीं हो सकते? क्या बिना 'दिक्‌' के काल का अस्तित्व संभव नहीं है? क्यूं 'दिक्‌' की प्रागपेक्षा में देखते हो उसे? और देखते हो खुद को और किसकी प्रागपेक्षा में?
वर्तमान, अतीत और भविष्य ये तीन अलग कालखंड नहीं है सिद्धार्थ। इन तीनों का अस्तित्व निरपेक्ष काल में एक साथ है, इतना तो मैं भी समझती हूं। 'कंटीन्यूइटी' सापेक्ष सत्य है। निरपेक्ष स्थिति ही वह स्थिति है, जिसे मैंने अपने में जाना है। अपने में अवस्थित होकर जाना है। 'डेवियेटेड' हो तुम, तो क्या फर्क पड़ा यही तो सुख है। यही है प्राप्ति।  सापेक्ष आकारिकता कब इसकी जरूरत थी तुम्हें? कहां जरूरत है तुझे? जगत्‌ को उसके निरपेक्ष में जाना।  मूल्यों को स्वनिर्माण में।
'
एलोहिम ' हूं मैं!  क्योंकि 'एलोहिम' हो तुम!  और हूं सिर्फ तुम्हारे लिए।  मानसी प्रागपेक्षा रखती है तुम्हारी, अपने होने के लिए। तुम्हारे बिना मैं हूं कहां? हूं क्या?
जब एकहार्ट कहता है- ''ईश्वर को मेरी उतनी ही जरूरत है, जितनी कि मुझे उसकी जरूरत है।'' तो ठीक कहता है। जितनी मुझे तुम्हें सुनने की जरूरत है, उतनी तुम्हें कहने की भी होगी, मैं जानती हूं सिद्धार्थ। और तुम कहोगे, मुझे ही कहोगे, तुम्हें कहना ही है...........।
कितना तुम इस जीवन और जगत्‌ को समझ पाए और कितना यह तुम्हारी समझ के परे है यह तो मैं नहीं जानती सिद्धार्थ.........।  पर इस वक्त मुझे सेंट जॉन के शब्द याद आ रहे हैं-
प्रांरभ में शब्द था
, शब्द ईश्वर के साथ था और शब्द ईश्वर था।''
इसे मैं इस तरह कहूंगी-
प्रारंभ में मानसी थी
, मानसी सिद्धार्थ के साथ थी और अब मानसी सिद्धार्थ है।''
ईश्वर बाधित होता है- अमर होने के लिए।  नहीं सिद्धार्थ, वह है ही अमर।
ओम्नी
'- होना उसकी नियति नहीं, उसका होना' है। जिस तरह तुम प्रेम में हो, ऐसा न कहें।  तुम प्रेम ही हो, ऐसा कहूंगी मैं।
बुद्ध किस बात से घबराकर बोले
' निब्बान ' बुझ जाओं। क्या वे स्वयं बुझ सकें? उन्होंने क्यों बचा लिया स्वयं को यषोधरा के बिना किस बुद्धत्व की कल्पना की थी उन्होंने? उन्होंने किस तरह माना कि इस तरह वे बुद्धत्व पा भी सकते हैं और वह पाना बेमानी नहीं हो जाने वाला है। सिद्धार्थ, मुझसे हटकर क्या तुम बुद्धत्व चाहोगे? चाह सकोगे? पा सकोगे जब-जब भी तुम जिस रास्ते पर आगे बढ़ोगे, तुम्हें मैं ही मिलूंगी।
आज मैं यषोधरा बुद्ध से पूछती हूं-
''क्या वह पा सका? क्या इस तरह पाया जा सकता है उसने क्यूं कहा- 'निब्बान'। क्या वह स्वयं बुझ सका?''
म ठीक कहते हो, अपने होने से निकलती है नदी, अपने अस्तित्व से।  तुम अपने अस्तित्व से निकले हो, मैं अपने अस्तित्व से। और, सिद्धार्थ- अस्तित्व एक ही है।  हम दोनों ही अपने बहाव में हैं और लौटेंगे अपने-अपने में स्थित होने के लिए।
मैं जानती हूं सिद्धार्थ
, जब भी कोई व्यक्ति अपने सत्‌ का अन्वेषण करना शुरू करता है या कहें, अपने लिए सत्‌ का अन्वेषण करना शुरू करता है तो किसी भी दिए हुए मार्ग से वह आगे वहीं बढ़ सकता। कोई भी मार्ग उसे लक्ष्य तक नहीं पहुंचा सकता। अपने पथ का निर्माण स्वयं करना होता है। सीढ़ियां बनानी भी होती हैं ओर उन्हें तोड़ना भी पड़ता है। सवाल मंजिल का नहीं है, सवाल सत्‌ का है और सत्‌ मंजिल नहीं हैं  तुम अपने सत्‌ को स्वयं तलाषोगे, अपने खुद के बनाए रास्तों पर। जिस तरह दूसरों के बनाए रास्ते तुम्हारे काम नहीं आएंगे, उस तरह मेरे काम भी नहीं आएंगे। मुझे भी अपना रास्ता खुद बनाना है। पर कैसे कैसे सिद्धार्थ? तुम जानते हो। मैं जानती हूं कि तुम जानते हो। तुम सामान्य व्यक्ति नहीं हो और तुम जानते हो कि नहीं हो।  फिर क्यूं छिपा रहे हो सिद्धार्थ? अपना 'होना' मुझसे क्यूं छिपा रहे हो क्या तुम्हें लगता है एक दिन मैं खुद जान जाऊंगी और क्या तुम मेरे उसी दिन का इंतजार कर रहे हो?
सिद्धार्थ
, कभी-कभी शिद्दत से महसूस करती हूं, न मैं खुद को जान पाई, न तुम्हें...........। मैं खुद को भी जानना चाहती हूं, और तुम्हें भी। तुम्हें जाने बगैर मैं खुद को नहीं पहचानप पाऊंगी  सिद्धार्थ। वह जो होता है, जिसके होने से हमारा अस्तित्व है, उसे जाने बगैर कैसे जान जाएंगे हम कुछ भी।  अपने होने के लिए पहले मुझे तुम्हें जानना है।
निरपेक्ष सत्‌ क्या है सिद्धार्थ
? उसका निहितार्थ क्या है?क्या तुम बुद्ध की तरह कहोगे-'निब्बान'
तुमने कहा था
, 'हमारा मिलना संयोग नहीं है मानसी।' तो क्या है सिद्धार्थ पूर्व निर्धारित योजना।  इसका उद्देश्य क्या है बगैर उद्देश्य के क्या कुछ भी होता है? जब हम कहते हैं सृष्टि अनियम है, तब सिद्धार्थ, उस अनियम के भी कुछ नियम होते हैं।
जहां तक हमारी कल्पना शक्ति जाकर रूकती है- उसके उस पार तक.........। जहां तक यह
'वायड' है, उसके उस पार- उसके भी उस पार- वहां क्या है सिद्धार्थ?

सिद्धार्थ, तुमने एक बार कहा था- अगर मुझे कुछ जानना है तो उसे मैं तुम्हारे साथ जानना चाहता हूं।  क्या हम जान सकेंगे

हर चीज जहां से निकलती है, अंततः वहीं विलीन होती है, तो सिद्धार्थ, मैं तुम्हीं से निकली हूं, तुम्हीं में विलीन होना चाहती हूं। 

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मैंने उसका पत्र संभालकर रख लिया-आत्मा की सबसे ऊंची द्योल्फ पर...........। सिद्धार्थ, सदियां गुजर जाएंगी। हम जाकर फिर लौटेंगे बार-बार -अलग-अलग देहों में, अलग-अलग उद्देश्यों के लिए, पर यह पत्र हमेषा सुरक्षित रहेगा। मैं अब इसे कभी नहीं खोलूंगी और इसका हर शब्द मेरे अंदर बार-बार जन्म लेगा। 

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मैं कई बार अपने अतने अंदर चली जाती हूं कि बाहर से मेरा नाता टूट जाता है। विक्रम मुझे ढूंढ़ता है। होने' की अलग-अलग जगहों पर, उसके हाथ हवा में टकराते हुए खाली लौट आते हैं। उसे यकीन नहीं हो रहा, मैं अपने होने' में नहीं हूं। पहले वह मेरे 'होने' में मेरा 'न होना' पकड़ नहीं पाता था।  अब वह पकड़ लेता है।  वह हैरान है। मैं भी हैरान हूं। ये मुझे क्या होता जा रहा है? मैं सिर्फ पढ़ती हूं, सोचती हूं और बैठे-बैठे सबसे दूर चली जाती हूं। 

मैं जब अपनी देह छोड़कर अलग हटती हूं और देखती हूं उसे, तो मुझे, उस पर तरस आजा है। और क्या-क्या करोगी तुम? क्या जो नियत था तुम्हारे लिए, अभी तक पूरा नहीं हुआ है कब खत्म होंगे सारे काम? और हम मुक्त होंगे। हम...........? हां, हम दोनों.......। आत्मा से असीम होते हुए भी देह की सीमाएं हैं हमारी-इसके कर्मो से कितना ज्यादा बंधे हैं हम.........। 

मैं अपनी देह को ध्यान से देख रही हूं ......। समय वहां भी अपना प्रभाव छोड़ता है बल्कि वहां ही छोड़ता है। मैं देख रही हूं ........धीरे-धीरे बदलता हुआ मेरा चेहरा और जिस्म.........। इसी तरह चलते हुए मैं एक दिन बुढ़ापे में प्रवेश कर जाऊंगी तब.........

तब भी मानसी, मैं तुम्हें इसी तरह प्रेम करता हूं। मुझे अनायास सिद्धार्थ की बात याद आई।  मैं अपने में वापस लौटी। 

उसने कहा था- ''मानसी 'काल' और 'दिक्‌' की सीमाओं को पार करते हुए मैं रहूंगा तुम्हारे साथ।  मानसी, दूर होना अलग होना नहीं है।'' अलग तुम हो ही नहीं। पहले तुम्हें अपने से बाहर देखती थी, अब अपने अंदर देखती हूं ......। 

मैं उसका 'एड्रेस' देखती हूं , क्या जवाब दूं ? नहीं, अभी वह कह रहा है कुछ, कुछ कहने की कोशिश कर रहा है।  अभी उसे सुन लूं पूरा, जान लूं कुछ और-फिर लिखूंगी-लिखूंगी ही-उसे नहीं तो ओर किसे लिखना है .......। 

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मैं इंतजार करती हूं दूसरे खत का और वह आता है- बादल के एक टुकड़े की तरह मेरी आंखों में उतरता है और पूरा का पूरा आसमान ही हो जाता है.....अनंत........तारों- नक्षत्रों........अनंत रहस्यों से भरा एक समूचा आसमान........चांद को अपने आगोश में लिए.........

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मानसी

      पूर्वजन्मों और पुनर्जन्म की धारणाओं से संबंधित आस्थाओं के बहुत कथन, उदाहरण और संदर्भ हमने सुने। कृच्च्ण कहते हैं अर्जुन से ''तुम्हारे और मेरे अनेक जन्म हो चुके हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि मैं जानता हूं और तुम नहीं जानते।'' किस तरह लिया होगा कृच्च्ण के इस कथन कोक, अर्जुन ने लोग किस तरह आर्च्चग्रन्थ पढ़ते हैं? खासकर तुम किस तरह 'रिएक्ट' करती हो, इसे और ऐसे कथनों पर यह बहुत महत्वपूर्ण है मेरे लिए। 'मैं तुमसे प्रेम में हा्रेता हूं और यह जानने की कोषिष करता हूं कि मैं तुमसे प्रेम में क्यों होता हूं ?' हम प्रेम में हैं, तो हैं काफी हैं। लेकिन मानसी, यह काफी होना ही सबकुछ नहीं है। मनुष्य आस्थाओं में ही पूरी जिंदगी गुजार जाता है शायद। यह समझकर शांत हो जाता है कि उसकी बुद्धि की सीमाएं हैं। लेकिन तुम.....बहुत सारे सवाल उठते हैं तुममें। जानता हूं । अनुभवगम्य ही सबकुछ नहीं होता। संस्कारजन्यता ही सबकुछ नहीं है। अनुभव और अनुभवातीत के बीच दोलन करती हुई यह बुद्धि जब अनुभवातीत के निकटतम पहुंचती है, तब, और तभी तो कह पाता हूं अनायास- तुम्हारे और मेरे अनेक जन्म हो चुके हैं। फर्क सिर्फ इतना है......इतना.......कितना है फर्क मानसी यह तो तुम मुझसे अधिक जानोगी.....।

      सृष्टिट रहस्यों को जान सकने की उपाम लालसा ओम्नीसियेंसी' की तरफ ले जाएगी कभी न कभी....सर्व ज्ञातव्य की ओर.......। लेकिन एक और ललक भी होती है जीवन में कुछ लोगों की।  सृष्टिट रहस्यों पर नियंत्रण कर सकने की ललक।  और भी बहुत कुछ।  हिब्रु माइथालॉजी में एक संदर्भ है........ 'एलिषा' का, 'एलिजा' का। षिष्य और गुरू का। इस प्लेनेट पर, इस धरती पर, अपना निर्धारित समय गुजार लेने के बाद, एलिजा जाना चाहता है। गुरू जाने वाला है। षिष्य 'एलिषा' गुरू से वरदान मांगता है।  विचित्र है। कहता है 'हे शक्तिमान, आपके पास जितनी भी शक्ति है, अतींद्रिय शक्ति, सिद्ध पुरूष हैं आप, जो कुछ भी है आपके पास, उसे दुगुना बनाकर मुझे दे दें।' विचित्र है, जाना है, जाएगा गुझ, पक्का है। प्रेम में है, देना है, देगा, यह भी पक्का है। दुगुना बनाकर। देह चली गई 'एलिजा' की। आत्मा धंस गई है 'एलिषा' में। प्रेम अपनी पराकाच्च्ठा में पूर्णता को प्राप्त कर चुका है। आगे बढ़ता है एलिषा। रास्ता देती है, यर्दन। पार कर जाता है ठीक उसी तरह, जिस तरह एलिजा पार करता था। 'ओम्नीपोटेंसी' की ललक है यह। प्रेम में है गुरू। प्रेम और महत्वाकांक्षाओं का स्वरूप है षिष्य। पूर्ण है गुरू। पूर्ण तो षिष्य भी है अपनी जगह। परमतप है षिष्य। और हमारे थॉयोलॉजिस्ट कहते हैं- तत्ववेत्ताविद् कहते हैं- वर्च्चो बाद, ये फिर जन्म लेतें हैं। लेकिन अब, गुरू षिष्य है, षिष्य गुरू। कौन किससे दीक्षा ले। गुरू जाता है षिष्य के पास दीक्षा लेने। यर्दन नदी के किनारे। हिचक है षिष्य की। गुरू कहता है-

      'लेट इट नि सो।' (इसे ऐसा ही होने दो) मानसी, इस अस्तित्व के प्रति हमारी समझ बहुत न्यून है। कौन है गुरू? षिष्य कौन है? कब, कोई अप्रतिम,जन्म-जन्मातरों का पहचाना हुआ, अनजाना अजनबी-सा, किससे और क्यों मिलता है? क्यों होता है प्रेम? क्यों उगता है सूरज, कौन जाने? लेकिन अभी रात अंधेरी है। रास्ते तो तय करने ही हैं। जाना भी है। सिर्फ जाना ही तो है। आज इतना ही। फिर लिखूंगा। बहुत शीघ्र लिखूंगा।

तुम्हारा सिद्धार्थ

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मैंने पढ़ हैं आर्च्चग्रंथ सिद्धार्थ। तुमसे मिलने के पहले मैंने इन्हें किसी और तरह से लिया था, अब मैं दूसरे ढंग से लेना चाहूंगी। मैं जानती हूं कृच्च्ण ने अर्जुन को ही क्यों चुना कहने के लिए? उसने राधा को ही क्यों चुना प्रेम के लिए? मैं शायद जान जाऊंगी, क्यों चुना तुमने मुझे? ये जो बात कहने के तरीके हैं तुम्हारे, मैं जानती हूं । इतना आसानी से नहीं कहोगे तुम, पर कहोगे। 

      क्या 'रिएक्ट' करूं मैं इस पर। मैं तुम्हारे प्रेम में हूं, यह काफी है मेरे लिए। मैं इतना ही जानूंगी और मानूंगी कि तुम मेरे अस्तित्व के हिस्से हो एक, बल्कि अस्तित्व ही हो।

      तुम यह जानने की कोषिष कर सकते हो कि तुम मेरे प्रेम में क्यों हो? करो और जान जाओंगे, मुझे भी बताना। और मैं जानती हूं , तुम जानते हो? चीजें जिस तरह मेरे लिए हैं, तुम्हारे लिए नहीं। कई बार मुझे भी लगता है, इस असाधारण से लगने वाले प्रेम की कोई असाधारण वजह ही होगी। पर क्या, मैं नहीं जानती। मेरे अंदर भी बहुत सारे सवाल उठते हैं। मैं तो भटकती ही रही हूं सवालों के जंगल में। तुमसे मिलने से पहले और बाद में भी। मैं भी अभी तक अपने रास्ते ढूंढ़ रही हूं सिद्धार्थ। मैं जानती हूं , अनुभवजन्यता और संस्कारजन्यता सबकुछ नहीं। मैं उस अनुभवातीत की झलकियां पा जाती हूं कभी-कभी। पर कभी समझ नहीं पाती। हां सिद्धार्थ, हो चुके हैं कई जन्म हमारे। फर्क इतना है, तुम जानते हो, मैं नहीं जानती।

      मैं जानती हूं, तुम्हारे अंदर सृष्टिट रहस्यों को जान सकने की उपाम लालसा है। और वह तुम्हें कभी न कभी 'ओम्नीसियेंसी' की तरफ ले जाने वाली है। यह कहने का मतलब है, मैं तुम्हें नहीं जानती। तुम जा ही रहे हो-'ओम्नीसियेंसी' की तरफ। सृष्टिट रहस्यों पर नियंत्रण करना चाहते हो तुम। आगे बढ़ो सिद्धार्थ, एक विराट अज्ञात तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है।

      हां सिद्धार्थ,'एलिषा' मांग लेता है शक्तियां 'एलिजा' से, वरदान के रूप में। वह अपनी महत्वाकांक्षाओं के हाथों विवष था। तुम क्या कहना चाहते हो सिद्धार्थ? क्या तुम्हारा इषारा मेरी महत्वाकांक्षाओं की ओर है? मैंने नहीं कहा कभी तुमसे कुछ। तुम क्या जान सके हो, पता नहीं। मैं जानती हूं, मैं तुमसे बच नहीं सकती हूं। मैंने चाहा भी नहीं बचना। हां सिद्धार्थ, मुझमें अदम्य महत्वाकांक्षाएं हैं। एक असह्य बेचैनी, एक अजीब छअपटाहट। मैं कुछ करना चाहती हूं, पर क्या? मैं नहीं जानती। क्या तुम उस मनुष्य की व्यथा का अनुमान लगा सकते हो, जो जीवनपर्यन्त  अपने रास्तों की ही तलाष करता रहा हो। इस वक्त मुझे तुम्हारी नैनीताल में हमारी पहली मुलाकात के दौरान कही बात याद आ रही है- 'कोई रास्ता कहीं नहीं जाता, हम सिर्फ ढूंढ़ते हैं।' हां सिद्धार्थ, मैं सिर्फ ढूंढ़ रही हूं। कितनी बातें हैं, जो मैंने तुमसे कही नहीं, मैं कह नहीं पाई कुछ भी। पर तुम जान गए। तुमने मुझे देखा और पहचान गए। तुम जान गए हो सिद्धार्थ तो कभी न कभी मैं भी खुद को जानूंगी ही-तुम्हारे ही जरिये।

      क्या तुम उस वेदना का अनुमान लगा सकते हो, अपने अंतिम समय में प्यास से परेषान जीसस के होठों से निकलता है.......
      ''
एली-एली........लम्मा........सबक्तानी।''
      (
एली-एली, तुमने मुझे क्यों छोड़ दिया?)
     
हां सिद्धार्थ, इस अस्तित्व के प्रति हमारी समझ बहुत न्यून है। कौन हो तुम? कौन हूं मैं? क्या उद्देष्य है इस मिलन का? मैं भी जानना चाहती हूं तुम्हारे साथ। क्यों होता है प्रेम? क्यों हुआ?

      कई बार लगता भी है, 'क्यों हुआ?' जान कर क्या होता है? हुआ, बहुत है। कमअजकम इस जीवन के लिए तो बहुत है। मुझे याद आ रहा है वह क्षण, जिस क्षण मुझे लगा था, तुम्हें छूना असंभव को छूना है और मैंने असंभव को छुआ सिद्धार्थ। और जब इस असंभव को छुआ है तो किसी भी असंभव को छू सकती हूं मैं। सिद्धार्थ, जब तक मनुष्य है, तब तक प्रष्न हैं। और प्रष्न हैं तो उनके उत्तर भी होंगे ही।

----

मैंने उसका दूसरा खत भी रख लिया उसी तरह। मैं बैठी रहती हूं मूर्तिवत्‌........। रोमी स्कूल जा रहा है। वह मेरे पास आता है......मुझसे कुछ कहता है। मेरे गाल पर प्यार करता है आौर हाथ हिलाता हुआ जा रहा है। मैं देखती हूं खुद को मुस्कराते-हाथ हिलाते हुए। जिस्म जानता है, उसे कब क्या करना है? हमेषा की आदत है........। उसके साथ रहो-न-रहो.....वह कुछ नहीं कहता....।

      आज मैं कॉलेज नहीं जा रही।  जिस दिन सिद्धार्थ का खत आता है......मुझसे कुछ नहीं होता। वह इतना और इस तरह याद आता है कि मैं किसी को 'फेस' करने लायक नहीं बचती। वही बेचैनी, वही छअपटाहट, मेरे अंदर रोना भरने लगता है.......। मैं बहुत मजबूती से अपने को साधे रखती हूं। जब तक विक्रम अपनी 'साइट' पर नहीं चला जाता और रोमी स्कूल........। इसके बाद मैं रो सकती हूं। मैं अपनी दीवारों से सिर टकराकर घायल हो सकती हूं।

      ओह सिद्धार्थ, क्या होगा मेरा? क्या कुछ भी नहीं? क्या तुम इसी तरह याद आते रहोगे ओर मैं इसी तरह रोती रहूंगी?

      अब सिद्धार्थ, मैं थक गई हूं बहुत। मैं 'आबसर्वर' होना चाहती हूं अब। मैं अपने अंदर इस धू-धू जलते ज्वालामुखी से छुटकारा पाना चाहती हूं। पर कैसे? कैसे सिद्धार्थ? क्या हुआ जाएगा मुझसे?

      तुम्हारे इस खत ने एक अजब-सी बेचैनी और भर दी है मुझमें। क्यूं लिखा तुमने 'एलिजा' ओर 'एलिषा' का प्रसंग? क्यूं तुम पूर्वजन्म की बात इस तरह कर रहे हो? क्या कहना चाहते हो तुम? क्यूं कहते हो तुम मुझे-'अग्नि हूं मैं, शाश्वत अर्थ हूं तुम्हारा?' क्या मतलब है इसका? यह सिर्फ प्रेम की उत्पत्ति नहीं है, जैसा कि मैं इसे समझती रही हूं। यह कुछ और है जो मुझे जानना है। सिद्धार्थ, तुम एक बार में सबकुछ क्यूं नहीं बता देते?

      सिद्धार्थ, मेरे सिद्धार्थ, मुझे एक बार और मिलना है तुमसे। अभी मैं पूर्ण तृप्त नहीं हुई तो फिर मुक्त कैसे हो सकती हूं? मुझे एक बार और छूना है तुम्हें-जिस तरह हम 'दिक्‌' और 'काल' को छूते है। हम उसमें होते हैं या वह हममें, यह जानना मुष्किल होगा, होगा न सिद्धार्थ?

      रोज सुबह होती है, शाम होती है। पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती हुई अपना चक्र पूरा करती है। बीज वृक्ष बनते हैं। वृक्षों पर फल लगते हैं। पत्ते झड़ते हैं। जीवन हर रोज नया है। सिर्फ मेरे ही लिए ठहरा हुआ है समय। मुझे अभी भी लगता है, मैं वहां झील की सीढ़ियों पर बैठी हुई हूं, तुम्हारा इंतजार करती। तुम गए हो तो लौटोगे जरूर और तुम्हें जाना कहां है सिद्धार्थ? और तुम जब लौटोगे तो मुझे होना तो वहीं है नं। तुम आओं ओर मुझे न पाकर ढूंढ़ों, ऐसा कैसे होने दूंगी मैं, मेरे प्रियतम! सिर्फ इतना बता दो, तुम कब आओगें?  

जया जादवानी
, 2007

अंक - 1 / 2 / 4 / 5 / 6 / 7 / 8

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