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प्रश्नचिन्ह
उर्दू मीडियम से मैट्रिक पास पिता ने हिंदी में कंपकंपाते हाथों से लिखा था- 'बेटा, सूखे ने फिर फसल चौपट कर दी है। उधारी मिलना भी बंद हो गई है। एक तो बची बित्ते भर जमीन और उस पर झऊआ भर कर्ज की मार...।... बस जल्दी अपनी पढ़ाई लिखाई  पूरा कर और परमात्मा तुझे अच्छी नौकरी दिला कर हमारे पाप काटें।'

संस्थान के डीन का अंग्रेजी में ईमेल आया था-

'छठवें सेमेस्टर की परीक्षा में आप दो विषयों में अनुत्तीर्ण हुए थे और आपको ग्रीष्मावकाश में अध्ययन कर उक्त दो विषयों में आई बैक की उर्तीर्ण करने का अवसर दिया गया था। खेद है कि इस बार भी इन विषयों में आपका सीपीआई 4.5 से कम  है। आपको चेतावनी दी जाती है कि यदि सातवें सेमेस्टर की परीक्षा के साथ आपने इन विषयों में अपनी सीपीआई में सुधार नहीं किया तो आपको संस्थान से रस्टीकेट कर अग्रिम अध्ययन से रोका जा सकता है।'

उसके  पैरों के तलुवे  से लेकर मस्तिष्क के ऊपरी हिस्से तक थरथराहट सी महसूस हुई। उसे लगा कि उसके पैर जमीन पर स्थिर नहीं हैं याकि जमीन में धंस रहे हैं...। उसने अपने पांव उठा कर मेज के नीचे लगे फट्टे पर रख दिये। जोर लगाया तो लगा कि वह चिरर्र से फट जायेगा। वह हैरान था कि यही चिरन उसके अंदर भी महसूस हो रही थी। लकड़ी की टीस उसके हृदय में कैसे प्रवेश कर गई ? .... क्या मूर्त और अमूर्त, अदष्श्य और स्थूल की पीड़ा में गहरा साम्य है ?... क्या जड़ और चेतन की यातना में इतनी गहरी पारस्परिकता है?

उसे अपने हाथों में बेचैनी भरी कसमसाहट सी महसूस  हुई। उसने अपनी हथेलियों और उस पर उगी उंगलियों को ऐसे देखा मानो वो किसी और के हाथ हों, बड़े पराये और अजनबी से....। उसे लगा उसके हाथों में कैक्टस उग आये हैं, नुकीले, कंटीले और वीभत्स...। अपनी दोनों हथेलियों को उसने मेज पर कस कर दे मारा। लाल हो आई हथेलियों में रक्तिम रेखायें उभर आई थीं....। हस्तरेखायें सर्प कुण्डलियों सी सरसराती महसूस हुईं....,बहुमुखी सर्प,...सनसनाते डंक..., लिसलिसाता विष...

माँ और पिता दोनों की ज्योतिष और हस्तरेखाओं में अगाध आस्था थी। शायद वही उनके सम्बल भी थे। सम्पत्तिहीन, निर्धन कायस्थ परिवार पर इतनी शिक्षा नहीं कि पिता कहीं नौकरी पा सकते । ले देकर थोड़ी बहुत जमीन थी। अर्थ की सारी निर्भरता इसी छोटे से टुकडे पर टिकी थी। पांच सदस्यों का परिवार...। छोटे मोटे काम और आधी अधूरी  फसल से जीवन यापन करना खासा त्रासद था।

बड़ी लड़की के ब्याह से निवृत्त होने में एक तिहाई जमीन चुक गई। प्रशांत ने उस  साल नवीं कक्षा पास की थी। विद्यालय ही नहीं, आस-पास के क्षेत्रों में भी उसकी  प्रतिभा की ख्याति फैल रही थी। दसवीं क्लास की बोर्ड परीक्षा में प्रदेश की श्रेष्ठता सूची में वह अव्वल नम्बर पर था। 

समाचार पत्रों में उसके फोटो  छपे। तमाम टीवी  चैनल्स  पर सिर्फ उसके ही नहीं   माँ, पिता और अध्यापकों के फोटो और साक्षात्कार आये। सहाय परिवार के जीवन में उल्लास और उमंग का पहला अवसर आया  था। पैसों की  भारी तंगी के बावजूद  प्राचार्य के आग्रह पर प्रशांत का प्रवेश जनपद के सबसे अच्छे विद्यालय में कराया गया जहाँ न केवल उसकी पूरी फीस माफ कर दी गई, उसे छात्रवृत्ति  भी दे दी गई।

यहीं से उसके माता-पिता और स्वयं प्रशांत का आशा और महत्वाकांक्षाओं का संसार झिलमिला उठा। अधिकांश मेधावी छात्रों की तरह प्रशांत का लक्ष्य आईआईटी था। पहले ही प्रयास में वह पांच सौ से नीचे रेंक पर चयनित हो गया और कानपुर आई आई टी में मैकेनिकल इंजीनियरिंग में प्रवेश पा गया।  हालांकि इस दाखिले के लिए पिताजी को अपनी कुछ जमीन गिरवी रखनी पड़ी।
पहला सेमेस्टर यातना का अंतहीन दौर प्रतीत होता था।  उसे लगा मानो वह प्रतिभाओं के अरण्य में भटक रहा है जहां न उसकी कोई पहचान है और न ही  वजूद...। अस्तित्वहीनता नहीं, अस्तित्वशून्यता का दंश रात दिन उसे  सालता था। एक कस्बेनुमा गांव और एक गांवनुमा कस्बे से आया प्रशांत जैसे एक दिशाहीनता का शिकार अनुभव करने लगा। वह टेरीकाट  की  पेंट और पूरी बाहों  की कमीज पहनता था, वे जींस और टीशर्ट पहनना पसंद करते थे। वह बाटा के नये जूते खरीद कर लाया था, दूसरों के पास नाइके, रीबाँक या एडीदास के र्स्पोटस शूज थे या अजीब अजीब रंगों व डिजायन के फ्लोटर्स ....। उसके पास न मोबाइल था और न ही लैपटॉप...। पिताजी से छिपाकर वजीफे के पैसों से  खरीदा एक अदद फिलिप्स का ट्रांजिस्टर उसने कभी अटैची से बाहर नहीं निकाला क्योंकि वहां लैपटाप पर ही संगीत सुनने का चलन था। उसे मोहम्मद रफी के  पुराने गाने और अनूप जलोटा के भजन पसंद थे किंतु हॉस्टल के गलियारे माइकिल जैक्सन, मैडोना, जैनेट जैक्सन के नम्बर्स से गूंजते थे। अमिताभ, शाहरूख, रानी मुखर्जी का संदर्भ कभी जरूर आता था किंतु उनका सारा वार्तालाप ब्रेड पिट, केट विन्सलेट,एन्जीलीना जोली और उनकी नई भूमिकाओं पर केन्द्रित होता। हॉलीवुड की एक्शन फिल्में ग्लैडियेटर्स, मैट्रिक्स, टर्मीनेटर उनमें उत्तेजना भरती।

भाषा एक अलग तरह की बाधा थी जिसे पार पाना कठिन ही नहीं, तकलीफदेह भी था। अंग्रेजी भाषा को लेकर लड़कों-लड़कियों का आत्मविश्वास उसे आतंकित करता था। एक गहरे हीनता बोध ने उसे जकड़ जिया था।  

यह वह दौर था जब संस्थान में रैगिंग का कहर अपने  पूरे  शबाब पर था। हॉस्टल में नंग धड़ग एक सिरे से दूसरे सिरे चक्कर लगाना, उल्टी पेंट और कमीज पहनकर दो हफते रहना कितना त्रासद था। प्रेमपत्र लिखकर किसी सीनियर छात्रा को देना और उसके दो थप्पड़ खाना बेहद अपमानजनक था। कंडोम को मुंह से  फुलाकर गुब्बारे बनाकर अपना कक्ष सजाना कितनी जुगुप्सा पैदा करता था।

उधर क्लास में भी जैसे सब उसके सिर के उपर से निकल रहा  था। प्रोफेसर्स क्लास में  आते और क्या और कैसे पढ़ा कर चले जाते, वह  समझं ही नहीं  पाता। कुछ  पूछने का  साहस भी वह  नहीं कर पाता। नतीजतन सेशनलस और पहले सेमेस्टर में वह पूरी तरह लुढ़क गया।

उसे कम्प्यूटर टर्न ऑफ किया, पिताजी के पत्र को मेज की दराज में डाला और घड़ी की ओर नजर डाली। नौ बज चुके थे । मैस में साढे नौ तक ही खाना मिलता था । वह बाहर निकला। एकाएक उसे लगा कि उसे डीन के मेल को एकनोलिज कर लेना चाहिये था वरना इसे लेकर वह अलग खिंचाई करते।       

वह वापस कमरे में आ गया। उसे अपने शरीर में अजीब सी जड़ता महसूस हुई । लगा जैसे धमनियों में रक्त जम रहा है। हाथ और पैर-- लस्त पस्त हो चले हैं। अंदर से जैसे कोई दानवी शक्ति उसे बुरी तरह निचोड़ रही  थी।

...कहीं सचमुच वह दोनों पेपर्स को पास नहीं कर पाया तो...! रस्टीकेशन यानी  संस्थान से बर्खास्तगी ...। अधूरी पढ़ाई, ध्वस्त होते सपने और पिता व परिवार का अनिष्ट....!  उसे अपना वजूद एक सलीब पर टंगा महसूस हुआ। जीवन की सार्थकता पर बड़ा प्रश्नचिन्ह चस्पा हो गया।

उसे लगा उसका अंतरंग छिन्न भिन्न हो रहा है। यह कोई नया अनुभव नहीं था। पहले सेमेस्टर से ही वह इस उद्विग्नता  का  शिकार हो चला था जो यदा कदा उसे गहरे अवसाद और जड़ता का बोध कराते थे। आरम्भ में  चार साल का एक लंबा वक्त लगता था। कुछ अपनी प्रतिभा और मेधा पर भी उसे विश्वास था। किन्तु इस त्रासद स्थिति से उबरना तो दूर, वह इसमें और जकड़ता चला गया। उधर अध्ययन के क्षेत्र में भी उसे आशातीत परिणाम नहीं मिल रहे थे।

पिताजी और परिवार की तमाम आशायें उसे संत्रस्त करने लगीं। कई बार मन हुआ कि पिताजी को सब कुछ बतला कर अपना मन  हल्का कर ले। पर वह उन्हें इस गहरे आघात से रू ब रू कराने का साहस कभी नहीं जुटा पाया। नतीजतन एक गहरी अपराधग्रंथि उसे अंदर ही अंदर कुतरने लगी।

वक्त गुजरने में देर नहीं करता। कैसे पहले सेमेस्टर से सातवें समेस्टर तक का समय बीत गया, उसे पता नहीं चला। वक्त के गुजरने को लेकर वह जितना त्रस्त था, पिताजी उतने ही प्रसन्न और आशावान...। जिस वक्त ने पिताजी का धैर्य और विश्वास

बांधे रखा था, उसी  वक्त की रेतीली जमीन पर वह अंदर तक धंसता महसूस करने लगा।

इस बार घर से चला तो पिताजी के आंखे चमक रही थीं, 'बस बेटा, आखिरी  साल है। मास्टर साब कहते है कि पचास हजार से कम की  नौकरी नही मिलेगी। मुन्नी भी सयानी हो चली है। तेरी नौकरी लगते ही उसके हाथ पीले करने हैं।'

संस्थान से बर्खास्तगी..., अधर में लटका वजूद...,कुचली महत्वाकांक्षाएं..., मां-पिता के झुर्रीदार चेहरे में धंसी बुझती ऑंखे...., बहन की चेहरे की मुर्दानगी....,एक करेंट की मानिंद उसे तेज झटका लगा। वह बुरी तरह हांफने लगा। आंखों के सामने धुंधलका सा घिर आया। उसे महसूस हुआ कि उसके  लिए सारे रास्ते बंद हो गये हैं, चारों ओर गहरा अंधेरा है और एक बदबूदार, दमघोंटू कोठरी में कैद है जिसकी छत नीचे धसक रही थी।

उसके हृदय की धड़कने कानों में कोलाहल पैदा करने लगी। हड़बड़ा कर वह उठा। डीन का उत्तर देने के लिए वह कम्प्यूटर के सामने बैठ गया किंतु उसकी उंगलियां एकदम शिथिल और निर्जीव हो चली थीं, मस्तिष्क कुंद और भोथरा....।     

दराज में से पिताजी का पत्र निकाला उसने। एक बार, दो बार, तीन बार और फिर उसे बार बार पढ़ता रहा वह। उसकी आंखों से आंसू झरने लगे।

अंदर एकाएक जैसे कोई विस्फोट सा महसूस हुआ उसे। झटके से उनका अपना चेहरा ऊपर उठाया। कमीज की बाहों से अपने आंसू पोंछे। सामने रखे पैड को अपने पास खींचा और लरजते हाथों से लिखा-अम्मा, पिताजी मुझे माफ करना....। 

कमरे का दरवाजा बंद किये बिना वह बाहर निकल आया, सीढ़ियों से नीचे उतरा और तेज कदमों से अधेरे को चीरता हॉस्टल से बाहर निकल  पड़ा।

बाहर का अंधेरा उसके अंदर गहराता चला गया.....

 शैलेन्द्र सागर
मार्च 26, 2008 

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