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पति-भ्रम होम करते हाथ जलें चाहे न जलें ,आँखों में धुएँ की कडुआहट और तन-बदन में लपटों की झार लगती ही है ।मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ । मेरी बहुत पक्की सहेली थी रितिका !प्राइमरी से बी.ए . तक साथ पढे।खूब पटती थी हम दोनों में - दाँत काटी रोटी थी ।एक का कोई राज दूसरी से छिपा नहीं था ।हर जगह साथ रहते थे ।लगता था एक के बिना, दूसरी अधूरी है। साथ-साथ रोये हँसे ,शरारतें कीं ,सहपाठियों से लडाई -झगडे और मेल-मिलाप भी एक साथ किये। स्कूल में हम दोनों दो शरीर एक जान समझी जाती थीं । कितनी इच्छा थी एक दूसरी को दुल्हन के रूप में निहारने की ,सजाने की ,नये-नये जीजा से चुहल करने की । पर मनचीती कहाँ हो पाती है !बी.ए. के बाद दोनों की शादियाँ भी दो दिनों के अन्तर से हुईं। इतना कम अंतर रहा कि एक दूसरी के विवाह में शामिल भी न हो सके ।उसका विवाह उसके ननिहाल से संपन्न हुआ था ,जो पास के शहर में ही था ।शादी के बाद भी पतियों की चिट्ठियाँ तक शेयर की थीं ।एक दूसरी से ससुराली नुस्खे सीखे थे आगे के प्रोग्राम बनाये थे ।मैंने तो हर तरह से उसे आदर-मान किया,हर तरह से ध्यान रखा पूरी खातिरदारी करने की कोशिश की । पर बदले में क्या मिला ? तीखी बातें और बेरुखी !और नौबत यहाँ तक आ गई कि आपस में बोल-चाल बन्द ,चिट्ठी-पत्री बन्द ,घरवालों से एक दूसरी के हाल-चाल पूछना तक बन्द ! मुझे अक्सर उसकी याद आती है ,उसे भी जरूर आती होगी ।पर बीच में जो खाई पडी है उसे पार करना न मेरे बस में रह गया है न उसके । होनी कुछ ऐसी हुई कि ,हम दोनो के विवाह भी छुट्टियो में तय हुये।वह अपनी ननिहाल गई हुई थी और वहीं पसन्द कर ली गई। और इधर मेरी शादी का दिन मुकर्रर हुआ ।उसके ससुरालवाले चट मँगनी पट ब्याह चाहते थे।नतीजतन दोंनो के फेरे दो दिनों के अंतर से पडने थे। हाँ , बस दो दिनों के अन्तर ने हम लोगों को दूर कर दिया । एक दूसरी के विवाह में शामिल होने की तमन्ना मन की मन मे रह गई । नये क्रम में थोडा ए़डजस्ट होते ही दोनो को एक दूसरी की याद सताने लगी ।नये-नये अनुभव आपस में एक्सचेंज करने की आकाँक्षा जोर मारने लगी ।इधर मेरे पिता जी का ट्रान्सफर हो गया और मायके जाने पर भेंट होने की संभावना भी समाप्त हो गई ।दोनो के पति हमारी घनिष्ठता से परिचित हो गये थे।उनकी भी एक दूसरे से मिलने की इच्छा थी ,और हम दोनो तो उतावले बैठे थे कि कब मुलाकात हो ।एक दूसरी के पति को देखा तक नहींथा ।शादी के फोटोज का आदान-प्रदान हुआ था पर हमारे यहाँ तो दूल्हा-दुल्हन का ऐसा स्वाँग रचाया जाता है कि अस्लियत जानना नामुमकिन ।एक दूसरी से मिलने का मौका ही नहीं मिल रहाथा। कभी मेरे घर की बाधायें, कभी उसकी मजबूरियाँ ! डेढ साल निकल गया तब कहीं जाकर साथ एक साथ होने का प्रोग्राम बना ।बना क्या ,तलवार फिर भी सिर पर लटक रही थी कि कब किसके पति के सामने कुछ और इमरजेन्सी आ जाय और मामला फिर टाँय-टाँय फिस्स ।इसी लिये कहीं दूर का नहीं,पास ही आगरे जाने का दो दिन का कार्यक्रम बनाया ।तय किया कि दोनो ट्रेन से टूण्डला पहुँचेंगे और वहाँ से टैक्सी लेकर सीधे आगरे । 'दो कमरे, अच्छे से होटल में बुक करा लिये ,एक तेरे लिये एक अपने ,'मैंने उसे बताया ।
'लेकिन
मेरे वाले तो इसी हफ्ते ,सिंगापुर
जा रहे हैं ।पता नहीं शुक्रवार तक लौट पायें या नहीं ।' 'हाँ ,मैं भी कहूँगी ।पक्के तौर पर कहूँगी ।' हम लोगों के साथ जो होता है एक साथ होता है ।शुरू से यही होता आया है ।इस बार हम दोनों तो मिल ही सकती हैं दोनों के पतियों के लिये कोशिश करें। एक के भी आ जायें तो आसानी रहेगी ।पूरा न सही आधा ही सही ,कुछ तो हाथ आयेगा ।मैं अपनी तरफ से पूरी कोशिश करूंगी ।' 'तू निशाखातिर रह ,मैं भी इतनी ही उतावली हूँ ।' इनका मद्रास वाला काम दो दिन को और बढ गया ।मेरा कहना-सुनना सब बेकार गया । तीन दिन से फोन की लाइन नहीं मिल रही । रितिका से बात नहीं हो पा रही ।पर मुझे विश्वास है वह आयेगी जरूर । मैं तैयारी में लगी हूँ । मेरी ट्रेन आधे घन्टे पहले पहुँचती थी ,सो स्टेशन पर उसकी प्रतीक्षा कर रही थी।ट्रेन आई मैने उसे कंपार्टमेन्ट से झाँकते देखा उसने प्लेट फार्म पर डब्बे की तरफ बढते देख लिया था।नीचे उतरते उसने हाथ की अटैची और बैग साइड में पटका और मुझसे लिपट गई ।
इतने में आवाज आई,
'प्रेम-मिलन
फिर कर लीजियेगा पहले अपना सामान सम्हालिये।'
उत्तर रितिका ने दिया
,'यहाँ
रुकने से क्या फायदा।आगरा है ई कित्ती
कुली से सामान उठवा कर हम दोनों
बाहर निकलीं ।ब्याह के बाद पहली बार एक दूसरी को देखते जी नहीं भर रहा था । वह पसोपेश में पड गया ।रितिका ने उसका बैग उठाकर अपनी तरफ रखा और बोली ,'चलिये बैठिये ,इतनी मुश्किल से साथ रहने का मौका मिला और आप भाग रहे हैं ।कितने दिनों में मिली हैं हम दोनों ।आप साथ रहेंगे तो हम निश्चिंत हो कर साथ रह पायेंगी।सिर्फ दो ही दिन तो मिले हैं,कर लें मन की। कहाँ तो दो शरीर एक प्राण थीं ।'
‘देखिये
मुझे चलने दीजिये।यों आप दोनों के बीच रहना ठीक भी नहीं।अच्छी तरह एक दूसरे
को जानते भी नहीं।‘
दो कमरे बुक कराये थे ।एक मे
मैंने अपना सामान रख लिया ।सबने चाय-वाय पी।उन लोगों का बैग अटैची भी इसी
कमरे में आ गये थे।
आज का दिन ताज महल देखने में
बिताया जाय ,हम
दोनों ने तय किया ।टैक्सी कर लेते हैं
,खाना
रास्ते में कहीं अच्छा सा होटल देख कर खा लेंगे । उसका पति! बडा अस्वाभाविक
सा लगा,कुढ
बेवकूफ -सा भी !कभी मेरी शक्ल देखता
,कभी
उसकी ,और
झिझक -झिझक कर व्यवहार
मुझे लगा उसे भी हँसी आ रही है
।कैसा अजीब व्यवहार लग रहा था उन दोनों का ।मैं तो आग्रहपूर्वक खिला रही थी
उसके पति को,
पर वह उससे मुझसे भी बढ कर
आग्रह किये जारही थी ।जबर्दस्ती कर के परोसे जा रही थी ।वह जितना मना करता हम
दोनों आग्रहपूर्वक और खिलाने पर तुल जातीं ।उसके पति का व्यवहार
?मुझे
बडा अटपटा लग रहा था ,बडी
असुविधा सी हो रही थी ।पर अपनी प्रिय मित्र के पति की मान-मनुहार तो करनी ही
थी।ताज्जुब ये हो रहा था कि वह खुद अपने पति को बढ-बढ कर पूछ रही थी
,हद
हो गई । अरे ,जब
मैं पूरी खातिर कर रही हूँ तो उसे अपनी सीमा में रहना चाहिये ।मुझे कभी हँसी
आती थी ,कभी
विस्मय होता था -अच्छी खासी थी,
शादी के बाद कैसी हो
और हम दोनों ने जिद ही जिद में
ढेर सा खाना उसको परस दिया ।वह ना-ना करता रहा पर
,रितिका
के मुँह से एक बार भी नहीं फूटा कि अब उसे मत परस ।थोडा सा बचा था
,उसे
हम दोनों ने खा लिया । एक बार होता तो भी ठीक
है चलो
,पर
हर बार बही सब !चाहे.उसकी प्लेट मे जूठा बच कर फिंक जाय और हम दोनों भूखे रह
जायँ ,पर
वह उसे भर -भर कर परोसती जायेगी ।।इतनी भी क्या फारमेलिटी !मैने कभी रितिका
को उसका सामान निकाल कर देते नहीं देखा ।उसकी अटैची में क्या-क्या है रितिका
को शायद पता भी नहीं होगा ।अपने आप अपनी सारी चीजें धरता-उठाता है ।और अजीब
बात रितिका कभी उससे कुछ लाने को नहीं कहती
,खुद
ले आती है ।एकाध बार उसने पेमेन्ट करने का उपक्रम किया,
तो मैं आपत्ति करूँ
,इसके
पहले ही रितिका ने उसे मना करते हुये खुद पेमेंट कर दिया ।कैसी हो गई है,
सारे पैसे अपने चार्ज
में रखती है।उसे गिन-गिन कर देती होगी।बहुत परेशान होगई तो दूसरी शाम
मेरे मुँह से निकल गया ,तुम
दोनो में ताल मेल तो अच्छा है न?' 'तू ही उसे ठूँस-ठूस कर खिला रही थी ,मुझे तो देख देख कर कोफ्त हो रही थी ,कि इसमें तो शादी के बाद शरम -हया कुछ बची ही नहीं ।'
'मैं
तो तेरा पति समझ कर हर तरह से खातिर कर रही थी ।चाहे जैसा हो,
है तो तेरा पति -.यही
सोचा मैने ।'
हम दोनो में तू-तू मैं-मैं होने
लगी।एक दूसरी को कहनी अनकहनी सब कह डालीं ।अभी यह प्रकरण चल ही रहा था
,कि
वह आदमी आता दिखाई दिया -हाथ में एक पैकेट पकडे था
,ऊपर
झलकती चिकनाई से लग रहा था समोसे,कचौरी
कुछ ले कर आया है ।
उसकी बात पूरी होने से पहले ही
रितिका डपट पडी ,'आप
हमारे साथ क्यों चले आये ?अपने
रास्ते नहीं जा सकते थे ?'
'बस,बस
बहुत हो गया ।उठाइये सामान और अपना रास्ता पकडिये ।'
- प्रतिभा सक्सेना
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