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पिता
पिता मरा नहीं करते
वे अपने बच्चों में जम जाया करते हैं
जैसे चिड़ियों के पंखों में जम जाता है आकाश
पर्वतों पर जम जाते हैं पत्थर और कंकड़
और नदियों में जम जाता है बांध बनाने वालो का पसीना
पिता के नहीं होने पर भी पिता की उपस्थिति रहती है हमारे आस पास। हमारे
जन्म लेने से पहले पिता हमारे स्वागत को तत्पर रहते हैं। पिता के जाने के
बाद पिता भी पिता जा नहीं पाते। रह जाते हैं।
घड़ी कभी नहीं सोती है..रात के बारह बज चुके थे। रात अपनी सम्पूर्ण
गर्भावस्था पर थी, कुछ ही घंटो मे सूर्य को जन्म देने को तैयार। दुनिया आधी
नींद कर चुकी थी पर पापा ....पापा मेरी आधी गीली यूनिफार्म को प्रेस से
सुखा रहे थे ,अगले दिन के स्कूल के लिये, सर्दियो मे कपड़े कहाँ इतने जल्दी
सूखते है...हैंगर पे टाँग कर कपड़ो को लगा कर ,आधी खिसकी रज़ाई को मुझपर उड़ा
कर तब सोते थे। पापा की रातें अक्सर आधी रात के बाद शुरू होती थी, जब तक कि
वो इत्मिनान ना कर लेते थे कि अगले दिन की सब तैयारियाँ हो चुकी है। हर
सुबह 6 बजे अलार्म बजता था । आँखे खुलती तो माँ पापा दोनो व्यस्त ही नज़र
आते थे हमारे स्कूल की तैयारियों में, जब तक नहा के निकलो तब तक टेबल पर
दूध के दो गिलास और चार अंडे रखे ही मिलते थे मेरे और भाई के लिये। साईकिल
के आगे भाई को और पीछे कैरियर पर मुझे बैठाकर हवाई चप्पल पहने हुये पैडल
मारते हुये बढ़े चले जाते थे स्कूल की तरफ गर्व से सीना ताने,सपने बुनते
हुये कि आज के उनके काले रतजगे हमारे जीवन को सोना बन चमकायेंगे एक दिन।
छुट्टी के वक्त स्कूल के गेट पर ऐसे खड़े रहते थे जैसे उनका सम्मान करने के
लिये अभी उन्हे स्टेज पर बुलाया जायेगा। हम दोनो को सोने के दमके सा सहेज
के घर वापस लाया करते थे। दोपहर का खाना हम संग ही खाते थे। माँ की बीमारी
ने पापा की ज़िम्मेदारियाँ दुगनी कर दी थी।
दाल,चावल,सब्ज़ी और मछली ...एक बंगाली थाली में और क्या चाहिये था...मन और
पेट भर खाते थे।दोपहर को हमें खाना खिलाकर, माँ को दवाई दे लौट जाया करते
थे अपने बिजली विभाग में। उन दिनो सर्दियों की दोपहर भी सुरंग जैसी होती
थी। आजकल के भागमभाग मे पता ही नही चलता दोपहर और शाम मे अन्तर। ठीक शाम
सात बजे दरवाज़े पर दस्तक से पता चल जाता था कि पापा आ चुके है। कभी
मूँगफली, कभी गजक, कभी खजूर ....कुछ ना कुछ ज़रूर लाते थे और बाँट देते थे
बराबर हम सब में। पापा हमेशा खादी का सफेद कुर्ता पजामा पहनते थे।एक दाग तक
नही होता था उनके कपड़ो पर ।
स्वाभिमान का पाठ पढ़ाते पढ़ाते कई बरस और कई सूरज लाँघे जा रहे थे पापा।
हमारी हर इच्छाओं को अपना उद्देश्य मान पूरा किया करते थे। उनके कुछ बाल
सफेद होने लगे थे। उधर मै स्कूल की सीमा लाँघ कालेज और दोस्तो मे जा घुली।
अब पापा थकने लगे थे पर एहसास नही होने देते थे। कोई तिजोरी तो ना थी पापा
के पास पर हाँ एक ब्रीफकेस ज़रूर था जिसमे हमारे हर कक्षा के रिज़ल्ट,
क्लास फोटो, सर्टिफिकेट्स, मेडल्स आदि सब सम्भाल कर रखते थे...यही पूँजी थी
उनकी। अक्सर मुझसे कहते थे कि मेरे जन्म पर खूब तेज़ बारिश हुई थी ओले भी
गिरे थे 31 दिसम्बर की वो ठिठुरती रात मे मुझे रुई में और गर्म कपड़ों में
लपेट कर सीने से घंटो लगाये रखा था। रात में भी मेरा चेहरा चमकता था सो नाम
रख दिया ज्योत्स्ना जिसका मतलब चाँद की रोशनी है। गर्व है मुझे अपने नाम पर
जो मुझे मेरे पिता से मिला। वक्त किसी के लिये नही ठहरता । बड़े हो चुके थे
हम। शादी हो गयी और पिता से अलग हो गयी। नियम जो था निभाना पड़ा मुझे
भी।वक्त एक सा कभी ना रहा। जिस पिता ने जन्म दिया , पाला पोसा, पढ़ाया
लिखाया, हर खुशियों से नवाज़ा ... उस ईश्वर के अंतिम दर्शन भी ना कर सकी
मै।
काफी बीमार थे उन दिनो पापा .....और मुझे गर्भावस्था में चौबीस घन्टे
बिस्तर पर लेटे रहना था उठने से मना किया था डाक्टर ने। प्लेसेंटा नीचे था।
बैठना मना था। सबने मुझसे छिपा लिया एक कठोर सत्य ताकि मेरे प्रसव मे कोई
दिक्कत ना हो। छब्बीस जून का वो अजगर सरीखा दिन ....जैसे अपने पाश में कस
लिया हो मुझे ....सुबह से ही असहजता महसूस हो रही थी। प्रकाश जब शाम को घर
लौटे तो बोले पापा की तबियत खराब है हास्पिटल मे भर्ती कराया है... लौटते
वक्त कुछ लोग एक अर्थी ले जा रहे थे तो टकरा गया उन्ही से ...सो नहा के
अंदर आँऊगा ...गंगाजल भी छिड़क दो। "पापा को क्या हुआ है...ठीक हो जायेंगे
ना" यही अल्फाज़ निकले होठों से तो तुरन्त जवाब मिला "पागल हो गयी हो क्या
...अशुभ क्यो बोलती हो?" पति के कहे हर बात को मानना नियम होता है औरत का
सो मान लिया। मन विचलित ही रहा। तेरहवी वाले दिन प्रकाश शाम को घर आये तो
हाथ मे एक स्टील का तीन खन वाला टिफिन था....बोले "दोस्त ने भण्डारा कराया
है उसी का प्रसाद है खा लो" ...पहला निवाला खाते ही मैने कहा ,"कितने दिनो
बाद पापा के हाथ का स्वाद चख रही हूँ...ये खाना पापा ने बनाया है क्या?" एक
बार फिर डाँट पड़ी ,"पापा बीमार है खाना कैसे पकायेंगे?" मन नही माना तो भाई
को फोन लगाया । उसने भी ज़ाहिर नही होने दिया कुछ। सभी चाहते थे डीलिवरी के
बाद ही बतायेंगे।कई बातें मन को कचोट रही थी । समझ नही आ रहा था किससे बात
करूँ ....कैसे पहुँच पाऊँ पापा तक....कोई ना कोई कड़ी तो ऐसी थी जो जुड़ी हुई
है मेरे डर से...नौवा महीना...दवाईयाँ...हर वक्त बिस्तर पर रहने की
उलझन....एक तरफ एक सुख और दूसरी तरफ एक डर ....पापा से मिलने को मन व्याकुल
हुआ जा रहा था .... मन व्यथित ही रहता था। एक महीने बाद पुत्र रत्न की
प्राप्ति हुई । ऑपरेशन था तो सब देखने आ रहे थे ....चहुँ ओर
खुशियाँ...तोहफें...फूलों के बुके.....पर नज़र सिर्फ पापा को ही ढूँढ रही
थी ....क्या पापा नही आयेंगे मुझे देखने .....मुझे बताया गया कि पापा काफी
बीमार है.....कमज़ोरी की वजह से चल फिर नही पायेंगे..... ....बोलना चालना
भी छोड़ दिया है। जब भी फोन करती भाई कहता पापा सो रहे है। अभी सवा महीने घर
से भी नही निकल सकती थी....सारी रस्मे सारे कायदे कानून औरतो पर ही लागू
होते हैं ......बेटे की देख रेख मे समय काट लिया.....सवा महीने बाद जब
मायके जाने की रस्म होनी थी तो मैने प्रकाश से कहा एक खादी का कुर्ता पजामा
खरीद लाओ पापा के लिये....जब मिलने जाऊँगी तो पापा को अपने हाथो से
पहनाऊँगी। बहुत खुश थी मै ....जाते ही पापा से लड़ूँगी पहले....फिर पापा
मनायेंगे मुझे जैसे बचपन मे मनाते थे .....थोड़ी देर से ही मानूँगी....और
फिर ढेरों बातें ...कम से कम एक महीना तो रहूँगी ही पापा के पास....इन सब
मे अभी उलझी ही हुई थी कि , अगले ही क्षण वज्रपात हुआ ।
सारी सच्चाई उड़ेल दी गई मुझपर। बता दिया गया मुझे कि पापा नही रहे। तीन
महीने पहले की चल बसे वो। चेतना शून्य हो चुकी थी मैं....अनाथ हो चुकी थी
मैं।
सीने पर जैसे भारी पत्थर रख दिया
हो किसीने.....मेरे पापा अब इस दुनिया मे नहीं.... किस्मत में ऐसा लिखा था
मेरे कभी कल्पना भी नही की थी मैंने.... परिस्थितियों के साथ ढालना पड़ा खुद
को मुझे। टूटने की इजाज़त नही थी..... सामने परिवार.... पीछे थीं तो बस
पिता की यादें ...... पिता कभी नही मरते ना ही कभी सोते है।
पिता समय की तरह होते है जो चलते रहते है बन मेहनतकश सिर्फ एक ही लालच में
कि उनके बच्चे भविष्य की ऊचाईयाँ छू सके। पिता पुल होते है जो हमे सफलता तक
पहुँचाते है। पिता एक चिमनी की तरह हमारे अन्दर से सारी बुराईयाँ निकालते
है। मृत्यु के बाद के जीवन के बारे मे नहीं जानती पर आज मेरा पुत्र का
चेहरा, आदतें , तौर तरीके सब मेरे पिता से मिलती है। रोटी से ज़्यादा चावल
पसन्द है उसे, कुर्ता पजामा शौक से पहनता है, खिलौनों से नही औज़ारो से
खेलता है। पिता हमेशा जीवित रहते है हममें कहीं। हमारे कर्मो मे झलकते है
पिता, पिता एकल नही अपितु एक सम्पूर्ण दुनिया है। मेरे भी पिता मेरे पास
रहेंगे अंत तक।
- जोशना बैनर्जी आडवानी
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