मुखपृष्ठ कहानी कविता | कार्टून कार्यशाला कैशोर्य चित्र-लेख |  दृष्टिकोण नृत्य निबन्ध देस-परदेस परिवार | फीचर | बच्चों की दुनिया भक्ति-काल धर्म रसोई लेखक व्यक्तित्व व्यंग्य विविधा |   संस्मरण | साक्षात्कार | सृजन डायरी | स्वास्थ्य | साहित्य कोष |

 

 Home | Boloji | Kabir | Writers | Contribute | Search | FeedbackContact | Share this Page!

 


अंतिम
योद्धा          

भाग -8 

( अभी तक आपने पढ़ा ---- देवगुरु बृहस्पति के आमंत्रण पर दैत्यराज बली ने श्रीहीन इन्द्र को पराजित  कर अमरावती पर अधिकार कर लिया एवं स्वर्ग के द्वार दैत्य सेना के लिए अनावृत कर दिए गए। सम्पूर्ण नगर पर दैत्यों का अधिकार हो गया। तभी शुक्राचार्य कई भैंसों की बली देते हुए राजप्रासाद तक पहुंचे एवं दैत्यराज बली का अभिषेक कर उन्हे इन्द्र घोषित किया। कूटनीतिज्ञ व लालची  दैत्यराज ने अपनी भूमिका समाप्त करने की जगह स्थायी प्रभुत्व के स्वप्न देखना शुरु किया तब देवगुरु बृहस्पति आदि समस्त देवगणों के प्रतिनिधि  पौरुषपति विष्णु से सहायता प्राप्त करने पहुंचे। अब आगे --------)

''तो वही हुआ जिसकी आशंका  थी'' दिव्य पुरुष विष्णु के मुखमंडल पर चिन्ता की रेखाएं स्पष्ट थी। देवगुरु बृहस्पति, तमाम मरुतों के प्रतिनिधि  चिकित्साधिपति अश्विन कुमार एवं यम, वरुणादि की उपस्थिति समय की गंभीरता को प्रकट  कर रही थी।

''इस निमंत्रण से पूर्व ही मैंने  देवगुरु  को इस आशंका के प्रति सचेत  किया था।

      ''इन्द्रपुरी का वैभव किसे आकर्षित नहीं करता ?'' विष्णु की वाणी  उस कक्ष में प्रतिध्वनित हो रही थी।  ''फिर दैत्यों में लोकतंत्र एवं व्यक्तिगत स्वतंत्रता का कोई स्थान नहीं है वहां बलवान् ही सर्वोपरि है अत: यथेष्ट बल के आधार पर अतिक्रमण उनकी संस्कृति है''

''किन्तु महामना........'' बृहस्पति ने कुछ कहने का प्रयत्न किया।

''नहीं वाचस्पति...... अब विलम्ब  हो चुका है'' परम पुरुष विष्णु ने अपनी भुजा उठाते हुए कहा। ''समस्या का निवारण  इतना आसान नहीं है जितना आप समझ रहे है क्योंकि दैत्यराज बली की धन एवं राज्यलिप्सा असीम है फिर सर्प के संहार हेतु नर्क कों आमंत्रण विंहग के अंडों की असुरक्षा का भी द्योतक है''

''यद्यपि  दैत्यराज ने वचन  दिया था.........'' देवगुरु ने पुन:  हस्तक्षेप  का प्रयत्न किया।

''वचन ? जिनकी आस्था मूल्यों और जनतंत्र  में नहीं है उनके वचनों की प्रामाणिकता क्या है महामने ?''विष्णु ने कटाक्ष करते हुए कहा।

''हम देवसेना को गुप्त संदेश भेज कर एकत्र करने का प्रयास करे तत्पश्चात अमरावती पर पुन: अधिकार का प्रयत्न करें '' मरुतों का सीधा समाधान उपस्थित था।

''अवश्य, प्रयास करें।'' विष्णु ने स्मित हास्य से कहा।  ''किंतु दैत्यों की शक्ति एवं दैत्यराज की  असीम  लिप्सा  के सम्मुख जय आकाशकुसुम है मरुत नेतृत्वकृर्ता''

''कदाचित्...... ''यम ने हस्तक्षेप  किया। ''हम किंकर्तव्य विमूढ है भगवन्। मैं यधपि इन्द्र का अनन्य मित्र  हूं तथापि  उसके युगदृष्टा नहीं होने एवं इन्द्रिय लोलुप होने से आसन्न संकट में देव प्रजाति के ही साथ हूं। दैत्यराज अत्यन्त पराक्रमी है एवं देव एवं दैत्यसेना में युद्व निष्चित ही देवताओं के पक्ष में विजय श्री नहीं देगा। अत: कूटनीति ही एकमात्र सहारा है।'' वरुण ने गम्भीर स्वर में कहा।

''मुझे लगता है महात्मा वरुण  के विचार श्लाघनीय है। यह समय देव प्रजाति को और अधिक प्रताड़ित करने का नहीं है। वैसे भी दैत्यराज द्वारा स्वयं को इन्द्रसेन घोषित करने के पश्चात् सम्पूर्ण नगर में भय का वातावरण है। अबाल वृध्द किसी अज्ञात भय से भयभीत है । देवसेना  छिन्न भिन्न है। अत: अत्यन्त कूटनीतिक चाल द्वारा ही दैत्यराज को विवश किया जा सकता है।'' देवगुरु बृहस्पति ने इस संवेदनशील समय की जटिलता को दृष्टिगत रखते हुए कहा।

''ठीक है......रात्रि का तृतीय प्रहर व्यतीत हो रहा है आप समस्त देव विश्राम करें।'' परम पुरुष विष्णु ने  अधरों पर हास्य बिखेरते हुए कहा।

      शीघ्र ही सभा समाप्त  हो गई। अगले सम्पूर्ण  दिवस  विष्णु के दर्षन नहीं हुए। मात्र वाचस्पति  इतना ज्ञात कर सके कि महाभाग विष्णु किसी गुप्त कार्यवाही में लिप्त है एवं इसकी गोपनीयता अत्यंत महत्वपूर्ण है।

''लक्ष्मीपति से कोई वार्ता नहीं हुई '' वरुण भी  अधीर  थे। 

''यह समय देव प्रजाति  पर संकट  का है एवं केवल महाभाग विष्णु ही इससे मुक्त करवा सकते है''

देव प्रतिनिधि समस्त दिवस सहस्त्रनाग द्वीप  के सुरम्य स्थलों पर भ्रमण करते रहे।  सूर्यास्त का समय हो गया था। क्षीर सागर से राजमार्ग के तटबंधों तक जाने वाली नौकाएं  निर्धारित क्रमानुसार लौट रही थी। संध्या आगमन के साथ ही सहस्त्रनाग द्वीप झिलमिलाने लग गया था। देवप्रतिनिधि रात्रि भोज हेंतु भोजन कक्ष में आमंत्रित थे किन्तु भोज से पूर्व दौरान व पश्चात दिव्यपुरुष विष्णु की उपस्थिति का कोई प्रमाण उन्हें प्राप्त नहीं हुआ। उस रात्रि भोज के समय समस्त अतिथि मौन अपना भोजन ग्रहण करते रहें। समस्त भोजन कक्ष में एक अशान्त शान्ति छाई हुई थी। रह- रह कर भोज्यपदार्थो पर चमकती रक्तिम रश्मियों के प्रतिबिम्ब से अतिथियों के मुख देदीप्यमान हो उठते थे। उस क्षणांष के घटनाक्रम के पश्चात पुन: कुछ झिलमिलाता प्रकाश शेष रह जाता ।

      भोजन कक्ष से अपने शयन कक्षों तक पहुंचने के क्रम में भी मौन छाया रहा। कदाचित् हर कोई अमरावती के भविष्य को लेकर आशंकित था।

      एक विशिष्ट वृत में निर्मित शयन  कक्ष पटाक्षेप होते ही निष्चित गति से घूर्णन करते हुए भूगर्भ में पैठने लगे। उक्त क्रिया शयनकक्षों में उचित ताप बनाए रखने हेतु  आवष्यक थी। यद्यपि शयनकक्षों वाला वह वृत, जिसमें षताधिक शयनकक्ष थे अत्यंत तीव्रता पूर्वक घूर्णन करते हुए नीचे पैठ रहे  थे  तथापि शयन कक्षों के भीतर किसी  भी प्रकार की हलचल अनुभव नहीं हो रही थी। शयन कक्षों में ऐसा प्रतीत होता मानो वे पृथ्वी पर स्थित सामान्य भवन के शयन कक्ष हों।

      उक्त विशालकाय वृत अन्ततोगत्वा पृथ्वी के अन्दर रसातल  परत तक पहुंच गया जहां धातुएं पिघली हुई अवस्था में थी। यधपि वहां का तापमान अत्यन्त भीषण था एवं धातुओं की चमक चौंधिया देने वाली थी। वहां मानो विभिन्न रंगों के उबलता समंदर था तथापि शयन कक्षों की भितियां अत्यंत जटिल वैज्ञानिक बनावट की थी। उस धातुओं के उबलते सागर में से आवष्यक तापमान एवं प्रकाश ही शयनकक्षों के भीतर पहुंच पाता था।

      शयन कक्षों के भीतर की समस्त व्यवस्थाएं बाह्य तापमान को उर्जा में परिवर्तित कर पूरी की जाती थी । इस रुपान्तरण हेतु शयनकक्षों की भित्तियों में असंख्य सूक्ष्म यंत्र थे जो अत्यंत भीषण तापक्रम को सहन कर आवष्यक उर्जा में रुपांतरित करने में सक्षम  थे।

निर्धारित तल तक पहुंच कर शयन कक्षों के वातायनों से रंगबिरंगी झिलमिलाहट सम्पूर्ण कक्ष के वातावरण  को आह्नादमय बनाने लगी । इस झिलामिलाहट व  मादक संगीत से शीघ्र ही अतिथि  निद्रा के आंचल में विश्राम लीन हो गए।

      जब प्रात: वेला अतिथियों का जागरण हुआ तब तक शयनकक्ष पुन: भूतल पर आ चुके थे एवं भानु रश्मियां उनके शयन कक्षों के भीतर जगमगा रही थी। दो प्रहर बीतते- बीतते समस्त देव प्रतिनिधि  विशाल गुम्बदनुमा सभाकक्ष में एकत्र हो चुके थे एवं सम्मुख एक ऊंचे आसन पर परम पुरुष विराजमान थे।

''हम एक प्रहर पश्चात् अमरावती की ओर प्रस्थान करेंगे समस्त अतिथिगण तटबंध पर उपलब्ध  वाहनों से अपने गंतव्य की ओर  चलें।'' विष्णु ने गंभीर स्वर में कहा।

''महामना वाचास्पति यदि मुझे सखाभाव प्रदान करें तो अनुकम्पा  होगी'' विष्णु ने स्मित हास्यपूर्वक देवगुरु  की ओर देखा।

'' यह मेरा सौभाग्य है तात् '' देवगुरु करबद्व अपने आसन से खड़े  हो गए।

      तृतीय प्रहर तक अतिथिगण प्रस्थान कर चुके थे। मात्र परम पुरुष विष्णु एवं देवगुरु बृहस्पति शेष थे।

''तात् ने क्या उपाय खोजा है ?'' तरणि पर आरुढ़ होते हुए ब्रहस्पति ने विष्णु से प्रष्न किया।

''वाचस्पति बुद्विमान है'' विष्णु मुस्करा उठे।

 ''तात् का अनुगामी हूं'''

''हर युद्व शस्त्र से नहीं जीता जा सकता देवगुरु ।''

'''सत्य है तात्।''

''फिर इस समय देवसेना श्री विहीन है''

''................................''

''सो लौह को लौह से काटना ही उपयुक्त रहेगा''

      बृहस्पति मौन साधे बैठे रहे और विष्णु भी इससे अधिक कुछ नहीं बोले। तरणि राजपथ तक पहुंच चुकी थी। तटबंध पर परम श्रेष्ठ विष्णु ने देवगुरु भुजावलम्ब प्रदान किया एवं प्रतीक्षारत् रथ पर आरुढ़ हो गये। रथ द्रुतगति से अमरावती की ओर चल पड़ा । क्षीर सागर के पासंग हिमश्रंग अब पीछे छूट गए थे। वन क्षेत्र पार करते- करते रात्रि का दूसरा प्रहर व्यतीत हो चला था।

      सघन वन क्षेत्र में अन्धकार के मध्य विशाल वृक्षावली रोमांचित करने वाली प्रतीत हो रही थी । कहीं किसी खग के पंखो की फड़फडाहट  सहसा ही रात्रि की निस्तब्धता को चीर देती मगर इससे  न अष्वों की गति प्रभावित होती और न ही रथारुढ़ महातेजवान् पुरुष।

      सहसा व्योम में एक तीव्र एवं चमकीला प्रकाश फैल गया। ऐसा प्रतीत हो रहा था मानों रजत् तारों का निर्झर नभ में बहचला है। सहसा वे तारे स्वर्णिम् हो गए तत्पश्चात अचानक समाप्त हो गए।

''सम्ब । तनिक रथ को विराम दो '' व्योम में हुए इस सहसा घटना क्रम को देख विष्णु ने सारथि से कहा।

सम्ब ने अष्वों की रश्मियां ढीली की । अश्वो की गति थम गई । बृहस्पति चकित से समस्त दृष्य को देख रहे थे। विष्णु मौन, रथ से उतर पड़े एवं घने वन मे ओझल हो गए। सम्ब प्रतिमा सा रथ पर विराजित् था।  सम्पूर्ण वातावरण में अंधकार व्याप्त था। वन्य पशुओं के रुदान, गुर्राहट  एवं चीत्कार से रह - रह कर वन गूंज उठता था।

      अपने सम्पूर्ण जीवन काल में देवगुरु ब्रहस्पति में प्रथम बार स्वयं को भयभीत पाया । उनके भाल पर इस कठोर शीत में भी स्वेद बिन्दु उभर आए। उन्हें लगा, कदाचित इसीलिए दैत्य, विष्णु को मायावी कहते है। कदाचित् विष्णु की विज्ञान मेधा के दैत्य पासंग भी नहीं है। पल - पल एक युग सम प्रतीत हो रहा था। सहसा रथ के दक्षिण पक्ष में जिस ओर विष्णु ओझल हुए थे एक भयावह विस्फोट हुआ ऐसा लगा मानो सम्पूर्ण वन कांप उठा हो । पृथ्वी कम्पायमान हो गई। अश्व उछलने लगे सम्ब के नेत्रों में भी अब भय था। अचानक विशाल अग्निपुंज विस्फोट की दिशा में  अवतरित हुआ एवं देखते ही देखते गगन में उठने लगा। उस अग्निपुंज  के तीव्र प्रकाश में वन मार्ग, रथ, अश्व सभी नहा गए। बृहस्पति के नेत्र चौंधिया गए। वे भयाक्रान्त नेत्रों से उस भयानक अग्निपुंज को व्योम में तीव्र गति  से उपर उठते देखते रहे । सहसा वह अग्नि पुंज फट गया और उसमें से अनगिनत चमकीले तारे व्योम बिखर गए।

      देवगुरु बृहस्पति इस अद्भुद एवं लोमहर्षक दृष्य को देखते रहे। धीमें धीमे वे तारे अस्त होते गए एवं शीघ्र ही सम्पूर्ण वन पर पुन: अंधकार की चादर छा गई । एक शाश्वत मौन पुन: वन के घने होने की साक्ष् देने लगा। देवगुरु की वाणी अवरुद्व हो चुकी थी। उनका सम्पूर्ण शरीर कांप रहा था एवं मुखमण्डल स्वेदकणों से भीग गया था।

अचानक पदचाप सुनाई दी । सामने परम श्रेष्ठ विष्णु आ रहे थे। उनके होठों पर चपल हास्य था मानो वे अभी-अभी किसी खिलौने से मनोरंजन कर आ रहे हो।

 विष्णु ने रथारुढ़ होते हुए कहा -

''सम्ब, प्रस्थान करें''

सम्ब मानों आज्ञा की प्रतीक्षारत् था। अश्व पुन: वायुवेग से भागने लगे। मार्ग अष्वों की टापों एवं रथ के चक्रों की गड़गड़ाहट से गूंज रहा था।

विष्णु मौन साधे रथ में अपने आसन पर निर्लिप्त भाव से विराजमान्  थे। रात्रि के अन्तिम प्रहर के समाप्त होते होते रथ अमरावती में प्रवेकर गया।

''देवगुरु विश्राम हेतु अपने आलय की ओर प्रस्थान करे'' विष्णु ने बृहस्पति की ओर देख कर कहा।

पूर्व दिशा में उषा की लालिमा स्पष्ट थी।

''क्या तात्........?''

''हां, महामने मैं दैत्यराज से एकांत  में कुछ वार्ता करना चाहता हूं।''

''जैसी देव की इच्छा मैं इसी चतुष्पथ पर उतर जाता हूं इस मार्ग से मेरा गृह अधिक दूर नहीं हैं ''बृहस्पति ने अत्यंत श्रद्वा एवं विनीत भाव से कहते हुए सम्ब को रथ रोकनें का संकेत किया।

      बृहस्पति के उतरते ही विष्णु ने कहा  ''सम्ब, रथ को सीधे देवराज के मुख्य महल तक ले चलो ध्यान रहे यदि कोई रोके तो यह ष्वेत चिन्ह दिखला देना।''

रथ अमरावती के राजप्रासाद की ओर बढ़ चला था। और विष्णु मौन, गहन चिंतन में थे उनके मुखमण्डल पर गांभीर्य था।

   (क्रमश:)

- अरविन्द सिंह आशिया
नवरी 26, 2008

भाग - 12 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12

Top

Hindinest is a website for creative minds, who prefer to express their views to Hindi speaking masses of India.

 

 

मुखपृष्ठ  |  कहानी कविता | कार्टून कार्यशाला कैशोर्य चित्र-लेख |  दृष्टिकोण नृत्य निबन्ध देस-परदेस परिवार | बच्चों की दुनियाभक्ति-काल डायरी | धर्म रसोई लेखक व्यक्तित्व व्यंग्य विविधा |  संस्मरण | साक्षात्कार | सृजन साहित्य कोष |
 

(c) HindiNest.com 1999-2021 All Rights Reserved.
Privacy Policy | Disclaimer
Contact : hindinest@gmail.com