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मायागाथा

पतझर की सूखी, पीली पत्तियां पाशा के सुख और दुख दोनों पर गिरीं. दोनों उससे खिड़की के बाहर यतीमख़ाने की लंबी छत फैली हुई थी. दोपहर की तेज़ धूप में चमकती हुई. उसकी टूटी दरारों में, मुंडेरों के कोनों में, गुम्बदों पर, पीली पत्तियों के पटते. बदहवास परिन्दों का शोर तब तेज़ हो जाता. नीचे खड़ा लड़का ज़ोर से हँसता. कुछ गिद्ध उसके ऊपर चक्कर काटने लगते. लड़का हाथ का डंडा हिलाकर ज़ोर से चिल्लाता हु...हु...
इस तरह कैसे जिया जा सकता है, तेरहवीं मंज़िल की खिड़की पर खड़े हुए पाशा ने सोचा. पाशा के अंदर बिल्कुल वैसा ही विरक्ति भरा विराट ख़ालीपन था, जैसा उसके और आसमान के बीच था. इसमें अब कुछ भी नहीं था. न कोई आवेग, न इच्छा, न दुख, न सुख, न गति न स्वप्न. पाशा का संपूर्ण बोध मर चुका था. बर्फ की सिल्ली, चट्टान या गहरी सफेद फफूंद की तरह, यह किसी भी स्पंदन से, स्पर्श से रहित, एक जड़ अंतर्जगत था. यह ठोस, निस्पन्द अंतर्जगत मृत्यु के ठीक पहले के वैराग्य या विरक्ति सा था. पाशा की देह में गति थी पर अंदर, गहन शांति थी. असम्पृक्त, निर्लिप्त, निस्तब्धा. पाशा के अंदर यह सब रात से ही था. जिस क्षण पाशा नाटक के संवाद लिख रहा था उसी क्षण पतझर की पत्तियां शोर मचाती हुई टहनियों से टूटीं और पाशा के सुखों और दुखों पर गिरने लगीं. पाशा धीरे-धीरे शिथिल होता गया. पहले अंदर एक निसंगता जन्मी थी, फिर निस्तब्धाता, फिर नश्वरता. पाशा ने कलम रख दी थी. पाशा पलंग के कोने में घुटने मोड़कर चुपचाप सिमट गया था. अपनी नितांत आंतरिक निजता के केंद्र की ओर लौटता हुआ. एकीकृत, घनीभूत, गर्भ के हल्के गुनगुने अंधोरे में मिलने वाली सुरक्षा की तरह. पूरी रात पाशा ऐसे ही पलंग के कोने में सिमटा पड़ा रहा था. हल्का-हल्का कांपता हुआ.
रात के बाद से सुबह तक कुछ भी नहीं बदला था. कमरे की छोटी मेज पर रात का खाना उसी तरह पड़ा था. उबले चने...आलू का सूप और टोस्ट. एक टोस्ट चूहा खींच ले गया था. सूप में मच्छर गिर गए थे. चने की खाल सूखी और बदरंग हो गई थी. एक खाली बोतल से दबे हुए काग़ज़ रखे थे. पाशा के अंदर रात वाली बोधरहित आत्मा अब भी थी. उसमें न नींद थी, न जागृति, न स्पंदन, न उमंग, न सुख न दुख. इस तरह कैसे जिया जा सकता है, पाशा खिड़की पर खड़ा सोच रहा था.

आकाश में परिन्दों का तेज़ शोर उठा. बेचैनी से चीख़ते हुए वे एक गोल में घूम रहे थे. नीचे से लड़के ने इस बार मांस का एक बड़ा टुकड़ा उछाल कर फेंका था. कोई गिद्ध हवा में ही उसे पंजों में दबाकर ऊपर उड़ गया था. उसके चारों ओर दूसरे परिन्दे पंख फड़फड़ाते, चीख़ते घूम रहे थे. नीचे दुकान पर खड़े लोग भय और अचरज से फैली आंखें लिए उन्हें देख रहे थे.
अंदर कमरे में भी आहट हुई. पाशा ने सर घुमाकर देखा. कमरे में हल्का अंधोरा था. बाहर की धूप अंदर तक नहीं जाती थी. उसकी चमक के छूटे हुए रेशे कमरे में ऊपर तैरते रहते थे. उनके नीचे हमेशा हल्का स्लेटी अंधोरा रहता था.
चूहा मेज पर पड़ा दूसरा टोस्ट घसीट रहा था. कुछ दूर घसीटने के बाद उसने टोस्ट मेज से गिरा दिया. नीचे एक दूसरा चूहा था. ऊपर वाला भी नीचे कूद आया. दोनों टोस्ट के कोने कुतरने लगे. पाशा ने कुछ देर उन्हें देखा फिर सर घुमाकर सामने देखने लगा.
क्या इसी निस्पंदता को समाधि कहते हैं? राग द्वेष रहित इस निर्जीविता को ही परम आनंद कहते हैं? या फिर यह शून्य का वह अंतराल है जो विक्षिप्त बनाता है. यह जो भी था पाशा के लिए असहनीय था. पाशा नहीं जानता था कि वासनाएं कैसे जन्मती हैं, कहां से उठती हैं. उन उन्मत्ता, उन्मादी वासनाओं को ईश्वर भेजता है या मस्तिष्क में जन्म लेता सोडियम का सूक्ष्मतम अणु या फिर अज्ञात पूर्वजन्म. पाशा को यदि पता होता कि वे अंदर किस अंधोरे कुंड में ऊंघती रहती हैं, तो पाशा उस कुंड में कूद पड़ता. वासनाओं को स्वयं को निगल लेने देता. अग्नि की तरह...अजगर की तरह...मंत्रा की तरह.
आत्मा की यह निस्पंदता ऐसे ही ख़त्म नहीं होगी, पाशा यह जानता था. पाशा जानता था कि इस अनुर्वर, कड़ी मिट्टी को तोड़ना होगा. इसमें कुछ ऐसा रोपना होगा, जो इसकी कठोर सतह को चटकाकर भुरभुरा करके ऊपर निकले और पाशा की शिराओं में फैल जाए. ऐसा कुछ, जो अपनी सत्ताा में स्वयं इतना समर्थ हो कि उसके स्पर्श से, स्पंदन मात्रा से पाशा के अंदर का जड़त्व, चैतन्य और संवेदनशील हो जाए. ऐसा क्या था? क्या हो सकता था जिसे आत्मा में रोपने से उसकी निर्जीविता नष्ट हो. जो स्वयं में इतना जीवन्त आलोकित और उत्फुल्ल हो कि आत्मा के घनीभूत अंधोरों को आत्मसात कर ले; स्वयं से एकाकार कर ले. शायद छूटी हुई पाशा की उस शेष आत्मा में, जो पाशा की देह में नहीं रहती थी, शरण मिले, पाशा ने सोचा. देह से परे आत्मा का वह शेष अंश जिसे दूसरे जीते हैं, कोई देह नहीं जानती. यह शेष आत्मा हवाओं में निराकार, निरंतर तैरती रहती है...कहीं स्मृति बनकर, कहीं अनुभव बनकर, कहीं स्वप्न बनकर. कभी घृणा में, कभी द्वंद्व में, कभी प्रेम में उपस्थित रहती है. यह शेष आत्मा, हर क्षण, किसी दूसरी देह के साथ कहीं न कहीं गुंथी बुनी है. आत्मा के इस शेष अंश को वही दूसरी देह भोगती है. जिसकी आत्मा का वह अंश है, वह देह भी उसके इस तरह कहीं और भोगे जाने से अनभिज्ञ रहती है. आत्माओं के इन अंशों का एक पूरा मायालोक अनवरत घूम रहा है जिसमें न सत्य का पता है, न अर्थ का, न मीमांसाओं का. परछाइयां, आवरण, भय, उदासियां, पराजय, थकान, असत्य से लथपथ आत्माओं के ये अंश और इनसे जुड़ी देहें इस मायालोक को रच रहे हैं. इस दृश्य सृष्टि, प्रत्यक्ष जगत के समानांतर एक अदृश्य लोक भी है जो अपनी अविवेचित गाथाओं में सदैव जीवन की परिधि के बाहर रहता है. और यह जीवन भी है क्या? आधी स्मृति, आध स्वप्न. इससे बचे हुए कुछ क्षणों में, ज़मीन पर गिरे बारीक टुकड़ों की तरह शेष थोड़ा-सा ईश्वर, थोड़ी सी जिजीविषा है. कुछ भी पूर्ण नहीं. इस जीवन की एकमात्रा उपलब्धि मृत्यु है...पर उस पर गर्व करने के लिए कोई जीवित नहीं रहता. पाशा ने बहुत गहरी सांस ली. पाशा जानता था कि उसकी आत्मा का शेष अंश कहां रहता है. पाशा अपनी आत्मा के सुख से संतृप्त उस शेष अंश को ही इस ठंडी, निस्पंद आत्मा में रोपना चाहता है. पाशा जानता था कि उसी की फूटी शाखाएं चारों ओर फैलकर सतह के ऊपर निकल आएंगी. पाशा के अंदर सबकुछ फिर पहले की तरह जीवित, स्वाभाविक और संज्ञाओं के लिए बोधगम्य हो इसके लिए उसे अपने अंश की ज़रूरत थी. उसी में पाशा की मुक्ति थी.
नीचे दुकान पर मांस ख़त्म हो चुका था. सामने परिंदों का घूमना अब बंद हो गया था. लड़के ने बचे टुकड़े कोने में डाल दिए थे जिन्हें कुत्तो घसीट ले गए थे. परिंदों के हट जाने से आसमान का नीलापन और चमक दोनों तेज़ हो गए थे. पतझर का दिन अधिाक गर्म और अधिक नंगा दिखने लगा था.
पाशा वापस कमरे के अंदर आ गया. मेज के ऊपर कोने में लगा बल्ब पाशा ने जलाया. सूप से बदबू उठने लगी थी. टोस्ट के कुतरे टुकड़े कोने में पड़े थे. दीवार पर लगे तिरछे शीशे को पाशा ने सीध किया. उसमें अपना चेहरा देखा. उसे गालों की हड्डियां अधिाक उभरी और नुकीली दिखीं. यह हड्डियों के ऊपर उठने की वजह से नहीं था. गालों का मांस कम हो गया था. चेहरा पतला और निस्तेज़ था. लटकी हुई खाल में उमर दिख रही थी. पाशा ने ग़ौर किया कि उसकी उभरी हुई हड्डियों पर खाल का रंग काफी काला हो गया है. यतीमख़ाने के गुम्बदों की काई की तरह. गालों पर उगी थोड़ी सी दाढ़ी, गुम्बदों की टूटी दीवार पर निकले छोटे, जंगली सफेद फूल वाले पौधों की तरह थी. पाशा को अपना चेहरा उसी गुम्बद की तरह दिखा. पाशा ने गालों पर हाथ फेरा. मेज पर रात के गंदे बर्तन, फर्श पर बिखरे टोस्ट के टुकड़े, दीवारों पर धूल, कोनों पर जाले, टूटे फ्रेम में लटकी तस्वीर, बदबूदार पर्दे...और उखड़ी पपड़ियों वाली छत के साथ यही चेहरा ठीक था. अलमारी खोलकर पाशा ने मफलर निकाला. खूंटी पर लटका कत्थई रंग का कोट उतारा. मफलर उसने गले में लपेट लिया. कोट पहन लिया. पलंग पर बैठकर नीचे से जूते निकाले. उन्हें पहन लिया. उठकर अलमारी से घर की ताली निकाली. पलंग की चादर के नीचे से घर की दूसरी ताली भी निकालकर दोनों तालियां पैंट्स की जेब में डाल ली. पैंट्स की दूसरी जेब में पड़े रुपए मुट्ठी में दबाकर देखे. मेज के ऊपर का बल्ब बंद किया.
कंधो झुकाकर पाशा ने एक बार घूमकर कमरे को देखा...फिर दरवाज़ा बंद करके अपनी शेष आत्मा के पास चल दिया.

इमारत के ऊंचे दरवाजे के सामने बड़ी-सी खाली जगह पर सन्नाटा था. शो का समय होने पर यह जगह गाड़ियों, रंगबिरंगे कपड़ों में घूमते बच्चों और उनकी किलकारियों से भर जाती थी. अभी एक आदमी उस जगह पर झाडू लगा रहा था. रंगीन कपड़ों के झंडे, गुब्बारे और झालरें एक कोने में रखी थीं.
पाशा दरवाज़े पर गया. दरवाज़े पर बैठा चौकीदार ऊंघ रहा था. पाशा ने उसे हिलाया. उसने आंखें खोलीं. वह पाशा को पहचानता था. मुस्करा कर उसने पाशा का अभिवादन किया फिर अंदर बने एक केबिन में चला गया. वहां से उसने फ़ोन पर कुछ कहा. कुछ देर बाद फ़ोन रखकर सर हिलाता हुआ वह लौट आया. उसने पाशा को इशारे से जाने के लिए कहा. पाशा इमारत के अंदर आ गया. अंदर शीशे का एक दरवाज़ा और था. पाशा उससे चिपककर देखने लगा. ऊंचे खम्भों पर खड़ी इमारत में बीच-बीच में कांच की छत थी. उसके नीचे बहुत बड़ा पानी का पूल था. पूल के एक तरफ़ अंदर कुछ सीढ़ियां गईं थीं. दूसरी तरफ़ चौड़ी खाली पट्टी थी. साफ़, नीले और धूप से चमकते पानी में चार डॉल्फिन उछल रही थीं. पुल के किनारे संगीत की लय पर एक लड़की नाच रही थी. उसी के शरीर के साथ-साथ पानी में डॉल्फिन हिल रही थीं. वह लड़की कूद रही थी, दौड़ रही थी. वैसा ही मछलियां कर रही थीं.
कांच से चिपककर पाशा लड़की को देख रहा था. कांच का ठंडापन पाशा के गालों ने महसूस किया. पाशा की शेष आत्मा भी ज़रूर लड़की के साथ नाच रही होगी, पाशा ने सोचा. क्या यह संभव था कि लड़की नाचते समय उसे छोड़ देती हो, जैसे अपना रुमाल, या जैकेट या बटुआ. ऐसा नहीं होता है, वह कहती थी. वह उसे कभी अपने से अलग नहीं करती. नाचते समय नहीं, पति से प्रेम करते समय नहीं, ईश्वर से प्रार्थना करते समय नहीं. कांच से चिपका हुआ पाशा देर तक लड़की को देखता रहा. उसकी सफेद आधी नंगी टांगों की उभरी नसें...मछली की ही तरह चिकनी खाल...उस पर हल्के सुनहरे रोएं...उनका गीलापन. पंजों के बल घूमती, कूदती लड़की के चेहरे पर अद्भुत संतोष था. उसमें उल्लास था...निर्मल आभा थी. जो आत्मा में होता है वही चेहरे पर होता है. लड़की की आत्मा में भी यह सब रहता होगा, पाशा ने सोचा. पाशा की आत्मा उसके पास थी. पाशा की आत्मा के अंश में भी यह सब ज़रूर होगा. उल्लास, चमक, संतोष, यही पाशा को चाहिए था.
पाशा दरवाज़ा खोलकर अंदर आया. लड़की ने अभी तक उसे नहीं देखा था. पाशा धीरे-धीरे आगे बढ़ा. उसके पहले उसकी परछाईं लड़की तक पहुंची. लड़की ने नाचना रोक दिया. वह पाशा की ओर घूम गई. वह हांफ रही थी. उसकी सफेद खाल पर ख़ून की गहरी लाली उतर आई थी. बांह...गला...माथा सब पसीने में भीगा था. उसने संगीत बंद कर दिया. संगीत बंद होते ही मछलियां पानी के अंदर चली गईं. पास रखे अपने बैग से तौलिया निकालकर लड़की ने देह का पसीना पोछा. वह अभी तक गहरी सांसें ले रही थी. कुछ क़दम आगे बढ़कर वह पाशा के पास आई. पाशा चुपचाप उसे देख रहा था. वह मुस्कराई. पाशा से बीस साल छोटी थी वह. उन दोनों के बीच की खाली जगह, उन दोनों की उमर को दो हिस्सों में बांट रही थी. एक तरफ़ पाशा की सूखी हुई निस्तेज खाल...झुकता हुआ शरीर...निष्प्राण आंखें...काई लगे गुम्बद सा चेहरा था, दूसरी ओर खिलखिलाती देह...तबल सी खिंची खाल वाली उल्लासित, रक्ताभ लड़की थी. उस लड़की के पास पाशा की शेष आत्मा कैसे रहती होगी? कैसे वह मरते हुए पौधो जैसी पाशा की आत्मा को ुक गया. लड़की थोड़ा और पास आई. उसने पाशा को धयान से देखा.
''तुम्हारा चेहरा काला हो गया है'' वह धीरे से बोली. पाशा ने कंधो हिलाए.
''तुम्हारी लालसाएं शायद बहुत बढ़ गई हैं. चेहरे पर यह कालापन तभी आता है जब लालसाओं की छाया चेहरे पर पड़ने लगती है'' पाशा कुछ नहीं बोला. उसने अपनी लालसाओं के बारे में सोचा. क्या पाशा के अंदर लालसाएं थीं? आसमान में मंडराते गिध्दों की तरह हिंसक, उत्तोजित, लपकती हुई लालसाएं? पाशा को अपने अंदर कुछ नहीं दिखा. जीने की लालसा भी नहीं.
''मैं...'' पाश बुदबुदाया. उसने कुछ कहना चाहा.
लड़की ने पाशा की हथेली दबाई, पाशा ने उसे देखा. लड़की की आंखें स्निग्धा थीं...उनमें गहरी ममता थी.
''मैं शो के बाद आ सकती हूं'' वह फुसफुसाई, ''वैसे भी तीन दिन मैं अकेली हूं'' पाशा चुपचाप उसे देखता रहा.
''दो घंटे बाद शो ख़त्म होगा...शायद पहले भी.''
पाशा ने जेब से कमरे की एक ताली निकालकर उसे दे दी.
''तुम कहां जाओगे?''
''शायद समय हो जाए इसलिए.''
''मैं यहां से सीधो आऊंगी. खाली पेट शो करती हूं इसलिए भूख लगेगी. खाऊंगी भी. कुछ ले लेना...मुझे अभी तैयार होना है.'' लड़की ने पाशा की हथेली दबाई. पाशा ने सर हिलाया.
''...मैं पहुंच जाऊंगी.'' लड़की की आंखों में तरलता थी. पाशा की हथेली छोड़ दी उसने. वह घूमी. उसने अपना बैग उठाया और अंदर के कमरे में चली गई.
पाशा के चारों ओर अचानक खालीपन हो गया. वैसा ही जैसा उसकी खिड़की और आसमान के बीच रहता था. पाशा ने कुछ देर पानी में हिलती मछलियों के, जोकरों के चेहरों पर चिपकी रहने वाली शाश्वत मुस्कान जैसे मुंह को देखा फिर सर और कंधो झुकाए बाहर चल दिया.

दरवाज़े के बाहर निकलकर पाशा रुक गया.
बाहर अभी तक सन्नाटा था. वह खुली और बड़ी जगह थी इसलिए हवाएं वहां तेज़ थीं. सड़क पार के सामने के पेड़ उसी तरह तेज़ी से सूखी पत्तिायां नोचकर फेंक रहे थे. कांपती हुई पत्तिायां अनवरत झर रही थीं. धूप में अभी चमक भी थी और तेज़ी भी. धूप, पत्तिायां, नंगी शाखों और पतझर का सुलगता हुआ एक पीला जंगल चारों ओर था.
पाशा के पास अभी समय था. वह दो काम पूरे कर सकता था. पहला तो यह कि नाटक पूरा नहीं हो पाएगा यह थिएटर जाकर बता दे और दूसरा यह कि मेज पर पड़ा बदबूदार सूप, बदरंग उबले चने और सूखी ब्रेड की जगह कुछ खाने के लिए ले ले. पाशा ने जेब में हाथ डालकर रुपयों को छुआ. उसने अंदाज़ा लगाया कि इतने रुपए हैं कि वह लड़की के लिए उसके पसंद के कबाब और कुकुरमुत्तो, भुट्टे, पनीर की सब्जी ले सकता है.
पाशा ने बाईं ओर देखा. सड़क के किनारे-किनारे चर्च की ऊंची चहारदीवारी दूर तक चली गई थी. यह सड़क आगे जाकर शहर की अंधोरी, बदबूदार संकरी गलियों में बदल जाती थी. उन गलियों को पार करके थिएटर और खाने की दुकान जाया जा सकता था.
पाशा ने कंधो हिलाकर कोट के खिसके हुए मुड्
वह शहर का सबसे पुराना और विशाल चर्च था. उसकी दीवारें, यतीमख़ाने की दीवारों, बरामदों, छतों की तरह जर्जर, काई लगी और गिध्दों से भरी नहीं थीं. चर्च के घंटे की आवाज़, उसमें फुसफुसाती प्रार्थनाएं, अंदर बने बगीचों के अंधोरों के चुंबन, मोमबत्तिायों की कांपती लौ, प्रवचन, अनंत दुखों से आकुल व्यथित देहें, इस चर्च को अपने जीवन में गहरी पवित्राता के साथ रखे हुए थीं.
पाशा ने अचानक महसूस किया कि दीवार पर हाथ रखना उसे सहारा दे रहा है. दीवार पर हाथ रखने से क्या हो गया यह पाशा ने समझना चाहा. शायद उसकी थकी देह को विश्राम मिला या फिर अंदर किसी अज्ञात कोने के अंधोरे में, तिलचट्टे की तरह दुबकी हुई अज्ञात प्रार्थना को ईश्वर का स्पर्श मिला या उस दीवार पर पसरे विराट एकांत से पाशा ने ख़ुद को एकाकार पाया. पाशा ठीक-ठीक समझा नहीं. पाशा दीवार पर हाथ रखता हुआ चलता रहा. दूर से देखने पर स्याह रंग की ऊंची दीवार के साए में एक अकेली, छोटी काया, उसके पत्थरों को छूती हुई लुढ़क रही थी. पाशा के पांव ज़मीन की सूखी पत्तिायों में धांस रहे थे.
पाशा नाटक के बूढ़े निर्देशक को बताना चाहता था कि वह तीन दिनों में नाटक पूरा नहीं कर पाएगा. उसको यह बताना भी ज़रूरी था कि संभव है पाशा बहुत दिनों तक कुछ लिख ही न पाए. पाशा को बताना था कि पाशा की आत्मा के अंदर वे संधिस्थल ख़त्म हो गए हैं जहां आत्मा अलग-अलग अनुभवों को जीते हुए गतिशील जीवन रचती है. पाशा यह भी बताना चाहता था कि वह पूरी ईमानदारी से कोशिश कर रहा है कि वह इससे मुक्त हो. वह कोशिश कर रहा है कि अपनी आत्मा के उस प्रफुल्ल, धवल शेष अंश को, जो लड़की के पास रहता है, अपनी आत्मा में उसी तरह रोपेगा जैसे कोई गुलाब की कलम रोपता है. वह अंश आत्मा की बोधरहित ज़मीन को तोड़कर बहुत से हिस्सों में फूटेगा. जब उसके अंदर सुख-दुख का बोध वापस लौटेगा, जब अनुभूतियों के संधिा स्थल लौटेंगे, तभी वह नाटक लिख सकेगा.
पाशा का हाथ अचानक हवा में झूल गया. दीवार ख़त्म हो गई थी.
दीवार ख़त्म होते ही चिड़ियों का एक झुंड था जो नीचे पत्तिायों में दुबके कीड़ों को ढॅ।
आगे पुल था. पुल के नीचे से एक छोटा रास्ता शहर की गालियों में जा रहा था. पाशा पुल के नीचे आया. वहां कूड़े के

ढूंपाशा से भी बूढ़ा व्यक्ति नाटक का निर्देशक था. दो साल पहले उसके दाएं हिस्से में हल्का सा लकवा मार गया था. उसकी दो उंगलियां टेढ़ी हो गई थीं. बोलते समय आवाज़ जीभ में फंसने लगी थी. उसके माथे पर बेतुके तरीके से एक बड़ा मस्सा था जो अक्सर पसीने में भीगा रहता था. इमारत के पीछे वाले हिस्से में बने दो कमरों में वह रहता था. अपने ज़माने का वह एक कुशल नर्तक भी था. लकवा मारने के पहले तक अक्सर रात में अकेले जब कभी वह लकड़ी के फ़र्श पर नाचता तो उसके पांवों की धमक दूर तक जाती. उसकी बूढ़ी देह को थिरकते हुए सिर्फ़ पाशा ने देखा था. ऐसा तभी होता था जब कभी पाशा उसके साथ देर रात तक शराब पीता था. शराब पीते हुए वे पुराने दिनों को याद करते. आधी रात के आसपास वह पाशा को हाल में ले आता. पाशा स्टेज की सीढ़ी पर बैठ जाता. ऊपर एक छोटा-सा बल्ब जलाकर रोशनी के उस वृत्ता में वह धीरे-धीरे नाचना शुरू करता. उसकी देह की हड्डियां, नसें-मांसपेशियांµखाल सब धीरे-धीरे थिरकने लगते. पंजे और एड़ी की गति, लय और शक्ति को पाशा हैरानी से देखता रहता. वह तब तक नाचता जब तक उसके घुटनों से आवाज़ नहीं आने लगती.
उस आवाज़ से वह डर जाता. नाचना बंद करके वह फ़र्श पर ही बैठ जाता. उसकी आंखें उस हल्की रोशनी में भी चमकती होतीं. विजेता के आनंद और सुख से. कुछ देर तक फेफड़ों में सांसें भरने के बाद वह उठता. बल्ब की रोशनी बंद कर देता. पाशा के पास आकर सीढ़ी पर बैठ जाता. ऊपर के रोशनदानों से आती कभी ठंडी हवा, कभी चांदनी, कभी गहन निस्तब्धाता में पाशा उसके ऊपर नीचे होते सीने को देखता रहता. वह पाशा के कंधो पर सर रख देता. दोनों अपने अपने एकांत में देर तक बैठे रहते. रात के तीसरे पहर ओस गिरना शुरू हो जाती. उनके चारों ओर सबकुछ स्थगित हो जाने की अनन्त शान्ति में डूब जाता. कुछ शेष नहीं रहता. कालबोध नहीं...संज्ञान नहीं...स्वप्न नहीं. निर्वाण की प्रतीक्षा में शिथिल, श्लथ दो शरीर बैठे रहते.
इसी इमारत में सात साल पहले पाशा लड़की से पहली बार मिला था. वह नाटक में अभिनय करती थी. जब नाटक होता था तब पाशा हमेशा ऊपर संग्रहालय में जाने वाली अंधोरी सीढ़ियों पर बैठा रहता. संग्रहालय बंद हो चुका होता था. पूरी मंज़िल अंधोरे में डूब जाती थी. नीचे हाल के रोशनदान इन सीढ़ियों के ऊपर खुलते थे. पाशा उन्हीं रोशनदान से आती आवाज़ों में अपने लिखे संवाद सुना करता था.
एक रात पाशा इसी तरह सीढ़ियों पर बैठा था. तभी लड़की ऊपर आई थी. नाटक में उसकी भूमिका ख़त्म हो चुकी थी. वह पाशा के पास चुपचाप बैठ गई थी.
रोशनदान से गिरते हुए शब्द उन तक आ रहे थे.
''जितना नींद में स्वप्न होता है, जितना देह में काम होता है, जितनी आयु में स्मृति होती है, उतना ही...बस उतना ही पाप और उतना ही ईश्वर मुझे अपने जीवन में स्वीकार है...''
उन्हीं शब्दों के बाद बिना एक शब्द बोले लड़की ने पाशा के होठ चूमे थे. पाशा उदास, खाली आंखों से उसे देखता रहा था. बिना एक शब्द बोले ही सीढ़ियों पर उस रात लड़की ने पाशा के साथ संभोग किया था. तभी पहली बार लड़की ने पाशा को बताया था कि पाशा नहीं जानता पर पाशा की आत्मा का एक हिस्सा हमेशा उसके साथ रहता है. उसने बताया था कि ऐसा सबके साथ होता है. मनुष्य जीता रहता है और उसे पता ही नहीं चलता कि उसकी देह के परे उसकी आत्मा को कोई दूसरा भी जी रहा है. कभी-कभी जब किसी को अचानक ऐसा लगता है कि कहीं कुछ कौंध...कुछ कांपा...किसी ने छुआ...कोई फुसफुसाया...अचानक कुछ सोचा हुआ सच हुआ, तो यह सब आत्मा के उसी अंश के साथ हो रहा होता है जिसे दूसरा कोई अपनी देह में जी रहा होता है. यह अंश हमेशा निष्पाप, निष्कलंक होता है क्योंकि वह स्वयं कुछ नहीं भोगता, इसे कोई दूसरा भोगता है. ईश्वर इस अंश को हमेशा प्यार करता है...शरण देता है. पाशा उसके पास हमेशा इसी तरह रहता है.
ठंडी रात...अंधोरी सीढ़ियां...सम्मोहित करने वाला देह सुख...कांच के पार चांदनी...रोशनदान से गिरती आवाज़ें...लड़की की गंध...आत्मा का मायालोक...जीवन-मृत्यु- ईश्वर...पाप...पुण्य...पाशा के लिए यह नया अनुभव जगत था. आलोकित...सम्मोहक...पाशा को संतृप्त करता हुआ. यह जगत पाशा के अंदर कभी धूमिल नहीं हुआ था.
पाशा ने एक गहरी सांस ली. उसे तेज़ खांसी आई. एक खंभे के सहारे टिक कर कुछ देर वह खांसता रहा. सांस थमने के बाद अपने झुके कंधों को धीरे-धीरे हिलाता हुआ, कोट की जेबों में हाथ डाले, झुककर पांव घसीटता हुआ चल दिया. गलियों के अंतहीन सिलसिलों से वह गुज़र रहा था. नसों की तरह एक गली से दूसरे गली निकल रही थी. पाशा चारों ओर पसरे इन्सानों के हजूम को देख रहा था. इनमें से शायद एक भी ऐसा नहीं होगा जो पाशा की तरह हो. उन सबके अंदर यातनाएं थीं...पीड़ाएं थीं...प्रार्थनाएं थीं...संघर्ष थे...टूटे हुए घुटने थे...जीवन था...पर उन सबको इसका बोध था. वे इसे जी रहे थे. निरुद्देश्य, अनिच्छा से...घृणा से...भय से या विवशता से. पाशा की तरह वे निरर्थक शून्य में नहीं थे.
मंदिरों के टूटे कंगूरे, खिड़कियों पर पड़ी जर्जर चिकें, पागल का रुदन, तारों पर उलटे लटके भुने हुए मुर्गे...पेड़ों को लौटते तोते, मरती हुई धूप, कोने में छोटी-सी मजार पर चढ़ी चमकीली चादरें...जलती मोमबत्तिायां... जालियों में लटके अतृप्त अनन्त स्वप्न, लोबान से उठते हुए धुएं के बीच थरथराता आलाप, दो खूंटी ठोंककर उनके बीच धगों को तान कर दौड़ती लड़की..दीवार पर पेंट करता हुआ बीड़ी पीता लड़का, बड़े अंडकोषों वाला रंग घोलता बूढ़ा. और हवाओं में तैरती पत्तिायों को पार करके पाशा गलियों के मकड़जाल से बाहर निकल आया. सामने खुली सड़क थी. उसके पार घड़ी वाली, तीन मंज़िला इमारत थी.
सड़क पार करके पाशा इमारत के अहाते में आया. इमारत के पीछेवाले हिस्से के रास्ते में कहीं-कहीं पानी भरा था. छोटी-सी हेज पर कुछ कपड़े सूख रहे थे. पाशा कमरे तक आया. कमरे का दरवाज़ा खुला था. पाशा ने अंदर झांका. अंदर कोई नहीं था. पाशा ने घूमकर चारों ओर देखा. दीवार की आड़ किए, धूप में, खाट के कोने में सिमटा हुआ वह अपने लकवा खाए अंगों को चला रहा था. धूप में उसकी पूरी देह थी.
कंधो झुलाते हुए पाशा उसकी खाट तक आया. उसकी धूप रुकी. लकवे वाले हिस्से को हिलाना छोड़कर उसने सर घुमाया. पाशा को देखकर वह कुहनी के सहारे से उठ गया. उसके उठने से खाली हुई जगह पर पाशा बैठ गया. पाशा के बैठने के बाद उसने अपने ठीक हाथ की हथेली फैलाकर, हाथ आगे बढ़ाया.
पाशा ने सर घुमा लिया. उसने फैली हुई हथेली की उंगलियां नचाईं. पाशा कुछ नहीं बोला. उसने हाथ वापस खींच लिया. कुछ देर वह सर झुकाए बैठा रहा.
''अंदर चलते हैं.'' वह बोला और खाट से उतर गया. उसके पीछे पाशा भी उठ गया.
कमरे के अंदर जाने के लिए दो सीढ़ियां थीं. पहले वह सीढ़ियां चढ़ा, फिर पाशा. कमरे के अंदर अंधोरा था. उसने एक खिड़की पूरी खोल दी. खिड़की से थोड़ी रोशनी अंदर आई.
कमरे में तीन कुर्सियां पड़ी थीं. छोटी-सी मेज थी. कोने में पलंग था. अंदर एक दूसरा कमरा था.
वह एक कुर्सी पर बैठकर झूलने लगा. पाशा उसके सामने वाली कुर्सी पर बैठ गया.
''लगता नहीं कि कुछ हो पाएगा'' कुछ देर बाद पाशा बोला. वह कुछ नहीं बोला. उसी तरह झूलते हुए पाशा को देखता रहा.
''मुझे छोड़ दो'' पाशा बुदबुदाया.
''क्या हुआ'' उसने धीरे से पूछा.
''पता नहीं कब तक...या शायद कभी न लिख पाऊं'' पाशा ने गले का मफलर खोलकर गले की खाल रगड़ी, ''कल रात जब पतझर की पत्तियां टूटकर गिर रही थीं तभी यह हुआ...उन्होंने मेरी आत्मा को
आत्मा के अंदर ही सब होता है... अलग-अलग सबका बोध होता है...यही जीवन को गति देता है...इसी से जीवन बनता है...रचना जन्म लेती हैं...पर जब ये संधि रेखाएं ही ख़त्म हो जाएं...जब पता ही नहीं लगे कि कहां सुख ख़त्म हुआ कहां दुख शुरू हुआ...कहां भय जन्मा, कहां स्वप्न नष्ट हुआ...जब सब सपाट...चट्टान की तरह जड़, निस्पन्द, बोध रहित हो जाए...तब कैसे जिया जा सकता है और कैसे लिखा जा सकता है.'' गले की खाल रगड़ते हुए पाशा के होठों पर थूक आ गया. उसका चेहरा काला हो गया. उस पर गहरा पीलापन भी उतर आया. पाशा बुदबुदा रहा था, ''मुझे नहीं पता यह क्या है...कोई रोग है, या आयु का स्वाभाविक प्रभाव...नक्षत्रों का कोई षडयंत्र या जीवन का एक कौतुक...पर यह जो भी है भयानक है...असहनीय है...'' पाशा का सीना ऊपर नीचे होने लगा. उसके चेहरे पर पसीना आ गया.
कमरे में सन्नाटा हो गया. पाशा की सांसों की आवाज़ घूम रही थी. खिड़की के बाहर पत्तों की सरसराहट थी...किसी चिड़िया का आर्तनाद था.
''चलो नाचते हैं'' कुर्सी पर झूलना रोककर वह बोला.
पाशा ने सर उठाकर उसे देखा. वह गंभीर था. उसके माथे के मस्से पर पसीना था. पाशा ने उसके लकवा खाए हिस्सों को देखा.
''मैंने कोशिश नहीं की...पर मुझे लगता है कि तुम साथ दो तो मैं फिर नाच सकता हूं. यह काम करता है. ऊपर की गति... उत्तोजना...पूरा नृत्य अंदर तक जाता है. सब ठीक हो जाएगा.''
उसने अपना लकवा वाला हाथ उठाकर मुड़ी उंगलियां पाशा के कंधो पर रखीं. पाशा कुछ नहीं बोला.
''यहीं देखते हैं'' वह कुर्सी से खड़ा हो गया. एक तरफ़ झुका हुआ. उसने दूसरे हाथ से पाशा को खींचा. पाशा उठ गया. उसने पाशा के दोनों हाथ पकड़कर हिलना शुरू किया. कुछ देर हिलते रहने के बाद उसने एक चक्कर काटा और उसके बाद कदम रखते ही वह लड़खड़ाया. उसने पाशा को पकड़ लिया. उसके चेहरे पर हताशा आ गई. वह कुर्सी पर बैठ गया. चुपचाप फ़र्श को घूरता वह बैठा रहा. वह फ़र्श के उस हिस्से को एकटक देख रहा था जहां उसका क़दम लड़खड़ाया था. उसके होठ खिंचे थे. आंखों में गहरी उदासी थी.
पाशा उठा और दरवाज़े की तरफ़ जाने लगा.
''सुनो'' पीछे से उसकी पराजित आवाज़ सुनाई दी.
पाशा घूम गया.
''मैंने अभी देखा. तुम्हारे चेहरे का कालापन बहुत बढ़ गया है''
''हां, शायद मेरी लालसाएं बहुत बढ़ गईं हैं...'' पाशा धीरे-से बड़बड़ाया फिर दो सीढ़ियां उतरकर दरवाजे से बाहर निकल आया.
जाती हुई धूप मटमैली होना शुरू हो गई थी. उसकी चमक और तेज़ी दोनों ख़त्म हो रहे थे. पाशा ने दोनों हाथ फिर कोट की जेब में घुसेड़ लिए.
पाशा को पीछे कुछ आवाज़ें सुनाई दीं. बिना घूमे पाशा समझ गया. वह अकेला नाचने की कोशिश कर रहा था.

लड़की के लिए कबाब और कुकुरमुत्तो, भुट्टे, पनीर की सब्जी लेनी थी. एक बेहद संकरी गली को पार करने के बाद वह दुकान थी. वह गली इतनी संकरी थी कि उसके दोनों ओर बैठे लोग हाथ बढ़ाकर एक दूसरे से सामान ले लेते थे. उस गली में सूरज की रोशनी नहीं आती थी. उसके अंदर अंधोरा, सीलन और खट्टी गंध हमेशा रहती थी. उसके दोनों ओर लकड़ियों के छोटे दरवाज़े थे जिनसे अंदर जाया जा सकता था. ऊपर बनी छोटी खिड़कियों पर कपड़ों के पर्दे पड़े रहते थे. बहुत पहले उस गली में वे औरतें रहती थीं जिन्हें कभी वहां से बाहर निकलने की ज़रूरत नहीं पड़ती थी. वे औरतें अपने-अपने घरों की चौखट पर बैठी रहतीं. गली के सिरे पर झुंड बनाए आदमी उन्हें हैरत और लालसा से देखते रहते. बाद में यह गली खाली करा ली गई. औरतें वहां से हट गईं. उस गली के मकानों के छोटे दिखते दरवाज़ों के अंदर बड़े अहाते थे, छज्जे थे, दुछत्ती थी. उनमें अब जानवरों की खालें सूखती थीं. रात के अंधोरे में भैंसागाड़ी लेकर मजबूत बदन वाले लड़के वहां आते. उन गाड़ियों पर चमड़ा लादा जाता. फेना बहाता, हांफता, गर्म सांस छोड़ता भैसा शहर की खाली सुनसान सड़कों पर उसे खींचता हुआ बाहर ले जाता. रात के अंधेरे में कच्चे चमड़े की गंध अनवरत घूमती रहती. तेज़ गंध के ये गुच्छे ऊपर घरों की दीवारों से होते हुए आसमान तक जाते. कोई आधी रात को करवट लेता तो यह गंध नथुनों में जाती. ताजी रंगी खालों से रंगीन पानी टपक कर गिरता. लुढ़कती गाड़ियों के लंबे सफर के ख़त्म होने के इंतज़ार में चमड़े पड़े बना लिए थे. पतंग, मीठा चूरन और मसाला बेचने की दुकानें सजा ली थीं. मुर्गियां पाल ली थीं. लंबी लकड़ियों पर कपड़े सूख रहे थे. कुछ बड़ी क़ब्रों के नीचे गोबर के कंडे चिपके थे. क़ब्रों के ऊपर आसमान अब तक मटमैला हो गया था. उस कत्थई मटमैलेपन में क़ब्रों के पत्थर डरावने लग रहे थे. पाशा ने कुछ क़ब्रों पर कांपती...अपाहिज़ परछाइयां देखीं. पहले पाशा को लगा कि क़ब्रों के ऊपर उनकी आत्माएं ही छूट गई हैं. पर वह तो सैकड़ों साल पहले ईश्वर के पास चली गई होगीं, पाशा ने सोचा. कोई ईश्वर देह के मिट्टी होने या राख होने के बाद आत्मा को एक क्षण भी उसमें नहीं छोड़ता. ये आत्माओं के वही बचे हुए अंश होंगे जो उन कब्रों के अंदर दबी देहों में नहीं बल्कि दूसरों के पास रहते थे. सैकड़ों वर्षों तक वे कहीं न कहीं स्मृति में, अनुभव में, क़िस्सों में सांस लेते रहे. पर अब किसी को इनकी ज़रूरत नहीं होगी. ये सदियों तक ऐसे ही अपनी क़ब्रों पर बैठे ऊंघते रहेंगे...जैसे खंडहरों में चमगादड़, यतीमख़ाने में गिद्ध ऊंघते थे.
पाशा के कंधो थोड़े और लटक गए. घुटनों में दर्द हुआ. बहुत देर से, बहुत दूर तक पाशा चला था. पाशा ने सोचा कि उसे अब तक थक जाना चाहिए था. पर भूख भी नहीं थी...थकान भी नहीं.
दुकान पर भीड़ थी. पाशा को लगा कि वह इस भीड़ में घुसकर सामान नहीं ले सकेगा. उसने सोचा कि कहीं से कुछ और ले ले जो लड़की खा ले. तभी पाशा को एक झुरझुरी आई. उसका बदन कांपा. जैसे किसी ने पाशा को छुआ. पाशा समझ गया कि मछलियों के साथ नाचते हुए लड़की ने अपने साथ नाचती पाशा की आत्मा के अंश से कुछ कहा. या वह कुछ सोच रही होगी. शायद कबाब के बारे में, सब्जी के बारे में या फिर शायद पाशा के ही बारे में.
पाशा ने एक सांस ली और फिर लड़खड़ाते हुए वह भीड़ में घुस गया.

पाशा जब भीड़ से बाहर निकला उसके दोनों हाथों में पैकेट थे. कुछ देर तक वह दुकान की दीवार के साथ चिपका गहरी सांसे लेता रहा. उसके कंधों पर से कोट खिसक गया था. मफ़लर भी लटक गया था. पाशा के कोट की जेबें बड़ी थीं. कोट सिलवाते समय उसने ख़ासतौर से ऐसी जेबें बनवाईं थीं जिनमें वह बहुत सी चीज़ें रख सके. सांसें पूरी तरह फेफड़ों में भर लेने के बाद पाशा ने कोट की दोनों जेबों में एक-एक पैकेट डाल लिया. एक में कबाब थे, दूसरे में कुकरमुत्तो वगैरह.
घर अब पास था. पाशा को घर की गंध आ रही थी. पाशा के कोट की जेबें भरी थीं इसलिए हवा में हाथ झुलाते हुए वह फिर चल दिया. पाशा कुछ देर अब लड़की के बारे में सोचना चाहता था. पाशा उसके साथ जिए गए अपने जीवन के बारे में सोचना चाहता था. अपनी तृप्त वासनाओं और अपने प्रेम की समस्त पवित्राताओं के बारे में सोचना चाहता था. उन क्षणों के बारे में सोचना चाहता था जब मृत्यु की कालिमा उसके चारों ओर होगी, जब उसका क्रूर और निर्जन एकांत उसकी आत्मा को कुतरेगा...जब उसकी समस्त चेतना, समस्त संज्ञाएं पसीने की तरह उसकी देह को छोड़ रही होंगी. पाशा मृत्यु से ठीक पहले विदा की धवनियों के बारे में सोचना चाहता था जिनमें उसकी घोषित महानताएं और अर्जित पुण्य नहीं हों बल्कि लड़की की देह के लावा में दग्धा क्षणों की फुसफुसाहटें हों. पाशा देर तक सोचता रहा. स्मृतियों का एक आलोकित संसार था जिसके केंद्र में लड़की पाशा की अकेली अकम्पित आस्था की तरह फूट रही थी. पाशा देर तक सबकुछ सोचता रहा. तब तक सोचता रहा जब तक कि आसमान में गिद्ध फिर नहीं दिखने लगे. खाली हवाओं में वे अक्सर बस्ती की छतों तक भी जाते थे. लड़के ने नीचे शाम की दुकान फिर लगा ली थी. सड़क चौड़ी और खाली थीं.
पाशा सड़क के किनारे-किनारे चल रहा था. उसने देखा. उसके ठीक सामने थोड़ी दूर तक एक नन्हा सफेद सुअर का बच्चा एक मोटे सफेद सुअर के पीछे-पीछे सड़क पार कर रहा था. पाशा ने चाल धीमी कर ली. उसने इतना सफेद खूबसूरत बच्चा कभी नहीं देखा था. उसकी साफ, रोम रहित चिकनी खाल धीरे-धीरे हिल रही थी. चलते हुए वह नथुनों से गर्म सांस छोड़ रहा था. एक तेज़ कार सड़क से निकली. उसके शोर में मोटा सुअर हड़बड़ाया. उसके साथ बच्चा भी. मोटा सुअर एक ओर भागा और निकल गया. बच्चा हड़बड़ाहट में इधर-उधर भागता रहा. कार उसके ऊपर से निकल गई. वह सड़क पर लुढ़क गया. उसके मुंह से ख़ून बह रहा था. उसका पूरा बदन तेज़ी से हिल रहा था. वह सुंदर सफेद गोश्त कांप रहा था. पाशा रुक गया. फटी आंखों से वह ख़ून बहाते, हिलते हुए उस बच्चे को देख रहा था. तभी वह मोटा सुअर लौटा. बच्चे के पास आकर वह रुक गया. उसने उसकी हिलती देह...बहते गर्म ख़ून को देखा. एक आवाज़ के साथ वह झुका और उसके मुंह से बहते गर्म ख़ून को पीने लगा. पाशा देख रहा था. धीरे-धीरे कांपता हुआ, सफेद गोश्त...उसके मुंह से मुंह लगाकर ख़ून चूसता...खुशी से चीख़ता मोटा सुअर.
पाशा तेज़ी से दूसरी तरफ़ मुड़ गया. उसके अंदर अंतड़ियों की गहराई से एक उबकाई ऊपर की तरफ़ उठी. खट्टा सा कुछ छाती को जलाता हुआ गले तक आया. पाशा रुक गया. चलना मुश्किल था. सड़क के किनारे बनी एक दुकान के चबूतरे पर वह बैठ गया. अंदर से झटके के साथ कुछ ऊपर आता...पर रुक जाता था. पाशा की आंखों से पानी गिरने लगा. उसकी छाती में वह पीला, खट्टा सा कुछ छाती को जलाता हुआ गले तक आया. पाशा रुक गया. चलना मुश्किल था. सड़क के किनारे बनी एक दुकान के चबूतरे पर वह बैठ गया. अंदर से झटके के साथ कुछ ऊपर आता...पर रुक जाता. पाशा की आंखों से पानी गिरने लगा. उसकी छाती में वह पीला, खट्टा अम्लीय द्रव भर गया. छाती, गले में तेज़ जलन होने लगी. पाशा ने कोट हटाकर कमीज के बटन खोले. छाती को रगड़ा. अंदर से कुछ फिर ऊपर आया. पाशा का सर घूमने लगा. थूक...लार...आंखों के पानी से उसका चेहरा भीग गया. हांफते हुए पाशा दुकान की दीवार पर सर रखकर लुढ़क गया. कुछ देर इसी तरह लुढ़के रहने के बाद वह सीध हुआ. मुंह में दो उंगली डालकर उसने अंदर भरे वमन को बाहर निकालना चाहा. अंदर से एक भभका फिर उठा. इस बार पीले रंग की कुछ बूंदें बाहर निकलीं...उसके बाद थोड़ा-सा थूक और लार.
पाशा की उंगलियां थूक से सन गईं. उसने कोट की आस्तीन पर उंगलियां घिसीं. दूसरी आस्तीन से मुंह पोंछा. उसे लगा कि उसकी देह में अब जान नहीं है.
पाशा काफी देर तक इसी तरह बैठा रहा. पाशा के कपड़ों पर धूल जम गई थी. घर ज्यादा दूर नहीं था.
सड़क पर अंधोरा हो गया था. लोगों ने दुकानों में रोशनियां जलानी शुरू कर दी थीं. सड़क के किनारे लैंप पोस्ट जल गए थे. पाशा दीवार का सहारा लेकर उठा. सीधो खड़ा होकर उसने कंधो हिलाए. पाशा को बहुत देर हो गई थी. लड़की घर पहुंच गई होगी. नाचने के बाद थकी होगी...भूखी भी होगी. पाशा ने पांव घसीटे और रास्ता बदलकर घर की ओर चल दिया.

पाशा ने घर का दरवाज़ा खोला. धीरे से पांव रखते हुए उसने चौखट पार की. यतीमख़ाने की छत पर बेडौल गर्दनों, घिनौनों सर वाले गिध्दों को भय और हैरानी से देखती हुई लड़की खिड़की पर खड़ी थी. पाशा की तरफ़ उसकी पीठ थी. पाशा ने बिना कोई आहट किए दरवाज़ा बंद किया. बिना आहट किए ही वह कुछ क़दम अंदर आया. कमरे में अंधोरा था. मेज पर सूप और चने के बर्तन नहीं थे. फर्श पर कुतरे हुए टोस्ट के टुकड़े नहीं पड़े थे. पलंग की चादर बदली हुई थी. कुर्सी पर लड़की के कपड़े रखे थे. पाशा ने खिड़की पर देखा. लड़की उसके कपड़े पहने थी. उसके बाल खुले थे. वह नहाई थी. उसने कमरे को साफ़ किया था. पाशा को अपने मुंह से बदबू आई. उसे लगा कि जो थोड़ा-सा पीला फेना उसके मुंह से निकला था वह होठों पर लिपटा है. उसके कपड़ों पर भी. पाशा ने होठों पर जीभ फेरी. फेने का खट्टापन उसकी जीभ को महसूस हुआ. पाशा उसी तरह दबे पांव आगे बढ़ा. कोट की जेब से दोनों पैकेट्स निकाल कर उसने मेज पर रख दिए. अंदर बने बेसिन पर पाशा ने मुंह धोया. उंगली डालकर बिना आवाज़ किए जीभ साफ़ की. आंखें साफ़ कीं. शीशे में पाशा ने अपना गीला चेहरा देखा. चेहरे का कालापन अंधोरे में भी दिख रहा था. वह अंधोरे से भी गहरा हो गया था. कोट की आस्तीन से पाशा ने चेहरे का पानी पोछा. पाशा वापस कमरे में आया. लड़की उसी तरह खिड़की पर खड़ी थी. पाशा ने देखा. लड़की के ठीक पीछे चांद उग रहा था. पीला, पूरा गोल, बेहद चमकदार. लड़की अचानक चांद के बिल्कुल बीच में आ गई थी. धीरे-धीरे उगते हुए चांद की रोशनी में वह नहा गई. लड़की चांद के केंद्र में थी. पाशा उसकी तरफ़ बढ़ा. वह लड़की के ठीक पीछे पहुंच गया. लड़की एकदम से घूमी. पाशा को देखकर वह चौंकी नहीं. उसे पाशा की उपस्थिति मालूम थी. अब वह पूरी तरह पाशा के सामने थी. उसने घुटनों तक पाशा की लंबे
''मैं जल्दी आ गई थी.'' वह धीरे-से बोली, ''मैं नहाई भी. घर में खाने के लिए कुछ नहीं था. मुझे भूख लगी है.''
पाशा ने मेज पर रखे पैकेट्स की तरफ़ इशारा किया.
लड़की मुस्कराई. वह फिर चांद की तरफ़ घूम गई. पाशा उसी के साथ खिड़की पर खड़ा हो गया. यतीमख़ाने की छत चांदनी से लबालब भर गई थी. गुंबदों...दरारों...मुंडेरों सब पर. चांदनी में ऊंघते हुए गिद्ध अधिक भयानक लग रहे थे.
''देखो'' लड़की ने चांद की ओर इशारा किया. ''कुछ फ़र्क़ दिखता है'' पाशा ने चांद की ओर देखा.
''यह नीला चांद है. तुमने सुना होगा वन्स इन ए ब्लू मून...इसमें ज़हर है...इसकी रोशनी में ज़हर है...इसीलिए इसे नीला कहते हैं. देखो इसकी रोशनी'' लड़की ने अपनी दोनों हथेलियां जोड़ी, जैसे चुल्लू में चांदनी भर ली हो. ''इसका नीलापन देखो'' पाशा ने उसकी हथेलियों को देखा. नन्हीं, सफेद हथेलियां. टूटी भाग्य रेखा और जीवन रेखा के साथ दूसरी रेखाएं थी. उन रेखाओं पर छोटे-छोटे द्वीप, शंख बने थे. लड़की की हथेलियां खाली थीं. उनमें कोई ज़हर भरी नीली रोशनी नहीं थी.
''बहुत मुश्किल से ऐसा होता है कि एक महीने में ही दो बार पूरा चांद निकले. यह महीने का दूसरा पूरा चांद है...यह जिसे डसेगा उसकी मृत्यु निश्चित है.''
पाशा ने चांद को देखा. लड़की की देह पर गिरती हुई चांदनी को देखा.
''तुम खा लो कुछ'' पाशा ने कहा.
''अभी नहीं...बाद में'' लड़की पूरा घूम गई. चांद की तरफ़ उसकी पीठ थी. उसने पाशा को प्यार से देखा. उसने पाशा के चेहरे को उंगली से छुआ. उसकी दाढ़ी को, उसके चेहरे की उभरी हड्डियों के कालेपन को... उसकी झुर्रियों को छुआ. लड़की की सफेद नन्ही गर्दन पाशा की आंखों के सामने थी. पाशा ने सर झुकाकर उसके गले की खाल को चूमा. लड़की धीरे से फ़र्श पर बैठ गई. पाशा भी. लड़की की कमीज़ के ऊपर के बटन खुले थे. गले के नीचे की सफेद खाल चांदनी में और सफेद दिख रही थी. पाशा ने धीरे से उसकी कमीज को हटाया. लड़की की एक छाती बाहर निकल आई. गोल...ठोस...सफेद...हल्की गर्म, हल्की सांस छोड़ती हुई, हल्की कांपती हुई. पाशा ने सर झुकाकर उस सफेद गोश्त को अपने मुंह में भर लिया. उस कांपते गर्म टुकड़े को मुंह लगाकर पाशा चूसने लगा. एक भभका पाशा के अंदर उठा. तेज़...आग के गोले की तरह. एक गहरी उबकाई आई और पाशा ने उस छाती पर सब कुछ उगल दिया. अंदर के छोटे-छोटे बदबूदार, बचे हुए खाने के टुकड़े...पीला फेना...गाढ़ा पानी. लड़की की छाती...गला सब उस वमन से सन गया. पाशा ने सर उठाकर देखा. वह फटी-फटी आंखों से पाशा को देख रही थी. उन आंखों के विस्तार में बहुत कुछ था. अविश्वास...घृणा... भय...आश्चर्य...दुख. लड़की उन आंखों से पाशा को कुछ देर देखती रही फिर पाशा को हटाकर उठ गई. उसके उठते ही छाती पर पड़ा वह वमन उसके शरीर के और हिस्सों पर भी फैल गया. पाशा वहीं फ़र्श पर लुढ़क गया. गिरे हुए वमन के अंश में...मुंह से सफेद बदबूदार झाग उगलता. फ़र्श पर पड़ा हुआ पाशा देखता रहा. लड़की अंदर गुसलखाने में गई. कुछ देर बाद बाहर निकली. निर्वसन. कुर्सी पर पड़े उसने अपने कपड़े पहने. बिना कुछ बोले...चुपचाप, दरवाजे से बाहर निकल गई.

पाशा फ़र्श पर लेटा था. चांद की नीली रोशनी में डूबा. फ़र्श पर पड़ा वमन भी रोशनी में चमक रहा था. उस पर मक्खियां बैठ रही थीं. कुछ देर इसी तरह पड़े रहने के बाद पाशा धीरे-धीरे उठा. दीवार का सहारा लेकर वह बैठ गया.
कमरे के अंदर भी चांदनी फैल गई थी. फ़र्श की धूल...काग़ज़ के टुकड़े...मेज पर रखे काग़ज़ पर लिखा संवाद...दीवार की छिपकली...कबाब...लड़की की छोड़ी हुई कमरे की ताली...उखड़ी पपड़ियां...खूंटी पर लटके कपड़े...घृणा, अविश्वास से फैली लड़की की आंखें, सब चांदनी में चमक रहे थे.
पाशा को अंदर कुछ भारीपन लगा. उसे लगा कि उसकी आत्मा का वजन बढ़ गया है. लड़की ने उसकी आत्मा के उस अंश को शायद अब मुक्त कर दिया है जिसे वह हमेशा अपने साथ रखती थी. यह बोझ बहुत था. पाशा की देह इसे नहीं उठा पा रही थी. धीरे-धीरे दीवार के साथ लुढ़कता हुआ पाशा फिर फ़र्श पर लेट गया. उसने घुटने मोड़े और छाती से चिपका लिए. गीली आंखें...बदबूदार फेने से सने होठ...छाती से चिपके घुटने...घुटनों के बीच हथेलियां दबाए पाशा फ़र्श पर पड़े चमकते बदबूदार वमन को देख रहा था.

पाशा के चेहरे पर मक्खियां बैठीं तो पाशा हिला. उसने थोड़ा-सा सर उठाया. फ़र्श...कमरा सब अंधोरे में थे. चांद पार निकल गया था. उसकी रोशनी भी. आधी रात बीत चुकी थी. फ़र्श पर पड़े वमन पर मक्खियां अभी भी थीं. पाशा धीरे-धीरे उठा. दीवार के सहारे पैर फैलाए कुछ देर तक बैठा रहा. कमरे के अंदर अब फिर अंधोरा था. कुछ काले हिस्से टीलों की तरह उठे थे. पाशा ने दीवार का सहारा लिया और खड़ा हो गया. नीचे सड़कों पर सब सो चुके थे. पूरी सृष्टि में गहरी निस्तब्धाता थी...सन्नाटा था. पाशा कमरे के अंदर आया. नल पर जाकर उसने मुंह धोया. कोट की आस्तीन से पानी पोंछा. कमरे में लौटकर उसने कुछ गहरी सांसें लीं. ठंड बढ़ गई थी. जेब में हाथ डालकर उसने कमरे की ताली को टटोला फिर कमरे के बाहर आ गया.
पूरा शहर सो रहा था. सड़कें...इमारतें... फुटपाथ...दीवारें सब हल्के अंधोरे, हल्के उजाले में डूबे, पूरी तरह शान्त थे. पत्थरों का शहर खुदाई में निकले सदियों पुराने शहर की तरह लग रहा था, जिसमें कोई गति नहीं थी, जीवन नहीं था. बस स्मृतियां, परछाइयां, अतीत, लिथड़े हुए स्वप्न, मृत आकांक्षाएं पत्थरों के बीच पसरी थीं.
लड़की का घर दूर नहीं था. पाशा कुछ दूर और चला तो लड़की का घर दिखने लगा. दूसरे मकानों के बीच वह घर अलग से दिखता था. पुराने ज़माने की लाल खपरैलों की ड़ियां थीं. घर में अंधरा था. पाशा ने दरवाज़ा छुआ. लोहा ठंडा था. पाशा ने उसे अंदर की तरफ़
पाशा आगे बढ़ा. घंटी बजाने के लिए उसने हाथ ऊपर उठाया. वह बटन दबाता उसके पहले ही दरवाज़ा खुल गया. लड़की सामने खड़ी थी. उसके बाल अब भी खुले थे. करघे पर उदासी बुनती हुई सी आंखें थीं. उसने कुछ क्षण पाशा को देखा फिर एक ओर हट गई. पाशा कमरे के अंदर आ गया. लड़की ने दरवाज़ा बंद कर दिया.
वह एक बड़ा कमरा था. सोफा पड़े थे. कमरे की दीवारों पर पेंटिंग्स लगी थीं. खिड़कियों पर पर्दे पड़े थे. कमरे में अंधोरा था. ऊपर दो रोशनदान थे. उनसे आती हुई चांद की रोशनी दीवारों पर चिपकी हुई थी. धीरे-धीरे नीचे छिपकली की तरह रेंगती हुई. कमरे में सन्नाटा था...नीली रोशनी थी, गंध थी...उदासी थी. यही सब लड़की के चेहरे पर भी था. उसका छोटा-सा, साफ़ सुथरा चेहरा हल्के उजाले में चमक रहा था. पाशा ने उसके चेहरे पर ऐसी शांति...ऐसी दीप्ति पहले कभी नहीं देखी थी.
लड़की सोफ़े पर बैठ गई. पाशा भी उसके पास बैठ गया. पाशा सर झुकाए था. वह लड़की से अपनी आत्मा के अंश के बारे में पूछना चाहता था. लड़की कुछ देर चुपचाप बैठे पाशा को देखती रही. फिर उसने पाशा का सर अपनी ओर घुमाया. अंधोरे में पाशा की कत्थई आंखों का पानी चमक रहा था. लड़की ने उन आंखों के पानी को देखा. धीरे-धीरे लड़की ने अपनी कमीज़ के ऊपर के दो बटन खोले. अपनी वही छाती उसने बाहर निकाल दी. पाशा ने एक क्षण लड़की को देखा फिर उस सफ़ेद, गोल, कसी हुई छाती को. उसके गर्म, कांपते, ज़िंदा गोश्त को देखा. वह छाती स्वच्छ, निर्मल, धवल थी. पाशा ने सर झुकाया और छाती के सिरे को मुंह में रख लिया.
धीरे-धीरे पाशा की आंखों से आंसू बहकर उस छाती पर गिरने लगे.

- प्रियंवद
नवंबर 1,2007

 

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