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हिजाब

पता नहीं कहाँ से नफा नामक चीलर उनके रीर में प्रवे कर गया था। वह अपने परिवार के एकछत्र मुखिया थे। कहते हैं चीलर आदमी के पड़ जाए तो आदमी मालामाल हो जाता है या फिर दरिद्र। लेकिन नफा हो या नुकसान चीलर तो हमेशा गन्दगी से ही जन्मता है और वह धन से लबरेज हो जाता है। यह विरोधाभास कैसे ? वह उस गन्दगी से उपजे कीड़े में हमेशा अपने लाभ की सोचते थे। कहते हैं कि फौरी फायदा उन्हें हो भी जाता था। बाद में भले ही नुकसान हो जाता था। लेकिन लाभ की दूसरी युक्ति सोचने से वह नहीं चूकते। 

देवरिया में राज नरायण सरकारी मुलाजिम थे। उनको भगवान ने तीन पुत्र दिए। ग्रामीण मानसिकता में लड़के की आवाज फूटी नहीं लड़की वाले आने लगते हैं। आपसी कहा-कही में बतियाते हैं 'लड़का जवान हो रहा है'। उनके यहाँ भी आने लगे थे। बार-2 की असमय बरदेखुवासी से उनकी पत्नी आजिज आ गयी। संकोच हटा दिया था पत्नी ने, अबहीं शादी न किहल जाई, कुछु पढ़ल-लिखल जरूरी बा न। राज नरायण के नायकत्व का भाव सिर चढ़कर बोलता। 'बउरही नफा की सोचल कर-नफा, बम्बईया पार्टी हौ, बिजनिस करेलन खूब लिहल-दिहल करिहैं। और तुहूं त पतोहिया से हाथ-गोड़ मिसवइबू।' कहकर शरारत भरी मुस्कान मार दिए थे। इतनी सी बात पर भी वह लजा सी जाती थी। ऐसा पुरबिया लोगों का अनुभव कि कलकत्ता वाले हो या बम्बई वाले बिन मांगे घर हमेशा भरते रहते हैं। उनके रिश्तेदारों-पट्टीदारों के अनुभवों से उनमें ऐसी अवधारणा बन चली थी। 

पहलौठी की औलाद हो या बड़ी बहू का बड़ा प्यार-दुलार, मान-सम्मान होता है। बार-बार की अवनी-पठौनी में भी बहू को गौने जैसा ही बिदाई-मिलना मिलता है। राज नरायण का बेटा किसी का दामाद था। दामाद बेहिल्ले का हो तो बेटी के पिता के लिए इससे बड़ा दुख और क्या हो सकता है ? आवारा निकम्मा होता देख बहू के पिता ने नौवीं पास दामाद को बम्बई में कई जगह नौकरी दिलाई। दामाद में ड्राइंग का हुनर इतना काबिले-तारीफ था कि इसी बल पर बहुत जगह नौकरी लगी। परन्तु दामाद को जो मजा मेहरारू के जांघ में और महतारी के कोरा में, खटने में कहाँ। ''राज नरायण का बेटा जब भी बम्बई से लौटता तो अगाध प्रेम की रट, 'हे माई जब सोइले तब तू सपना में आवेलू ऐही खातिर नौकरी छोड़ के चल अइनी', कहते-कहते माँ की गोद में सिर रख ऑंचल से चेहरा ढ़ंक लेता। माँ भी भाव-विभोर, निश्छल प्रेम जान वह कह उठती, 'जाएदा, जैसे कुल्हिन बड़न तुहूं के खियाइब-पहिराइब। अपढ़ माँ की अनुकम्पा उसे अव्वल दर्जे का आवारागर्द और गैर जिम्मेदार बना रही थी। राज नरायण सोचते यदि बहू पढ़ी-लिखी होती तो उनके लड़के को समेट लेती। यह सोच भी उनकी अपनी नहीं थी। वह तो कुछ उच्च-शिक्षित नाते-रिश्तेदारों की सीख थी जो उन्हें सोचने पर मजबूर कर रही थी।

सोच लिया था जब तक दूसरा बेटा नौकरी-चाकरी न करेगा, तब तक ब्याह न करूँगा। नहीं तो पहले वाले की तरह बेटा, बहू और साथ में दो-दो बच्चे भी पालूं।  

राज नरायण के पास खाली वक्त की कमी नहीं थी। उन्हीं घड़ियों में वह सोचते और भय भी खाए रहते, कहीं यह नफा सोच का चीलर नौकरीशुदा दूसरे नम्बर के लड़के में न पड़ गया हो। इसलिए वह इस बार बड़े ही सजग और सतर्क होकर अपने दूसरे बेटे के शादी सम्बन्धी अभियान में सरक रहे थे। वह दूसरे शहर में नौकरी कर रहा था। इस बात से डरे रहते कहीं उसे उनका भी बाप मिल गया और फुसला लिया तो ? उनकी सारी की सारी पिलानिंग धरी की धरी रह जायेगी। उन्होंने पूरी नाते-रिश्तेदारी में फैला दिया था इस जुमले के साथ, 'अब हम दुसरका के शादी करब, निक पढ़ल लिखल लड़की होवे क चाहीं, साथे म उहौ चाही.....।' 

किसी का भी लड़का सरकारी नौकरी में हो तो लड़की वाले टूट ही पड़ते हैं यह बहुत पुराना चलन है। वह बातचीत से लड़की के पिता का स्टैण्डर्ड भाँप लेते, चतुर सुजान जो ठहरे। उसी के अनुसार आवभगत करते। जहाँ जान लेते बात आगे नहीं बढ़ेगी, उसे गुड़-पानी ही पिलाकर भेज देते। रोज अपनी डायरी में नोट करते मिठाई-मठरी का खर्चा। पत्नी के आगे बड़बड़ाते, 'मय सूद के वसूलूंगा'। एक से एक रिश्ते आने लगे थे। वह हर आवन रिश्ते का ब्यौरा बेटे तक पहुंचाना अपना फर्ज समझते थे।

 ऐसी रूढ़ि कि सच्चा पत्नी धर्म वही होता है जो पति के विचारों को ही अपनी प्रवृत्ति माने। यदि वह अपने विवेक का उपयोग करने या स्वेच्छाचारी बनने की सोची भी तो रानी-महारानी से चाकरनी का दर्जा दे देने की धमकी-धौंस देने से नहीं चूकते। साहस हो या दुस्साहस दोनों के लिए शक्ति सामर्थ्य चाहिए, जिसका कि उनकी मातृविहीन पत्नी में अभाव था। पत्नी में निश्ठा-आस्था चौबिस कैरेट जैसी शुध्दता होनी चाहिए, ऐसी ये आम पतियों की आकांक्षा रहती ही रहती है। इसका पालन उनकी पत्नी बखूबी कर रही थी। वह अपनी शातिर-सोच के चलते पत्नी में विद्रोह-विरोध की भावना को ही नहीं पनपने देते थे। परिवार में अपनी मजबूत स्थिति के चलते यदि अंकुरित होते भी तो फूटने के पहले ही उन्हें भनक लग जाती और वहीं उसे वह मसल कर रख भी देते थे, 'अनपढ़ गंवार दिहातिन' या फिर 'घरे मां रहेलू तू का जाना', के दिल भेदी वाक्य स्वाभिमानी पत्नी को भेद जाते और वह चुप हो जाती। 

पत्नी का बड़ा मन था कि रिश्ता वहाँ हो जाए, जहाँ बाप पैट्रोल-पम्प लड़की के नाम लिख रहा है। शर्त यह कि लड़का घरजंवाई रहेगा। पत्नी अपनी दलीलें देती, 'पतोहिया क ह त बेटवा क ह, बेटवा क ह त हमार ह। ऐके पिटिरौल पम्प से हमार ममिया भाय तीन ठौ क लिहलन' त मझिलकौ कै लेई।' राज नरायण पत्नी की इस कुसलाह पर डपटते, 'चुप्प बेकूफ गोसांई के बिटिया हऊ तू, का जाना मनई क नेत। बेटवा ग तौ पम्पवौं गा। अपमान से जन्मी खिसियाहट में वह वहाँ से काम का बहाना करके उठ जाती।

एक दिन राज नरायण की पत्नी बड़ी प्रफुल्लित-उल्लसित सी पति के ऑफिस से आने का इन्तजार कर रही थी। आते ही न चाय न पानी, 'आज हमार भतीज आइल-रहल। कहत-रहल बुआ एगो लड़की बैंक म बा, बाप रिटायर हौ। दहेज ठीक-ठाक मिलिए जाई, काहे कि एक ही बिटिया ओकर बा। यदि नहियो मिल त लड़की सोना का अंडा देय वाली मुर्गी हौ। जब चाहीं तब अंडा मिली।' बात राज नरायण को जम गई थी। यहाँ पर उन्होंने अपनी अन्य अदृश्य शर्तों से समझौता कर लिया था। उन्हें इस बात की पक्की खबर थी कि लड़की वाले सीधे बेटे के पास ही कुण्डली-फोटो लेकर कई बार पहुँच चुके थे। भयभीत राज नरायण शंकाग्रस्त हो उठे कहीं ऐसा न हो शादी में सुस्ती देरी होते देख लड़का ऑफर एक्सेप्ट कर ले। कितनी भी चतुरा होगी बहू या बेकूफ तो भी बहू की कमाई बहू की ही रहेगी। पूत की कमाई तो हमारी ही रहेगी। ना देई त बेटवा के नटई धर के तो लेइब। शादी हो गई, लेकिन मन माफिक विदाई-व्यवहार न पाने की असन्तुष्टि थी। परन्तु पत्नी का ढ़ाढ़स 'सोने का अंडा देय वाली मुर्गी है' ढ़ाढ़स बंधा देता। 

शिक्षा इन्सान को जागृत व सभ्य करती है साथ ही आत्मविश्वास भी बढ़ाती है। और तो और मजबूती भी लाती है। पर स्त्रियों के मामले में हमेशा यह सच नहीं होता है। उनकी मझली बहू राज नरायण की मंशा जान गयी थी। उन्होंने अपनी मंशा को क्रियान्वित भी करना शुरु कर दिया था। उसने सभ्य-शिष्ट तरीके से सास की मार्फत अपनी बात कई बार पहुंचायी थी, 'अम्मा हमारे भी खर्चे हैं हमें भी अपने ढ़ंग से जीना है हम आप लोगों की जिम्मेदारी से मुकर नहीं रहे पर हमें भी स्वतन्त्र ढ़ंग से खाने-रहने तो दीजिए।' ऐसी बातें तो राज नरायण को सुनाई ही नहीं पड़ती थी। बहू कामकाजी स्त्री से घरेलू स्त्री बनती जा रही थी या यूं कहें सबल बहू से एक निर्बल बहू जो घर को ही सजाने-सँवारने और शान्ति से रखने को ही अपना धरम मानती। बहू नौकरी छोड़ घरेलू स्त्री बन गयी थी। पति की कमाई पर पूरी तरह निर्भर यानि आत्मनिर्भर से परनिर्भर।  

वह यह तो चाहते थे बहू स्वावलम्बी तो रहे पर स्वतन्त्र न रहे। पाबन्दी का कोड़ा मेरे हाथ में रहे। उनकी रायशुमारी जाने बिना ही, बेटे की मौजूदगी में बहू का नौकरी छोड़ना, उन्हें लगा जैसे आसमान से नीचे गिर पड़े हों। उन्हें शत-प्रतिशत यही अनुमान हो चला था। पढ़ी-लिखी लड़की ने मेरे भोले बेटे पर अपना माया-चक्र चला दिया था। नहीं तो क्या मजाल बेटा बहू के सुर में सुर मिलाए। 

यह नफा नामक चीलर उनकी प्लानिंग पर पानी फेर गया था। चीलर भी किसी को मालामाल करते हैं सिवा कंगाली के। लेकिन यह लोगों के खुशफहमी में जीने की कल्पना है। जब कभी विवेक जागता तो मन को धिक्कारते। कीचड़ में कमल खिलता है, कमल, पर लक्ष्मी जी का वास है, यानी कि पैसा। अरे यह सब पुराणों की ही शोभा बढ़ाता है। 

लेकिन अभी तक नफा नामक चीलर की उम्मीद उन्होंने नहीं छोड़ी थी। उनकी आशा तीसरा बेटा जो ठहरा। पत्नी भी साथ छोड़ चली। अकेला असहाय बुढ़ापा कैसे निबटेगा यही सोच उन्हें यानि राज नरायण को परेशान किए जा रही थी। तिकड़मी दिमाग में फितरतों की बाढ़ आने लगी थी। उसकी कई धाराओं में इसी धारा में उनकी बहने की इच्छा और जरूरत उन्हें सटीक लगी थी। पेनशन है ही कोई स्वजातीय गरीब कन्या मिल जाती तो अच्छा था। अन्यथा विजातीय ही हो परन्तु हो गरीब ताकि निठल्ले बेटे-बहू पर पेनशन का और मेरा दबदबा रहे नहीं तो इस बुढ़ापे में मेरी क्या अहमियत ? बेटे के बेकारीपन की वजह थी। अचानक बेकारी, बेकारी से काम फिर अनएम्प्लायमेन्ट। रोजगार की अस्थिरता उसके जीवन में बनी हुयी थी। देवरिया से बाहर उसे वह भावनात्मक दबाव डालकर जाने नहीं देते थे। ऐसे में आय और व्यय में बहुत उतार-चढ़ाव आते रहने से मितव्ययिता और सूझ-बूझ से खर्च करने की उसकी आदत छूट गयी थी। अच्छे दिनों में भी जब पुन: रोजगार मिल जाता है तो नियन्त्रित तरीके से धन खर्च करने की आदत छू-मन्तर हो जाती। बेरोजगारी के दिनों में जिन बचनाओं को सहना करना पड़ता उसकी तो मनोवैज्ञानिक रूप से क्षतिपूर्ति निरन्तर उन मानसिक मरीचिकाओं से होती, जी भर कर ऐश करते समय जिनके साथ वह अपने होने की कल्पना करता। अन्तत: ऐसी स्थिति में उनके तीसरे बेटे का पूरे माह का वेतन एक सप्ताह में ही समाप्त हो जाता था। फिर वह अपने कहलाऊ पिता राज नरायण पर आश्रित हो जाता। उसकी इस आदत पर उन्होंने न कभी टीका टिप्पणी ही की नाही नाराज-एतराज किया। 

सफेदपोश राज नरायण को इस बात की भनक लग गयी थी। उनका बेटा खूबसूरत जवान महरिन पर मर रहा था। मन को समझा लेते, बाहर मौज-मस्ती करेगा तो बदनामी होगी। चारदिवारी में कौन जान पायेगा। नाक भी बची रहेगी। इश्क-मुश्क की गन्ध-सुगन्ध कहाँ कैद रह सकती थी। बात मुहल्ले में फैलने लगी थी। बेटा को समझाया, महरिन को डपटा पर सब बेअसर ही रहा। बुढ़ापे में अन्दर ही अन्दर भय भी खाते थे। कहीं बेटा नाराज हो गया तो और और वह काम छोड़ गयी तो सब से हाथ धोएंगे। अलग हुयी बड़ी बहू ने नसीहत भी दी थी, 'बाबू रउवा हमरे चूल्हा मा खाना खांई, छोड़ी उनहन के बड़ बदनामी होखऽऽऽत। बाद म आप ही के पोता-पोती के बियाहे म दिक्कत होई। खबर लगने पर दूसरे बेटे की बहू ने भी अपने तरीके से समझाया था, 'बाबू जी शादी-ब्याह में धन-पैसे, जाति-धर्म का स्तर ना सही परन्तु शिक्षा का स्तर तो देखना ही चाहिए। घर में एक भी अशिक्षित सदस्य हो, वह भी परम्परा वाहक हो तो सोचिए आगे का भविश्य कैसा होगा ? परन्तु उन्हें ऐसी गूढ़ बातें निजी फायदे के आगे कहां समझ में आती। दोनों बेटा-बहू के भारी विरोध के बावजूद विजातीय गरीब, अशिक्षित मजदूर कन्या को बहू स्वीकार लिया था। कन्या भी मन-तन से मालामाल हो गयी थी और मजदूरी से भी छुटकारा मिला था। राज नरायण भी सन्तुष्ट हो गये थे। सुश्रुषा को कन्या रूपी बहू जो मिल गयी थी। अपने से भिन्न जाति की निर्धन लड़की स्वीकारी थी, कुल का नाम दिया था, वह कृतज्ञता के बोझ तले दबी रहेगी तभी तो उनकी हेकड़ी चलती रहेगी। 

अशक्त बुढ़ापा इन्सान में निराशा भरने लगता है। निराशा ज्यादा दिन साथ निभा दे तो हताशा घर करने लगती है। राज नरायण इससे अछूते नहीं थे। समय गुजरने के साथ-साथ तीसरा बेटा भी दो बच्चों का पिता बन गया था। राज नरायण की चिन्ता दिनों-दिन बढ़ती जा रही थी। बुदबुदाते, ' मैं अस्सी पचासी के बीच रन कर रहा हँ, मेरे बाद इस अलहदी बेटे के बच्चों का क्या होगा, जो अभी अबोध असहाय हैं।

उन्होंने हमेशा ही लाभ का सरल शार्टकट ढूंढ़ा था। दोनों बेटे-बहुओं की उपेक्षा से उनका शरीर दुगुने वेग से छीज रहा था। उन्हें अब अपनी जिन्दगी में ज्यादा गुंजाइश नहीं महसूस हो रही थी। नजदीक रहता बेटा उन्हें अब बोझ लगने लगा था। पोतों का बोझ उन्हें तोड़ रहा था। मरने के पहले कुछ उपाय कर लेना चाहते थे। फिर वही सरल और निर्मम रास्ता सूझ गया था। अति फिक्रमन्दी से जर्जरित काया में ताप घर कर गया था। दोनों न सही एक ही पोता कोई गोद ले लेता तो राहत मिलती। मेरे मरने के बाद तंगहाली में बहू खून-पसीना करने लगेगी तो यदि कहीं मासूमों को भी इसी में लगा दिया तो उनका भविष्य , यह भीषण समस्या उनके सामने मुँह बाए खड़ी थी। लिहाजा परिचितों शुभचिन्तकों में एक बात चलानी शुरु कर दी थी। उनसे कहते, 'बहुत से नि:सन्तान दम्पति हैं जो लाख उपायों के बावजूद औलाद से महरूम हैं और अनाथालय की बेरहम-उबाऊ प्रक्रिया में वह गुजरने से परहेज तथा अपमान दोनों ही समझते हैं।  

वह अलगरजी जरूर थे परन्तु असामाजिक नहीं थे। उन्हीं के एक खास मित्र ने एक नि:सन्तान दम्पति को भेज भी दिया था जो संयोगवश समृध्द भी थे। यह जानकर कि वह ठाठ वाले हैं, नफा का चीलर फिर कुलबुलाने लगा था। मन ही मन गणित बैठाने लगे थे। पोते के बदले कुछ चल-अचल मिल जाता तो मेरा वर्तमान-बेटे का भविष्य निश्चिंत हो जाता। लेकिन चौथेपन की लाचारी ने आत्मविश्वास डिगा दिया था। जर्जर काया मन को धिक्कारती मांगूंगा नहीं उनके द्वारा अस्वीकार की स्थिति में मित्रों के मध्य बदनामी और बेरुखी दोनों का सामना करना पड़ सकता था। जीवन के अन्तिम समय में कलंक की सोच रूह कांप उठी थी। कभी भी सिर से पानी ऊपर न गया था। हमेशा ढ़ँकी-तोपी में जी आए थे। अब भी कुछ-कुछ वैसी ही युक्ति सोच रहे थे।  

सभ्य सुशील एक जोड़ा उनके सबसे छोटे पोते, जो मात्र छह माह का था, को पसन्द कर गये थे। उन्होंने बड़े पोते को सयाना मान अस्वीकार कर दिया था। एक सप्ताह बाद मय तैयारी के साथ आने की बात कर गये थे। एक पखवाड़ा बीत गया। नहीं आए। चिन्ता स्वाभाविक थी। दौड़े-लपके, गये परिचित के यहाँ। जो सुना उससे अवसन्न से हो गये थे और मित्रों को जब पता चलेगा तो उघाड़ हो जाऊँगा। 

वह बेटे की नग्नता की थर्राहट से क्रोधाग्नि मे जल रहे थे। सोचा कहीं क्रोध में मामला हाथ से न निकल जाए। वह बेटे को समझाने की मुद्रा में बोले, लेकिन आवाज की तल्खी पर नियंत्रण न रख पाए थे, 'नीच कमीने तुम्हारा जीवन तो नहीं सुधरेगा पर अपने जन्मे की तो सोच, उसकी जिन्दगी बन जायेगी। तू गया और दो लाख की डिमान्ड कर आया। कहता है मैं अपना बच्चा भी दूँ, और कुछ नफा भी न हो, अबे गधे फौरी नफा की क्यों सोचता है।' 

'बाबू जी कल किसने देखा है। नियति बदलते कितनी देर लगती है, अपने खून का भी भरोसा नहीं करना चाहिए।' बेटे के इस अप्रत्याशित घुड़की भरे जवाब से उन्हें काठ सा मार गया था।

 

सहज होते ही वह चिन्तन करने लगे थे। पशु भोजन की तलाश तभी करता है जब उसे भूख लगती है। प्रारम्भिक स्थिति के जीवों में आत्मसुरक्षा की भावना अपने निज की रक्षा से आगे नहीं जाती। उनमें आत्म तत्व प्रबल होने के साथ, वे आत्मकेन्द्रित भी होते हैं। दूसरे वर्तमान तक ही सीमित रहते हैं। वे वर्तमान से हटकर किसी भविश्य की कल्पना कर ही नहीं पाते। तो क्या उनका बेटा पशु बनने की राह पर चल रहा था बल्कि जानवर ही हो गया था। 

अपना पूरा जीवन-चक्र उन्होंने खंगाल डाला था। उनके ही
हमा-हमी के विचार तो उसमें जड़ें भी गहराई तक समाए हुए थे। बच्चों का अभिभावकों से वैचारिक रूप से मेल खाना शायद यही संस्कार है। बदलते समय में जैसे-जैसे निजत्व की भावना का फैलाव होता गया पारिवारिक व्यवस्था चरमराती गयी। व्यक्ति स्वर्ग से गिरकर नरक में पहुँच रहा है। सीधे शब्दों में कहा जाय तो उनका अपना बेटा ही अपने जन्मे का सौदा कर रहा था। इससे बढ़कर नैतिकता का पतन और क्या हो सकता है। उनकी तरह वह भी निजत्व की भावना से ऊपर नहीं उठ पा रहा था। उन्होंने भी तो पूरे जीवन-काल में यही किया था। तो अब क्यों वह उनका सम्मान करने लगेगा। भावी पीढ़ियां तो अपने हितों की रक्षा करने वाले को नहीं अपितु अपने सुखों का परित्याग करने वालों का आदर करती है तो उन्हें यह मलाल क्यों था कि उनका बेटा अनैतिक-अपराध के गड्ढ़े में जा रहा।
 

वे नैतिक कंगाली के भंवर में फंस चुके थे। निजात पाना आसान नहीं लग रहा था। यहां से उन्हें सिर्फ डूबना ही दिखाई दे रहा था। वह सोचने से परे की अवस्था में जाना चाहते थे यानि पलायन ताकि भावों की भीतरी तहें षांत हो सकें। कायरों, डरपोकों की भांति जीना और उस पर साहसी-शराफत का लबादा ओढ़े रहना ही उनकी नियति बन चुकी थी।

नीलम शंकर
फरवरी
22, 2008


 

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