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बाल-कहानी  

अमर ज्योति 

सन् उन्नीस सौ पैंसठ की एक शाम हर तरफ शान्ति का वातावरण था, किसी तरह की कोई आशंका नहीं थी कि तभी पाकिस्तान ने भारत पर आक्रमण कर दिया। इस अचानक हुए हमले ने भारतीय सेना को चौंका दिया। छुट्टियाँ बिताने अपने-अपने घर गये सैनिकों पर तुरन्त वापस आने के आदेश प्रेषित किए गये।

      छुट्टियाँ बिता रहे भारतीय सेना के ही एक मेजर को जब सूचना मिली तो प्रस्थान की तैयारी कर उन्होंने माँ को प्रणाम कर पैर छूए। माँ का ममत्व जाग उठा, ऑंखों में जल-कण झलक आये, और उन्होंने बेटे को सीने से लगा लिया। मेजर का गला भी रूँधा गया, पर तुरन्त ही मातृ-भूमि का स्मरण हो आया।

      युध्द-भूमि को जाते हुए पुत्र के सिर पर हाथ रख, आशीर्वाद देते हुए मां ने कहा-''बेटे, इस समय राष्ट्ररक्षा ही सर्वोपरिर् कत्ताव्य है प्रत्येक भारतीय का, जाओ और अपनेर् कत्ताव्य को दृढ़ता से पालन करो। याद रहे-भारतीय परम्परा सीने पर गोली खाने की है पीठ पर नहीं।''

      युध्द की विभीषिका भीषण रूप से फैलती जा रही थी। इच्छोगिल नहर का मोर्चा भारतीय सेना के लिए चुनौती की दीवार बना खड़ा था। प्रश्न उठा-इस अभेद्य दीवार को तोड़ने का उत्तारदायित्व कौन संभालेगा?

      कार्य आसान न था, साक्षात् मौत के साथ जूझना था। पर वीर कभी मौत के भय से रुके हैं! तुरन्त एक वीर ने इसका दायित्व स्वीकार कर लिया। ये गांव से आये हुए वही मेजर थे।

      मौत की परवाह किए बगैर मेजर ने मोर्चा संभाल लिया और धाीरे-धाीरे आगे की तरफ बढ़ने लगे। सूइंग-सूइंग'-धाड़ाम-धाड़ाम-का दिल दहलाने वाला शोर कानों के पर्दों को फाड़ने की कोशिश कर रहा था।

      मेजर पर देशभक्ति का जोश पूरी तरह छाया हुआ था। मौके का इन्तजार किया जाय, इतना समय था भी नहीं इसलिए वे धाड़ाधाड़ गोलाबारी कराते हुए, दुश्मन के टैंकों को धवस्त करते आगे बढ़ रहे थे कि तभी दुश्मन की एक साथ कई गोलियां सन-सनाती हुई आई और मेजर के हाथ व पेट में घुस गईं मगर माँ के शब्द ''भारतीय परम्परा सीने पर गोली खाने की है पीठ पर नहीं'' ज्वलन्त प्रेरणा दे रहे थे। वे चोट की परवाह किए बगैर आगे बढ़ते रहे और गोलियाँ आ-आकर उनके सीने में घुसती रहीं।

      स्थिति को समझते हुए उनके पीछे हटने का आदेश जारी किया गया। पर कदम रुके नहीं, दुश्मन के सारे टैंकों को धवस्त कर, विजयश्री को गले लगाकर ही दम लिया उन्होंने।

      तुरन्त ही अमृतसर के सैनिक अस्पताल में लाया गया उन्हें। पर अब तक पूरा सीना गोलियों से छलनी हो चुका था। रुंधो गले से अधिाकारियों ने पूछा-''आपकी कोई अन्तिम इच्छा है?''

      गोलियाँ सीने में कसक रही थीं पर मेजर ने चेहरे पर मुस्कान लाते हुए कहा-''हाँ है, मेरी माँ तक संदेश पहुँचा देना- तुम्हारे बेटे ने गोलियां सीने पर ही खाई हैं, पीठ पर नहीं।''

      जानते हैं ये बहादुर कौन थे? ये भारतीय सेना के आफीसर-मेजर आशाराम त्यागी थे, जिन्होंने माँ के वचनों का पालन करते हए अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए प्राणों की बाजी लगा दी।

      दीपक बुझ गया पर उसकी अमर ज्योति युगों तक देश-भक्तों को राह दिखाती रहेगी।

डॉ0 दिनेश पाठक 'शशि'
अगस्त 13,2007

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