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पौराणिक महागाथा
योद्धा
भाग -4
(आपने
पढ़ा - देवासुर संग्राम के समाचार से चिंतित दानव एवं दैत्य व नव
संस्कृति से दीक्षित राक्षस अधिपति परम पुरुष शिव से अभय प्राप्त
करते हैं। सभा की समाप्ति पर शेष ध्दीपपति मधादि प्राप्ति
हेतु लतागुल्मों की ओर बढ़ते है वहीं राक्षसेन्द्र रावण,अजेय
बाणासुर व दुर्जेय सहस्त्रबाहु,पिनाकपाणि
के अद्भुद मणिमहल की ओर प्रस्थान करते है।
इसी अंन्तराल में वर्तमान में
स्केंडिनेविया पर्वत से दक्षिण में स्थित
देव राजधानी अमरावती में
देवगुरु बृहस्पति एक गंभीर स्थिति से आमने सामने है। वर्तमान देवराज इन्द्र
इन्द्रिय लोलुप है एवं आर्यावृत से संबंध विच्छेद कर चुका है। दैत्य प्रजाति
व रावण ध्दारा नव निर्मित राक्षस प्रजाति में सम्पूर्ण दक्षिण
गोलार्ध्द दीक्षित हो चुका है। देवगुरु बृहस्पति दैत्य प्रजाति के विलक्षण
वीर एवं अत्यंत चतुर महाराज बली को एक गुप्त संदेश अपने अत्यंत विश्वसनीय
अनुचर स्वेताक के साथ भिजवाते है। यह संदेश देवभूमि पर लोकतंत्र की
पुर्नस्थापनार्थ एक कठोर एवं कड़वा निर्णय है। स्वेताक के प्रस्थान से
सूर्योदय तक देवगुरु बृहस्पति अपने कक्ष में अपने संदेश के हानि - लाभ पर
विचारमग्न एवं चिंतित है तभी सूर्योदय की लालिमा अंबर पर दृष्टिगोचर होती
है।)
पट पर ध्वनि ने देवगुरु
बृहस्पति की तंद्रा में विध्न उत्पन्न किया । चिंता एवं अनिद्रा से उनके
नैत्र रक्तिम वर्ण हो रहे थे। पट पर पुन: ध्वनि संकेत प्राप्त कर देवगुरु ने
पटनावृत किए । वाचस्पति की भार्या तारा,
सधस्नाता सी
,
हाथ में पूजन का थाल लिए
,
जिसमें कुमकुम अक्षत एवं
सुवासित पुष्प हार एवं धृत का दीपक था,
खड़ी थी।
''देव,
सम्पूर्ण रात्रि विश्राम
नहीं कर सके कदाचित्''
तारा ने वाचस्पति के उन्नत भाल
पर कुमकुम से तिलक अंकित करते हुए प्रश्न किया
'
''हां
देवी,
परिवर्तित घटनाक्रम की तीव्रता
मेरे चिन्तन का मुख्य विषय है''
देवगुरु ने भार्या का
सुखपूर्वक आलिंगन करते हुए एक स्मित हास्य के साथ कहा।
''देव,
साम्राज्य में लोकतंत्र
की पुर्नस्थापनार्थ प्रयासरत् है
?'' तारा ने बृहस्पति के
नेत्रों में दृष्टिपात करते हुए पूछा ।
''देव,
सदैव श्लाधा करते है''
''नहीं
देवी ,
गुणों से यह संभव है। मैं देवी
की मेधा से चकित हूँ एवं स्वयं को गौरवान्वित अनुभव करता हूं
''
देवगुरु के मुखमंडल पर प्रेम
व दर्प झिलमिला रहे थे।
भानुरश्मियां गवाक्षों से
मंत्रणाकक्ष तक पहुंच रही थीं।
तारा के कक्ष से प्रस्थान के
पश्चात् वाचस्पति के नैत्र पुन: गवाक्ष से सुदूर तक फैली राजधानी पर
दृष्टिपात करने लगे ।
प्रात: काल की स्वर्णिम
रश्मियां राजपथ पर स्वर्ण वृष्टि कर रही थे। बटुक एवं जटिल पथसंचलन कर रहे
थे। पुष्पविक्रेता मुख्य विक्रय केन्द्र की ओर प्रस्थान कर रहे थे। समस्त
चतुष्पथों पर सुवासित धूप के दीपक वातावरण को आनंदमयी बना रंहे थे।
स्वर्णिम किरणों से अमरावती
के मध्य भाग में स्थित राज प्रासाद के कंगूरे और गवाक्ष दमक रहे थे।
पूजाग्रहों से मंगल वाध यंत्रो की स्वरलहरियां सम्पूर्ण नगर पर आच्छादित थी।
राजपथ पर स्वच्छताकर्मी कार्यरत् थे। शंखादि की ध्वनि रह
रह कर गगन में गूंज रही थी।
नगर से उत्तार दिशा में
स्थित हिम शैलों का स्पर्श कर परावर्तित होती रश्मियां सम्पूर्ण श्रंखला को
स्वर्ण सा सजा चुकी थी।
बृहस्पति स्नानागार की ओर
प्रस्थान कर गए।
''रुद्र
नेतृत्वकर्ता एकादश परम पुरुष आपसे मंत्रणार्थ समय की याचना कर गए है।''
तारा ने
बृहस्पति को भोजनोपरान्त
ताम्बूल प्रस्तुत करते हुए सूचित किया ।
''देवगुरु
की भार्या व श्रेष्ठ अ र्धांगिनी
की भूमिका ही जटिल है''
तारा ने नारी सुलभ लज्जा
से प्रत्युत्तार दिया।
कुछ ही समय में रथ नगर की
सीमा से बाहर उत्तारी हिम शैलों के पथ पर था । इस मध्य बृहस्पति मौन अपने आसन
पर विराजमान थे। दोनों ओर हरित दूर्वा के विशाल क्षेत्र थे मानों हरित वस्त्र
से किसी ने सम्पूर्ण पृथ्वी को आच्छादित कर लिया हो । कहीं- कहीं गौवंश के
समूह क्षुघा तृप्ति करते दृष्टिगोचर होते थे। सम्मुख घने वनों की श्रंखला दीख
रही थी।
सहसा व्याघ्र के गर्जन से
बृहस्पति का ध्यान भंग हुआ । सम्मुख का दृश्य अत्यंत रोमांचक था। गौ वंश में
एक गौ वत्स पर व्याघ्र ने आक्रमण कर दिया था। एकाएक अश्वों के पांव थम गए।
इससे पूर्व की वाचस्पति किसी निर्णय पर आते उनके नैत्र विस्मय से विस्फरित हो
गए । उन्होने देखा कि एक गौ अपने वत्स की रक्षार्थ
व्याघ्र के सम्मुख आ गई एवं अपने तीक्ष्ण श्रंगों से व्याघ्र पर आक्रमण कर
दिया । कदाचित अनायास आक्रमण एवं अकल्पनीय विद्रोह से व्याघ्र का आत्मविश्वास
टूट गया और एक गर्जना के साथ ही व्याघ्र को सघन वनों की ओर प्रक्षेपित होना
पड़ा। गौ अपने वत्स को जिव्हा से दुलार रही थी।
''प्रजा
वत्स की भांति होती है यदि उसकी रक्षार्थ व हितार्थ काल से भी सम्मुख होना
पड़े तो भी विचार कर विलम्ब अनुपयुक्त है''
एक घटि व्यतीत होते - होते रथ
उस अगम वन के पार एक अत्यंत सुंदर सरोवर के तटक्षेत्र तक पहुंच गया था। नील
वर्ण की इस जलराशि में रह-रह कर श्वेतता का आभास होता था। इस सरोवर की तलहटी
में दुर्लभ मुक्ता एवं बहुमूल्य पाषाण उपलब्ध थे जिन पर भानुरश्मियों के
परावर्तन से यह झिलमिलाहट दुग्ध वर्णीय जल का आभास देती थी। सरोवर वनों एवं
हिम श्रंगों के मध्य विस्तारित था। एक ओर वनों के प्रतिबिम्ब से जल हरित एवं
नीलवर्ण सा प्रतीत होता था वही दूसरी ओर हिम श्रंगों के प्रतिबिम्ब से जल धवल
एवं स्वर्णमयी आभासित होता था।
इस सरोवर में दुर्लभ प्रजाति के
श्वेत कमल खिले हुए थे जिनकी सुगंध से सम्पूर्ण क्षेत्र सुवासित था साथ अलि
गुंजन समपूर्ण वातावरण में एक मौन संगीतालाप सा झंकृत होता था। हल्के-हल्के
बह रहे मलयानिल से सरोवर का जल कम्पित होकर लहरों की उत्पति कर रहा था। जो
तटबंध से टकराकर पुन: लौट जाती थी।
''अवश्य
महाभाग,
आप जैसा उचित समझे किन्तु अधिक
विलम्ब न हो ।''
बृहस्पति ने मधुरता पूर्वक
प्रत्युत्तार दिया एवं स्वयं रथ से उत्तार गए।
अश्वों को सारथि ने बंधन मुक्त
कर दिया एवं सरोवर के तटबंध पर उन्हें तृष्णा तृप्ति हेतु ले गाया। महामना
वाचस्पति एक विशालकाय वृक्ष की छाया में स्थित पाषाण पर विराजमान हो गए। उनकी
दृष्टि शीघ्रता पूर्वक पश्चिमदिशा में प्रस्थान कर रहे अंशुमालि पर थी। सरोवर
का शांत तट,
सुवासित समीर और भ्रमर गुंजन ने
देवगुरु के मानस को मानों अत्यंत शांति और शीतलता प्रदान की। वे शीघ्र ही
पद्मासन में समाघिस्थ हो गए।
संध्याकाल की भानुरश्मियां
वनों के श्रंगों एवं हिम शैलों पर पुन: स्वर्ण छटा बिखेर रही थी। वायु में
शीतलता में वृध्दि होने लगी थी। सारथि अश्वों को पुन: रथ से बध्द कर चुका था।
देवगुरु अभी भी उस वृक्ष के नीचें समाधिस्थ थे । सहसा भयावह चिंघाड़ से
सम्पूर्ण वन गुंजित हो गया । बृहस्पति के नैत्र अचानक हुए इस व्यवधान से खुल
गए।
वन क्षेत्र से अत्यंत सुंदर
एवं विशाल श्वेत वर्ण के गजराजों का झुण्ड तृष्णा तृप्ति हेंतु सरोवर पर आया
। ये गजराज बहुत ही सुलक्षण व मंगल चिन्हों से युक्त थे इनका नेतृत्व कर्ता
वृध्द गज प्रथमत: तट बंध पर पहुंचा तत्पश्चात शेष समूह । सरोवर के शांत
जल में लहरें उत्पन्न हुई गज समूह तृष्णा तृप्ति के साथ- साथ जल क्रियाएं
करने लगा। बृहस्पति उस पशु की क्रीडाओं का आनंद लेने लगे। एक इसी
प्रकार का श्वेत वर्ण दिव्य गज देवराज इन्द्र के कमठान में भी था जिसे ऐरावत
कहा जाता था। श्सहसा जल में क्रीडारत गजराज की
आनंद ध्वनि चिंधाड में परिवर्तित हो गई। सम्पूर्ण झुण्ड तीव्र गति से सरोवर
से बाहर आ गया । स्वयं गजराज का पृष्ठ पाद एक विशाल काय ग्राह ने अपने मुख
में तीक्ष्ण दांतों से दबा रखा था। गजराज एक बार तो सम्पूर्ण ताकत से ग्राह
समेत सरोवर से बाहर आ गया किन्तु क्षमतावान और बलि ग्राह पुन: गजराज को जल की
ओर खींचने लगा। गजराज के पृष्ठपाद से रक्त झरने लगा था। कई निमिष यह
मलयुध्द होता रहा। अचानक गजराज असंतुलित हो कर भू लुठित हो गया और विशाल मकर
उसे तीव्रता पूर्व जल के भीतर खींचने लगा। गजराज की चिंघाड़ बढ़ गई और गज
आर्तनाद करने लगा।
बृहस्पति के मन का उद्वेलन
बढ़ गया। गज का क्रंदन वन को कंपित करने लगा। शेंष समूह असहाय सा निर्निमेष
नेत्रों से अपने दिग्गज को काल कवलित होते देख रहा था। मकर शनै: शनै:
गजराज खींचने लगा व दिव्य पशु जल में समाहित होने लगा। सहसा
एक घोर गर्जन के साथ वन से निकला एक भयानक अस्त्र,
जो अग्नि के समान
देदीप्यमान एवं वृताकार था क्षण भर में ही मकर की ग्रीवा का शेष तन से
विच्छेद कर चुका था। सरोवर का जल रक्तिमवर्ण हो गया। घायल गजराज एकाएक जल से
बाहर निकल पड़ा ये सम्पूर्ण घटना क्रम निमिष मात्र में हो गया।
बृहस्पति की दृष्टि उस सघन
वन की ओर मुडी जहां से अस्त्र संधान हुआ था।
(
क्रमश: )
-
अरविन्द सिंह आशिया
भाग -
।
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4 ।
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