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अंतिम
योद्धा          

भाग -6

(आपने पढ़ा- वर्तमान देवराज इन्द्र को पदच्युत कर लोकतंत्र की पुर्नस्थापनार्थ  देवराज बृहस्पति जहां एक ओर अपने परम विश्वसनीय गुप्तचर स्वेताक को पाताल नरेश  दैत्यराज बली को अमरावती पर आक्रमण का संदेश भेजते है वहीं स्वयं क्षीर - सागर स्थित महामना विष्णु को समस्त राजनीतिक घटना चक्र से अवगत करवाने हेतु प्रस्थान करते है। विष्णु उन्हें अपने सहस्त्र नाग द्वीप पर स्थित अत्यन्त जटिल व्यवस्थाओं वाले स्वपोषित अर्थव्यवस्था  आधारित निवास पर ले जाते है जहां दोनो में इस संदर्भ में वार्ता होती है। महाभाग विष्णु निवास पर स्थित आधुनिक यंत्रों की सहायता से दैत्यराज बली द्वारा संदेश स्वीकृति को देखते है व एक यक्ष प्रश्न करते है कि यदि दैत्यों ने अपने चरित्र के  अनुसार इन्द्रासन पर कब्जा कर यदि उसे खाली नहीं किया तो क्या होगा ? प्रत्युत्तार में बृहस्पति कहते है कि देव प्रजाति सदैव आप द्वारा रक्षित रही है और यदि इस प्रकार का कोई आपात काल उत्पन्न होता है तो एक बार पुन: आप ही समाधान ढूढे अब आगे ------)

तेजस्वी विष्णु के मुखारविंद पर चिंता की रेखाएं स्पष्ट थी । देवगुरु  बृहस्पति  कदाचित्  चिंता और भय का मिश्रित भाव लिए अपने आसन पर मौन साधे महाभाग विष्णु  के उवाच हेतु  प्रतीक्षारत् थे।

'' यह तो निश्चित है कि वर्तमान देवराज एक अयोग्य, अकुशल व अदूरदर्शी शासक है'' परम पुरुष विष्णु के कमलनयन  देवगुरु के मुख पर गड़े थे। 

'' हां  महामनें, न केवल रुद्र एवं मरुत अपितु अग्नि, ऋभु , पूषन , उषस् , आदित्य, सोम एवं अश्विन भी वर्तमान देवराज से प्रसन्न नहीं है। ये समस्त उपप्रजातियां लोकतंत्र  चाहती है जब कि वर्तमान  देवराज इसे राजशाही  का निकृष्ट उदाहरण बना बैठे है।'' बृहस्पति ने चिंतित स्वर में कहा ।

'' वरुण ? '' विष्णु ने प्रश्न किया ।

''यद्यपि यह प्रजाति देवराज की मित्र रही है तथापि  देवराज की अकार्यकुशलता से क्लांत है।''

कक्ष में  मौन गहरा हो गया था। देवराज के दो विद्वान एवं नीति नियामक आने वाले समय को लेकर स्पष्टत: चिंतित थे।

'' समय की चाल वक्र होती है महामना अत: आज ही समझना संभव नहीं है। समय की प्रतीक्षा करें।'' विष्णु ने विचारों को विराम देते हुए कहा।

रात्रि का गहन अंधकार समस्त सरोवर एवं हिमश्रंगों को अपने आंचल में छुपा चुका था। सहस्त्रनाग द्वीप ढेर सारे प्रकाशमान् दीपको से जगमगा रहा था। वातावरण में तीक्ष्ण शीत लहर तीव्र हो चुकी थी। शीत लहरों से उद्वेलित क्षीर  सागर में तरंगे उठ रही थी ।

रात्रि का चतुर्थ  प्रहर व्यतीत हो चुका था। समस्त नगर शान्त मौन था। दूर तक फैले राजपथ सुनसान  थे। राजपथ के किनारों पर लगे दीपों का  पीतप्रकाश राजपथों को स्वर्णिम प्रकाश से नहरा रहा था। अम्बर में अनगिनत नक्षत्र एवं तारे टिमटिमा रहे थें। नगर के मध्य  मुख्य चतुष्पथ पर स्थित राजप्रसाद विभिन्न रंगों के प्रकाश से आलोकित था। राजप्रासाद के गवाक्षों से विभिन्न प्रकार  के प्रकाश का निर्झर बह रहा था।  प्रासाद के सर्वोच्च  स्वर्णकलश दीप  प्रकाश से चमक रहे थे। नगर के मुख्य द्वार बंद थे  एवं प्राचारों से रक्षक योद्वा  नगर तक पहुंचने वाले मार्गो पर त्राटक साधे थे। 

सहसा  पश्चिम द्वार  के प्रहरियों ने कुछ जटिलों को नगर की ओर आगमन करते देखा । ये जटिल रामनामी ओढे , ज़टाजूट बांधे तीव्र कदमों से नगर की ओर बढ़ रहे थे। यद्यपि  प्रहरी सजग थे तथापि  रात्रि के तृतीय प्रहर में जटिलों का आगमन उनकी मेधा में तर्क से परे था। जटिल एक  - एक मार्ग दीपस्तम्भ से गुजरते मुख्य द्वार की ओर बढ़ रहे थे।

'' सावधान । '' सहसा  मुख्य प्रहरी की कठोर  वाणी  हवा में गूंजी ।

जटिलों का समूह रुक गया।

द्वार में स्थित एक छोटे से पट को खोले कर मुख्य प्रहरी अपने तीन  अनुचरों सहित बाहर निकला ।

'' इस समय आने का प्रयोजन ?'' मुख्य प्रहरी ने बेधती  दृष्टि से जटिलों के समूह में सबसे आगे  खडे सुडौल काया के स्वामी , नेतृत्वकर्ता जटिल से प्रश्न किया।

'' हम नैमिषारण्य से सुतीक्ष्ण मुनि के शिष्य है एवं महामना देवगुरु बृहस्पति से आशीर्वाद प्राप्ति हेतु आए है'' उस जटिल ने प्रत्युत्तार दिया '' महाभाग के पास कोई परिचय चिन्ह ?'' प्रहरी  का स्तर अब अपेक्षाकृत  कोमल था।

आगे खड़े जटिल ने अपनी हथेली पर रखी एक मुद्रा सामने  की । प्रहरी ने मुद्रा को दोनों तरफा से देखा, परखा तत्पश्चात् द्वार की ओर संकेत किया।

 जटिलों  का समूह  द्वार  के भीतर  प्रवेश कर गया। चतुर्थ प्रहर  समाप्त होने जा रहा था। पूर्व दिशा में उषा अपने आगमन का संकेत दे रही थी। जटिलों के समूह की गति में कोई अंतर नहीं था। वे राजपथ पर तीव्र गति से राज प्रासाद  की ओर बढ़ रहे थे।

राजप्रासाद की विशालकाय जगमगाती प्राचीर के मध्य स्वर्ण मंडित भव्य द्वार पर पहुंचते ही जटिलों ने  तीन बार करतल ध्वनि की । कुछ ही पल में प्राचीर से एक युवक चपलता पूर्वक नीचे उतरता दृष्टिगोचर हुआ।

नीचे उतरते युवक ने इधर - उधर रहस्यमयी दृष्टि से देखा। तत्पश्चात जटिलों के नेतृत्वकर्ता के पास जाकर धीरे से अभिवादन किया। साथ ही एक संकेत प्रसारित किया और द्वार को आधा खोल दिया गया।

जटिल राज प्रसाद में प्रवेश कर गए। सम्पूर्ण राज प्रासाद के प्रांगण में विभिन्न प्रकार के सुंगन्धित पुष्पाें की महक फैली थी। छोटे -छोटे चतुष्पथों पर जल अभिसिंचन यंत्रो से फुहारें गिर रही थी। जटिल समूह इन्हें पार करता हुआ  राजप्रासाद की मुख्य डयौढ़ी क़े भीतर समा गया। राजप्रासाद की डयौढ़ी पार करते ही सामने खडे दो रक्षकों ने जटिलों को  विनम्रता पूर्वक अभिवादन करते हुए कहा -

''महाराज विश्राम कर रहे है, फिर अरुणोदय तक आप सभी यही रुके ।''

किन्तु प्रत्युतर में सबसे आगे चल रहे जटिल  ने पलक झपकते ही उन दोनों के शिरच्छेद  कर दिए। उसके हाथ में  पलभर में चमका कटारनुमा शस्त्र पुन: वस्त्रों में छुप चुका था। राज प्रासाद के विभिन्न वीथिकाओं को पार करते हुए मध्य में स्थित श्वेत पाषाण निर्मित वीथिका मे प्रविष्ट हो गए । यह वीथिका लगभग दो सौ  गज तक लम्बी थी एवं सम्पूर्णत: अत्यंत दुर्लभ कोटि के श्वेत पाषाण से निर्मित थी। वीथिका के तल पर पांव रखते ही शीतलता का भान होता था। वीथिका की छत में विभिन्न प्रकार के मध्दम प्रकाश वाले दीप प्रकाशित थे। वीथिका में प्रत्येक पांच गज की दूरी पर एक एक स्वर्णमंडित  धूपदान था। जिससे सुगंधित धूम्र सम्पूर्ण वीथिका को सुवासित किए हुए था।

वीथिका अंत में वामपक्ष  की ओर मुड़ती थी  वहां एक यक्ष की नग्न प्रतिमा स्थापित  थी जिसको देखने पर वह साक्षात् प्रतीत होती थी।  उस विशालकाय प्रतिमा   के नेत्र रक्तिमवर्ण के एवं भयानक थे।  भ्रू तने  हुए  व क्रोधित मुद्रा में थे।  उसकी ग्रीवा में स्वर्ण भूषण  थे एवं कमर में स्वर्ण मेखला थी । उस यक्ष के एक हाथ में एक चमकता हुआ  पारिध व  दूसरे हाथ में एक पाश था।  उसके चरणतल में रक्त पुष्प अर्पित थे।

उस मोड़ से मुड़ते ही देवराज इन्द्र के शयन कक्ष का मुख्य द्वार था। जटिलों का समूह जैसे ही यक्ष  प्रतिमा  तक पहुंचा उस प्रतिमा के पृष्ठ भाग से एक युवक बाहर निकला ।

'' महाभाग बृहस्पति ने अभिवादन भिजवाया है, दैत्यपति '' उस युवक ने शीष झुकाकर  अभिवादन  किया।

''दैत्यराज बली का अभिवादन देवगुरु को दें  '' सबसे आगे चल रहे सुडौलकाय के स्वामी दैत्य राज बली ने हंसकर प्रत्युत्तार दिया।

''दैत्यराज को व्यवधान तो उपस्थित नहीं हुआ ?''

'' नहीं महाभाग, प्रस्थान से पूर्ण नियोजन प्रभारी मुझे अवगत करा चुके थे।''

''देवराज के शयनकक्ष की अर्गला की गुप्त कुंजी इस यक्ष प्रतिमा का पारिध  है''

''ठीक है'' दैत्य राज बली खड्ग निकाल चुका  था। तत्पश्चात समूह के शेष सदस्यों, जो कि दैत्यराज बली के विश्वस्त अनुचर एक मुख्य सेनानायक थे, की ओर मुड कर कहा-

'' आप महानुभाव इस राज प्रासाद के सर्वोच्च गवाक्षों पर कब्जा करें । अरुणोदय में कुछ पल शेष है। अरुणोदय के साथ ही दैत्यराज बली द्वारा देवराज के परास्त होने का संदेश एवं दैत्यों के विजय की घोषणा करनी है।''

दैत्राज बली का गंभीर स्वर वीथिका में गुंजायमान था।

'' अधीश्वर को संकेत की हम प्रतीक्षा करेंगें'' समूह से एक वीर ने विनम्रता से कहा  एवं  चपल गति  से समूह सदस्य गवाक्षों की ओर प्रस्थान कर गए।

अब वीथिका में मात्र दैत्यराज  बली एवं वह युवक रह गए थे।

''देवराज का शिरोच्छेद उचित नहीं होगा दैत्यराज '' युवक ने विनम्रता  से कहा ।

'' वीर मतामत में नहीं उलझते युवक ''

''किन्तु देवगुरु का मत है कि इन्द्र का वध उचित नहीं है।''  युवक की वाणी में उद्वेलन था।

''वह मेरा बलीपशु  है युवक ''

''फिर अनुचर देवगुरु के आदेश का उल्लंघन नहीं कर सकता '' कहते हुए उस युवक ने खड्ग़ निकाल लिया ।

'' यदि यही अन्तिम विकल्प  है तो ठीक है दैत्यराज'' अविलम्ब  उस युवक का धड़ भूलुठ्ठित हो चुका था।

दैत्यराज बली ने यक्ष प्रतिमा के हाथ में स्थित पारिध को चक्राकार घुमाया  और देवराज के शयन कक्ष का द्वार अनावृत हो गया। दैत्यराज बली एक हाथ में खड्ग लिये तेजी से भीतर पैठ गया।

अत्यन्त दुर्लभ एवं बहुमूल्य  आमोद प्रमोद एवं भोग विलास की सामग्री से सुसज्जित इस कक्ष में कोई नहीं था।

''देवराज , पराजित हुए हैं। पाताल नरेश बली उन्हें चुनौती देता  है व युद्व की याचना करता है।''

दैत्यराज बली की वाणी कक्ष  में गूंज रही थी मगर कोई प्रत्युत्तार नहीं था।

कुछ पल प्रतीक्षा के पश्चात दैत्यराज ने पूर्वाभिमुख गवाक्ष के पट खोल दिए एवं स्वयं वहां खड़ा हो गया । भानुरश्मियों ने नगर पर अपनी कृपादृष्टि  डाली  थी। दूर तक फैला प्रांगण , उसमें विभिन्न प्रकार के पुष्प एवं वृक्षावली , मनोहारी उधान दृष्टिगोचर हो रहे थे। मंदिरों में हो रही शंखध्वनियां वातावरण को गुंजायमान कर रही थी।

दैत्यराज ने पासंग गवाक्षों पर दृष्टिपात किया। वहां दैत्यवीर घोषणा को उधत  खड़े थे।  दैत्यराज ने अपनी कमर में बंधा सिंघा निकाला और जोर से फूंक दिया। सिंधे की ध्वनि सम्पूर्ण राजप्रासाद व दूर तक वातावरण कंपित करने लगी । यह देख शेष गवाक्षों मे खड़े वीरों ने भी सिंधा फूंका । देखते ही देखते  सम्पूर्ण नगर में विभिन्न वेशों में छुपे दैत्य सैनिक  जो कि कई दिनों से अमरावती में प्रवेश करते जा रहे थे शस्त्रादि के साथ निकल आए एवं छद्म वेश त्याग कर विभिन्न महत्वपूर्ण स्थानों पर अधिकार करने लगे। यत्र तत्र सर्वत्र दैत्य सैनिक बिखर चुके थे। कुछ स्थानों पर उन्हें देवसेना के प्रतिरोध का सामना  करना पड़ा तथापि  समस्त घटनाक्रम  पूर्व नियोजित होने के कारण मात्र एक प्रहर में अमरावती पर अतिक्रमण कर लिया । नगर के मुख्य द्वार खोल दिए गए एवं दैत्य सेना जो आस पास के सघन वनों में संकेत की प्रतीक्षारत् थी, नगर में प्रवेश करने लगी।

गवाक्षों को ध्वनि विस्तारक यंत्रों से  जोड़ दिया गया । एक प्रहर चढ़ते चढ़ते स्वर्ग पर दैत्यकुल का ध्वज  लहरा रहा था। दैत्यराज ने भीषण अठ्ठाहास करते हुए कहा -

''सब कोई सुने! मै पाताल नरेश दैत्यराज बली सम्पूर्ण देवभूमि एवं अमरावती को विजित कर स्वयं को एकराट्  घोषित करता हूं। आज से सम्पूर्ण पृथ्वी दैत्यों की हुई एवं दनुवंश श्रेष्ठ घोषित हुआ। प्रतिरोध नहीं करने वाले को अभय एवं प्रतिरोध करने वाले का शिरोच्छेद ।स्वर्ग के सिंहासन पर दैत्यवंश की स्थापना के पश्चात् मैं स्वयं को इन्द्रसेन घोषित  करता हूं''

दैत्यराज बली की घोषणा के साथ ही सम्पूर्ण नगर की गली  वीथियों में सिंघों का ध्वनि गर्जन होने लगा। राज प्रासाद के मुख्य गवाक्ष में एक हाथ में खड्ग लिए खड़े अद्भुद एवं सुंदर काया के स्वामी योध्दा दैत्यराज बली की वाणी सम्पूर्ण नगर में प्रसारित हो रही थी। शीतल समीर से दैत्यराज की केशराशि अठखेलियां कर रही थी।   

 

(क्रमश:)

- अरविन्द सिंह आशिया
नवंबर 1, 2007

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