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प्यार बसंत है
ह घनेरा, हरियाला व्यस्ततम पार्क सुबह की सैर करने वालों से भरा हुआ था. सुबह की सैर को निकलते हुए सूरज ने अपने नारंगी चोले को सुनहरे चोले में बदल लिया था. नीले समंदरी आसमान में शुभ्र- धवल खरगोश फुदक रहे थे. पार्क के पैदल पथ पर नीला ट्रैक सूट पहने, कानों में इयरफोन लगाये, सर नीचे झुकाये विशेष बड़े-बड़े डग भरते पश्चिम की ओर चला जा रहा था ठीक उसी समय आरती सुनहरे सूरज को बार-बार निहारती पूर्व की ओर बढ़ रही थी. आरती और विशेष की सरसराती नजरें एक दूसरे को छूती हुई गुजर गईं फिर ठिठक उठीं,
“विशेष!”
“आरती... तुम यहाँ?”
अनायास ही ये शब्द शैम्पेन की बोतल से निकली फुहार की तरह उनके होठों से पूरी उर्जा से निकल उठे. रोजाना की जिंदगी में व्यस्त सुबह की सैर करते लोगों के लिये, खुद उनके लिए आवाज की यह उर्जा असामान्य थी. आसपास के लोगों की नजरें आरती और विशेष पर टिक गई.
आरती को इन नजरों से खास फर्क नहीं पड़ा, पर विशेष थोड़ा अचकचा गया. उसने अपनी आवाज को भरसक सामान्य बनाते हुए कहा,
“कितने सालों बाद मिली हो, पूरे अठारह साल बाद.”
“हां विशेष! सच में समय कैसे बीत जाता है? पता ही नहीं चलता? लगता है वह सब कल की ही बात है.” बाग़ में खिले मोंगरे, जूही, बेला, गुलाब ख़ुशी बन दोनों के चेहरे से झरने लगे. उत्साह की अधिकता में आवाज के साथ विशेष के दोनों हाथ, चेहरा सभी बातें करने लगे,
“लेकिन तुम यहाँ कैसे?”
“मेरा ट्रान्सफर यहाँ हुआ है, पिछले ही हफ्ते आई हूँ. मैं सोच ही रही थी कि अब तुम यहाँ होगे कि कही और. तुम्हारा घर ढूंढने की कोशिश भी की थी.” आरती के जवाब में अब तक नहीं मिलने की सफाई देने का अंदाज सवारी करने लगा, विशेष को इस सवार की कोई परवाह नहीं थी, उसने इस जवाब में शिद्दत से की गई एक चाह के पूरे होने का पता पा लिया,
“ट्रान्सफर? मतलब तुम्हारा सपना पूरा हो गया?” उसकी आवाज में जिज्ञासा और जिज्ञासा के सकारात्मक उत्तर की संभावना की ख़ुशी दोनों ही बर्फ ढंके पहाड़ पर गर्म पानी के स्त्रोत सी फूट पड़ी.
“हां विशेष! मेरा सपना पूरा हो गया.”
“तुम तो यहाँ से जाकर भूल ही गई.”
आरती की आवाज में मंजिल मिल जाने की संतुष्टि और गर्व पाकर विशेष की आवाज में एक पुराना जख्म उभर आया. जिसने शिकायत का रूप धर लिया.

“अरे नहीं विशेष! तुम्हें कैसे भूल सकती हूँ पर तुम्हें बताती कैसे. कोई कांटेक्ट नंबर भी तो नहीं था.” आरती ने फिर सफाई दी. इस फाहे ने दिल के जख्म पर कोई मरहम लगा दिया कि वह कह उठा,
“चलो छोड़ो शिकवा शिकायतें, अब तो पार्टी बनती है. कब दे रही हो पार्टी?”
दोनों को बातें करता देख कोई यह नहीं समझ सकता था कि दोनों की मुलाकात पूरे अठारह सालों बाद हुई है. दोनों रोज मिलने वालों की तरह बेतकल्लुफ हो बातें कर रहे थे. उनकी दोस्ती के रिश्ते में यह गुजरा समय औपचारिकता की कोई दीवार खड़ी नहीं कर पाया था.
“ आज शाम को ही ले लो. इतने सालों बाद मिलें हैं, खूब सारी बातें करनी हैं. आज शाम को घर आ जाओ. एफ-थर्टीन, ऑफिसर्स कॉलोनी, अवनिविहार.”
शाम को विशेष ठीक समय पर आरती के बताये पते पर हाजिर था. सलीके से बसी सुन्दर कॉलोनी हुए को निहारते हुए उसकी नजरें खुद उसके मचलते दिल को भी निहार रही थीं जिनसे वह नजरें बचाने के प्रयास में था. आरती के बंगले के द्वार पर सुनहरें फूलों की लटकती बेल की सुन्दरता ने उसकी नजरों को ठिठका दिया. उसने बंगले के मेन गेट से अन्दर जा कर दरवाजे की घंटी बजाई. दरवाजा आरती ने खोला. शुरुवाती ठण्ड की खुनक भरी शाम का आसमान आरती के हलके जामुनी रंग के चंदेरी टॉप और जेगिन्स में उतर आया. हाई पोनी में बंधे बालों में वह बहुत प्यारी लग रही थी. दरवाजा खोलते ही उसकी आवाज में अचरज भर आया,
“ वेलकम विशेष! पर अकेले? सब को ले के आना था न.”
“अब अकेला हूँ तो अकेला ही आऊंगा न. सब को कहाँ से ले के आता?” विशेष ने ठठा कर हँसते हुए कहा.
“क्यों शादी नहीं की क्या?”
“हां! नहीं की. अब अन्दर भी आने दोगी या सब दरवाजे पर खड़ा रख कर ही पूछ लोगी. वैसे दरवाजे पर लगे फूल बहुत सुन्दर हैं.”
तारीफ आरती की करना चाहता था पर अपने अहसास सामने आ जाने की हिचक ने उसे रोक लिया।
आरती ने हँसते हुए अन्दर आने के लिये जगह छोड़ दी. उस दिन शाम के चार घंटे कैसे बीत गए पता ही नहीं चला. आरती और विशेष दोनों ने अपने स्कूल के दिनों को फिर से जी लिया. इन गुजरे सालों के सफ़र के अनुभव बाँट लिये. दोस्तों का हालचाल बांटा. नहीं बांटा तो ये कि विवाह की उम्र निकलने को आने पर भी दोनों ने अभी तक शादी क्यों नहीं की.
दरवाजा खोलते ही विशेष को अकेले देख एक झटके में विशेष से आरती ने पूछ लिया था, “क्यों शादी नहीं की क्या?” पर जब दोनों आराम से सोफे पर आमने-सामने बैठ गए तो इस बारे में आगे पूछने से आरती हिचक सी गई और विशेष ने भी आरती की फैमिली फोटो देख कर और बातों ही बातों में शादी न होने की बात समझने के बाद भी कुछ न पूछा. फिर ये चार घंटे तो यादों की आंधी में तिनके से उड़ ही गए.
“याद है, वो भूगोल वाली मैडम, क्या नाम था उनका? उनके पीरियड में कैसे तुम सब छुप-छुप कर अपना टिफिन खा लिया करती थी कि लंच की छुट्टी का पूरा समय खेलने में लगा सको.”
“तो क्या अच्छे बच्चों की तरह लंच पीरियड का इन्तजार करते? खाना खाने से पहले हाथ धोने जाते और वापस आते. जिससे तुम्हें और तुम्हारी चंडाल चौकड़ी को हमारा टिफिन खाने का पूरा मौका मिल जाये.”
“हां यार उन चोरी के टिफिनों का स्वाद तो अब तक ताजा है.”
“याद है वो अलमारी में छुपा के रख दिए गए गर्मागर्म समोसे जिसकी खुशबू ने हमारे प्लान का भंडाफोड़ कर दिया था और सबको सजा मिली थी.”
हां अच्छे से याद है तुम्हें याद है वो हिंदी व्यकरण की क्लास जिसमे जबरदस्त फजीहत हुई थी मेरी.”
“हां वो उपमा अलंकार पढ़ रहे थे ना. तुमने ही तो बड़ी होशियारी दिखाते हुए अपने नाम का उदाहरण लेने कहा था मैडम को.”
“हां यार मुझे क्या पता था ऐसी फजीहत होगी.”
“मैडम क्या समझा रही थीं- यदि हम कहते हैं कि विशेष गधा है, इसका मतलब यह नहीं है कि विशेष के चार पाँव और एक पूंछ है या वह ढेंचू-ढेंचू बोलता है. इसका मतलब है कि विशेष में कुछ ऐसा गुण है, जो गधे के सामान है. गधे का गुण उसकी मुर्खता है तो इसका मतलब है कि विशेष मुर्खता में गधे के समान है. यह उपमा अलंकार का उदहारण है.”
आरती ने हंसी से दोहरे होते हुए हिंदी की मैडम के लहजे की नक़ल करते हुए कहा. जोर की आवाज में जैसे पूरी क्लास को समझा रही हो. अभी आरती वह नहीं थी जिसके आदेशों का पालन सैकड़ो लोग करते थे, विशेष वह नहीं था जिसके व्यावसायिक सफलता बहुतों के इर्ष्या का हेतु थी. अभी वे सिर्फ विशेष के साथ हुई गुगली पर हँसते हुए दसवीं कक्षा के विद्यार्थी थे. जिंदगी की दुनियादारी में कदम रखने से पहले के असली दोस्त.
इस दिन के बाद से आरती और विशेष दोनों की सुबह की कम से कम दस मिनट की मुलाकात सूर्योदय और सूर्यास्त की तरह निश्चित हो गई. आरती सुबह जल्दी सैर पर आती क्योंकि उसे सुबह साढ़े नौ तक ऑफिस निकलना होता और विशेष कुछ देर से क्योंकि वह बिज़नेस के कामों में देर रात तक व्यस्त रहता, लेकिन आरती के वापस जाने से पहले दोनों कुछ देर साथ रहते और दिनभर के लिये उर्जा बटोर लेते.
उनके बीच बातों के लिये दुनिया जहान के विषय होते. गार्डन में खिले गुलमोहर से लेकर विश्व की अर्थव्यवस्था तक. ये बात अलग है कि गुलमोहर की बात हो तो आरती ही शुरू करती और अर्थव्यवस्था की हो तो विशेष. स्कूल के दिनों और वर्तमान के बीच अठारह साल के अंतराल के बाद भी रोज स्कूल की कोई न कोई बात जरूर उनकी बातों में आ जाती और उनके दिन को महका जाती.
एक दिन दोनों यूँ ही गार्डन की बेंच पर बैठे थे कि एक बुजुर्ग दंपत्ति ने गार्डन में प्रवेश किया. बुजुर्ग अंकल के हाथ में स्टिक थी और आंटी उनकी कोहनी थामे चल रही थीं. उन्हें देखते ही आरती ने कहा,
“देखो! दोनों के बीच कितना प्यार है.”
“मुझे कोई प्यार नहीं दिख रहा. मुझे तो मजबूरी दिख रही है.” विशेष ने तपाक से कहा.
“कैसी मजबूरी” प्रेम को मज़बूरी का नाम देते देख आरती की आवाज में अनमनापन भर आया.
“इस बुढापे में बेटे बहू तो साथ होंगे नहीं, डॉक्टर ने सुबह की सैर जरूरी बताई होगी. अकेले कैसे आये? तो आंटी साथ आई होंगी मजबूरी में.”
“नहीं इसे ऐसे भी तो सोचा जा सकता है कि आंटी अंकल को अकेले भेजना नहीं चाहती हों. उन्हें चिंता हो उनकी इसीलिए वे भी साथ आई हों; तो ये चिंता प्यार ही तो हुई न.”
“ये प्यार नहीं, ये मजबूरी है. एक दूसरे का साथ देने की मजबूरी. मुझे इस दुनिया में तो प्यार नहीं दिखता. हां लोग मज़बूरी, समझौता को प्यार का नाम जरूर दे देते हैं जो मुझे पसंद नहीं.” विशेष ने अपनी बात में जोर देते हुए कहा.
“इस बुढ़ापे में भी एक दूसरे का साथ देना तुम्हारे लिये यदि प्यार नहीं है तो प्यार क्या है तुम्हारे लिये?” आरती की आवाज में एक चिढ़ भर आई.
विशेष ने अपनी कड़वाहट भरी आवाज को अलमस्त बनाने की कोशिश करते हुए आरती को चिढ़ाने के अंदाज में कहा,
“प्यार तलवार है जो दिलों को गाजर-मूली की तरह काट देता है.”
“नहीं, प्यार तलवार नहीं, प्यार तो म्यान है जो दिल की तलवार को दुनिया से और दुनिया को दिल की तलवार से सुरक्षित रखता है.” आरती ने विशेष की बात काटते हुए कहा.
“नहीं, प्यार दिलों की कब्रगाह है.”
“ऊंह, प्यार तो दिलों की सुखद गर्माहट भरी रजाई है.”
“नो, लव इज़ स्लो पॉईजन.”
“तुम तो हो ही लड़ाका, इसीलिए तुमको प्यार तलवार, कब्रगाह दिखता है. तुम किसी लड़की से ना सही प्रकृति से ही प्यार कर लो. कुछ प्यारी बातें बोलो- फूल-पत्ती, चिरई-चुरगुन की. महाशय प्यार के बारे में बोल रहे हैं और भाषा लड़ाई की.”
“अच्छा! प्यारे शब्दों से क्या होगा? मेरे लिये तब भी अपने अर्थ में प्यार जहर ही रहेगा.”
“ऊंहू! मैं नहीं मानती, तुम प्यारे शब्द बोलो तो. तुम्हें प्यार अपने आप होने लगेगा.”
“ठीक है सुनो! प्यार मासूम सा गिनीपिग है, जो दिल को पत्तों की तरह चबा जाता है.”
“ हे भगवान!” विशेष के बोलने के अंदाज पर आरती हंस पड़ी फिर उसने कहा,
“ऊंहू! प्यार बया है जो दिल के तिनकों से सपनों के घोंसले बुन देता है.”
“प्यार ड्रोसेरा का सुन्दर फूल है जो दिल के नटखट भँवरों को अपने आगोश में कस के चूस लेता है.”
“ना! प्यार तो कमल का फूल है जो भंवरों को मधुकण देता है.”
“वैसे भी अब तो तुम से बहस में कोई जीत ही नहीं सकता. मैं भी अपवाद नहीं हूँ.” विशेष ने हथियार डालते हुए कहा.
आरती ने मन ही मन कहा, “तुम मान क्यों नहीं लेते कि प्यार यूँ सामने वाले से हार मानना भी हो सकता है.” लेकिन प्रकट में कहा,
“ओह! तुम स्कूल के दिन भूल गए क्या? तब भी तुम कभी नहीं जीते थे.”
”और कुछ भी कहा क्या तुमने?” विशेष को जाने क्यों लगा कि जितना उसे सुनाई आया है आरती ने उसके अलावा भी कुछ कहा है लेकिन जवाब मिला,
“कुछ नहीं.”
आरती अनंत नीले आकाश में गुम हो गई.
“क्यों सोचा कि विशेष उससे प्यार करता है? क्या ये उसके दिल की छुपी इच्छा है? क्या अब वह जीवन की राह में साथी चाहती है?” आसमान में घुमड़ते बादलों की तरह प्रश्न उसके दिल में घुमड़ने लगे.
आकाश के नीले परदे पर एक सुर्ख लाल दिल झाँक रहा था. अपने विचारों के झुरमुट से बाहर आते हुए आरती ने कहा,
“अच्छा छोड़ो जीतना हारना. देखो! ये लाल सुर्ख सूरज संसार का दिल ही तो है यह जब तक चलता रहेगा, दुनिया चलती रहेगी. और सूरज के चलने से चलती ये दुनिया सूरज का प्यार ही तो है.”
“यार कौन विश्वास करेगा कि तुम जमीन जायजाद के रूखे-सूखे मसले निपटाती हो. तुम्हें तो कवियित्री होना था, प्यार की कवितायें कहने वाली कवियित्री.” विशेष ने हैरान होने का अभिनय करते हुए कहा.
“क्यों विश्वास नहीं करेगा? क्या प्रशासन का रथ दौड़ाने वाले के पास दुनिया की सुन्दरता देखने का दिल नहीं होना चाहिए? बल्कि तुम्हें नहीं लगता कि दुनिया की कड़वी सच्चाइयों से, लोगों के दिलों की बजबजाती नालियों से दिनभर रूबरू होते रहने के कारण उन्हें इस सुन्दर नजर की ज्यादा जरुरत है.” आरती ने अब अपने दिल की बातों को परे झटक दिया. अब उसे बस बातें करनी थी कि मन की आवाज दब जाये.
विशेष ने हाथ जोड़ते हुए कहा, “दार्शनिक महोदया यदि आप अपने दर्शन का व्याख्यान कुछ देर बंद करें तो मैं आपकी खिदमत में एक प्रश्न अर्ज करूँ?”
जवाब में आरती ने अपनी नज़रें विशेष के चेहरे पर टिका दी. उसका असमंजस भरा चेहरा कह रहा था कि शायद मुझे पता है कि तुम्हारा प्रश्न क्या है?
“तुम इतनी सुन्दर हो, शालीन हो, प्रतिभाशाली हो, तुम्हारा एक हस्ताक्षर कितनों के भाग्य का निर्णय कर देता है लेकिन तुम अब तक अकेली क्यों हो.”
यह प्रश्न बन्दूक से छूटी गोली की तरह विशेष के मुंह से निकल आया. यूँ तो यह प्रश्न विशेष के मन में उस दिन से कुलबुला रहा था, जिस दिन वह आरती से मिला था; पर उसने सप्रयास इसे अपने होठों पर आने से रोक रखा था लेकिन जब आज बातचीत प्यार दिल जैसे विषयों पर होने लगी तो वह अपने को रोक नहीं सका. बेहद अटपटे ढंग से उसने मन का प्रश्न आरती के सामने रख दिया.
“बस यूँ ही कोई अच्छा सा मिला नहीं.” अटपटेपन को आरती ने अपने सहज अंदाज से सहज बना दिया पर विशेष थमा नहीं,
“कैसा साथी चाहिए तुम्हें?” उसने अपनी नजरें आरती के चेहरे पर टिका दी. दिल में अरमान धड़कने लगे थे कि, जवाब में ‘तुम्हारे समान’ सुनने को मिल जाये.
“सात बज रहे हैं विशेष! यदि मैं लिस्ट गिनाने लगी तो शाम हो सकती है. तुम्हारे समान मैं अपनी मर्जी की मालिक नहीं हूँ कि ऑफिस जाऊं तो जाऊं, न जाऊं तो न जाऊं, कोई पूछने वाला नहीं. मैं तो सरकार की नौकर हूँ. मुझे साढ़े नौ बजे तक ऑफिस के लिये निकलना है. ओ.के. बाय” जवाब देने की बजाय आरती हंसने का अभिनय करती हुई उठ खड़ी हुई.
“ओह! इतनी लम्बी लिस्ट है” विशेष ने भी हँसते हुए अपने फिर से अंकुरित होते अरमानों पर मिट्टी डाल दी.
मिट्टी डालने में व्यस्त उसने नहीं देखा, कि आरती की आँखों ने कहा, “विशेष! खुद को आईने में देख लो जान जाओगे.”
लेकिन विशेष को आँखों की भाषा समझ नहीं आई, उसने तो प्यार को समझने की अपनी ऑंखें अठारह साल पहले ही बंद कर दी थीं. वरना दोनों के ही अरमानों की बेल फलने फूलने लगती. आरती और विशेष नदी के दोनों किनारों की तरह साथ-साथ लेकिन अलग-अलग चलते रहे. रोज सुबह मोर्निंग वाक़ पर मिलते रहे.
ऐसा नहीं था कि पहले विशेष इस भाषा को समझता नहीं था. जब वह दोनों उम्र के सोलहवें सावन में थे तब भी आरती की ऑंखें कुछ-कुछ कह उठती थीं. जब भी ऐसा होता आरती कुछ ज्यादा ही बोलने लगती. तब वह ऐसी और इतनी और तब तक बातें करती जब तक कि आँखों की उन कहीं-अनकही बातों का अस्तित्व ही मिट जाता. उस समय आरती का एक ही लक्ष्य था- पढ़-लिख कर जिलाधीश बनना. प्यार-मोहब्बत शब्द ही उसकी डिक्शनरी में नहीं आ सकते थे लेकिन कितनी ही कोशिशों के बाद भी आरती विशेष के प्रति आकर्षण को अपनी डिक्शनरी में आने से रोक नहीं सकी थी.
विशेष की डिक्शनरी में आरती के लिये आकर्षण ही नहीं प्यार भी था. ऐसा प्यार जो आरती की ख़ुशी में ख़ुशी ढूँढता था. आरती में पढ़ने के लिये दीवानगी थी तो विशेष में आरती के काम आने की लेकिन बस इतना ही क्योंकि आरती को अभी पढ़ना और आगे बढ़ना था. विशेष के पापा का बहुत बड़ा व्यवसाय था. उसे भविष्य में वही सम्हालना था. पढ़ाई तो बस डिग्री के लिये करनी थी. ये बात अलग है कि आरती से दोस्ती के चलते विशेष भी क्लास के टॉपर्स में गिना जाने लगा था. जो विशेष किसी तरह बी.कॉम कर पारिवारिक व्यवसाय में लग जाता वह एम.बी.ए. फाइनेंस कर अब अपने घरेलू व्यवसाय को बहुत बड़े स्तर तक ले आया था. इंसान चाहे कितना बड़ा बन जाये पर दिल तो वही धड़कता है जो बचपन में धड़कता था.
जब आरती के पापा का ट्रांसफर हुआ, आरती उससे दूर हो गई तो विशेष का दिल रह-रह कर मरोड़ उठता. उसे कुछ भी करने की इच्छा नहीं होती. तब फेसबुक, ट्विटर जैसे संपर्क बनाये रखने के साधन तो थे नहीं. विशेष ने इस मरोड़ से निजात पाने के लिये खुद को आश्वासन देना शुरू किया कि उसे प्यार नहीं था। ठीक इसी समय सारा घर चाचा प्रेम विवाह के कड़वे अनुभव से जल उठा। कच्ची माटी सी उम्र में इस अनुभव ने कच्चे दिल को पटा दिया। उसने मां दिया कि मोहब्बत जैसी कोई चीज इस दुनिया में नहीं होती. दुनिया बहुत स्वार्थी होती है. सारे रिश्ते स्वार्थ पर टिके होते हैं
सभी को अपना जीवन जीने के लिए जीवन उर्जा की जरुरत होती है कोई यह उर्जा प्यार से पाता है तो कोई नफ़रत से. विशेष आरती से तो नफ़रत नहीं कर सका लेकिन उसने प्यार के प्रति मन में कड़वाहट भर ली. कब्रगाह, तलवार, पाइजन सब उसी कडवाहट से उगी फसलें थीं. वहीँ आरती विशेष के प्यार और उसके प्रति अपने लगाव को दिल में सहेजे जीवन उर्जा लेती रही. जो उर्जा उन्होंने प्यार को दी वही उर्जा उनके जीवन में भी उतर आई.
यूॅं भी हर क्रिया की प्रतिक्रिया बराबर किन्तु विपरीत दिशा में होती है. विशेष ने प्यार को जितना नकारात्मक माना प्यार ने भी विशेष को उतनी ही नकारात्मकता दी. नतीजा विशेष को अक्सर अवसाद से लड़ना पड़ता. इस अवसाद को आरती से दूर हो जाने के गम की देन कहा जाना भी उचित नहीं क्योंकि कुछ तो व्यक्ति का स्वाभाव ही होता है, कुछ परिस्थितियां उसे बना देती हैं. करेला चाहे अमृत से सींचा जाये कड़वा ही होगा जबकि तरोई की जड़ में पड़ा खप्पर उसमें कडवाहट भर देता है.
आरती बचपन से अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए घोड़े के सामान मुंह पर लगाम बांधे चलती रही थी. अर्जुन की तरह सिर्फ चिड़िया की आंख देखती रही थी. अब जब उसने चिड़िया की आंख भेद ली, तब उसने संसार को देखना शुरू किया. तब पाया कि दिल का एक कोना किसी का प्यार चाहता है. जिस पर सिर्फ उसका अधिकार हो. दिल में छुपे इस सत्य से वाकिफ होने के साथ ही आरती के जेहन में जिस छवि ने दस्तक दी वह विशेष की थी. तब भी उसने इसे मुस्कुरा कर टाल दिया था लेकिन यह छवि लगातार उसके जेहन में दस्तक देती रही. उससे कहती रही कि विशेष तुझसे प्यार करता था. आरती! तुम भी उससे प्यार करती थी.
जब भाग्य ने दोनों को अनायास ही मिला दिया. तब आरती का दिल उस कमल सा खिल उठा जिसे सूर्य रश्मियों ने छू लिया हो लेकिन आरती विशेष में अपने उस चिर- प्रतीक्षित भंवरे का इन्तजार ही करती रह गई. वह भंवरा उसके पास आया तो जरूर लेकिन सिर्फ अपना गुंजन लिए, कमल की खुशबू का आकांक्षी हो कर नहीं. आरती इन्तजार करती रही, सोचती रही कि तुम मान क्यों नहीं लेते कि प्यार यूँ सामने वाले से हार मानना भी हो सकता है. वह भंवरा कैसे मान सकता था? उसने तो उस कमल की कली से ही प्यार कर लिया था और कली के खिलने के अंतहीन से लगते इन्तजार से तंग आकर प्यार से ही विश्वास उठा लिया था.
एकदिन यूँ ही सुबह की सैर करते हुए दोनों रोड पर आ गए. रोड पर दोनों ओर छातिम की कतार खड़ी थी. आरती ने विशेष से कहा,
“आजकल रोड के किनारों पर छातिम की कतारे अधिकांश जगह दिखती हैं. छोटे-छोटे हरे-भरे पेड़. जिन पर न बासंती बयार का असर होता है ना जाड़ों की ठिठुरन का. मुझे रोड के किनारों पर नीम, गुलमोहर, अमलताश अच्छे लगते हैं जो अलग अलग ऋतुओं में अपना अलग रूप दिखाते हैं.”
“पेड़-पौधों की दुनिया से अनजान विशेष का प्रश्न आया, “क्यों?”
“जाड़ों की ठिठुरन में इनके पीले पड़ते पत्तों के साथ जहाँ बसंत का इन्तजार मन में करवटें बदलता रहता है तो बसंत के आते ही इनपर छा जाने वाली मादक सुन्दरता मन को उत्साह से लबालब कर देती है. गर्मी की तीखी धूप का सामना करती इनकी नर्म नाजुक कोंपलें मुश्किलों से लड़ने का हौसला दे जाती हैं.”
“तो तुम्हें साल भर हरे-भरे रहने वाले पेड़ अच्छे नहीं लगते. जो कभी सूख कर बदरंग हो जाते हैं. कभी अपने पत्ते झड़ा कचरा फैलाते हैं वैसे पेड़ अच्छे लगते हैं. क्या कहना तुम्हारी पसंद का?” विशेष ने आरती की बातों को हवा में उड़ाते हुए कहा.
“तुम्हें पेड़ों का सूखना अच्छा लगता है तो जिंदगी में दुःख भी अच्छा लगता होगा?”
विशेष की आवाज में अचानक से एक अजनबीपन का अहसास कर आरती चौंक पड़ी. उसने सम्हल कर कहना शुरू किया,
” पतझड़ पेड़ों का सूखना थोड़े ही है. यह तो पुरानी अनुपयोगी बातों को भूल कर फिर से आगे बढ़ना है और दुःख का मतलब भी किसी ऐसे दुःख से नहीं है जिसकी भरपाई संभव न हो. जीवन में छोटे-छोटे दुःख परेशानियाँ जिनसे संघर्ष कर मंजिल मिले तो मंजिल पाने की कीमत उसकी ख़ुशी अधिक होती है.”
“ख़ुशी के लिये दुःख क्यों जरुरी है? ये क्या दर्शन हुआ दार्शनिक महोदया?” विशेष ने सप्रयास अपनी आवाज के अजनबीपन पर नियंत्रण करते हुए कहा,
” मुझे तो छातिम की कतारें ही अच्छी लगती है हमेशा हरे-भरे रहने वाले. फूलों का सौन्दर्य ना सही पर पतझड़ का उजाड़पन भी नहीं होता इनमें.”
“हां बिलकुल, ये छातिम आजकल की आधुनिक जीवनशैली के प्रतिबिम्ब ही तो हैं. बंद खिडकियों वाले ए.सी. कमरे में क्या जेठ और क्या पूस. बारहों महीने एक ही मौसम चलता है ए.सी. कमरों में. इनमें रहने वाले सावन की फुहारों का आनंद क्या जानें.” आरती ने भी विशेष को चिढाते हुए कहा.
“फुहारों में आनंद होता भी है? बस कीचड, मक्खी और मच्छर ही तो देती हैं फुहारें. मुझे तो एक्सरसाइज भी एयर कंडीशंड जिम में ही पसंद है. वो तो डॉक्टर ने खुली हवा में ही घूमने कहा और फिर तुम मिल गई तो रोज तुमसे मिलने के लालच में पार्क आ जाता हूँ.” एक रौ में बहते हुए विशेष कह गया.
आरती ने गहरी नजर से उसे देखा फिर देखती ही रही, “मुझसे मिलने के लालच में?”
आरती की आँखें समंदर से गहरी हो उठी थी. विशेष अचकचा गया उसे लगा कि वह इस समंदर में डूब जायेगा. उसके दिल के वो कपाट खुल जायेंगे जो उसने बड़ी मेहनत से किशोरावस्था में ही बंद कर लिए थे. उसका मन पतझड़ के पेड़ों की तरह निरावृत हो उघड़ कर सामने आ जायेगा. उसने जवाब में कुछ नहीं कहा. बस उठा और बिना आरती की ओर देखे चला गया. आरती ने उसे आवाज दी पर वह रुका नहीं. आरती कुछ देर सोचती बैठी रह गई,
“मैंने ऐसा क्या कह दिया?” फिर वह भी उठ आई.
अगले दिन विशेष पार्क नहीं आया. एक दिन बीता, दो दिन बीता, तीन, चार, पांच दिन बीत गए. इन पांच दिनों की दूरी में दोनों के दिल में दबा एक-दूसरे के प्रति प्यार पतझड़ के बाद पेड़ की हर शाख से फूटती कोंपलों सा प्रस्फुटित हो आया. जहाँ आरती ने दिल की बात सहजता से स्वीकार ली वही विशेष इन फूटती कोंपलों को नोच नोच कर फेंकने के प्रयास में हांफने लगा. जब छठवें दिन भी विशेष पार्क नहीं आया और उससे संपर्क करने के सारे प्रयास-
“साहब व्यस्त हैं.”
“साहब बाथरूम में हैं.”
“साहब पूजाकर रहे हैं.” के हथियारों के सामने ध्वस्त हो गए तो आरती शाम को विशेष के घर पहुँच गई.
संयोग से दरवाजा विशेष ने ही खोला. वह सलवटों से भरे सफ़ेद कुरता पायजामे में बढ़ी दाढ़ी और उनींदी लाल आँखों से आरती को देखता खड़ा रह गया. आखिर आरती ने ही कहा,
“अन्दर तो आने दो.”
विशेष ने बिना कुछ कहे सामने से हटते हुए यंत्रवत तरीके से सोफे की ओर इशारा किया. दोनों कुछ देर तक बिना कुछ कहे एक दूसरे के सामने असहज से बैठे रहे. विशेष सोचता रहा कि
आरती क्यों आ गई सामने, यदि वह कुछ देर और बैठी रही तो मैं खुद को रोक कैसे सकूंगा. उसने काली साड़ी क्यों पहनी हुई है. काली साड़ी में आरती का गोरा रंग किस कदर मोती सा चमक रहा है. नहीं! यही काला रंग उसने मेरे जीवन में घोल दिया है. दुख में डुबो कर रख दिया है इसने मुझे. मुझे इससे दूर जाना है. दूर जाना है.
आरती सोचती रही कि क्या कहूँ? कैसे कहूँ? क्या मेरा कहना अजीब नहीं लगेगा. क्या पता विशेष अब मुझसे प्यार न करता हो. लेकिन यदि प्यार नहीं करता तो खुद को इस कदर बाँध क्यों रहा है? दोनों की बीच पसरी चुप्पी से घबरा आरती बोल पड़ी,
”विशेष”
जैसे ही दोनों की ऑंखें मिली उसने आगे कहा
“तुम खुद को ऐसे रोक क्यों रहे हो?”
आरती ने बोल दिया फिर सोचा कि मैं ये क्या कह गई?
यह सुन वर्षों पहले बंधा हुआ एक बांध लबालब भर छलक आया लेकिन अवसाद में डूबे विशेष का जो जवाब आया वह खुद विशेष के लिए भी अजनबी था,
“मैं तुम्हारे लायक नहीं. मैं तुमसे प्यार नहीं कर सकता.” छलकने के बाद विशेष खुद को रोकने की कोशिश करने लगा.
“क्यों नहीं कर सकते, क्या मैं तुम्हें पसंद नहीं?” आरती पहल के बाद पहल की हिचक में डूब खुद की गलती ढूँढने लगी.
“करता हूँ तुम्हें बहुत पसंद करता हूँ तुम्हें पाकर तो कोई भी लड़का खुद को खुशकिस्मत समझेगा. लेकिन...”
लेकिन क्या? तुम मुझे पसंद करते हो मैं तुम्हें पसंद करती हूँ. दोनों ही यह जानते हैं कि यह पसंदगी कोई आज की नहीं फिर क्या परेशानी है?” एक पल की हिचक के बाद आरती ने खुद को सम्हाल लिया
मैं नहीं चाहता कि मेरे दुखों की काली छाया भी तुम पर पड़े.” जिस भाग्य के लिए लोग तरसते हैं वैसा भाग्य वाले लेकिन अवसाद से जकडे विशेष ने कहा.
विशेष को दुखी देख आरती के अन्दर की माँ जागृत हो चुकी थी. वह अभी विशेष को सारे ज़माने की परेशानियों से दूर करने अपने आँचल में छिपा लेना चाहती थी. उसने विशेष के हाथों पर हाथ रखते हुए कहा. “तुम दुखी नहीं. तुम अवसाद में हो. दुःख भले ही काला होता हो अवसाद का रंग गाढ़ा नीला होता है. तुन्हें पता ही है मेरे पास उर्जा उत्साह से लबरेज पीला रंग है. जब नीला रंग और पीला रंग मिलते हैं तो हरा रंग बनाते हैं. हरा रंग- हरियाली का रंग, खुशहाली का रंग. यही रंग हमारी जिंदगी का होगा. हम अपनी जिंदगी में सावन की हरियाली भर लेंगे. तुम एक बार मुझ पर विश्वास तो करो. ”
वर्षों के पतझड़ के बाद विशेष के मन के पेड़ में नयी कोंपले बढ़ने लगी. गुलाबी बैंगनी लहलहाती कोंपलो से भरा पेड़ मुस्काने लगा.
कुछ महीनों बाद फूलों से सजी सेज में बैठे हुए विशेष ने आरती के चूड़ा भरे हाथों को अपने हाथों में थाम उसके कानों में कुछ कहा जिसे सुन आरती छुईमुई सी सिमट गई. कुछ पल विशेष उसे मुग्ध दृष्टि से देखता रहा फिर उसने कहा,
“सुनो! प्यार बसंत है, जो मेरे दिल के गुलमोहर को सूर्ख लाल तपते अहसासों से सजा देता है और जो तुम्हारे गालों में लाज के गुलाबी कचनार खिला देता है.”

-श्रद्धा थवाइत

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