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थैंक यू शांता

अनामिका अनूप तिवारी

मरे की अधखुली खिड़की से सूरज की किरणों ने सुबह का आमंत्रण दे दिया था..
एक और सुबह..हैवानियत से भरी रात की यादों को धूमिल करने के निरर्थक प्रयास के साथ ठंडी हवाएं मेरे जख्मों को सहलाने आ गयी थी..
प्रकृति और पुरुष....दर्द दोनो दे रहे हैं.
पुरूष ज़ख्म देता हैं प्रकृति ज़ख्म सहलाने आ जाती हैं..
अब मुझे फूलों की सुगंध से गंध आती हैं..ईश्वर की हर खूबसूरत कृति कांटो की तरह चुभती हैं, ठंडी हवाएं फूलों की खुशबू के साथ फ़िर मेरा दिल दुखाने आ गयी..जी कर रहा था जोर से खिड़की बंद कर दूं..
हमेशा के लिए
ये अंधेरा ही नियति हैं मेरी.
मेरे जख्मों पर लगी ये दवाइयां.. सुगन्ध तो इनसे आती हैं, ये सीलन भरी दीवारें असल प्रकृति तो ये हैं..आत्मा कराह उठी
"प्रकृति से नफ़रत..तुम अपना मानसिक संतुलन खो रही हो..नित्या यह तुम नही तुम्हारा दर्द बोल रहा हैं, एक बार उठ कर तो देखो, मुक्ति का रास्ता है"
"तुम चुप रहो..तुम मरी हुई हो वैसी ही रहो"
हर रोज मेरी आत्मा मुझसे सवाल करने आ जाती हैं पर मैं जानती हूं इसको कैसे चुप कराना हैं.
भूख लगी थी..उठना चाहा..पर बेबस थी..निर्जीव पड़ी टांगे हिला भी नही सकती थी.
आंखे बंद..लेकिन ये मरी आत्मा जाग रही थी
जो भूख, प्यास, दर्द का एहसास करा देती हैं.
आठ बज़ रहें होंगे..शांता आने वाली होंगी
आज इतनी देर क्यों कर दी?
आज नही आई तो?
नही..नही..आएंगी.. मुझे अकेले नही छोड़ेंगी.. जरूर आएंगी..
अनिनिश्चिताओं से घिरी मैं..
पद्चाप कानो को जाग्रत रखें थे..अभी वो गया नही हैं..उसकी पैरों की आहट भयभीत करती हैं..
डोरबेल की आवाज़..शांता आ गयी
"शांता..मेमसाहब की तबियत ठीक नही है, चाय के साथ दो बिस्किट दे कर ये दवाई दे देना,मैं ऑफिस जा रहा हूं"
गौरव आफिस के लिए निकल गया..
"जी साहब..मैं दे दूंगी, आप फ़िक्र ना करे" शांता ने कहा.
मैं हूं नित्या..गौरव मेरे पति है..और ये है मेरी कहानी...मेरे पति को समाज़ के सामने मेरी फ़िक्र होती हैं, बहुत फिक्र.. वही अकेले में मुझसे बेइंतहा नफ़रत...तीन साल पहले मैं उन्हें सौंदर्य की देवी लगती थी आज वही रूप उन्हें विकृत लगता है..ये विकृति उसने ही दी थी..विवाह पश्चात कुछ समय सब कुछ बहुत सुंदर था ना जाने ज़िन्दगी कब इतनी घृणित हो गयी, उसकी दी हुई शारीरिक पीड़ा का बोझ उठाते मेरे आँसू सूख गए, मेरा वजूद शून्य हो गया हैं, मेरे आत्मविश्वास की लौ को कब का बुझा कर ड्योढ़ी के बाहर रख दिया गया और आत्मा को मैंने मार दिया.. चौबीस घंटो में,आठ नौ घंटे मैं डरी सहमी रहती जाने किस बात पर गौरव मुझ पर नाराज़ हो जाए, उसकी एक आवाज़ पर मैं उसके समक्ष खड़ी हो जाती और वो मुझे ऐसी हालात में देख ख़ुश रहता,अपनी मर्दानगी बिस्तर पर जानवर बन कर निकालता...मज़ाल है मैं उफ़्फ़ भी कर लूं, कल रात फिर उसका वहशी रूप दिखा, नशे में नोंचने खसोटने लगा मैंने थोड़ा प्रतिकार क्या किया साइड टेबल पर रखा पीतल का वास मेरे कमर पर दे मारा, मैं दर्द से तड़प उठी, उसको अपने कृत्य का कोई मलाल नही था मेरे दर्द को अनदेखा कर ख़ुद को तृप्त कर कमरे से बाहर निकल गया, मैं निवस्त्र, शून्य, ज़ख्मी, पीड़ित पड़ी थी,उसे मेरी वेदना का अहसास तक नही था.
"मेमसाहब, चाय पी लो फ़िर ये दवाई खा लेना" शांता चाय, बिस्किट और दवा लेकर खड़ी थी.
"रख दे वही..पी लूंगी" मैंने कहा.
'मेमसाहब, बुरा ना मानो तो एक बात कहूँ ?
हर रोज़ अपने दर्द छिपाती हो, क्या मैं जानती नही? सब समझती हूं..क्यों सहती हो ये सब, छोड़ दो साहब को'
शांता को आज पहली बार क्रोध में देखा, वो कभी इधर उधर की बातें नही करती, आती है और अपना निर्धारित कार्य कर के चली जाती है, उसका आना मुझे बहुत सुकून देता है..लेकिन आज उसका ये रूप मुझे अचंभित कर रहा था.
"मेमसाहब, अगर तुम्हें लगता है साहब आज नही तो कल बदल जाएगे तो ऐसा कभी नही होगा..वो ऐसे ही रहेंगे बस तुम्हें इसकी आदत हो जाएगी, अब तो गली मुहल्ले वाले भी ये किस्सा जानने लगे है"
शांता सहारा दे कर मुझे कपड़े पहनाने लगी और साथ ही अपने दिल का ग़ुबार निकाल रही थी.
"पड़ोसियों के लिए मैं दया की पात्र हो गयी हूं..है ना?" मेरी नज़र उसके चेहरे पर टिक गयी.
"नही मेमसाहब, दया नही आप सब के लिए मज़ाक का केंद्र है, सब हँसते है..कहते है कोई कुछ क्या बोले जब वो ख़ुद मौन रहकर मार खा रही है, गालियां सुन रही है' शांता ने कहा.
"शांता, अपने माता पिता की असहमति को अनदेखा कर गौरव से मैंने प्रेम विवाह किया था जिस कारण मायके वालों ने मुझसे रिश्ता तोड़ लिया, मैं प्रेम में पागल थी, झूठ को सच समझ अपनो से बैर कर लिया, यहाँ से गयी तो कहाँ जाऊंगी, अब तो जैसे भी हो निभाना तो पड़ेगा आखिरकार ये ज़िन्दगी, ये साथी मैंने ख़ुद चुनी है" मैंने गहरी सांस ली.
कुछ देर बाद शांता फ़िर कमरे में आई
"मेमसाहब..अब दर्द कैसा हैं? कुछ आराम मिला"?
पैरों को गर्म पानी से सिंकाई से थोड़ी राहत मिली थी..लड़खड़ाती हुई उठने की कोशिश की..
'पेनकिलर और गर्म पानी से उठने लायक तो हो गयी हूं"
"तो ठीक है..अब एक बार बात करो, माँ बाप नाराज़ हो सकते है अपनी औलाद से मुँह नही फेर सकते, ये लो मेरा फ़ोन, कोई नही है यहाँ..बात कर लो" शांता ने अपना फ़ोन मेरे हाथों में थमाया.
"शांता..क्यों पीछे पड़ी हैं, मेरी कोई सुध नही लेने वाला"
शांता मेरे सामने फ़ोन लिए खड़ी थी..
वो मेरी दलीलों से संतुष्ट नही थी..मेरे पास उसको समझाने का अब कोई विकल्प नहीं था..
कांपते हाथों से नंबर डायल किया..मन में डर था, कही नंबर बदल न गया हो..तीन साल..एक लंबा अरसा हो गया.
"हेलो..कौन बोल रहा है" उधर से आवाज़ आई
माँ की आवाज़ है, हलक सूख गया, मेरी आवाज़ नही निकल रही थी.
"कौन है, किससे बात करनी है..हेलो"
"हेलो, मैं शांता बोल रही हूं" मेरे हाथ से फ़ोन ले कर शांता कमरे से बाहर निकल गई.
मेरा मन व्याकुल हो उठा, वर्षो पश्चात आज माँ की आवाज़ सुन पीड़ामुक्त हो गयी थी, दर्द छूमंतर हो गया था.
"मेमसाहब..आप के माता पिता ने आपको वापस घर आने को कहा है वो लोग आठ बज़े की ट्रेन का टिकट करा कर मेरे फोन पर भेजेंगे तो ये फ़ोन रख लो और ये कुछ पैसे..मैं तुम्हें छोड़ने आऊंगी अगर नही आ पाई तो ये सब अपने पास ही रखों" शांता के आँखों में आंसू थे जिन्हें वो छुपाने की भरसक प्रयास कर रही थी.
"शांता"
"कुछ ना बोलो..मेरी भी दो बेटियां है फिर तुम्हारा दर्द कैसे देख सकती हूं, आज हिम्मत कर लो, उठ जाओ..यह तुम्हारी नियति नही है"
शांता से गले लग मैं फुट फुट कर रोने लगी..
आज बरसों बाद मैं अपनी आंसुओं से मिल रही थी.. दिल में बसी कडुवाहट आंसुओं के साथ बाहर निकल रही थी, विश्वास का दिया फिर जलने लगा ड्योढ़ी से निकल अब मेरे अंदर समाने की कोशिश करने लगा.
"शांता, तुम्हारा ये अहसान मैं कैसे उतारूंगी"
मैंने उसके हाथों को कस कर थाम लिया.
"मेमसाहब..कोई अहसान नही है,नई ज़िन्दगी शुरू करो, डरने वालो को लोग और डराते है, निर्भीक हो कर अपने बिखरे आत्मविश्वास को समेट कर आगे बढ़ो" आज शांता एक कामवाली नही देवी स्वरूपा लग रही थी.
"जब बेटी बनाया है तो नित्या कहो..मेमसाहब नही"
"बेटी ही तो हो मेरी..शाम को मैं पूरी कोशिश करूंगी आने के लिए, तैयार रहना"
शाम के छह बज़ गए, गौरव ऑफिस से आ गए थे,
ख़ुद को समेटे मैं कमरें से बाहर निकली..
उसके सामने बैठ गयी..उसने चौंक कर देखा..
देखना ही था..पहली बार उसके सामने, बराबर बैठने की गुस्ताख़ी जो कि हैं.
आंखे तरेरते हुए बोलना चाहा लेकिन आज मैं सुनने के उद्देश्य से नही सुनाने के लिए बैठी थी
"गौरव, इस घर में तुम्हारे साथ सपनों के पंख ले कर आयी थी जो तुमने बड़ी ही बेदर्दी से काट दिए..मेरी शख्सियत ही मिटा डाली..ये जो ज़ख्म देख रहें हो इससे कही ज़्यादा ज़ख्म मेरी आत्मा पर हैं..आज मैं तुम्हारे इस घर से सिर्फ़ मेरे ज़ख्म लिए जा रही हूं...सोचा था..तुम्हारे घर आने से पहले निकल जाऊंगी लेकिन मैं अपनी ज़िन्दगी का सबसे सही फैसला छुप कर नही लेना चाहती थी, मैंने तो तुमसे सच्चा प्रेम किया था पर अफ़सोस तुमने प्रेम को मेरी मज़बूरी समझ लिया..जानते हो गौरव...ये ज़ख्म बहुत तकलीफ़ देते है..धीरे धीरे ये सड़ने लगे है..अब ये नासूर ना बन जाए इससे पहले मुझे फ़ैसला लेना था, एक ही विनती है तुमसे, फ़िर किसी लड़की की ज़िंदगी तबाह मत करना, याद रखना..बुरे कृत्यों परछाई सदैव साथ रहती है...जो भुलाये नहीं भूलती एक ना एक दिन तुम्हें इसका अहसास जरूर होगा...आज मैं ये फ़ैसला नही लेती तो मेरे साथ रह जाता एक पछतावा..दुख, कायरता, निर्बलता का...मुझे ज़िन्दगी गुज़ारनी है लेकिन अब अपने शर्तो पर,अपनी ख्वाहिशों के लिए, अपनी खुशियों के लिए"
"होश में तो हो, क्या बक़वास कर रही हो..जाओ कमरे में" गौरव चिल्ला कर बोला
"जो तुम्हारे इशारे पर नाचती थी वो नित्या मर चुकी है गौरव..ये जो सामने खड़ी हैं.. ये मैं हूं वो पहले वाली नित्या..जो किसी से नही डरती थी, अब तुम चाह कर भी मुझे नही रोक सकतें"
गौरव सोफ़े पर जड़ बैठे थे..अचंभित,मौन, निर्बल
मुझे एकटक देख रहे थे.
बिना पीछे मुड़े मैं गर्वित लड़खड़ाते कदमों से सिर उठाये बाहर निकल गयी..
पुरसुकून थी..
जैसे..सिर से बोझ उतर गया हो
बरसों बाद आज ज़ीवन सार्थक पथ पर था,
मेरी ज़िन्दगी को,मेरे सपनों को उम्मीद मिली थी
जानती हूं अभी संघर्ष ख़त्म नही हुआ है..
पर यह संघर्ष जीवन बदलने के लिए होगा
आज प्रकृति भी अपनी सी लगी
ठंडी हवाओं के झोंके मेरे ज़ख्मों को भर रहे थें
फूलों की सुगंध दिल और दिमाग़ को महका रही थी
सामने टैक्सी के साथ मुस्कुराती शांता खड़ी थी
दिल ने कहा
थैंक यू शांता।।


अनामिका अनूप तिवारी
आम्रपाली प्रिंसली इस्टेट
फ़्लैट. 107
टावर. K
सेक्टर. 76
नोएडा
201301
फ़ोन 7720009614

 

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