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पौराणिक महागाथा


अंतिम
योद्धा 

भाग -3

(आपने पढा - परमपुरुष पशुपति शिव का आवास अत्यंत विचित्र एवं विशाल था जिसमें दक्षिणी वीथिका शिव के साधनाकक्ष तक पहुंचती थी वहीं वाम पक्ष की वीथिका राजमहिषि सती के राजप्रासाद पर खुलती थी। दो योजना में निर्मित इस महल मे तृतीय वीथिका परम पुरुष शिव के आलय की ओर प्रस्थान करती थी। भयावह सिंहों, सर्पो व जल सांझी द्वारा रक्षित उक्त वीथिका एक सघन एवं अंधकार मय वन में खुलती थी जहां पंकादि युक्त विशाल दलदल था। विकट मकरादि जन्तु वहां विचरण करते थे। उक्त सघन वन के विशाल वृक्षों पर वामन वीर विराजित थे जिनकी तीक्ष्ण दृष्टि एवं विषयुक्त बाणों से कोई भी अवांछनीय आगंतुक नहीं बच सकता था। इस अन्धकारमय वन के मध्य  एक सरिता प्रवाहित होती थी जो पश्चिम महासागर में समाहित होती थी वन में उलूकादि विहंगों का साम्राज्य था ।) 

तीव्र प्रवाह सरिता पर एक काष्ठ युक्त सेतु निर्मित था। जिसे उस सघन अंधकार में कोई चतुर एवं भिज्ञ ही जान सकता था। दिव्य पुरुष शिव के आलय तक के मार्ग में यह सर्वाधिक दुष्कर क्षेत्र था। काष्ठ युक्त सेतु को पार करने पर खधोत समूहों की जगमगाहट दृष्टिगोचर होती थी जो निर्धारित पथ पर अग्रसर होने पर एक निश्चित आकृति ग्रहण करने लगती। यह क्षेत्र पशुपतिनाथ एवं अजेय शिव के प्रमुखगण तथा आन्तरिक सुरक्षा समूह प्रमुख दुर्जेय योद्वा वीरभद्र के अधीन था। यधपि महासेनापति नंदी का आवागमन बिना व्यवधान के होता था तथापि स्वयं नंदी भी महाभट वीरमद्र से एक औपचारिक अभिवादन हेतु अवश्य विराम लेते थे। 

दुर्जेय वीरभद्र साक्षात काल की प्रतिभूर्ति थे। गहरे श्याम रंग पर उनका स्थूलकाय तन अत्यंत बलिष्ठ था । उनके नैत्र रक्तिम वर्ण थे। तन पर वस्त्राभूषणों में, कटि पर कसी मृगछाल एवं अंस पर घातक आयुध परशु हर क्षण्ा रहता था। इतने भीमकाय आकार के पश्चात् भी वीरभद्र अत्यंत चपल एवं फुर्तीले थे। निमिष मात्र में दृष्टि से परे हो जाते थे। उनके विषय में ज्ञात करना असंभव होता था कि वो इस समय कहां होगें ? उनके कठोर उरु प्रदेश पर श्रमस्वेद बिन्दु झलकते  थे। अत्यंत अल्प शब्दों से वाणी प्रयुक्त करने वाला यह महाभट तनिक भी वाचाल नहीं था। वाणी उच्चारण के समय गम्भीर मेघगर्जन की ध्वनि होती थी। शूलपाणि की कृपादृष्टि सदैव उन पर रहती थी। वीरभद्र के सहायकों में नाना प्रकार के सुभट थे जिनमें बाण, भृंगी, महाकाल,महारौद्र,महामुण्ड, महाशिरा, धूम्राक्ष, धूम्रकेतू, धूम्रपाद आदि प्रमुख थे।     

                  काष्ठ सेतु के पार पृथ्वी कठोर एवं शुष्क थी। एवं पथ को सम्पूर्ण पार करते -करते खधोत समूहों की झिलमिलाहट एक अति भव्य मणि महल की आकृति ग्रहण करने लगता था। यह उच्च अट्टालिका युक्त प्रासाद अत्यंत उच्च कोटि के पाषाण स्फटिक से निर्मित था जो कि आभासीय पारदर्शी था अर्थात इस पर दृष्टिपात करने पर इसके पारदर्र्शी होने का भ्रम होता था। इसकी प्राचीरें पारदर्शी आरसी सी दृष्टिगोचर होती थी। महल के परिभ्रमण के पश्चात् भी कोई नवागंतुक या अपरिचित महल के द्वार खोज पाने में असक्षम ही रहता था। यह अद्भुद प्रासाद समकोण एवं समरुप था।

इस प्रसाद का द्वार इसान कोण की ओर उवस्थित था। यह द्वार नव दुर्गाओं द्वारा सुरक्षित था। इसके अतिरिक्त इस महल के चहुं दिश अदृश्य रुप में प्रमथ , गुहयक,, कूष्माण्ड , कर्पट, बटुक, ब्रह्मराक्षस, भैरव , क्षेत्रपाल , तथा पौलिस्त्यवैश्रवा रावण द्वारा नियुक्त वीर राक्षस एवं घनपति कुबेर द्वारा नियुक्त यक्षादि निरंतर उपस्थित रहते थे । उनकी उपस्थिति का स्थूल भान असंभव था। पिनाक पाणी के इस महल में महासेनापति नन्दी एवं प्रमुख रक्षक वीरभद्र के अतिरिक्त अन्य का प्रवेश पूर्णत: वर्जित था। महल के अन्तरंग क्षेत्रों में प्राचीरों एवं द्वार , वातायनों, वितानों में विशालकाय मणिक्य , हीरक, पन्ना, नीलम आदि रत्न जटित थे जो अंतरिक्ष से विभिन्न कोणों से प्रविष्ठ रश्मियों के प्रतिबिम्ब स्वरुप झिलमिलाते रहते एवं इसी से सम्पूर्ण महल के भीतर विभिन्न रगों का प्रकाश फैला रहता था।

उक्त महल दानवेन्द्र मकराक्ष एवं नगर नियोजक सम्मानीय मय दानव के निरीक्षण में निर्मित हुआ था। कालांतर में हिरण्यपुर के देवासुर संग्राम में लंकाधिपति देत्येन्द्र सुमाली के एक प्रमुख सेनापति की पुत्री का मकराक्ष द्वारा वध किए जाने से कुपित रक्ष संस्कृति के अधिष्ठाता राक्षसराज रावण ने मकराक्ष का यज्ञ पशु की भांति अपने विकराल परशु से शिरोछेद कर प्रज्ज्वलित अनल में होम दिया था ।

महल के द्वितीय नियोजक दानव मय की कृशोदरी एवं अत्यंत सुंदर रमणीय पुत्री मंदोदरी से राक्षसराज रावण ने भार्या के रुप में परिरम्भण प्राप्त किया । राक्षसेन्द्र रावण की राजमहिषी मन्दोदरी लंका की प्रथम नागरिक थी। तभी से राक्षसेन्द्र ने स्वयं द्वारा चयनित अत्यंत दक्ष राक्षसों कों त्रियम्बक शिव की सेवार्थ इस अगम प्रदेश में नियुक्त किया था।

महल के भीतर का तापक्रम असामान्य रुप से कम था। सम्पूर्ण महल अत्यंत शीतल एवं सुगंधित था। महल के पार्श्वभाग से प्रवाहित गंधक एवं सरिता जल उष्ण जलसुविधा का निर्माण करते थे। शेष महल के सातों कक्षों में भिन्न- भिन्न प्रकार की अलंकृत शैयाएॅ एवं अन्य आमोद प्रमोद एवं विहार की उच्च कोटि की साम्रगी उपलब्ध थी। मुख्यकक्ष सम्पूर्ण रुप से दुलर्भ मुक्ता एवं पारद से निर्मित था जिसमें शिव का शयन कक्ष था। इस अलौकिक कक्ष का वैभव आश्चर्य चकित करने वाला था।

शयन कक्ष भीतर शायिका के ठीक पृष्ठ भाग में एक स्वर्ण
द्वार स्थित था। उक्त स्वर्ण द्वार एक गुहयपथ था जो सीधे राजमहिषी सती के राज प्रासाद में खुलता था। राजमहिषी सती को पिणाकपाणि के शयन कक्ष में आवागमन हेतु अगम क्षेत्रों का प्रयोग वर्जित था।

इस समय अर्द्वरात्रि के चन्द्रमा की पीत चांदनी में स्फटिक महल शताधिक विराट रत्नों से जगमगाते एक सुंदर पारदर्शी समूह सा प्रतीत हो रहा था। काष्ठ सेतु के पार सजग वीर भद्र के नैत्र तनिक संकुचित हुए । सम्मुख महासेना पति नंदी, राक्षसेन्द्र  रावण , महाबलि बाणासुर एवं पौरुषपति सहस्त्रबाहु काष्ठ सेतु के इस ओर आ रहे थे।

उच्च आक्षांशो में स्थित देव राज्य की राजधान अमरावती की वीथियां और पथ पार करता एक तेजस्वी वृद्व  बाह्मण उत्तार दिशा की ओर बढ़ा जा रहा था। वर्तमान स्केन्डीनेविया पर्वत श्रंखला से दक्षिण में बसा यह भव्य एव श्रेष्ठ नगर देव प्रजाति की प्रमुख राजधानी थी। नगर के मध्य अवस्थित राजपथ के किनारे लगे दीप स्तंभ दूर तक जगमगा रहे थे। मध्य रात्रि के समय इस प्रकार उस रहस्यमय ब्राह्मण का गमन किसी विशेष उद्वेश्य की ओर संकेत कर रहा था। राजपथ पार कर वह व्यक्ति प्रमुख द्वार से पूर्व दिशा में मुड़ गया एवं एक निश्चित  स्थान पर खड़ा हो गया । कुछ निमिष पश्चात एक अश्वारुढ़ युवक ने चपल तुरंग को उस वृद्व ब्राह्मण के पास रोका । युवक अत्यंत फुर्ती से अश्वावरोहित हुआ एवं करबध्द अभिवादन ब्राह्मण को प्रस्तुत किया । अत्यंत वज्रवान गौरवर्ण काया के स्वामी एवं श्वेत केशों वाली कटि तक फैली वायु संचरण से फरफराती दाढ़ी वाले उस वृद्व ब्राह्मण के नीलवर्ण नेत्रों में दृष्टि पड़ते ही युवक अपादमस्तक कांप उठा ।

''देवगुरु बृहस्पति प्रसन्न हो'' युवक के नैत्र पृथ्वी की ओर झुके थे।

''स्वेताक , मेरे गृह तक प्रस्थान करो, मैं उसी ओर जा रहा हूं '' देव गुरु बृहस्पति ने कठोर किंतु सधे हुए शब्दों का संधान किया।

अविलम्ब स्वेताक अश्वारुढ़ हुआ एवं अश्व वायु वेग से पूर्व पथ पर बढ़ गया। पथ दीपों के पीत प्रकाश में धवल वस्त्र वाले देवगुरु बृहस्पति दूर तक दृष्टि गोचर होते रहे। ''देव को विलम्ब हुआ '' बृहस्पति की अर्धांगिनी तारा ने देवगुरु का उतरीय लेते हुए प्रश्न किया।

''स्वेताक कहां है देवी। तारा के प्रश्न का प्रत्युत्तार न दे बृहस्पति ने प्रति प्रश्न किया।

''कक्ष में देव की प्रतीक्षारत है''बृहस्पति वायुवेग से कक्ष की ओर बढ़गये। कक्ष के पट आवृत हो गए। तारा को यह ज्ञात था कि राज्य की महत्वपूर्ण एवं गुप्त वार्ताएँ देवगुरु बृहस्पति स्वयं अथवा संबधित व्यक्ति तक ही सीमित रखते थे।

''देत्य नरेश होने के पश्चात् भी वह धर्म सम्मत है'' बृहस्पति के नैत्रों में क्रोधाग्नि प्रज्जवलित थी।'स्वेताक मौन संवरण कर देवगुरु की ओर अपलक देख रहा था।

''यह आव्हान शत्रुपक्ष को नहीं धर्म की रक्षार्थ एक महात्मा को है जो इस दुष्ट इन्द्र को ध्वंस्त कर पुन: लोकतंत्र की स्थापना करे तथा सुरभूमि को पुरक्षित रखने वाला कोई धर्म सम्मत महात्मा इन्द्रासन पर आरुढ़ हों।''

''गुरुरोवज्ञया सर्व नश्यते च समुद्भवम्। ये पापिनो हयधर्मिष्ठा: केवलं विषयात्मका:॥

पितरौ निन्दितौ यैश्रच निंदैंवस्ते न संशय:।''

बृहस्पति के नैत्र रक्तिम थे।

''स्वेताक। देवगुरु बृहस्पति सम्पूर्ण देवजाति के कल्याणार्थ तुम्हें आज्ञा देता है कि तुम पाताल (वर्तमान उ. अमेरिका )नरेश दैत्यराज बली को वर्तमान इन्द्र को सिंहासन च्युत कर लोकतंत्र की पुर्नस्थापनार्थ आमंत्रित करो'' बृहस्पति की वाणी क्रोधवश आवेशित थी।

स्वेताक ने उठ कर पुन: देवगुरु को प्रणाम किया एवं अपने कार्यसाघना हेतु प्रस्थान कर गया। स्वस्ति, वर्तमान देवराज इन्द्र इन्द्रियों का वशीभूत एवं नृत्य एवं भोग विलास रत् कायर देवराज था। आर्यवृत की प्रजातियों से सामान्य संबंध विच्छेद हो चुके थे। दैत्यों ने कई द्वीप समूहों पर अधिपत्य कर लिया था एवं देवासुर संग्रामों में देवों पर विजय प्राप्त करने लगे थे।

दैत्यों, अनार्यो को एकत्र कर मेधावान रावण ने रक्ष संस्कृति को पल्लवित किया जिसका मूलमंत्र था 'वयं रक्षाम'। जो इस संस्कृति स्वीकार करते थे उन्हें राक्षस कहा गया। रावण के शौर्य, वीरता, चतुरता व मेधा ने द्वीपों पर रक्ष संस्कृति का हवजारोहण कर दिया था। अनेकों अनार्य दैत्य व दानव रक्ष संस्कृति से अभ्सिम्मत थे व राक्षस होना स्वीकार चुके थे । शेष अनेकों अनार्य प्रजातियां यथा वानर, किन्नर, गीध , रिक्ष पर आदि पर रक्ष संस्कृति का प्रभाव स्पष्टत: परिलाक्षित था।

बाली, मलय आदि द्वीपों की प्रजाति नागों ने रक्ष संस्कृति में दीक्षा ले ली थी। नाग पति वज्रनाभ कोराक्षसेन्द्र रावण के परशु से स्वर्गारोहण करना पड़ा। समस्त देव, मनु एवं दनु प्रजातियां राजनीतिक एवं सामाजिक एवं सामाजिक कठिनाइयों से युद्वरत् थी। ऐसे राजनैतिक अस्थिरता के समय देवताओं के राजा इन्द्र ने इस अस्थिरता में धृताहूति दी और व्यवस्थित राजकार्य एवं कुशल संचालन की अपेक्षा अपने इन्द्रिय सुख पर अधिक जाटक साधा। परिणाम स्वरुप देव प्रजाति के दिग्गज नेतृत्व कर्ता एवं मंत्रीगण उसके विरुद्व होते गये । वाचस्पति के अपमान से सम्पूर्ण देवप्रजाति ने स्वयं को आहत एवं लज्जित महसूस किया एवं विद्रोह का शंखनाद हो गया।

देवगुरु वाचस्पति के अपने अत्यंत विश्वसनीय अनुचर को पाताल नरेश दैत्य राज बली को संदेश देकर अमरावती पर आक्रमणार्थ आमंत्रित किया। यह सर्वमान्य था कि महाभाग बृहस्पति सदैव देवप्रजाति के हितार्थ निर्णय लेतें हैं।

शेषरात्रि देवगुरु बृहस्पति ने नैत्रां में व्यतीत की । उन्हें किंचित मात्र भी निद्रा नहीं थी । वे बारम्बार दैत्यराज बली को प्रदत संदेश से संभावित हित - अहित पर विचार मग्न थे । वर्तमान में एक अत्यंत स्फूर्तिवान जो तरुण जो कि उच्च कुल का देव था, सुलक्षणों से युक्त था पर बृहस्पति का लक्ष्य संधान था। उस परम श्रेष्ठि युवक में में इन्द्रासन पर विराजित होने के सम्पूर्ण गुण थे। देवगुरु ने यह निश्चय कर लिया था कि वर्तमाान इन्द्रिय लोलुप इन्द्र को पदच्युत कर इस तरुण को इन्द्रासन सोंपना ही देव प्रजाति के हित में होगा । सहसा कुक्कुट की धूनि बृहस्पति के कर्णो को स्पंदित कर गई। उनके नेत्र वातायन की ओर उठ गए । पूर्व दिशा में हल्की लालिमा ऊषा के आगमन का संदेश दे रही थी। ( क्रमश:  )

- अरविन्द सिंह आशिया
सितम्बर 15, 2007

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