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जन्म-जन्मांतर
(आने वाले उपन्यास के अंश)


विवेक मिश्र

डॉ. व्योम एक अजीब-सी बेचैनी में क्लिनिक में ही ऐसे टहलने लगे जैसे इसके बाद जो करने जा रहे हैं उसके लिए हिम्मत जुटा रहे हों और फिर एक पल ठहरकर उन्होंने काँपते हाथों से अपना फ़ोन उठाया और रूबी का नम्बर मिला दिया.
दो-एक रिंग जाते ही वहाँ से फोन उठ गया. वह रूबी की आवाज़ थी. उनके लिए हैरानी की बात थी कि इतनी देर से इससे पहले कभी उन्होंने उसे फोन नहीं किया था पर उसकी आवाज़ में ज़रा भी हैरानी नहीं थी बल्कि उसमें एक ऐसी सहजता थी जिसने उनकी घबराहट को कम करके, उन्हें अपनी बात कहने के लिए थोड़ा आश्वस्त कर दिया था.
डॉ. व्योम को लगता था शहर का माहौल इन दिनों बहुत खराब है सो अक्सर रात को जाते समय रूबी को अपनी टॉर्च लेकर बाहर सड़क तक छोड़ आते थे. उन्हें उसके सुरक्षित घर पहुँचने की चिंता हमेशा रहती थी और आज वह उसे रात के दस बजे क्लिनिक पर बुला रहे थे इसलिए उन्होंने थोड़े संकोच के साथ कहा था, ‘क्लिनिक से बोल रहा हूँ, एक इमरजेंसी है. क्या तुम आ सकती हो?’ एक बार फिर डॉ. व्योम को थोड़ी हैरानी हुई, जब रूबी बड़ी सहजता से उस समय क्लिनिक आने के लिए तैयार हो गई.
फोन रखने के बाद डॉ. व्योम ने महसूस किया था कि उस समय रूबी के क्लिनिक आने के लिए तैयार हो जाने से उन्हें थोड़ी राहत मिली थी. क्योंकि वह जानते थे कि आज अभी जो कुछ भी हुआ था उसके लिए न वह ख़ुद और न यह छोटा-सा क्लिनिक किसी भी तरह से तैयार है. दूसरे वह एक बेहोश आदमी और अनायास उसके और अपने बीच उग आए अतीत के तमाम किस्सों के बियाबान में पूरी रात अकेले नहीं काटना चाहते थे. पर अब लग रहा था जैसे सब ठीक हो जाएगा और वह अपनी कुर्सी पर पीठ टिका, शरीर ढीला छोड़, अपने पाँव टेबिल के नीचे लगे फुटरेस्ट पर फैलाकर आराम से बैठकर सोचने लगे थे कि अच्छा ही हुआ जो सहायक के रूप में रूबी है और उसको आने के लिए कह दिया, ऐसे में उनका साथ देने के लिए कोई तो होगा, पर रूबी के इस क्लिनिक पर होने में भी उनकी अपनी कोई पहल नहीं थी बल्कि उसका उनके सहायक के रूप में होना भी, जैसे एक संयोग ही था, या कहें कि यह रूबी की ही पहल थी.
रूबी पहली बार एक मरीज़ की तरह ही क्लिनिक में आई थी. उस दिन दवा लेकर निकलते हुए उसने डॉ. व्योम से उसे काम पर रखने की गुज़ारिश की थी और उन्होंने अपने बगल की, पुराने बर्तनों की दुकान के मालिक की सिफारिश पर अगले दिन से ही उसे बहुत मामूली-से वेतन पर काम पर रख लिया था. उस दुकान के मालिक का भी रूबी से बस इतना ही परिचय था कि उसकी माँ कई साल पहले घर के कुछ बर्तन बेचने उस दुकान पर आया करती थीं. काम के पहले दिन रूबी ने ही उन्हें बताया था कि उसकी माँ लम्बी बीमारी के बाद सालभर पहले ही चल बसी थीं और अब वह अपने घर में अकेली थी, पर डॉ. व्योम उसे नहीं बता पाए थे कि उनकी पत्नी सीमा उनके सस्पेंड होने के लगभग दो महीने बाद अपनी माँ के घर चली गई थीं, उन्होंने यह भी, रूबी को क्या, शायद किसी को भी नहीं बताया था कि उसके जाने से पहले उनका आपस में अच्छा-ख़ासा झगड़ा हुआ था.
इस तरह कुछ कहे और कुछ अनकहे के बीच डॉ. व्योम और रूबी दोनों ही इस समय अपने-अपने घरों में और काफ़ी हद तक अपनी जिंदगियों में अकेले थे. ये और बात थी कि दो महीने से एक साथ काम करते हुए, इस अकेलेपन के वावजूद भी न तो वे एक-दूसरे के घर गए थे और न ही उन्होंने खुलकर किसी बारे में बहुत ज्यादा बातें ही की थीं. कई बार तो ऐसा भी हुआ था जैसे किसी बात को कहे बिना उन्होंने कोई आहट सुनी और एक दूसरे से पूछा भी कि क्या अभी-अभी किसी ने कुछ कहा और फिर दोनों ही यह कहकर आश्वस्त हो गए कि नहीं उन दोनों में से किसी ने कुछ नहीं कहा, बस उन्हें लगा कि किसी ने कुछ कहा है.
डॉ. व्योम को लगा उन्हें फिर ऐसी ही किसी आवाज़ का वहम हुआ है और उन्होंने न जाने कब झप गई आँखें खोल दीं. पर यह वहम नहीं था सचमुच ही क्लिनिक के बाहर किसी के क़दमों की आहट सुनाई दी थी. डॉ. व्योम ने उठकर दरवाज़ा खोला तो सामने रूबी खड़ी थी, इस समय वह वैसे नहीं आई थी जैसे रोज़ अपने तय समय पर क्लिनिक आया करती थी. आज वह ज्यादा चाक-चौबंद और ढंकी-मुंदी थी. शायद रात के समय यहाँ आने के कारण उसने यह एहतियात बरता हो. शायद इस समय बुलाए जाने की वजह से वह उनसे ही खतरा महसूस कर रही हो. पर उन्हें लगा ऐसे आड़े वक्त में उनके बुलाने पर वह आ गई थी, यही उनके लिए बड़ी राहत की बात थी.
रूबी के अंदर आने पर डॉ. व्योम एक्सामिनेशन टेबल पर लेटे हुए आदमी की और इशारा करते, उससे पहले ही उसकी नज़र उस पर पड़ी, एक पल मरीज़ पर ठिठकी और डॉ. व्योम की तरफ मुड़ गई. अब उसके चेहरे पर प्रश्न था. शायद वह कहना चाहती थी कि इसे तो बहुत ज्यादा चोट लगी मालूम होती है, इसे यहाँ नहीं, किसी बड़े अस्पताल में होना चाहिए.
डॉ. व्योम ने उसे उसके क्लिनिक से जाने के बाद का बाकया बहुत थोड़े में कह सुनाया. उन्होंने सोचा यह सब सुनकर उसकी कोई सलाह या प्रतिक्रिया आनी चाहिए पर ऐसा नहीं हुआ. उसने गले में बंधे स्कार्फ़ को ढीला किया कोट के ऊपर के दो बटन खोले और आराम से उनके सामने कुर्सी पर बैठ गई.
‘तुम सोच रही होगी मैंने पुलिस को खबर क्यों नहीं की... दरसल यहाँ इस क्लिनिक के होने और इस तरह मेरे प्रेक्टिस करने में कई टेक्निकल एंड लीगल इश्यूस हैं. अब पुलिस के आने से सौ झमेले खड़े हो जाएंगे. एक बार जी में आया इसे सिविल हॉस्पिटल ले जाऊँ पर उस समय यह प्रोफ्युजली ब्लीड कर रहा था. लगा तुरंत खून नहीं रुका तो प्रॉब्लम बढ़ जाएगी.’ डॉ. व्योम ने रूबी के बिना मांगे ही घटना से जुड़ी अपनी सफ़ाई भी रख दी.
‘अच्छा.. आप इसे इसी हालत में रास्ते में छोड़ के, घर भी तो जा सकते थे?’ रूबी ने मरीज़ पर एक नज़र डालते हुए कहा.
रूबी की बात सुनकर डॉ. व्योम के माथे पर कई लकीरें उभरने को ही थीं कि वह सहज होते हुए आगे बोली, ‘आपने वही किया जो आपको करना चाहिए था, या आप जैसा आदमी जिसे किए बिना नहीं रह सकता था. वो घायल था, आपके सामने था और आपने उसका इलाज शुरू कर दिया.’
अब डॉ. व्योम को उसकी बात से थोड़ा इत्मीनान हुआ था.
डॉ व्योम ने थोड़ा सहज होते हुए कहा, ‘हाँ उस समय मैं इससे ज्यादा कुछ सोच ही नहीं सका.’
रूबी को जैसे उनकी बात से वह कहने का मौका मिल गया जो वह कई दिनों से उनसे कहना चाहती थी, ‘सोच नहीं सके.. ऐसा नहीं हो सकता, मुझे तो लगता है, आप हर समय कुछ न कुछ सोचते ही रहते हैं.’
‘हाँ.. सोचता तो रहता हूँ... पर अक्सर निर्णय नहीं कर पाता, वैसे आजकल अनिर्णय की अवस्था मेरे मन की स्थाई अवस्था बनती जा रही है. जो करना चाहिए और जो मैं करता हूँ उसमें बहुत अंतर आता जा रहा है.’ यह बात भी डॉ. व्योम ने कुछ अपनी सफ़ाई देने के अंदाज़ में ही कही थी. जिस पर रूबी ने तुरंत कोई प्रतिक्रिया नहीं दी.
डॉ. व्योम पहले कभी ऐसे, यूँ, इतना रूबी के सामने नहीं बोले थे पर अभी-अभी उन्होंने महसूस किया था कि उनके इस तरह बोलने से उनके बीच का निर्वात धीरे-धीरे भरने लगा था. उन्हें यह भी लगा था कि शायद उन्हें रूबी की तरह के लोग पसंद हैं जो अपने काम से काम रखते हैं और उन्हीं की तरह बहुत कम बोलते हैं. पर उनकी पत्नी जिसका स्वभाव इसके उलट था, उसके साथ भी सब ठीक ही चल रहा था कि पिछले कुछ सालों में जैसे उनकी लगभग हर बात पर ही आपस में कहासुनी होने लगी थी पर फिर भी वे साथ रहे आते थे, इतने साल साथ रहने से जैसे उन्हें एक-दूसरे की आदत हो गई थी. पर इस बार जब उन दोनों का झगड़ा हुआ तो उसने अपनी माँ के घर जाने का पक्का और स्थाई फ़ैसला कर लिया था.
डॉ. व्योम को महसूस हुआ कि वह वहाँ बैठे-बैठे ही फिर कहीं खो गए हैं. रूबी सही कह रही थी कि उसे लगता है कि वह हमेशा कुछ सोचते रहते हैं.
तभी रूबी ने जैसे उन्हें वहाँ वापस लाने के लिए बात का कोई सिरा पकड़ने की कोशिश की, ‘आपके पास सिगरेट है?’
डॉ. व्योम ने उसे एक अजीब-सी निगाह से देखा. इसलिए नहीं कि वह सिगरेट पीती है, या उसने उनसे इतनी बेतकल्लुफी से सिगरेट मांग ली बल्कि इसलिए कि उसे यह कैसे पता चला कि उनके पास सिगरेट हो सकती है. उन्होंने उसके सामने कभी सिगरेट नहीं पी. सिगरेट की बात होते ही उन्हें सीतेश का सिगरेट पीना याद हो आया. पर उन्होंने तो सिगरेट पीना बहुत बाद में शुरू किया. उनके लिए सिगरेट जैसे अकेलेपन का एक साथी, जो अनकहा रह गया उसे धुएं में उड़ा देने की एक कोशिश.
उनका असमंजस भांपते हुए रूबी ने कहा, ‘मुझे मालूम है आप स्मोक करते हैं.’
उसकी बात सुनकर डॉ. व्योम ने अपने कोट के भीतर की जेब से सिगरेट का पैकेट निकाला और टेबल पर रख दिया. और अपनी दूसरी जेब में माचिस या लाइटर जैसी कोई चीज ढूँढने लगे. वह जब तक उस तक पहुँचते तब तक रूबी ने टेबल टॉप और दराज़ के बीच की एक संकरी जगह में अपनी दो उँगलियाँ डाल कर लाइटर निकाल लिया.
डॉ. व्योम के लिए यह दूसरा मौका था जिसने उन्हें चौंका दिया था. एक लाइटर उन्होंने टेबल की दराज़ के ऊपर कोने में रख छोड़ा है यह उन्होंने रूबी को कभी नहीं बताया था. रूबी ने उनके हैरान होने को लक्ष्य किए बिना पैकेट से एक सिगरेट निकाल कर अपने होठों से लगाई और दूसरी उनकी तरफ़ बढ़ाते हुए कुर्सी से उठ गई. डॉ. व्योम ने असमंजस और संकोच के बीच खड़े हुए सिगरेट अपनी उँगलियों में दबा ली. रूबी सिगरेट और लाइटर हाथ में लिए क्लिनिक से बाहर आ गई.
बाहर बस उतनी ही रोशनी थी जितनी क्लिनिक के दरवाज़े के आधे हिस्से में लगे ग्लास को पार करके आ सकती थी. बारिश रुक गई थी पर हवा अभी भी बहुत ठंडी थी. डॉ. व्योम भी सिगरेट हाथ में लिए बाहर निकल आए. उनको देखकर अपनी सिगरेट जला चुकी रूबी ने लाइटर की लौ उनकी तरफ़ बढ़ा दी. डॉ. व्योम ने सिगरेट का सिरा लौ को छुलाया और साँस खींची. सिगरेट जलते ही लौ बुझ जानी थी पर रूबी ने जैसे डॉ. व्योम के चेहरे पर कुछ पड़ते हुए लाइटर को कुछ पल रुक के बुझाया. तब तक एक गुबार डॉ. व्योम के मुँह से निकलकर ऊपर उठ गया. यह गुबार जो सिर्फ सिगरेट का धुआँ नहीं था, उन दोनों के सिरों पर छितरा कर फ़ैल गया.
डॉ. व्योम को लगा जैसे रूबी कुछ कहेगी. वह कभी-कभी जब उसे पूरी तन्मयता से क्लिनिक में अपना काम करते हुए देखते तो सोचने लगते कि किसी न किसी दिन तो वह अपने बारे में कोई बात करेगी. फिर ख़ुद ही अंदाज़ा लगाते कि वह क्या बात होगी, शायद अपने अकेलेपन के बारे में, या ज़िन्दगी की अन्य किसी मुश्किल को लेकर, या उसकी माँ के अचानक यूँ चले जाने की, किसी बारे में तो कुछ बोलेगी, पर रूबी दो-चार शब्दों से ज्यादा कभी नहीं बोलती थी.
पर आज उसने आगे बढ़कर कहा था, ‘कह लीजिए डॉ. व्योम कहने से धुंधलका छट जाता है. अकेले रहने वाले को मौका मिलने पर अजनबियों से भी बोल लेना चाहिए. नहीं तो इंसान के भीतर घुमड़ती बातें एकदिन आदमी को अपने ही भीतर खींचकर डुबा देती हैं.’
डॉ. व्योम को लगा जैसे उसने जो कहा वह उसकी उम्र और अनुभव से बहुत आगे की बात थी. उसकी बात ने उन्हें आगे बोलने के लिए बात का एक सिरा पकड़ा दिया था, ‘सही कह रही हो, कई बार हम अजनबियों के साथ ज्यादा सहज और ईमानदार होते हैं.’
रूबी अपने चेहरे पर एक इत्मीनान लाते हुए बोली, ‘इतने दिनों से साथ काम करते हुए भी, हम अभी भी अजनबी ही हैं. कह लीजिए मैं किसी बात पर आपको जज नहीं करुँगी.’
डॉ. व्योम को लगा जैसे वह बिना कुछ कहे-सुने ही उनके संशयों को भांप ले रही है पर यह उन्हें बुरा नहीं लग रहा है बल्कि वह सहज महसूस कर रहे हैं, ‘क्या कहूँ..फिलहाल तो यही है कि जॉब के इश्यूस के साथ घर पर भी कुछ ठीक नहीं है, और जो बिना बताए ही तुम जान गई हो कि दो महीने से अकेला ही हूँ.’
‘वजह?’ रूबी ने सीधा सवाल किया, पर टोन ऐसी थी कि उसमें पड़ताल से ज्यादा परवाह थी.
‘कई बार दो लोगों की अलग-अलग सोच इतनी अलग होती है कि वे साथ रहते हुए भी धरती के दो विपरीत ध्रुव जान पड़ते हैं. बस यही समझ लो.’ डॉ व्योम ने सीधी बात का सीधा उत्तर नहीं दिया था.
रूबी ने जैसे उन्हें और खोलने के लिए एक और सवाल किया, ‘पर आपकी शादी नई तो नहीं थी.’
‘हाँ पुरानी थी, पर दो ध्रुवों के बीच उन्हें जोड़ने वाली धरती तो होती ही है... न, इसलिए विपरीत होते हुए भी दो सिरे कई दिनों तक साथ रहे आते हैं. शादी में हमारी देह, हमारा घर उस ज़मीन का काम करते हैं जो विपरीत ध्रुवों को लम्बे समय तक जोड़े रखती है.’ डॉ. व्योम ने कहकर जैसे राहत महसूस की थी.
रूबी को लगा बात का सिलसिला चल पड़ा.
‘क्या करते हैं अकेले..’
‘पढ़ता हूँ, सोचता हूँ, सोता हूँ. कई बार सोचते हुए अपने साथ होता हूँ, कई बार नहीं भी होता हूँ. पत्नी का इस तरह जाना शुरू में कुछ दिनों तक बहुत सालता रहा. पर अब जैसे धीरे-धीरे उसकी अनुपस्थिति की आदत होती जा रही है.’
‘आप तो मेरी तरह नॉर्थ-ईस्ट के नहीं हैं. यहीं के हैं. पर कभी किसी दोस्त, किसी परिचित को आपसे मिलने आते नहीं देखा.’
डॉ. व्योम ने जवाब में कुछ नहीं कहा और सिगरेट के दो-एक कश और खींचे, ये पहले से गहरे थे और इनका धुआँ भी बहुत गाड़ा था. ये कश इतने लम्बे थे कि इनसे सिगरेट की लम्बाई आधे से भी कम रह गई थी और उसकी सुलगन उँगलियों को छूने लगी थी. उन्होंने उसे बुझाया और क्लिनिक के भीतर आकर अपनी कुर्सी पर बैठ गए.
उनके पीछे रूबी भी भीतर चली आई. उसने एक्सामिनेशन टेबल पर लेटे, गहरी नींद में डूबे मरीज की पल्स चेक की, फिर अलमारी से एक पतली गर्म चादर निकाली जो उसने न जाने किस समय के लिए यहाँ रख छोड़ी थी, और उसको कमर से ऊपर तक ओढ़ा दी. साथ ही उसके एक तरफ़ ढलके हुए सिर के दोनों तरफ़ सपोर्ट लगा कर उसे सीधा कर दिया.
उसके बाद वह डॉ. व्योम की तरफ़ मुड़ी और बोली, ‘आपने मेरी बात का जवाब नहीं दिया. आप हमेशा से ही अपनी लाइफ़ से इतने दूर हैं. जैसे कोई अटैचमेंट ही न हो, किसी से तो बात करते होंगे. मैं तो अपने आप से ही बहुत सारी बातें करती रहती हूँ.’
डॉ. व्योम हमेशा से इतने निर्लिप्त नहीं थे. पर अपने आसपास घटते, व्यतीत होते समय से एक दूरी हमेशा बनाए रखते थे. अभी रूबी की बात सुनकर उन्हें लगा कि उसने वही बात कही है जिसे वह कभी नहीं मानते. पर वह सच है. वह भी अक्सर अपने आप से ही बातें करते रहते हैं पर किसी और से कहना जैसे कहीं छूटता चला गया है. कितनी ही बातें हैं जो उनके भीतर अनकही रही आती हैं. वह जानते थे कि समय बीतता है पर स्मृतियाँ मन में जस की तस रही आती हैं. पिछले दिनों रूबी से भी बात करने की उन्होंने बहुत तैयारी की. कई बार सोचा कि रूबी ही क्यूँ बोले, वह भी तो अपनी तरफ से उससे कुछ कह सकते हैं. पर वह जैसे अपने ही स्वभाव के बंदी थे. उनके साथ अक्सर ऐसा होता कि लोग आते, उनसे मिलते, अपनी बात कहते और चले जाते पर उनकी बात उनके भीतर ही, अनकही रह जाती.
इसीलिए शायद आज भी उन्होंने रूबी से कहा, ‘अब अपनी बातें अपने आप से कहने की जगह तुम मुझसे कह सकती हो, ...एंड प्रोमिस में भी तुम्हें जज नहीं करूँगा.’ वह चाहते थे वह बोले, उसके बोलने में शायद वह अपना बोलना ढूँढ़ रहे थे.
रूबी भी शायद यह बात समझ गई थी इसलिए अपना मन खोलने के लिए, या डॉ. व्योम की बात के लिए एक रास्ता बनाने को, उसने ही बात शुरू की, ‘मैं सबसे ज्यादा अपनी माँ से बात किया करती थी. हमने बहुत बुरे दिन देखे पर बुरे से बुरे वक्त में आपस में बात करना, अपना सुख-दुःख बांटना नहीं छोड़ा. लोग कहते हैं औरतें बहुत बोलती हैं, दरसल वे अपने भीतर इतना कुछ बिना कहा लिए घूमती हैं कि वह जब-तब, सहज ही फूट पड़ता है, मेरी माँ शुरू से एक बेहतर कल की उम्मीद से भरी थीं. वह हर सुबह बहुत उत्साह से उठती थीं. दिनभर उनकी मुस्कान में ‘सब ठीक हो जाएगा’ का भाव हमेशा खिला रहता था. वही थीं जिनकी वजह से एक उल्लास कठिन से कठिन समय में घर में गूँजता रहता था पर हालात अक्सर उन्हें निराश करते और इसलिए वह थकी और उदास सोया करती थीं. धीरे-धीरे मैंने उनके इस उत्साह को ठंडा पड़ते देखा था. वह उम्मीद कर-कर के थक गईं पर उनके जीवन में, उनके आसपास कुछ नहीं बदला.’
रूबी बोलते-बोलते यूँ रुकी जैसे सोच रही हो कि क्या कहूँ और क्या छोड़ दूँ. तभी डॉ. व्योम ने सवाल किया, ‘और तुम्हारे पिता..’
रूबी को जैसे डॉ. व्योम के सवाल से अपनी कहानी का वो सिरा मिल गया जिस तक वह किसी के साथ भी, पहली इस तरह की बातचीत में शायद कभी न पहुँचती. उसने टेबल की सतह को स्पर्श करते हुए कहा, ‘पिता हमारे पैरों के नीचे की ज़मीन थे. फिर एक दिन ऐसा आया कि वह थे भी और नहीं भी थे.’ रूबी बोलते हुए ठिठकी और उसने अपने दोनों हाथों से टेबल को पकड़ कर नज़रें झुका दीं.
डॉ. व्योम को लगा शायद उन्होंने गलत सवाल पूछ लिया था. इसलिए उन्होंने बिना किसी भूमिका के कहा, ‘आई एम सॉरी..’
रूबी ने अगले ही पल थोड़ा सहज होते हुए कहा, ‘दरसल मेरी और मेरी माँ की पूरी कहानी, मेरे पिता की ही कहानी है. उस पिता की जिसे हम बहुत चाहते थे. जो हमसे बहुत प्यार करते थे, और हमारे साथ नहीं थे. वह जीते-जी इस वतन में रहते हुए, इस वतन में, अपने घर में नहीं थे. माँ एक बहुत लम्बी लड़ाई लड़ती रहीं पर अंत तक पिता के भारतीय होने के सबूत नहीं जुटा पाईं. हमें उस आदमी की नागरिकता सिद्ध करनी थी, उसके भारतीय होने के सबूत देने थे जो हम सबके होने का सबूत था. उन्होंने सरकारी नौकरी की थी. उनके नाम इसी देश में एक छोटा-सा ज़मीन का टुकड़ा भी था. जिसे बेचकर कभी उन्होंने अपनी मुँहबोली बहिन की शादी की थी. पर न जाने कैसे उनका नाम नागरिकता सूची में नहीं आया. किसी को ख्याल नहीं आया कि वह एक नाम नहीं एक जीते-जागते इंसान हैं. उनका परिवार है. उनके परिवार का नाम उस सूची में है. बस वह छूट गए. छूट गए या जान कर छोड़ दिए गए. पता नहीं.’
रूबी से सूची का जिक्र सुनते ही लगा जैसे डॉ. व्योम जो अब तक एक दूरी से रूबी की बात सुन रहे थे उसमें जुड़ गए, शामिल हो गए. ऐसे लगा जैसे उनके सामने भी कई सूचियाँ, कितने ही देशों की नागारिकताएं, उनसे जुड़े नीयम-कानून, उनसे जुड़ी तमाम दंभ और गर्व की कहानियाँ उनके सामने घूम गईं.
‘तुम लोगों ने कोई लीगल हेल्प नहीं ली.’ पहली बार डॉ. व्योम की आवाज़ में रूबी ने किसी बात के प्रति जिज्ञासा देखी.
‘कई अर्जियां, कई पैरवियाँ, कई पेशियाँ, हमारे लिए सब सिर्फ बेमतलब बीतती जाती तारीखें साबित हुईं. ये कहिए कहाँ मदद नहीं मांगी. पर सब बेकार. अंत में एकदिन हमारे सामने से पापा को पुलिस उठा के ले गई.’ रूबी ने वह कहा जो उसके भीतर कई पर्तों के नीचे दबा था.
डॉ. व्योम को लगा उन्होंने कभी सोचा भी नहीं था कि हमेशा इतनी शांत, सधा हुआ व्यवहार करने वाली, हर काम के लिए तत्पर रहने वाली इस छब्बीस साल की लड़की के अतीत में एक ऐसा क्रूर, ऐसा निर्मम अध्याय जुड़ा हुआ है.
इसके बाद जैसे अपने आप ही उनके मुँह से निकला, ‘फिर..’
‘असम के गोलपारा का नाम सुना है. किसी अंग्रेजी अखबार में शायद यहाँ कभी छपा हो.’ उसने गोलपारा का नाम लेते हुए जैसे किसी अदृश्य ग्लोब पर इतनी-सी जगह ढूँढनी चाही जहाँ उस समय वह अपने पिता को दुनिया की नज़र से छुपा के रख पाती.
वह एक पल में जैसे पूरी धरती नाप कर लौटी और एक लंबी साँस लेते हुए बोली, ‘पापा को कुछ दिन लोकल जेल में रखकर वहीं, गोलपारा के डिटेंशन कैम्प में भेज दिया गया था.’
डिटेंशन कैम्प का जिक्र सुनते ही जैसे डॉ. व्योम के भीतर बहुत गहरे में कुछ हिला. उन्होंने एक्सामिनेशन टेबल पर लेटे हुए आदमी को एक नज़र देखा और अपनी पीठ सीधी करके बैठ गए.
रूबी जैसे अपने भीतर के उस जख्म पर पैर रखकर आगे बढ़ रही थी जो बाहर से देखने पर भरा हुआ मालुम होता था पर जिसे छूते ही, अब भी उसमें से खून और मवाद रिसने लगता था.
बोलते हुए उसकी आवाज़ भारी हो गई थी, ‘उनके डिटेंशन कैम्प जाते ही जैसे मैं और मेरी माँ भी बेघर और बेवतन हो गए. बिना कुछ किए ही हमारा परिवार इस देश में अपराधी हो गया. आसपास के सभी लोग अचानक ही पराए हो गए थे. यहाँ अक्सर लोगों को मज़ाक में कहते सुना है ‘नाम में क्या रखा है’ यह बात कोई असम के उस आदमी को समझाए जिसके नाम की स्पेलिंग में हुई एक छोटी-सी गलती ने उसकी जिंदगी बदल दी. मेरे पिता के नाम में हुई छोटी-सी गलती से उनके होने को ही नकार दिया गया. यहाँ ‘ई’ और ‘आई’ के बीच फ़र्क को लोग अपने नामों में कितनी आसानी से नजर अंदाज़ कर देते हैं, यहाँ बैठे वे सोच भी नहीं सकते कि यह मामूली-सी गलती किसी को उसके घर, उसकी ज़मीन, उसके वतन से बेदखल कर सकती है. आपके ऊपर उठी एक उँगली आपके पूरे अस्तित्व को नकारने के लिए काफ़ी है.’
डॉ. व्योम को अपनी पत्नी सीमा के भाई आशीष के हाथ में हिलता वह काग़ज़ याद हो आया जिसमें उसके संगठन के लोगों ने कुछ नाम लिख रखे थे. शुरू में जब ऐसी सूचियों की चर्चा उसने उनसे की थी तो उन्होंने कभी उसे गंभीरता से नहीं लिया था.
रूबी को देखते हुए डॉ. व्योम के मुँह से निकला, ‘लोग क्यूँ नहीं समझते, दिस अर्थ बिलोंग्स टू एवरीवन.’
लगा उनका कहा यह सपाट वाक्य रूबी को बिना छुए कहीं खो गया.
पर एक पल की ख़ामोशी के बाद वह रूबी की आवाज़ में कुछ ऐसे ध्वनित हुआ, ‘बहुत छोटी थी जब पापा से हारमोनियम पर ‘सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा’ की धुन बजानी सीखी थी. उनके जाने के बाद कई बार सब भूलकर, वही धुन बजाने की कोशिश की, पर अब अपना बजाया हुआ ही बहुत बेसुरा लगने लगा था. इसमें से ‘जहाँ’ और ‘हिन्दोस्तां’ दोनों ही यहाँ रहते हुए भी हमारे भीतर से रिस गए थे.’
कोई बात जैसे डॉ. व्योम के होठों तक आई और रुक गई.
रूबी ने एक लंबी साँस लेते हुए जैसे अपने-आप से ही कहा, ‘नो लैंड, नो कंट्री बिलोंग्स टू पुअर्स एंड पावरलेस, वे कभी भी, कहीं से भी, बिना किसी बात के बेदख़ल किए जा सकते हैं.’
डॉ. व्योम को लगा रूबी किसी दुनिया की नहीं है. वह अपनी दुनिया अपने सिर पर उठाए सालों से किसी सफ़र पर चली जा रही है. हर मोड़, हर नाके, हर चुंगी, हर क्रोसिंग पर उसे अपने होने के सबूत दिखाने पड़ते हैं. वह चाहते थे इस सफ़र में रूबी थोड़ा रुके, थोड़ा सुस्ता ले.
पर रूबी अपनी ही रौ में बही जा रही थी, ‘माँ अंत तक पापा को डिटेंशन कैम्प से बाहर निकालने के लिए लड़ती रहीं. पहले पैसा खत्म हुआ, फिर हिम्मत, पर माँ ने इस उम्मीद से गाँव नहीं छोड़ा कि क्या पता किसी दिन कोई सरकारी चिट्ठी चली आए, क्या पता किसी शाम पापा ही पैदल चलते हुए वैसे ही लौट आएं जैसे हमेशा अपने काम से शहर जाकर लौट आया करते थे. शायद इसीलिए उन्होंने अपने जीते-जी पापा का ट्रंक खाली नहीं किया, उनका कोट किसी को नहीं दिया. वो ट्रंक, अलगनी पर लटका वो कोट, हमारा दो झोपड़ी और एक छोटे-से बाड़े वाला घर, माँ और उनके साए में मैं, हम सब पापा का इंतजार करते रहे...
...हम जब आपस में बोल कर थक जाते तब घर की कच्ची दीवारों से बातें करते. हम बात करते, खुद को यह बताने के लिए कि कोई हमारी बात सुने या न सुने, हम अभी भी बोल सकते हैं...
...न कोई चिट्ठी आई, न पापा लौटे.
...एक दिन एक ख़बर मिली कि जिस डिटेंशन कैम्प में पापा थे उसमें रह रहे लोगों को कहीं और ले जाया जा रहा है. माँ बेचैन हो उठीं. उन्होंने लोगों के इस मूवमेंट से जुड़े कहाँ, कब, कैसे को जानने के लिए अपनी पूरी ताक़त लगा दी. पर कुछ पता नहीं चला. जब माँ हार कर बैठने ही वाली थीं, तभी किसी ने उन्हें बताया कि एक कैम्प से दूसरे में भेजे गए लोगों में पापा का नाम नहीं है. सवाल था- तब वह कहाँ हैं.
...माँ मुझे लेकर एक बेहद दुर्गम यात्रा के बाद वहाँ जा पहुँचीं जहाँ पुराना डिटेंशन कैम्प था पर वहाँ हाल ही में ढहाए गए एक बड़े-से बाढ़े और बुलडोजर से ध्वस्त की गई झोपड़ियों के मलबे के सिवा कुछ नहीं बचा था. माँ ने वहाँ जो भी मिला उस सबसे पूछा कि जो लोग नई जगह शिफ्ट किए गए लोगों की सूची में नहीं हैं, वे कहाँ रखे गए हैं. सबने अलग-अलग जवाब दिए, पर उन सबको जोड़कर जो बन सका, वो यह था कि जो नई जगह ले जाए गए लोगों की सूची में नहीं हैं, वे अब कहीं नहीं हैं. मतलब उन्होंने यहीं इसी सेंटर में किसी नामालूम तारीख़ में किसी समय दम तोड़ दिया होगा.
...अब हमारे सामने एक अस्थाई इमारत का मलबा था. उससे उड़ती धूल थी. और कहीं रुके हुए पानी की सड़ांध थी.
...बाद में पता चला था कि पापा की तरह लगभग दस लोग उस सेंटर से बिना किसी सूचना के गायब हो गए थे. शायद उनके घर वाले भी हमारी तरह उन्हें ढूँढने आए होंगे.
...उसके बाद मुझे इतना ही याद है कि हमने किसी मंडी में बिकने के लिए जाती मुर्गियों के साथ किसी दड़वे जैसी गाड़ी में बैठकर वापस की यात्रा की थी. लौटते हुए लगा था जैसे माँ के भीतर भी कुछ ढह गया. जिससे उनके सहारे टिका घर, अहाता और गाँव से जुड़ा हर तार अपने आप ही टूट गया. उसके बाद अपना सबकुछ समेट कर हम यहाँ आ गए, जो नहीं ला सकते थे हमने उसे बेच दिया.
...यहाँ आकर माँ ने कई छोटे-मोटे काम किए, मैंने थोड़ी-बहुत पढ़ाई की, पर कुछ ही दिनों में माँ लगातार बीमार रहने लगीं, उसी समय घर की बची-खुची चीज़ें भी बिक गईं. मैं डॉक्टर बनना चाहती थी पर एक दिन पढ़ाई छोड़कर एक रेस्टोरेंट में काम करने लगी. मुझे नहीं पता था मुझे किस चीज़ से एलर्जी थी पर कुछ दिन बाद ऐसा हुआ कि मुझे रेस्टोरेंट जाते ही उल्टियाँ आने लगती थीं. कई जगह दिखाया पर कुछ फ़ायदा नहीं हुआ, आखिर में एक डॉक्टर ने बताया कि साइकोसोमेटिक है. यह सब मेरा वहम है. स्ट्रेस है. एंजायटी है. पॉल्यूशन की वजह से है. कभी पता नहीं चला क्या है. बस इतना महसूस हुआ कि मेरे चारों तरफ़ अनगिनत आँखें हैं जो लगातार मुझे घूर रही हैं. वे मुझे, मुझसे बिना कुछ कहे एहसास दिला रही हैं कि मैं उनमें से एक नहीं हूँ. मैं अलग हूँ. बस यह ख्याल आते ही मेरा जी मिचलाने लगता, मुझे उल्टी आने लगती. सोचती कुछ सूचियाँ व्यवस्थाएं और सरकारें बनाती हैं जिनमें कुछ लोग रहते हैं और कुछ छूट जाते हैं पर कुछ सूचियाँ अदृश्य होती हैं. वे सिर्फ़ उसी को दिखती हैं जो उनमें से बेदखल होता है. उसका दर्द वे नहीं समझ सकते जो उनमें हैं. जो एक जैसे हैं.
...यूँ तो सीधे किसी ने नहीं कहा कि यह जगह तुम्हारी नहीं है. यहाँ से चली जाओ. पर शब्द बदल-बदल कर सभी ने यही कहा. किसी ने कहा तुम्हें यहाँ का मौसम रास नहीं आ रहा है, वापस चली जाओ, किसी ने कहा शहर बहुत महंगा है तुम अफोर्ड नहीं कर पाओगी, किसी ने कहा तुम लोगों को जल्दी यहाँ के लोग काम पे नहीं रखते, मकान किराए पर नहीं देते इसलिए अपनों के बीच, अपने घर चली जाओ... सोचा घर, कौन-सा घर? अब कौन-सी जगह है जो अपनी है? कौन-सा शहर है जिसे अपना कह सकती हूँ? अब लगता है कहीं कोई घर नहीं है. कहीं कोई घर नहीं होता. न बाहर-न भीतर.
...मैंने उन दिनों सेल्स के कई जॉब किए, ऐसे जिनमें एक जगह रुकना नहीं पड़ता, बस एक दरवाज़े से दूसरे दरवाज़े चलते जाना होता है. जिसमें एक नज़र आपको भेदती है, आप आहत होते हैं पर आप ज्यादा कुछ सोच नहीं पाते क्योंकि कुछ ही देर में आप दूसरे पते को ढूंढते हुए एक और अजनबी का दरवाज़ा खटखटाने के लिए निकल पड़ते हैं. ऐसा करते हुए लगता है आप एक खोज पर हैं. आप लगातार एक सफ़र में हैं, कहीं जा रहे हैं. ऐसा करते हुए मुझे उल्टियाँ होनी बंद हो गईं. मुझे लगा यह काम करते हुए मैंने अपनी बीमारी का इलाज़ ढूँढ़ लिया. पर माँ और ज्यादा बीमार होती गईं. उनका घर में अकेले रहना मुश्किल होता गया. इसलिए कुछ दिन मुझे भी काम छोड़कर उनकी देखभाल करनी पड़ी और फिर साल भर पहले वह मुझे छोड़कर चली गईं. कहती थीं घर जाउंगी. घर चली गईं. मौत के घर...’
उसके बाद रूबी चुप हो गई.
उसके चुप होते ही क्लिनिक में ऐसा सन्नाटा पसर गया जिसे डॉ. व्योम चाह कर भी तोड़ नहीं सके. वह रूबी को देखकर सोचने लगे कि कैसे हमारे आसपास यूँ ही घटती जाती अनगिनत घटनाएं, बिना संदर्भ के आपस में टकराती तमाम कहानियाँ, अलग-अलग होकर भी एक ही कहानी का हिस्सा होती हैं. सदियों से चली आती एक लंबी कहानी का. इन कहानियों से जितना जुड़ो वे यही कहती हैं कि हम सब बार-बार जिंदगी को पकड़ने, काबू करने के लिए कितने हाथ-पैर मारते हैं पर कुछ भी काबू में नहीं आता- न आज, न कल. कैसे होते होंगे वे लोग जो अपना जीवन, उससे जुड़े हालात, सबकुछ अपने काबू में रख पाते होंगे. ऐसे लोग होते भी हैं या नहीं. या वह दूसरों के सामने ऐसा होने का अभिनय करते हैं और असलियत अपने सीने में छुपाए इस दुनिया से चले जाते हैं. जीवन पर काबू रख पाना एक भ्रम है जो एक दिन टूटता जरूर है. किसी का जल्दी, किसी का देर से. दरसल अंत में हम सब समय की आंधी में उड़ते हुए तिनके ही साबित होते हैं. यहाँ कोई जीते, कोई हारे सबकुछ समय की गर्त में दबता चला जाता है. फिर भी हमारे चारों तरफ़ वर्चस्व की लड़ाइयाँ हर समय छिड़ी रहती हैं.
सन्नाटा और गहराता कि कुछ देर में अपने ही कहे के असर से उबरते हुए रूबी ने ही ऐसे बोलना शुरू किया मानो किसी अदृश्य से बात कर रही हो, ‘शायद मौत ही आख़िरी पड़ाव है. हम सबका आख़िरी घर, आपको क्या लगता है?’
डॉ. व्योम जैसे प्रश्न के लिए तैयार नहीं थे पर इस बार वह इस तरह बोले मानो अब उनके बोलने में उनकी आवाज़ पर कोई आवरण न रहा हो, ‘पहले मैं भी यही सोचता था पर अब कुछ भी निश्चय के साथ नहीं कह पाता. कभी लगता है शायद मौत ही आख़िरी सत्य है और कभी लगता है शायद नहीं. तुम्हें हैरानी होगी कि विज्ञान के प्रश्नों ने मुझे उतना नहीं उलझाया जितना जीवन और मृत्यु के बीच पसरे रहस्य ने... और उसमें उलझी कहानियों ने.’
इस बार डॉ. व्योम की बात ने रूबी को चौंकाया था, ‘मतलब ‘लाइफ आफ़्टर डेथ’ जैसी बातों पर आप विश्वास करते हैं.’

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