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अंतिम
योद्धा 

भाग -2

(अभी तक अपने पढ़ा कि सम्पूर्ण पृथ्वी पर लाखों वर्ष पूर्व , तीन जातियों का अधिपत्य था। देव, मनु असुर । देव, उच्च अक्षांशो में रहने वाली गौरवर्ण प्रजाति थी इनके राजा को इन्द्र कहा जाता था। कई इन्द्र अत्यंत पराक्रमी एवं वीर थे जैसे वृत्रासुर युद्व में वर्णन मिलता है तो कई इन्द्र बुरे राजा भी हुए है जिसमें गौतम पत्नि अहिल्या के साथ छद्म पूर्वक संभोग करने वाला इन्द्र।

मनु प्रजाति के मनुष्य अपेक्षा कृत नीचे अक्षांशों में रहने वाली प्रजाति थी। जो देवो की मित्र थी एवं अनेक यु
द्धों में चक्रवर्ती सम्राटों ने देवताओं के राजा इन्द्रों की सहायता की थी जिसमें पृथु, दशरथ आदि मुख्य थे।
दानव अथवा असुर प्रजाति समुद्रों की अधिपति थी। वर्तमान आस्ट्रेलिया अफ्रीका
, दक्षिण अमेरिका आदि क्षेत्रों पर इनका आधिपत्य था। ये अत्यंत उच्च कोटि के वीर थे। इनके आराध्य थे शिव, जो कालांतर में आर्य सभ्यता में अंगीकृत हो देव प्रजाति की 'ट्रिनिटी' का एक अंग बन महादेव के रुप में प्रतिस्थापित हुए।

दानव एवं देव संस्कृति में व कई दानव सम्राटों ने कई बार देवों को पराजित किया । बाणसुर , मय वृतासुर भरमासुर, पौलित्स्यपौत्र रावण आदि इनके नेतृत्व कर्ता हुए है।

आर्य संस्कृति एवं देवों में प्रतिष्ठित होने से पूर्व शिव, जो कि द्वीप पतियों के ईष्ट थे। मध्य अफ्रीका के भयावह वनों में इनका विशालकाय आलय था एवं पशुपतास्त्र जैसे अमोध अस्त्रो - आयुधों के निर्माण वहां होते थे। इन्हीं परम पुरुष पशुपति के अभय से समुद्रपति दानव निर्भय विचरण करते एवं राजकार्यो का संचालन करते थे।

कथा का प्रारंभ देवासुर संग्राम में तात्कालिक समस्या पर मंथनार्थ समस्त द्वीप अधिपति दानवेन्द्र ,परमपुरुष शिव के आवास पर एकत्र हुए एंव विभिन्न चर्चओं के पश्चात् शंकर से अभय प्राप्त कर मधपानादि हेतु सभागृह के पार्श्व स्थित रमणीय कुंजों में यत्र -तत्र मध एवं आहार प्राप्त करने लगे। इसी अंतराल में तीन अत्यंत प्रखर मेधावान एवं अनंत, उर्जावान दानवेन्द्र बाणासुर, सहस्त्रबाहु एवं रावण दिव्य पुरुष पशुपति शिव के महल की ओर प्रस्थान करते है)

वहाँ से तीन भिन्न वीथियां भिन्न भिन्न क्षेत्रों की ओर प्रस्थान करती थी।दक्षिण पथ कई कलात्मक स्तंभो वाली वीथिका के रुप में साधना गृह तक पहुंचता था। मार्ग में स्थान - स्थान पर सर्प, नाग, वानर, गीध आदि प्रजातियों के उत्ताम चिन्ह स्तंभों पर उकेरे हुए थे। प्रत्येक स्तम्भ के पार्श्व में एक -एक दीप प्रज्ज्वलित था जिससे सम्पूर्ण वीथिका देदीप्यमान रहती थी। कहीं -कहीं मध्य में भैरव आदि दिक्कपालों के स्थानक सुशोभित थे जिनकी श्याम पाषाण निर्मित भयंकर प्रतिमाओ पर दिव्य पुष्पाहार अर्पित थे। एक विशिष्ट प्रकार के धूप से वातावरण सुगन्धित रहता  था। प्रत्येक भैरव व दिक्कपाल के पाद स्वर्णश्रंखला से बद्व थे। परम्परानुसार ये अत्यंत उग्र, भयंकर एवं रक्त पिपासु थे अत: इन्हें मुक्त नहीं रखा जा सकता था। प्रत्येक संध्या एवं प्रात: महिष रक्त से इनको अभिषिक्त किया जाता था। इनके नेत्र अत्यंत क्रोधित एवं काल को भी भयभीत करने में सक्षम थे। वीथिका के अंत में एक गर्भ गृह निर्मित था जिसके पट केवल दिव्यपुरुष शिव के आगमान पर ही अनावृत होते थे। दो भयावह सिंह सुरक्षाप्रहरी के रुप में द्वार के दोनों ओर आठों प्रहर रहते थे। उनका पिंगल वर्ण  अन्धकार में भी स्वर्ण सा दमकता था।

ये सिंह सघन वनों से शावक अवस्था में ही लाए गए थे तथा अत्यन्त चतुर एवं दक्ष प्रशिक्षण के पश्चात् इन्हें प्रहरी कार्य पर रखा गया था। क्षीण कटि एवं सघन व गुम्फिल आयल के साथ ये मानों शक्ति एवं क्रोध के साक्षात् प्रतीक थे।

शिव के साधना कक्ष में प्रवेश के पश्चात् पट आवृत हो जाते एवं ईशान कोण पर स्थित इस कक्ष पर अंतरिक्ष से प्रस्फुटित कुछ विशिष्ट रश्मियां झिलमिलाने लगती' जो वीथिका के वितान में स्थित एक विशिष्ट कोण वाले छिद्र से साधना कक्ष तक आती थी।

इस वीथिका में सामान्यजन का प्रदेश निषेध था।

दीप स्तंभ के वाम पक्ष से जो मार्ग उद्धटित होता  था वह राजमहिषि सती के महल तक जाता था । उक्त मार्ग अत्यंत भव्यविथिका से होते हुए राजप्रासाद तक पहुचता था। यह वीथिका अत्यंत रमणीय एवं मनोहारी थी। इसके स्तंभों पर शुभांकर उल्कीर्ण थे यथा श्रीफल, कदली, कलश इत्यादि । अनेक स्थानों पर मनोहारी रमणियों के चित्र थे एवं केलिक्रीड़ा में रत् क्रौंच पक्षियों के युगल चित्रित थे। दक्षिण विथीका की ही भांति इस वीथिका में भी प्रत्येक स्तंभ के पार्श्व में एक-एक स्वर्ण मंडित दीप था जो आठो प्रहर प्रदीप्त रहते थे।

इस वीथिका का समापन एक द्वार तक जाकर होता था। जहां विशाल पट थे। ये पट राजमहिषि सती के राज प्रासाद के थे।

द्वार के दोनो ओर चार अनुचरियां, जो विशिष्ट जनजाति समुदाय की थी एवं सदैव श्वानमुख ओढ़े रहती थी, खडी रहती थी। ये अत्यंत भीमकाय एवं विद्रूप थी। इनकी वाणी कर्कश थी एवं वे शस्त्र संचालन में पारंगत थी । सदैव श्वान मुख लगे रहने के कारण किसी ने भी इनका मुख नहीं देखा था ।

श्वान मुख से इनके नेत्र अवश्य दीखते थे जो विशाल, रक्तिम वर्ण एवं इतने भयानक थे आगंतुक अपादमस्तक कंपायमान हो जाता था। राजमहिषि के

प्रासाद के पार्श्व में विभिन्न शक्तियों के आवास थे जिनकी आराधना में सम्पूर्ण असुर समाज सदैव रत रहता था। यक्षिणियां प्रासाद के भीतर की ओर सजग रहती थी। लंकापति रावण के अग्रज यक्षराज कुबैर ने राजमहिषि के प्रासाद में अत्यंत मनोहर एवं प्रवीण यक्षिणियों की नियुक्ति कर स्वयं को कृतार्थ किया था। मृणाल सी ग्रीवा, सघन गुम्फित केश राशि, क्षीणकटि, उन्नत उरोज एवं कामुक नितम्बों वाली ये यक्षिणियां राजमहिषि  सती के संग सदैव विहार को उद्यत रहती थी।

राजमहिषी सती का प्रमुख महल अत्यंत विशाल गवाक्षों वाला था। जिसके स्वर्ण कलश सूर्य रश्मियों में अद्भुद् छटा बिखेरते थे। महल के चहु ओर दो- दो योजन तक अत्यन्त रमणीक उधान थे जहां पिक- मैना कपोतादि पक्षी सदैव कलरव करते रहते थे। इस उधान में मनोहारी तड़ाग, कमलपुष्प, कुमुदनी आदि सुशोभित रहती थी। श्शीतल मन्द  सुगंन्धित समीर सदैव प्रवाहमान रहता था। प्रत्येक ॠतु के पुष्प व लताएं इस उधान में विधमान थे। दक्षिण क्षेत्र में स्थित एक विशाल सरोवर में एक अत्यंत सुसज्जित नौका सदैव अनुचरियों एवं दासियों सहित  राजमहिषि के जलविहार हेतु उपस्थित रहती थी।

 दीप स्तम्भ से सीधी जो वीथिका प्रस्थान करंती थी वह परमपुरुष शिव के प्रासाद की ओर जाती थी वीथिका में प्रवेश करते ही दो विशाल काय पशु, जिनका मुख सिंह के समान था एवं शरीर हस्तिनुमा, द्वार पर सजग रहते थे। ये भयंकर पशु मात्र शिव एवं विशेष  अनुचरों के अधीन थे। शेष किसी भी प्राणी मात्र का प्रवेश वर्जित था। इन यौल्ली नामक पशुओं से रक्षित वीथिका में प्रवेश करने के पश्चात भी यह वीथिका अत्यंत चतुर सर्पो द्वारा सुरक्षित थी । ये सर्प विशाल एवं रोमवली युक्त थे। इनके रक्तिम नेत्र एवं लपलपाती जिव्हा किसी को भी तुरंत निगल जाने में सक्षम थी । ये सर्प अत्यंत विषधर प्रजाति के थे एवं इनका आहार एक समूचा अज था ।

वीथिका में प्रकाश मद्विम था जिसमें यें प्रहरी सर्प केवल सरसराहट की ध्वनि से ही आगंतुकों से परिचित होते थे। अंधकार में केवल रक्तिम नेत्रों के बिम्ब ही चमकते थे।इस वीथिका का फर्श समुद्री मूंगों से निर्मित था एवं कुछ निर्धारित पाषाणों के क्रम पर होते हुए ही वीथिका को पार किया जा सकता था। इन पाषाणों के क्रम का ज्ञान राजमहिषी सती तक को न था। ये चौकोरपाषाण्ा महासेनापति एवं दुर्जेय नन्दी के अतिरिक्त किसी भी सामान्य जन को ज्ञात न थें। आवश्यक होने पर अनुचरों को भी परमपुरुष शिव के प्रासाद मे प्रविष्टि होने के लिए महाभट नंदी का ही अनुसरण करना होता था। यधपि सम्पूर्ण वीथिका में लगे पाषाण एक ही आकृति के दीखते थे तथापि भ्रम मात्र थे। केवल इन पाषाणों की एक विशिष्ट क्रमबद्व श्रंखला ही ठोस थी। शेष पाषाणों पर यदि कोई अनभिज्ञ त्रुटिवश पांव रखता तो तत्क्षण पदाघात होते ही वे व्यक्ति को समुद्र की अथाह गहराई में डुबो देते थे। वह समुद्री जल से उकेरी हुए सांझीनुमा कला थी जो वास्तविक पाषाणों सा आभास देती थी  मगर वह पाषाण नहीं अपितु जल पर उकेरी हुइ्र थी।

गुप्त पाषाणों को पार कर वह पथ सहसा एक अत्यप्त सघन वन में खुलता था। जहां अत्यंत दुर्लभ किन्तु विशालकाय तरु, अभ्र में वितान की भांति गुम्फित थे। उन सघन एवं अत्यंत विशाल वृक्षों पर लतादि इस प्रकार आलिंगन बद्व थे कि कुछ दूरी पर  भी दृष्टिपात करना संभव नहीं था। इन वृक्षावलियों के मध्य पवन संचरण के कारण अत्यन्त रहस्यमय सरसराहट गुंजित होती थी मानों कोई कानों में फुसफुसा रहा हो । इस सघन वन में कोई व्यवस्थित मार्ग दृष्टिगोचर नहीं होता था अपितु पंकादि से निर्मित इस सघन वन से पार होना दुष्कर एवं दुर्गम था। यह अलंघ्य था। उस सघन वन में सूर्यरश्मियां धरातल तक प्रवेश नहीं कर पाती थी अपितु एक भयावह एवं  हदय को भयाक्रान्त कर देने वाले अंधकार का साम्राज्य था। यहां से आगे कोई प्रकाशादि की व्यवस्था नहीं थी। वह दलदल इतना गहरा था कि एक हस्ति उसमें समा जाय। उस दलदल में वृहताकार मकर , घड़ियाल व तीक्ष्ण दन्तावलियोयुक्त जन्तुओ का आवास था। ये मृत्यु के समान पीले नेत्रों को चमकाते क्षुधातुर स्वच्छंद विचरण करते थे।

ये वन विषबाणों से युक्त सजग, चपल एवं द्रुत वामनवीरों द्वारा रक्षित थे। ये शारीरिक अनुपात में कम दीर्घ किन्तु अत्यंत कठोर भुजबाल वाले वीर पता नहीं कितनी संख्या में उस सघन वन की वृक्षावलियों में छुपे रहते थे। जो एक विशेष ध्वनि पर क्षणमात्र में लताओ झूलते प्रकट हो जाते थे। इनके भयंकर श्यामवर्ण पर मात्र मृगछाला अथवा पर्णवस्त्र ही दीखते थे। शेष श्रंगार में चौड़े अंसो पर विषाक्त बाणों का तुणीर एवं धनुष रहते थे। ये वामनवीर इस सघन वन के बाहय क्षेत्र में भी प्रवेश नहीं करते थे अपितु आठोप्रहर यहीं से आखेटादि प्राप्त कर यहीं निवास करते थे।

इस भयावह एवं अंधकारपूर्ण दलदल के मध्य से अत्यन्त दुर्गम एवं तीव्र प्रवाहमान सरिता प्रवाहित होती थी जिसका मुख पश्चिमी सागर पर खुलता था। इस सरिता के तीव्र प्रवाही होने एवं जगह-जगह पर प्रपातों के कारण ये तरणि संचालन के लिए अनुपयुक्त थी। कई योजन तक उक्त सरिता उस अंधकारमय सघन वन में ही बहती थी। उसका कल-कल नाद उस अंधकार को और सघन बनाता था। वन में विशालकाय उलूक एवं खंजन प्रजाति के खग प्रचूर मात्रा में पाए जाते थे। इनकी कर्कश ध्वनि सहसा ही चित को अशांत व भयाक्रान्त कर देती थी। कुछ विचित्र प्रजाति के सर्प उस दलदल पर रेंगते रहते थे जिनका मस्तक हथौड़ेनुमा एवं शेष शरीर विशाल एवं दीर्घ था। ये यत्र- तत्र विचारने वाले प्राणियों को उदस्थ करते थे।

( क्रमश:  )

- अरविन्द सिंह आशिया
सितम्बर 1, 2007

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