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अन्तिम योद्धा (द लास्ट वारियर्स)

अत्यन्त विशाल एवं भव्य द्वार के दोनो ओर दो दीपस्तम्भ, जिन पर प्रतिस्थापित रत्नखचित दीपो का आकार एवं व्यास अत्यन्त असामान्य रूप से वृहत था ,में धृतादि से युक्त  दिव्य प्रकाश शोभायमान कर रहे थें। दोनो ही दीपस्तम्भ सुदीप्त स्वर्ण से मेडित थे एवं उन पर यक्षादि की प्रतिमाए दृष्टिगोचर हो रही थी द्वार पर दीपस्तम्भ के पास ही दोनो ओर दो हस्ति , जिन पर स्वर्णाभूषणों से लदे एवं समुद्री, मूंगे व मुक्तकों की झूलरो से प्रंगारित थे, खडे थे। हस्तिद्वय पर स्वर्ण से निर्मित अम्बावाडी, जिस पर अद्भुद नीलम एवं स्फटिक जटित थे, प्रकाशमान थीं। अत्यन्त विशाल एवं अद्भुद द्वार के चहुंओर सघन वुक्षावली लता- गुल्मादि शेष दीवारों को आच्छादित किए हुए थी । द्वार के पट स्वर्ण एवं रजत से मंडि किन्तु अत्यंत विशाल एवं दुर्गम। उन पर अद्भुद कारीगरी युक्त संस्कृति के उतम चिन्ह उकेरे हुए थे द्वार पर जटित हीरक कणियां उस द्वार में चकित कर देने वाली मोहक छवि निर्मित कर रही थी पट के उर्ध्व पक्ष पर अत्यंत तीक्ष्ण नोंक वाले एवं विषैले भाले लगे हुए थे जो भी त्रु को विचारों को परास्त करने में सक्षम थे। जो कि किसी विशिष्ट अवसर पर ही प्रहरियों का मार्ग दर्शन करते थे, इस अवसर के गांभीर्य एवं गहनता को दर्शा रही थी । महाभट नंदी के तीक्ष्ण नैत्र मानो द्वार के सम्मुख सघन वन की वृक्षावलियों को भेद रहीत थे। पासंग उपस्थित दो अन्य अनुचर प्रहरी अपादमस्तक निर्धारित वेशभूषा एवं सज्जा से पीरपूर्ण सजग खडे थे। महावीर नंदी के कर मे एक भयावह त्रिशूल नामक श्शस्त्र था जो कि अत्यंन्त उच्च कोटि के भारक प्रभावों से युक्त था, दमक रहा था । महाभट नंदी के वामपक्ष में विधुत जिव्ह नामक अद्भुद वीर शिरस्त्राण धारण किए, कर में भंदिपाल लिए महावीर नंदी के अनुसरण को उधत था ।

सहसा लता गुल्मों के मध्य से आते पथ पर किसी पदाघात ध्वनि ने उन्हें सजग कर दिया । महाभट नंदी के रक्तिम वर्ण नैत्र पथ की ओर मुडे और तत्काल ही अत्यंत पराक्रमी विधुत जिव्ह मानो किसी की प्रतीक्षा रत सचेत हो गया । कुछ निमिष पश्चात पथ से एक युवक आगमन करता हुआ दृष्टिगोचर हुआ । धीर -गंभीर युवक के कृष्ण काक पक्ष ग्रीवा पर लहरा रहे थे। श्रय व स्वेद बिंदु मस्तक पर मणियों की शोभायमान हो रहे थे। युंवक की अत्यंत सुंदर किंतु बलिष्ट देह पर सुंदर वस्त्र एवं उत्तरीय श्शोभा दे रहे थे। उस र्निभीक व गंभीर युवक की चाल में तीव्रता एवं नेत्रों में किंचित क्रोध एवं चिन्ता व्याप्त थी । किसी उन्मत गजराज की ही भांति वह युवक तीव्रगति से द्वार की ओर बढा चला आ रहा था। सजग एव सचेत मुख्य सेनापति नंदी ने उस अदम्य पराक्रमी एवं साहसी पौरूष के धनी युवक को पास आते ही अत्यंत स्नेह व अपनत्व के साथ अभिवादन किया । श्रम व दुर्गम यात्रा से क्लांस युवक ने अत्यंत आदर एवं सम्मान से महाभट नंदी को अभिवादन किया । दोनो अजेय पौरूष पतियों में संक्षिप्त सी वार्ता के पश्चात महावीर नंदी ने प्रहरियों को संकत किया एवं प्रहरी ने द्वार पर एक गुप्त संकेतक ध्वनि की दस्तक दी । भीतर से वैसी ही गुप्त संकेत प्रसारित हुआ एवं द्वार एक गंभीर गडगडाहट के साथ खुल गया ं उस युवक ने महाभट नंदी को प्रणाम किया और भीतर प्रवेश कर गया ।

भीतर अवस्थित मनोहारी उधानों के मध्य निर्मित स्फिटिक के मार्ग पर तीव्र गति से चलते हुए वह युवक अनेक लता गुल्मों से होते हुए पुर्वाभिमुख निर्मित विशालकाय सभा ग्रह में प्रविष्ट हो गया । उस अत्यंत विशाल सभागार में ताम्र निर्मित प्रचंड दीप प्रदीप्त थे। स्वर्ण स्तभों पर स्थिर यह सभागार अद्भुद मणि, माणिक्य एवं बहुमूल्य हीरक कणियों से खचित था। सम्पूर्ण सभागार का तल श्वेत संगमरमरनुमा पाषाण से इस प्रकार निर्मित था कि उसकी पारदर्शिता के निमित उसके जल होने का आभास होता  था । सभागास में कई सिंहासन थे जिन पर इस समय समुद्र प्रदेश के कई वीर व पौरूष प्रतीक विराजमान थे। सभागार के द्वार से प्रविष्ठ होते ही दोनो ओर स्थित सिहासनों क ठीक मध्य से होता हुआ एक सुंदर पथ जो समुद्री सीपो के कवच से निर्मित था , सम्मुख श्श्वेत स्फिटिक आसन तक पहुंचता था। उस उच्च आसन पर समुद्री माणिक्य दक्षिणी रत्नाकर के उज्जवल मोती एवं दक्षिणी मरूस्थल से प्राप्त वृहता कार के पारदर्शी हीरकों से निर्मित अत्यंत सुंदर आसन शोभित था । उस आसन के ,चतुष्कोणों पर मयूरादि निर्मित थे। हीरकों एवं उच्चकोटि के माणिक्यों के कारण वह आसन दिप-दिप कर रहा था । उसका प्रतिबिम्ब स्फाटिक चौकी से परावर्तित हो कर सम्पूर्ण सभागार में अनगिनत रश्मियों के रूप् में प्रस्फुरित हो रहा था।

सभागार के मध्य स्थित आसन पर एक अत्यंत उच्चगुणों वाला पिंगलवर्, रक्त कमल नेत्रों वाला कांतिमान महाभट विराजमान था जिसकी सुडौल व कठोर पिण्डलियां , पुष्ट जंघाएं, कटि प्रदेश क्षीण जिस पर व्याघ्र चर्म कस कर बंधा हुआ तत्पश्चात विशाल बलिष्ठ मांसपेशियों से युक्त उरूप्रदेश,शंख युक्ता ग्रीवा उस पर लहराती पिंगलवर्ण केश राशि उसे आभामण्डल से युक्त कर रही थी । उस सिंह सी बलिष्ठ देह पर अत्यंत विनम्र, दृढ, तेजोमय व कदाचित क्रोध चिन्हों से युक्त अति सुंदर मुखारविन्द पर अधर तनिक संपुटित से मानो क्रोधाग्नि का गरल मुख से बाहर आने को उधत है किंतु रोका हुआ है ऐसे प्रतित हो रहे थे। उस बलिष्ठ व तेजोम पुंरूष के सुदीर्घ हस्त अत्यंत सुकोमल अंगुलियों व रक्तिमवर्ण के हस्त तल वाले थे। उस परमपुरूष का वहां विराजमान होना सभागार को अत्यंत गौरव प्रदत्तकारी था । शेष दानव सम्रटोके मघ्य वह ठीक ऐसे सुशोभित था मानों अनेक हस्तियों के मध्य मृगराज।           

सभागार में उपस्थित शेष अधिपति मानो श्वसन क्रिया को नियंत्रित कर अनंत मौन के साक्षी बने हुए थे। समस्त उपस्थित एकराट् मानो उस पुरुष के आदेश हेतु प्रतीक्षारत् थे एवं वह धीर -गंभीर अद्भूद दिव्य पुरुष , एक गहन् चिंतन युक्त भृकुटियों से अपने सुदंर रक्तिवर्ण लोचनों से द्वार की ओर दृष्टि किए था ।

''दानवेन्द्र मय , आपके जामाता और पौलिस्त्य मुनि के प्रतापी पौत्र दानवेन्द्र को विलम्ब हुआ है शायद '' वह दिव्य पुरुष मेघगर्जन सी गंभीर वाणी से बोला ।

      ''हां ------तात--------'' दानवेन्द्र मय के चिन्तित नेत्र सभागार के मुख्य द्वार पर जंत्रित थे। सभागार में पुन: एक गहन मौन पर गया । तभी डार पर आहट प्रतीत हुई और सभागार में उपस्थित सभी सद्जनों के नेत्र उस ओर मुड गए। द्वार से वह बलिष्ठ किंतु सुंदर युवक प्रविष्ठ होता दृष्टिगोचर हुआ। ''विलम्ब  के लिए क्षमा तात् ---'' वह सुंदर युवक अत्यंत आदर एवं विनम्रता पूर्वक अभिवादन कर दिव्य पुरुष के सम्मुख खडा रहा । ''अशुभ घडी में विलम्ब अशुभता में वृध्दि करता है दानवेन्द्र रावण '' दिव्य पुरुष ने उस सुंदर, बलिष्ठ युवक को संबोधित करते हुए कहा ''आप आसन लें''

''धन्यवाद, मैं तात शिव के स्नेह का ऋणी रहूंगा ''

आप सत्य ही शंकर अर्थात कल्याण करने वाले है।'' रावण ने अत्यंत विनम्रता पूर्वक प्रत्युत्तर दिया ।

''आप अजेय ही नहीं चतुर भी र्है दानवेन्द्र रावण '' दिव्य पुरुष शिव के अधरों पर एक चपल हास्य प्रकट हुआ''आप आसन लें''

''तात -- की कुपा दृष्टि चरण किंकर पर बनी रहे'' अति सम्मान से कहते हुए रावण उस दिव्य पुरुष शिव के दक्षिण पक्ष में स्थित एक रत्न जटित आसन की ओर अविलम्ब बढा। शेष सभासद समुद्रलोक के अत्यंत बलशाली एवं विद्वान सम्राट रावण एवं समस्त दक्षिणी गोलार्ध के अभयदाता दिव्य पुरुष शिव के मध्य की वार्ता का श्रवण कर रहे थें। आसन ग्रहण करते ही रावण पुन: खड़ा हुआ और गंभीर वचन कहने लगा - ''देव -दानव युद्व पुन: प्रारंभ हुआ है। युद्व अवरोध एवं अन्य समस्त शांति प्रस्ताव गौण हो चुके है। मनुप्रजाति, जो पृथ्वी मंडल मे मध्य भाग में स्थित है एवं देव तथा दानव प्रजाति के मध्य विधमान है, मूलत: देवसंस्कृति की मित्र है व अनेक युध्दों में मनुष्य सम्राट देवताओ की सहायता करते है। ऐसे में युद्व की विकटता में वृध्दि हो जाती है''  ष्ष्

समस्त सभागृह में रावण की गंभीर वाणी निनादित थी। सभागृह में एक विचित्र मौन कदाचित -श्वसन प्रक्रिया की गति निश्चल हो चुकी थी । समस्त आसनारुढ़ ध्दीपपति त्राटक साधे रावण की ओर उन्मुख थे । दिव्यपुरुष शिव के अर्ध्दनिलमित नेत्र रत्न जटित एवं स्वर्ण मंदिर द्वार पर लगे थे जिसे रावण के प्रवेश के पश्चात बंद कर दिया गया था किंतु कर्ण सजगता पुर्वक दानवेन्द्र की वाणी का श्रवण कर रहे थे। आसन के वामपक्ष में स्थित एक स्वर्ण सिंह पर शिव की अंगुलियां हल्का आघात कर कम्पन्न उत्पन्न कर रही थी । उनके अधरों पर स्मित हास्य प्रस्फुटित था। सुडौल अंसो पर पिंगल वर्ण  के केश समीर उत्पादक यंत्रों द्वारा उत्पन्न वायु से इस प्रकार लहरा रहे थे मानो पिंगलवर्ण के स्वर्ण सर्प लहरा रहे थे मानो पिंगलवर्ण के स्वर्ण सर्प लहरा रहे हों।

'' तात प्रसन्न हों एवं आज्ञा देंतो  हमारे पशुपतास्त्र देंवों के ब्रह्मास्त्र का उचित प्रत्युत्तर देने में सक्षम है'' रावण के नेत्रों में लालिमा का अवतरण हो चुका था।

''दानवेन्द्र को आवेश शोभा नहीं देता '' स्मिथ हास्य से दिव्य पुरुष शिव के अर्ध्दनिलमित नेत्र रावण की ओर उठे।

''क्षमा तात'' रावण का स्वर अब कोमल था । ''संस्कृतियों का अवतरण मूल विभिन्नताओं के साथ होता है। हमारी संस्कृतियां भिन्न है और यही युद्व का प्रबल आधार है। अत: यह अहंकार अथवा आततायी द्वारा प्रदत युद्व नहीं है जिसे आयुधों मात्र से समाप्त किया जा सके'' शिव द्वारा उच्चारित श्शब्द सम्पूर्ण सभागार में गुंजायमान हो रहे थे ।

''हमें अपने आयुधों पर विश्वास है एवं इस संकटपूर्ण घडी मेंं हम समस्त ध्दीपाधिपतियों को अभय दान देते है'' दिव्य पुरुष शिव ने अपनी सुंदर एवं बलिष्ठ भुजाओं को वरद मुद्रा में उत्ताान करते हुए कहा।

''शं---कर, श्शं----- कर'' समस्त सभागार उक्त ध्वनि से कम्पित होने लगा।

''आहार एवं मधपान सभागार के सामानान्तर कुंज में आयोज्य है। समस्त ध्दीपपति प्रसन्न रहे एवं आहारादि ग्रहण करे'' दिव्य पुरुष शिव के अधरों पर मंद स्मित हास्य सुशोभित था। सभागृह के पट खुल गए । शिव के आसन से उठते ही समस्त ध्दीपपति श्रद्वा एवं विनम्रता पूर्ण भाव से आसन त्याग खडे रहे जब तक कि दिव्य पुरुष शिव स्फटिक आसन के पृष्ठ भाग में अवस्थित द्वार से प्रस्थान न कर गए । शिव के प्रस्थान के साथ ही दानवेन्द्र प्रस्थान द्वार की ओर बढे एवं पार्श्व स्थित कुंज में आहार व मधयादि प्राप्ति हेतु एकत्र होने लगे ।

कुंज में मृदमाण्ड, ताम्र पात्र एवं स्वर्ण व रजत कलशों में विभिन्न प्रकार क सुरा समाहित थीं। प्रत्येक वितरण समूह पर अनावृत भुजमृणालो वाली, कसी कंचुकी में उन्नत वक्षां वाली एवं क्षीण कटि व चपल नेत्रों वाली सधस्नाता बालाएँ मध प्रदान करने हेतु तत्पर थी। अनेको दानव सम्राट अपने ईष्ट मित्रों के संग समूह निर्माण कर मधपान करने लगे। कई युवा ध्दीप अधिपति शीघ्र ही उपस्थित सुरासुन्दरियों  से काम याचनार्थ वसर्ता में निमग्न होने लगे। बालाओं का खनखनाता हास्य एवं मध की तीक्ष्णता शीघ्र ही ध्दीपपतियों को मदमस्त करने लगी । महाभट रावण, पौरुषपति सहस्त्रबाहु एवं दुर्जेय यौद्वा बाणासुर सभागार से निकलकर मध कुंजों के पार्श्व स्थित सुंदर सरोवर के कूल पर निर्मित  एक पथ पर  अग्रसर हुए जो श्वेत संगमरमर नामक पाषाण से निर्मित था एवं उसके मध्य हरित रक्तिम वर्ण के पन्ने एवं माणिक्य व कहीं कहीं नीलम जटित थे । उक्त पथ सरोवर की प्रदक्षिणा करते हुए एक अन्य द्वार तक जाता था जो कि दिव्य पुरुष शिव का आवास था।

दिव्य पुरुष शिव का आवास अत्यन्त सुंदर वास्तु कलाओं से युक्त एवं विशिष्ठ शैली में निर्मित था । द्वार एवं गवाक्षों के पट स्वर्ण मंडित एवं हीरकों खचित थे । उस विशाल व अद्भुद भवन को रत्नाकर की जलराशि एक कृत्रिम नहर के माध्यम से घेरे हुए थी जिसमें तीक्ष्ण दांतों वाले मकर एवं मत्स्य थे एवं मांस भक्षण करने वाले  क्रोधित कच्छप थे । वे अपने आधर की प्रतीक्षा में उस पथ पर त्राटक साधे रहते थे। उस अद्भुद आलय की प्राचीरों पर रेंगने वाले जन्तु, जिनका आकार कई मकर एवं मत्स्यों से बडा था, रेंग रहे थे । ये विकट जन्तु किसी भी आकार के पशु को क्षण भर में अपना आहार बनाने की क्षमता रखते थे किनतु ये जल से भयभीत प्राचीरों से भयभीत पर रेगतें रहतें थे। उस महल की विशाल प्राचीरें गगन चुम्बी थी ।

दो योजना में निर्मित इस अद्भुद् वास्तुकला के श्रेष्ठ उदाहरण की सुरक्षाअत्यन्त कठोर था । विशाल द्वार से प्रविष्ठ होते ही एक सुदीर्थ स्वर्ण स्तंभ दृष्टिगोचर होता था जिस पर सहस्त्रो द्वीप एवं युगन्धित धूप की सुरभि से सम्पूर्ण आलय सुगन्धित रहता था ।   

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 अरविन्दसिंह आशिया 
अगस्त 13,2007

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