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क्या सुषी लौटेगी ?

प्रभात की रश्मि ने मेरी पलकों से सहलाया तो मुझे याद आया कि मै अपने देआ चुकी हूं और अपने घर पर अपने बेड पर लेटी हूं ।कितना सुखद और निश्चिंतता भरा अहसास होता है अपने घर और अपने बिस्तर पर सोना ,लगता है जैसे मैं तीन वर्षों बाद चैन की नींद सोई हूँ, तभी तो पूरी तरह उत्साह से परिपूर्ण मैं बिस्तर छोड़ कर खड़ी हो गयी मानो लम्बे समय से बिछुड़े घर के ऑंचल में समाने के एक एक पल का हिसाब पूरा करना हो ।कमरे से आ कर बालकनी में खड़ी हुई तो अनायास ही दृष्टि सुषी के लान की ओर उठ गई मुझे एक झटका सा लगा वहां तो पहले की तरह बेतरतीब झाड़ी और किसी गरीब की लड़की के समान अनचाहे ही बढ़ आई जंगली बेल ने पूरी बगिया में विचित्र सी उदासी का वातावरण बना दिया था ।' तो क्या मेरी भूल थी कि मैं समझी थी कि सुषी के जीवन में बहार लौट आई है पर उसका उजड़ा हुआ बगीचा तो कुछ और ही कहानी कह रहा है । मन सुषी से मिलने को बेचैन हो उठा मैने घड़ी देखी, अभी तो प्रात: के पाँच ही बजे हैं ,पूरी कालोनी सोई पड़ी है ,कम से कम जतिन के कार्यालय जाने तक तो प्रतीक्षा करनी ही पड़ेगी । यह सोच कर मैं अन्दर आ गई । उत्कर्ष अभी गहन निद्रा में सोए थे । मुझे जब कुछ समझ नही आया तो आराम कुर्सी पर बैठ कर बेमन से समाचार पत्र के मुख्य शीर्षक देखने लगी ।

दस बजे जब जतिन की गाड़ी जाने की आवाज सुनाई पड़ी  तो मैं जल्दी से तैयार हो कर उत्कर्ष से बोली ''अभी मैं जरा सुषी से मिल कर आती हूं और इससे पूर्व कि उत्कर्ष कुछ कहे मैं बाहर आ चुकी थी ,पर सुषी के घर पर ताला लटक रहा था। मुझे सुषी पर बहुत क्रोध आया मैं उससे मिलने के लिये इतनी व्यग्र हूं, क्या उसे खबर नही कि मैं आ गई हूं ?स्वयं मिलने आना तो दूर, मुझसे मिले बिना ही सुबह सुबह ही पता नही कहां चली गई । ''पर मुड़ी तो फिर दृष्टि सुषी के उजड़े हुए बगीचे पर पहुंच गई, मन में संय ने सिर उठा लिया, तो क्या सुषी पुन: उसी निराा के अंधेरे में घिर गई ?'' मैंने ईश्वर से अपने संय के गलत सिद्ध होने की प्रार्थना की ।अभी मैं लौट ही रही थी कि सुषी की महरी रामा मिल गई ,सुषी के बारे में  रहस्यात्मक मुद्रा में उसका कथन कि  'अब सुषी मेमसाब वैसी नही रहीं, ऊ तो घर छोड़ कर फुर्र हो गईं ' सुन कर मेरी पहेली और भी उलझ गई और मै सुषी से मिलने को और भी व्यग्र हो गई । 

मुझे पूरा विश्वास था कि जतिन का अन्याय सीमा से अधिक बढ़ गया होगा ,तभी सुषी को घर छोड़ कर जाना पड़ा । मन तो सच जानने को इतना व्यग्र हो गया कि एक बार सोचा कि रामा से पूछूं , बस दो ब्द आत्मीयता के बोलने की आवश्यकता थी और वह सब कुछ उगल देती ,पर अपनी सखी के घर के सम्मान को रामा से उघड़वाना मुझे रास न आया क्या मैं जानती नही कि एक को चार करना रामा का प्रिय ौक है।

उत्कर्ष को तो इतने दिनो बाद दे लौटने पर अनेकों औपचारिकताएं और कार्यवाही करनी थीं अत: वह तो नाश्ता करके चले गए और में सुषी की गुत्थी में उलझी अतीत की गलियों में खो गई जब हम दोनो साथ पढ़ते तो थे ही ,अभिन्न मित्र भी थे और बाल्यकाल से युवा होने तक अनेक अनुभव  जो उस समय हमारी  दृष्टि में गंभीर रहस्य हुआ करते थे एक दूसरे से बांटे बिना चैन नही पड़ता था । हम दोनो की खुसरपुसर से सबसे अधिक कष्ट मेरे भाई बिट्टू को होता था और वह हर समय हमारी बातें सुनने के अवसर खोजता रहता था और कभी आधी अधूरी किसी बात का सिरा जो उसके हाथ लग जाता तो तुरंत आकामें काल्पनिक पतंग उड़ाने लगता था ।

उस दिन मैं कोई रोचक उपन्यास पढ़ने में तल्लीन थी कि सुषी ने किसी आंधी के समान आ कर उसे झिंझोड़ दिया था '' तू यहां कोने में पड़ी किताब पढ़ रही है और मैं तुझे पूरे घर में ढूंढ आयी उपन्यास के पात्रों में खोई ,मुझे उसका यूं आ टपकना अखर गया, पर उसे मेरे मूड से क्या लेना देना था ,वह तो इस समय अपनी ही धुन में थी, उसका उछाह तेज आंच पर उबल आए दूध के समान छलका पड़ रहा था ,मैंने पूछा'' क्या हो गया जो इस प्रकार हांफ रही है ?'' उसने चमकती ऑंखों से बताया कि उसका विवाह तय हो गया है, दो दिनों बाद उसकी सगाई और अगले माह विवाह था ।इससे पूर्व कि मैं कुछ और पूछती उसने पीछे छिपाया अपने भावी पति का चित्र मेरे सामने कर दिया । चित्र देख कर मैं आश्चर्य मिश्रित प्रसन्नता से भर उठी ,निश्चय ही मेरे चेहरे पर आश्चर्य के भाव अधिक परिलक्षित हो रहे होंगे तभी उसने कहा '' तुझे विश्वास नही हो रहा है न ,कि मेरे जैसी साधारण लड़की को इतना स्मार्ट लड़का मिल सकता है ?सच कहूं तो कुछ क्षणों के लिये तो मेरे मन मेंर् ईष्या का भाव जाग गया था पर मैंने अपने क्षुद्र मनोंभावों के लिये मन ही मन स्वयं को ही धिक्कारते हुए ,अपनी सखी की प्रसन्नता में प्रसन्न होते हुए कहा '' अरे नही , तू रूप की परी नही है तो क्या हुआ गुणों की खान तो है '' यह सुन कर सुषी भी आश्वस्त हो गई मैने  पूछा '' हमारे जीजा जी क्या करते हैं ?''तो सुषी ने बताया कि जतिन उसके पापा के अधीनस्थ हैं, सुषी से ही पता चला कि उन दोनों ने तो एक दूसरे को देखा भी नही । यद्यपि मुझे कुछ विचित्र लगा, आज कल तो  लड़का लड़की एक दूसरे को मात्र देखने से ही संतुष्ट नही होते वरन् एक दूसरे को समझना भी चाहते हैं ,क्योंकि रूपरंग के साथ साथ उनका मानसिक स्तर भी मिलना आवश्यक हो गया है ।ऐसे में जतिन जैसे आकर्षक और उच्चपदस्थ अधिकारी ने बिना देखे ही अपने जीवन का निर्णय कैसे ले लिया ? यह तो मुझे बहुत बाद में ज्ञात हुआ कि जतिन से अपने कम्पनी के कार्य में कोई गंभीर त्रुटि हो गई थी और उससे बचाने के बदले में मि0 भल्ला ने अपनी बेटी से विवाह का प्रस्ताव रखा। विवजतिन को यह सौदा करना ही पड़ा  । नौकरी जाने के डर से जतिन ने अपना जीवन दाँव पर लगा तो दिया पर विवता में लिया गया निर्णय सुषी और जतिन दोनो के ही लिये वह गरल  बन गया जो न उगलते बनता था न निगलते ।

जतिन की विवता का लाभ उठा कर मि0 भल्ला ने अपने कंधों का बोझ तो उतार फेंका और चैन कर सांस ली पर उनकी उस मुक्ति का मूल्य जतिन ही नही उनकी बेटी को भी चुकाना पड़ा । विवाह के बाद जब सुषी एक बार जतिन के साथ आयी थी तो जतिन के बगल में खड़ी हो कर उसका व्यक्तित्व और भी दब गया था ,जहां एक ओर काले सूट में गौर वर्ण का जतिन किसी माडल का प्रतिरूप लग रहा था वहीं छोटे कद की सांवली और स्थूल सुषी भारी साड़ी और आभूषण  में,अधिक सुंदर लगने के प्रयास में लिपी पुती अपनी आयु से कहीं अधिक बड़ी और हास्यास्पद लग रही थी ।

मुझे न जाने क्यों अंकल पर क्रोध आ रहा था ,क्या आवश्यकता थी इतना सुंदर दामाद ढूंढने की जो सुषी को और भी बेचारी बना दे ।

समय आने पर मेरा भी विवाह हो गया और मैं भी आम लड़कियों की भांति अतीत को परोक्ष में डाल कर अपनी घर गृहस्थी को संवारने मे रम गई। जब  उत्कर्ष  की पोस्टिंग अहमदाबाद हुई तो आश्रय कालोनी में हमे घर मिला । मैं अभी सामान उतरवा ही रही थी कि सामने से सुषी को आते देख कर मुझे अपनी आंखों पर विश्वास नही हुआ, पता चला कि वो तो हमारे बगल वाले घर में ही रहती है । अपरिचित जगह किसी आत्मीय को पा कर ताप भरी गर्मी में ीतल बयार सा सुकून मिला । जब हम लोग प्रथम बार सुषी के घर गए तो जतिन के आत्मीय और सौम्य व्यवहार से विोष रुप से प्रभावित हुए ।चलते समय मैं सुषी के भाग्य को सराहे बिना न रह सकी '' मैंने उसका हाथ दबाते हुए कहा '' तू बहुत भाग्यवान है जो इतना सौम्य और सुन्दर पति मिला '' यह सुन कर उसके चेहरे पर कालिमा की एक बदरी आ कर उड़ गयी, उसने एक गहरी साँस ले कर धीमे से कहा ''काये इतने सुन्दर न होते तो ायद मेरा जीवन इतना बदसूरत न होता ''उसकी कही बात का अर्थ तब समझ में आया जब सुषी के अन्तरंग जीवन में झांकने का अवसर मिला ।

सुषी का सम्पूर्ण व्यक्तित्व कुछ अपिरिचित सा हो गया था ,जब नित्य का आना जाना हो गया तो उसके जीवन के अन्तरंग पन्ने स्वयं ही खुलते चले गये । जब भी उसके घर जाती एक नीरव सी उदासी मिलती गृह सज्जा में विश्ोष रुचि रखने वाली सुषी के गुलदस्ते के बासी फूल प्राय: कई कई दिन तक सूखते रहते ।संभवत: जब कोई अतिथि आता तब ही घर के कटु वातावरण में  चुभते  कांटों के दं  पर आवरण डालने के प्रयास में फूल सजा दिये जाते थे। सुषी स्वयं भी अस्त व्यस्त सी ही मिलती उसे देख कर क्रोध आता ,माना विधाता ने रुप रंग नही दिया कम से कम संज संवर कर उसे कुछ तो सुधारा जा सकता है ।एक बार मैने अपने बचपन के अधिकार स्वरुप उसे झिड़का भी पर उसके चेहरे पर न जाने कौन सा भाव उभरा जिसने मुझे पुन: यह दुस्साहस नही करने दिया । सुषी का कालोनी में भी किसी से विश्ोष मेल जोल न था । जब मैं कालोनी की सोसायटी के समारोह में गई तो ज्ञात हुआ कि कालोनी की महिलाओं की दृष्टि में जतिन एक बेचारा पति है ,जो सुषी जैसी साधरण रंग रुप वाली पत्नी के साथ निभा रहा है । अब मुझे सुषी के अर्न्तमुखी होने का कारण समझ में आया मुझे उन सामान्य मानसिकता की महिलाओं पर क्रोध भी आया ।मैं कहना चाहती थी कि उसके रुप के आवरण को हटा कर देखो तो ज्ञात होगा कि वह एक हीरा है पर अभी बहुत जल्दी थी मेरे लिये इतना अनौपचारिक होने के लिये। वैसे भी कभी घर का कोना कोना सुरुचि पूर्ण ढंग से सजाने वाली सुषी ने गृहस्थी के प्रति जो निर्लिप्तिता अपना ली थी वह मुझे ही झूठा सिध्द करती।

जतिन के आफिस से आने का कोई समय ही न था । प्राय: वह नौ दस बजे घर आता ,तब तक सुषी भूखी, एकाकेी बैठी उसकी प्रतीक्षा करती रहती और वह आ कर बिना यह जानने का प्रयास किये कि सुषी ने खाया भी कि नही ,तटस्थ भाव से खाना खा कर सो जाता ।चाहे कितना भी स्वादिष्ट पकवान सुषी घंटों घंटों रसोई में सिर खपा का बनाती पर जतिन के मुंह से कभी प्रंसा के दो बोल न फूटते ,सुषी प्राय: क्षुब्ध को कर बिना खाए ही सो जाती । उनके मध्य कम से कम जितने संवादों में काम चल सकता था बस उतने ही संवाद होते थे। बाहर  व्यवहार कुल और हंसमुख स्वभाव के लिये लोकप्रिय जतिन के मुंह में घर आते ही मानों ताला लग जाता था । बस गृहस्थी के  व्यय के रुपये देना ही वह अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझता था।सुषी दिन रात उसका मुंह निहारती और उसका हर कार्य बिना कहे ही पूर्ण कर देती संभवत: जतिन को स्वयं भी अपनी आवश्यकताओं के बारे में इतना नही पता होता था , जितना सुषी जानती थी । वह किसी तपस्वनी की भांति फल की प्रतीक्षा में बस तपस्या किये जा रही थी । कभी कभी मुझे आश्चर्य भी होता कि न जाने जतिन किस मिट्टी का बना है कि नही पिघलता, क्या रुप रंग ही उसके लिये सबसे महत्वपूर्ण है या वह सुषी से उसके पापा द्वारा उसकी विवता का लाभ उठाने का बदला ले रहा है ?मैने दबे ब्दों में सुषी से जतिन को नारीत्व से लुभाने  के लिये भी उकसाया तो ज्ञात हुआ कि वह उस प्रयास में भी निष्फल रही मैं कल्पना कर सकती थी कि कितना अपमान सहा होगा उस बेचारी ने । एक छत के नीचे रह का भी वह अपरिचितों की भांति रहते थे।अपनी सखी की दुर्दा देख कर एक दिन मैं भावावेमें कह गई ''जब जतिन तुझे इतना उपेक्षित करता है तो तू ही क्यों उसकी परवाह करती है अपने लिये सोच ,इतना मूल्यवान जीवन क्यो गंवा रही है ? दिखा दे दुनिया को तुझमें भी कुछ है जिसके लोग प्रंसक हो सकते हें । जब दुनिया तुझे पूछेगी तो जतिन को भी तेरा महत्व समझ में आएगा ''। सुषी चुप रही तो मुझे लगा ायद मैं कुछ अधिक बोल गई हूं अत: मैंने बात पलट दी । कुछ ही दिनो में उत्कर्ष को विदेजाने का आमंत्रण मिल गया और मैं तीन वर्षों के लिये अमेरिका चली गई । प्रारम्भ में तो हम दोनो के मध्य पत्राचार चलता रहा फिर अपनी गृहस्थी की व्यस्तताओं में  नै: नै: वह भी समाप्त हो गया ।

जतिन के लौटने पर गाड़ी की ध्वनि ने मुझे वर्तमान में ला पटका और मुझे अनुभूति हुई कि  संध्या हो चुकी है । मुझसे रहा न गया और मैं दौड़ कर बाहर आई । पर यह क्या गाड़ी का दरवाजा खोल कर जो सिर झुकाए व्यक्ति बाहर घर का ताला खोल रहा है उसके निर्बल व्यक्तित्व और पुराने प्रसन्नवदन ,कामरुप के प्रतिरुप जतिन के व्यक्तित्व में कोई सामंजस्य न था । अपने में खोए जतिन ने  संभवत: मुझे देखा भी न था।यह मेरे लिये एक नया कौतुक था ,कहीं सुषी ने आहत हो कर कुछ कर तो नही लिया जिसके कारण पश्चाताप में जतिन का यह हाल हो गया । अब मेरा रुकना असंभव था मैं तुरंत ही जतिन से मिली । मुझे देख कर उसने एक फीकी मुस्कुराहट के साथ मेरा स्वागत किया । सारी औपचारिकताओं को भूल कर मैंने धड़कते हृदय के साथ सुषी के बारे में पूछा। जो मुझे पता चला वह आकासे धरती पर गिराने के लिये बहुत था जतिन ने बताया कि सुषी घर छोड़ कर उसके मित्र निलय के साथ रहने लगी है। उस दिन 'दिखा दे दुनिया को कि तूभी कुछ है' कहते हुए मैं सपने भी नही सोच सकती थी कि उस दिन मेरी भावावेमें कही बात को वह इस तरह लेगी और यह बात उसके मन में इतनी गहरी पैठ जाएगी कि  सुषी इतना बड़ा कदम उठा लेगी ।पर जतिन को दिखाने के लिये निलय के साथ मेल जोल तक तो ठीक था पर घर छोड़ कर जाना मुझे कुछ उचित न लगा । आज जब जतिन ने दीन हीन याचक के स्वर में कहा कि '' उसके बिना मेरा जीवन अधूरा है '' तो उसके स्वरों में पश्चाताप स्पष्ट झलक रहा था, उसे अपने द्वारा किए गए अन्याय की अनुभूति थी । वह बोला  ''बस आप ही सुषी को लौटा सकती है, प्लीज उसे लौटा लाइये''तो मेरा मन द्रवित हो उठा और मैंने उसे आश्वासन दे दिया कि मैं सुषी से बात करुंगी । मैं मन ही मन प्रसन्न थी कि जब सुषी सुनेगी कि जतिन उससे कितना प्यार करता है तो वह कितनी प्रसन्न होगी उसका वास्तविक प्रेम तो जतिन ही था।

सुषी से मिली तो पहचान ही नही पाई उसके साधारण रुप रंग पर भी प्रसन्नता ने जो लावण्य और निखार ला दिया  था वह उसे आकर्षक बना रहा था, मुझे देखते ही प्रसन्नता के आवेग में वह मुझसे लिपट गई । मैने उसके घर पर दृष्टि डालीसुरुचि पूर्ण ढंग से सजाया घर, फूलों से भरी बगिया और बड़ी सी बिन्दी लगाए ,तनिक ढीले से जूड़े में गजरा लगाए प्रसन्नवदन सुषी ,बिना कहे ही बहुत कुछ कह रहे थे ।मैने अवसर देख कर जतिन के बारे में बताया तो उसके चेहरे पर घृणा के बादल छा गए उसने कहा '' मैं अब जतिन को भूल चुकी हूं ''उसने जो बताया उससे ज्ञात हुआ कि जब सुषी निराा की के घोर अतल में डूबी हुई थी उसी समय जतिन के पुराने मित्र निलय स्थानान्तरित हो कर उस हर में आए । घर मिलने तक वह जतिन के घर रुके थे ायद विधुर निलय और पति के होने के बाद भी सुषी के जीवन के सूनेपन की एक सी यातना भरी यात्रा में रुप रंग के कलेवर के भीतर दोनो ने एक दूसरे के मन पर लगे घावों की पीड़ा को पहचाना था ।किसी के द्वारा आत्मीयता और कोमलता के दो ब्द सुषी ने जीवन में प्रथम बार सुने थे ,उसमें बहुत दिनों बाद पुराना आत्मविश्वास जागा था ।उस अद्भुत अनुभूति से सराबोर सुषी संभवत: अपनी सुध बुध खो बैठी थी या इतने दिनों से जतिन की उपेक्षा का अपमान  सहने के बाद अवसर मिलने पर  उसके मन में उसे अपने आस्तित्व की पहचान कराने की आकांक्षा बलवती हो उठी थी तभी तो वह सारी सीमाएं लांघ गई थी ।मुझे अब याद आया कि मेरे अमेरिका जाने से पूर्व अचानक सुषी में कुछ प्रसन्न रहने लगी थी उसका बागवानी का पुराना  ौक पुन: जागृत हो गया था ,उसकी बगिया हरी भरी हो गई थी और गुलाब की पंक्तिबद्ध क्यारी में कलियाँ आ गई थीं, पर कनाडा जाने की तैयारी में मैं इतनी व्यस्त थी कि उसके परिवर्तन को लक्ष्य करके भी उसके बारे में गंभीरता से सोचने का अवकान था । पर अब मुझे पछतावा हो रहा था कि काअपनी व्यस्तता से समय निकाल में अपनी प्यारी सखी के मूड में आए परिवर्तन का कारण जानने का प्रयास किया होता तो आज यह स्थिति न होती, मैं अवश्य उसे ऐसा करने से रोक लेती। मैंने तो यही अनुमान लगाया था कि उसने परिस्थितियों के साथ समझौता कर लिया है अत: अपना मन पुराने ौकों में रमा रही थी।मै जिसे बहार की आहट समझे बैठी थी वह तो उनकी गृहस्थी के  विना का संकेत था।

हां यह  अवश्य है कि आज वर्षों बाद  मुझे अपनी उसी पुरानी सखी के र्दन हो रहे थे जो विवाह के पूर्व जैसी थी ।मैं रास्ते में  क्या क्या उलाहने देने को सोच कर आई थी ,समाज पत्नी धर्म ,स्त्री मर्यादा, आदि न जाने कौन कौन से ब्द मेरे अंतस में कुलबुला रहे थे, पर सुषी का संतुष्टि पूर्ण भाव देख कर और अतीत में जतिन के द्वारा उपेक्षा से उसकी घुटती सांसो की याद करके मेरे मुंह से ब्द नही फूटे मै अनिश्चय की स्थिति में 'फिर कभी कहूंगी' सोच कर लौट आई । मैं राह में सोचने लगी कि यदि मैं उसे जीवन में सुख नही दिला पाई तो क्या अधिकार है उसके मुठ्ठी  में आए कुछ स्वर्णिम क्षणों को छीनने का? मैं नही जानती कि मैं जतिन से किया वादा पूरा कर पाऊंगी कि नही ।यदि मैं उससे लौटने को कहूं भी तो जिस राह पर सुषी इतनी दूर निकल गई है वहां से क्या जतिन को क्षमा करके उसके पास वह लौटेगी?    

    अलका प्रमोद
जुलाई 16, 2008

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