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अन्तिम योद्वा
 भाग-
12
गतांकों तक आपने  पढ़ा -

पौराणिक काल में पृथ्वी के क्रमष: उतर एवं दक्षिण गोलार्द्व में देव एवं दनु प्रजाति को  साम्राज्य था एवं देवताओ के मित्र मनु जाति मध्य भाग वर्तमान द. प. ए  मे निवास  करती थी । ये मनुश्य  देव प्रजाति  के मित्र  थे। पाताल  वर्तमान  अमेंरिका महाद्वीप  पर द्नु जाति का  राज्य था एवं  सांस्कृतिक  भिन्नता एवं टकराव के कारण देव दानव संग्राम  होते  रहते थे।

दानव दक्षिण  गोलार्द्व  के द्वीपपति थे अत:  उनकी  नौसेना ताकतवर  थी।  इनके आराध्य  पशुपति  शिव  थे जिन का  आवास  घने  जंगलों एवं आदिवासियों के मध्य वर्तमान प. म. अफ्रिका में था जबकि देवों के आराध्य विष्णु थे जिनका आवास  क्षीर सागर  उ. ध्रुवीय साइबेरिया व  बेरिंग जलसंयोजक  तक था।  दोनों ही परम पुरुष  घोर योद्वा एवं  वैज्ञानिक थे एवं  दोनों ही  प्रजातियों  की  सेनाएं पशुपतास्त्र  व ब्रह्यास्त्र  जैसे  घातक  आयुधों से  सुसज्जित थी।
विभिन्न देव दानव
  युद्वों में  जय पराजय के दौर  चलते  रहे। जब - जब भी  ताकतवर एवं  चतुर  यौद्वा देव  इन्द्र  चुना  गया तब तब देव प्रजाति हावी रही एवं जब - जब दानवेन्द्र घातक  व चतुर  योद्वा  चुने  गए तब तब दानव जीतते रहे। मनु राजा दषरथ  तक  देवताओं की  सहायतार्थ  युद्व  करते रहे।

इसी बीच एक भयावह घटना दक्षिण गोलार्द्व  में घटित हुई एवं अजेय  पौरुषपति त्रियम्बक शिव की राजमहिषी ने अपने पिता की यज्ञशाला में आत्मदाह कर लिया। इस क्रूर काण्ड से विचलित शिव ने मुख्य विशिष्ट सेनानायक एवं घोर  योद्वा वीरभद्र  के आदे दिया कि वह प्रजापति दक्ष को समाप्त कर दे। इस आज्ञा के पश्चात शिव  के महल  के पट आवृत  कर दिए गए एवं स्वयं शिव अपने अद्भुद आवास में  एकान्तवास हेतु चले गए।

इस घटना ने देव प्रजाति को एक  सुअवसर दिया कि वे आराध्य  विहीन दैत्य प्रजाति पर आक्रमण कर उसे नष्ट करें  एवं  इसी संदर्भ में  अमरावती में एक अत्यंत  गोपनीय सभा का आयोजन किया गया  अब आगे-----   

सौंदर्य की प्रतिमूर्ति, ललित  कलाओं व अनेक गंधर्व कलाओं के ज्ञाता  तथा गुप्त  विषयों के विशेषज्ञ महामना कामदेव  अपने भवन की अटालिका पर  अर्धागिंनी रति के साथ धूत क्रीड़ा में निमग्न  थे। सहसा उन्हें दूर कहीं अश्व के टापों की ध्वनि सुनाई दी । रात्रि के द्वितीय प्रहर में इस निषिद्व क्षेत्र में अश्वारोही अवश्य  ही महाराज इन्द्र का संदेवाहक होगा---- यह सोचते ही उनके भाल पर चिंता  की रेखाएं स्पष्ट दीखने लगी।

अश्वारोही द्रुत गति  से  अमरावती  नगर के उस क्षेत्र  की ओर अग्रसर  था जो केवल  श्रेष्ठजनों हेतु  आरक्षित  था।  इस निषिद्व  क्षेत्र में बिना आज्ञा  प्रवे  पर  मृत्युदंड का प्रावधान  था।  यह क्षेत्र  नगर से दूर अत्यंत  सुरम्य घाटी  में स्थित था जहां से नगर  का कोलाहल , रथों की गड़गड़ाहट एवं  जनसाधारण का आवागमन  कोसों दूर था।

त्रिस्तरीय  सुरक्षा  व्यवस्था भेदने के पश्चात ही यहां पहुंचना संभव था। स्वयं गंधर्व राज  का  आलय भी इसी  क्षेत्र में था । अत्यंत उच्च कोटि  की नगर वधूएँ एवं नृत्यांगना उर्वषी आदि के आवास भी इसी शांत   क्षेत्र में स्थित थे।  अमरावती के नगर नियोजक  देव विश्वकर्मा का आलय भी इसी सुरम्य घाटी  में था।

इसी घाटी  में उत्पन्न वृक्षादि का काठ वाध - यंत्र निर्माण में प्रयुक्त होता था।

अश्वारोही अपने  परिचय पत्र एवं विशेष राजाज्ञार्थ नियुक्त होने से अबाध गति से महामना कामदेव के आवास की ओर  जा रहा था।

पथ पर प्रकाशित दीपकों का  मध्यम  प्रकाश पथ आलोकित दीपकों का मध्यम  प्रकाश पथ आलोकित तो  नहीं कर पा रहा था किंतु पथ प्रदर्शन अवश्य कर रहा था । पथ पर स्थित  एक चतुष्पथ से अश्वारोही  वामपक्ष की विथीका में मुड़ गया  व शीघ्र ही  वह अत्यंत  मनोहर एवं विशाल भवन के मुक्ष्य द्वार पर था।  अश्व  की टापों से द्वारपाल सजग  हो चुका था।

''मुझे  महाराज  ने अत्यंत गोपनीय  संदेष के साथ भेजा  है'' आगंतुक अश्व से उतरते हुए बोला।

''इस समय ?'' द्वारपाल  चौकन्ना था।

''राजाज्ञा है''            

''रतिवल्लभ विश्राम कर रहे है ''

''तो जा , सूचित कर ''

''किन्तु ''

''विवाद में समय  व्यर्थ  होगा''

''ठीक है'' कहते  हुए द्वारपाल महल के भीतर पैठ  गया।

कुछ ही समय में वह लौट आया ''आप स्वागत कक्ष पर प्रतीक्षा करें ''

 

स्वागत कक्ष अत्यंत सुरुचिपूर्र्ण  तरीके से सजा हुआ था। आगंतुक चकित सा उस सुसज्जित  कक्ष को देख रहा था। सहसा एक  अत्यंत सुदर्शन  युवक कक्ष  में प्रकट हुआ  जिससे सम्पूर्ण  कक्ष एक  मादक सुगन्ध से भर गया ।

''कहो आगंतुक , इस समय आगमन का क्या प्रयोजन  है'' उस  सुंदर युवक ने प्रश्नकिया ।

''देव  कामदेव  मुझ  पर प्रसन्न  हो, इस  समय देव के विश्राम  में  खलल की  धृष्टता के लिए  क्षमा प्रार्थी  हूं ''

''देवराज इन्द्र ने एक  अत्यंत  गोपनीय किंतु  आपातकालीन सभा का अह्वान  किया है। जिसमें वरुण मरुतादि देव भी उपस्थित है''

''----------------''

''देव की तुरंत उपस्थिति  हेतु राजाज्ञा  पत्र  सौंपने हेतु मैं  यहां हूं''

''ठीक है आगंतुक , तुम पुन: प्रस्थान करो में एक धटि भर में महाराज की सेवा में उपस्थित हो जाऊंगा'' महामना कामदेव  के  भाल पर चिंता की रेखाएं  स्पष्ट थी।

आगंतुक चला गया।

शीघ्र ही कामदेव एक श्यामकर्णी चपल अश्व पर आरुढ़ वायुवेग से राजप्रासाद  की ओर जा रहे थें।

अभी सूर्योदय में दो प्रहर शेष थे। समस्त व्योम अनगिनत  तारों से  झिलमिला  रहा था । समस्त  अमरावती  नगर में  अनेक  प्रकाश बिन्दु दृष्टिगोचर  हो रहे थे।

दूर चमकते हिमश्रंगों से दृष्टिपात करने  पर  नगर झिलमिलाते जुगनुओं का विशाल समूह  सा दीख  पड़ता था। इस सुनसान एवं निद्रामग्न  नगर में केवल  राजमार्ग जागृत  था। रह - रह कर कोई  महारथी एवं विकट  देवयोद्वा  अथवा  मनुयोद्वा वहां  से होकर राजप्रासाद  की ओर बढ़ता , उसके रथचक्रों की गड़गड़ाहट एवं अष्वों की हिनहिनाहट दूर तक  सुनाई देती थी। 

प्रत्येक आगंतुक के रथ के मुख्य द्वार तक पहुंचते ही उपस्थित  अनुचर रथ  एवं  सारथि  को विश्राम  स्थली की  ओर ले चलते जबकि रथारुढ़ राजपुरुषों को राजप्रासाद के भीतर जाने हेतु विनम्र  निवेदन कर रहे थे।

विश्राम स्थली पर क्रम से कई रथ खड़े थे एवं उनके अश्व खुले विश्राम कर रहे थे।

राजप्रासाद के मुख्य सभाग्रह में अनेक दीप  जगमगा  रहे थे जिससे सम्पूर्ण कक्ष प्रकाश मय था। विभिन्न सिंहासनों पर  कई राजपुरुष एवं भटयोद्वा विराजमान थें।  ज्यों ही कोई आगंतुक  प्रवेष  करता सभी से अभिवादन करते हुए वह  अपने  निर्धारित आसन तक पहुंचता । सभा कक्ष  में उत्तराभिमुख  सिंहासन महाराज इन्द्र  का था जिस पर एक अत्यंत रुप मान व्यक्ति बैठा था। उसके  कानों में सुंदर कुंडल  झिलमिला रहे थे एवं तेजवान प्रतीत हो रहा था । उसके  पास रखी खड्ग  की  मूठ माणिक एवं हीरकों खचित  थी।

''हम परोक्ष युद्व की परियोजना पर कार्य कर रहे वह सुदर्शन  युवक गम्भीर वाणी  में बोला

''कोई आवश्यक नहीं कि हर बार की भांति इस  बार  भी हम  खुले मैदानों में हम  दानवों से युद्व करे अपितु हमें उनके आराध्य  को ही पराजित करना है''

सम्पूर्ण  कक्ष  में गहरा  मौन पसरा  था ।

''प्रत्यक्ष युद्व  में उनके नोसैना के पराक्रम एवं अत्यंत वैज्ञानिक अस्त्रों के अद्भुद मायावी प्रयोगों से हम  जीत को  अपने पास नहीं बुला पाते  है। अत: हमें भी अब परोक्ष युद्व का सहारा लेना होगा।''

''किंतु मुझे संदेह है महाराज ''एक रुद्र जो सेना का  उपसेनापति था, सहसा बोला - 

''हमारा छद्म  युद्व का अभ्यास इतना गहन  नहीं जितना कि उनका''

''क्या महारुद्र यह  कहना  चाहते है कि हम अकुशल है ''

''नहीं महाराज , प्रश्न कुशलता अथवा अकुशलता का नहीं है। ''

''तो----''

''प्रश्न है  हमारे  अभ्यास वर्ग का है। छद्मयुद्व में पारंगत  एक छोटी टुकड़ी के अतिरिक्त  हमें  इस समय  अधिक अभ्यास की आवश्यकता होगी।''

''फिर ''

''एक उपाय है महाराज'' वरुण  ने सहसा मौन भंग किया और समस्त क्षत्रपों  की दृष्टि उस ओर मुड़ गई।

देव वरुण  ने एक क्षणांष सभी पर दृष्टिपात कर कहना आरम्भ किया-

''महामना कामदेव गुप्त  विधाओं के ज्ञाता एवं छद्मयुद्व में पारंगत है अत: रतिपति को यदि इस कार्य  हेतु आज्ञा  दी जाए  तो कदाचित विजय श्री हमारा वरण  कर  सकती  है'' 

''क्या रतिवल्लभ सहमत  होगें?''

''सहमति - असहमति के प्रश्न किसी प्रजाति की सुरक्षा से बड़े नहीं  होते देवेन्द्र फिर मदन  स्वयं संवेदनशील है''

कई पल कक्ष में मौन छाया रहा।

''ठीक है अश्वारोही  संदेषवाहक के साथ कामदेव  को उपस्थित  होने हेतु राजाज्ञा  दी जाए ''  महाराज इन्द्र  के मुखमण्डल  पर  अनिष्चितता एवं चिंता थी।

आदेके साथ ही देवेन्द्र अपने सिंहासन के पार्ष्वभाग में स्थित गुप्त द्वार से  राजप्रासाद के भीतर  पैठ  गए। शेष सभासद भविश्य की  रणनीति तय करने में निमग्न  थे।

अगले मध्यान्ह  तक रतिपति  कामदेव अपने लक्ष्य भेदने हेतु प्रस्थान कर चुके थे।  यधपि  यह  प्रथम बार हो रहा था  कि वे अपनी  सफलता  के प्रति आषान्वित नहीं  थे। सषंकित  थे यहां तक कि अपने  जीवन  को लेकर  भी ।

प्रस्थान के समय भार्या रति ने अत्यंत आशंका भाव से  कहा था-

'' देव  को यह कैसा लक्ष्य भेदने का कार्य सौंपा गया हैं''

''राजाज्ञा  है  प्रिये''

''किन्तु  स्वयं शचिपति  भी शिव की असीम शक्ति से परिचित है'' रति के स्वर में कंपन था ।

''सो ठीक है किन्तु देवों के पास यही सुअवसर है दैत्यों को आराध्य विहीन  करने का। इधर शिव का वर्चस्व टूटा और दैत्यों की स्थिति दंत विहीन  सर्प सी हो जाएगी'' कामदेव के अधरों पर एक कान्तिहीन मुस्कान थी।

''और क्या  ये संभव है? ''

''पता नहीं देवि, परमपुरुष शिव अत्यंत धीर, गम्भीर ताकतवर है।  वह केवल भटयोद्वा  एवं  चतुर  प्रबंधक  ही  नहीं अपितु  परम वैज्ञानिक भी है। उनके आवास  का भेदने दुष्कर ही नहीं कदाचित्  असंभव  भी हो सकता है।''

''तो फिर  देव  की  व्यूह  रचनाएँ  ?''

''मैं अपना सम्पूर्ण न्यौछावर कर दूंगा, लक्ष्य भेदने  हेतु किंतु सफलता तो विधाता के हाथ है''

रति मौन  हो गई। तर्क व्यर्थ थे। दैत्यों के अधीश्वर से एक ऐसा देव टकराने जा रहा  था जो गुप्त  विधाओं का ज्ञाता था और देवराज  उस  छद्मयुद्व से विजय मार्ग ढूंढ रहे थे।

दूसरे दिन सायंकाल तक कामदेव अपने आधार शिविर पर थे। यही से सघन वन  थे और गहरे  कही शिव का आवास था।

वितान  में दीपक के प्रकाश में  रखा  प्रदर्शक मानचित्र  खुला था।  कामदेव  उस  पर झुके उसके अध्ययन में दत्तचित्त थे।

रात्रि के प्रथम प्रहर में यह तय हुआ  कि इस दुर्गम स्थान का भेदन असंभव  है अत: केवल उस सरिता में से होते हुए किसी प्रकार काष्ठ के पुल तक पहुंचा जाए। तत्पश्चात  शिव के निवास  मे  गुप्त  प्रवेष  हो ।

''देव का नियोजन अद्भुद् है किन्तु यह सार विहीन है।  क्योंकि यह सरिता बियबान वनों से होती हुई  अंधकार में  बहती है। यहां हाथ से हाथ  नहीं सूझतासाथ ही भयावह  मकरादि  रेंगने वाले  जीव  है काष्ठ पुल तक  पहुंचना  दुर्गम  है''  सहायक देव  गुप्तचर  श्रीमुख  काम को सूचित  कर रहा था।

''कल पूर्णिमा का  ज्वार है अत: नौका  को सरिता के  समुद्री तट पर उपलब्ध करवाएं एवं साथ ही चतुर नाविक भी हो '' रतिवल्लभ कामदेव ने गंभीरता से कहा।

पुन: मानचित्र पर झुक कर अवलोकन करने लगे।

अगली संध्या के झुटपुटे में तीन छायाएं तेजी से समुद्र तट की ओर  बढ़  रही थी । सबसे  आगे श्रीमुख था , तत्पश्चात कामदेव कंधे  पर  पुष्पधन्वा नाम का धनुष एवं तूणीर था व अन्तिम व्यक्ति नाविक था। जो स्थानीय निषाद जाति का था।

रात्रि के आरंभ होते होते तीनों वहां पहुंच गए। किनारे पर एक मत्स्याकार नौका थी।  श्रीफल  के वृक्ष समुद्री हवा से  झूम  रहे थे। ज्वार का पानी लगातार बढ़ा  जा रहा था।

''देवों की विजय हो'' श्रीमुख कह कर  वहीं खड़ा रहा । कामदेव  ने प्रत्युत्तर  नहीं दिया अपितु  मौन तरणि  पर आरुढ़ हो गये । निषाद ने  तरणि को पाषमुक्त किया और नौका ज्वार के पानी पर हिलोरें खाने  लगी ।

तभी एक प्रचण्ड लहर से नौका भीतर सरिता के प्रवेष कर गई।

यधपि प्रवाह के विरुद्व  नौका संचालन  दुश्कर था तथापि वह चतुर  निषाद ज्वार की लहरों  की अनुकूलता के सहारे निपुणतापूर्वक नौका को अंदर की ओर लिए जा रहा था। 

शीघ्र ही वे भयावह अंधकार के क्षेत्र  में थे  जहां सरिता के तीव्र जल  प्रवाह की ध्वनि के अतिरिक्त कुछ भी नहीं सुनाई दे रहा था । निषाद का सम्पूर्ण तन स्वेद से भीग गया था । तभी एक भयावह पक्षी  चीखता से उनके  उपर से उड़ा । निषाद कांप  सा गया।  रात्रि के दो  प्रहर व्यतीत  हों चुके थे।

सहसा कड़कती तड़ित  झंझा में एक प्राचीन काष्ट सेतु दृष्टिगोचर हुआ ।

''देव की वांछित वस्तु  यही है'' निषाद बोला। उसने अत्यंत चतुराईपूर्वक नौका काें कूल पर स्थापित किया। ।

''तुम  मेरी प्रतीक्षा करना । लक्ष्य भेदन के पश्चात मैं एक अग्नि बाण आकाष में प्रक्षेपित  करुंगा। तुम  समझ लेना कि मैं लौट रहा हूं'' गुप्तकला विशेषज्ञ  कामदेव ने फुसफुसाते हुए कहा व काष्ठ पुल की ओर अर्न्तध्यान हो गए। चीते की सी फुर्ति और गति से कामदेव काष्ठ का  सेतु पार  कर कठोर  धरातल पर थे जहां से  शिव  का आवास जुगनुओं  सा झिलमिला रहा था।

सहसा उन्हें लगा  कि पार्श्व झुरमुट में कोई है।  रतिपति ने बिजली सी गति से तीन  निशब्द बाण छोड़े और पलक झपकते  ही तीन विकट प्रहरी पृथ्वी पर छटपटा  रहे थे । कामदेव तब तक द्रुतगति से पौरुषपति शूलपाणि के आवास की ओर प्रस्थान कर चुके थे।

रात्रि की गहनता व घने वृक्षों की ओट  से कामदेव वायुवेग  से महल की ओर बढ़ रहे थे। शीघ्र वे त्रियम्बक के आवास के सन्निकट थे। अनुमान लग गया कि महल  के पार्श्व में अपेक्षाकृत  सुरक्षा  कर्म है क्यों कि वह भाग  पानी  से घिरा है।

छद्म युद्व विशेषज्ञ  कामदेव ने अंधकार में डूबी उस प्राचीर  पर दृष्टिपात किया तत्पश्चात तूणीर थे एक  काले रंग का छोटा सा यंत्र  निकाला यह  बेलनाकार था। वे उसे फुलाने लगा धीमे - धीमे  वह बेलन मानव षरीर जितना विशाल हो गया । उस बेलन को पीठ और कमर पर बांध कर काम ने स्वयं को भीत्ति से चिपका लिए । उस यंत्र में से षूं ----- ध्वनि हुई और वह प्राचीर  पर चिपक गया । काम धीमे - धीमें  उसके  सम्बल से प्राचीर पर चढ़ने लगे।

भयावह अंधकार में रह - रह कर  केवल एक षूंऽऽ की ध्वनि प्रस्फुटित हो रही थी।

किसी रेंगते हुए जीवनी  भांति  एक घटि  में कामदेव महल  की सर्वोच्च  अट्टालिका पर थे। वहां से  उन्होंने यंत्र को समेट कर तूणीर में रखा एक फुर्ती से महल के भीतर प्रवेष कर गए।

पारदर्षी  प्राचीरों वाले  इस विशालकाय  महल में निषब्द  उतरते कामदेव एक विशाल कक्ष में आकार ठिठक गए।

यह गोलाकार कक्ष एक विशालकाय नेत्र की आकृति का था।

ज्यों ही कामदेव कक्ष में  मध्य  स्थान पर पहुंचे और  सम्पूर्ण कक्ष चकाचौंध  से भर गया । मदन ने तुरंत बिना फर के घोर बाणों का संधान किया एवं चारों दिषाओं में छोड़ा किन्तु  वे  विकट बाण कक्ष की भीत्ति तक पहुंचने से पूर्व ही जल  गए।

''ये तृतीय नेत्र है महाबली मदन, तुमने निषेधाज्ञा के पश्चात भी चारों की भांति इस दुर्गम स्थल पर प्रवेष  किया है।

यह नैत्राकार कक्ष अत्यंत उच्चषक्ति की अदृश्य विधुत तरंगों से युक्त है अत: अब बचना असंभव है'' एक गंभीर वाणी कक्ष में गूंजी और कक्ष का तापमान बढ़ने लगा। रतिपति अहसहाय से सन्निकट मृत्यु को देख रहे थे। सहसा कामदेव भयावह अग्नि लपटों में घिर गए व देखते ही देखते भस्म हो गये।

काष्ठ सेतु के पास नाविक ने जब महल  में अचानक  अग्नि शिखाएं देखी तो वह भयाक्रान्त  हो पुन: समुद्र की ओर प्रस्थान कर गया ।

                                                                                                                              क्रमशः

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