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एक हज़ार बरस की रात!!

-1-
“क्या बहुत ज़्यादा तबियत ख़राब है उनकी?”
अलका जब स्टाफ रूम में घुसी तो उसने आनंद को किसी से बात करते सुना|
“तुम्हारा लेक्चर नहीं है क्या? अभी तक यहाँ क्यों हो?” अलका ने पूछा|
“नहीं मैम, मेरी क्लास शिफ्ट हुई है| आज मुझे राजू सर का लेक्चर लेना है|” उसने कहा|
“क्यों आज आये नहीं क्या वह?”
“आपको नहीं पता, वह तो हॉस्पिटल में हैं| सीरियस कंडीशन है उनकी|” आनंद ने कहा|
“क्या हुआ?”
“परसों रात उन्हें एडमिट किया है हॉस्पिटल में| आज उनके भाई का फ़ोन आया था|” उसने जवाब दिया|
अलका का चेहरा एक दम ही उतर गया| वह समझ नहीं पायी की इस बात पर क्या प्रतिक्रिया दे? हडबडाहट में उसके मुँह से इतना ही निकला|
“किस हॉस्पिटल में हैं? मैं देखने जाऊँगी|”
“यहाँ नहीं हैं| हासन हैं अपने घर| वहीं थे, तभी तो एकदम ही एडमिट करा पाये उन्हें| यहाँ होते तो जाने कब पता चल पाता कि कुछ हुआ उन्हें|” आनंद बोला|
“ठीक है| फिर जा कर उनकी क्लास एंगेज करो|” उसने आनंद से कहा और पलट के क्लर्क को पुकारा|
“सुधाकर, मेरे हासन जाने का अरेंजमेंट् कर सकते हो क्या? दोपहर की बस देखना कोई और वहाँ रुकने का भी अरेंजमेंट् भी|”
तीन, साढ़े-तीन घंटे का सफ़र देखते ही देखते गुज़र गया| हवा में कॉफ़ी और इलायची की मिलीजुली गंध से उसका सर भारी होने लगा था| होटल पहुँच, रिसेप्शन से चाबी ले कमरे में आने तक सर दर्द बहुत ज़्यादा बढ़ गया था| कमरा छोटा होने के बावजूद सुंदर था और एक अजब से पेस्टल रंग की उदासी में पगा हुआ था| खिड़की से दूर तक बस नारियल के पेड़ ही नज़र आते थे| जब वह होटल से बाहर आई तो रात होने लगी थी, सड़क पर बत्तियां जल चुकी थीं| उसने पास खड़े एक ऑटो वाले को बुलाया और बैठते हुए कहा|
“मंगला हॉस्पिटल|”
ये शहर उसे मैसूर के मुकाबले छोटा, अव्यवस्थित और असंयमित भीड़ वाला लगा| दिलीप राजू पहले हासन से मैसूर पढ़ने के लिए आया था और बाद में उसने वहीं यूनिवर्सिटी में एड्होक पर नौकरी ज्वाइन कर ली थी| हवा में कहीं दूर से आती फूलों की मुरझाई हुई गंध घुली हुई थी|
अस्पताल के गलियारे में राजू का भाई बैठा हुआ था| वह जा कर उसके बगल में पड़ी कुर्सी पर निढ़ाल सी बैठ गई|
“हाऊ इज़ ही नाउ?”
“बैटर, इट इज़ हेपटाइटिस|” वह बोला|
उसने दिलीप के भाई को गौर से देखा, उलझे बाल, बढ़ी हुई दाढ़ी, आंखें बोझल जैसे एक-दो रात से सोया नहीं हो, जैसे ख़ुद ही मरीज़ हो|
“ओह गॉड! लोग अस्पताल में भी नहा-धो कर, साफ़-सुथरे हो कर क्यों नहीं आ सकते? पेशेंट के साथ ख़ुद भी पेशेंट बन जाते हैं| कैसा बीमार सा माहौल बना देता हैं| उसने सोचा|
डॉक्टर के साथ वार्ड में जा कर वह राजू को एक बार देख आई थी| पिछले दो-तीन घंटों से वह गलियारे में ऐसे ही बैठी है; अब और रुक कर क्या करेगी यहाँ; सुबह ग्यारह बजे लेक्चर भी तो है| वह उठी और अस्पताल से बाहर निकल आयी|
होटल लौट कर भी जब उसे बहुत देर तक नींद नहीं आई तो उसने रूम सर्विस फ़ोन कर सोडा ऑर्डर किया| वोडका की एक मिनिएचर बोतल वह अपने साथ ही लायी थी| कई सालों से अब वह तानव में आने पर इसी का सहारा लेती है| भटकता हुआ मन थम जाता है, नींद भी आ जाती है| ग्लास में थोड़ी शराब बची थी उसने एक ही घूँट में उसे गटक लिया| कर्नाटक की यही बात तो पसंद थी उसे कि कहीं भी चले जाओ, किसी भी दुकान में घुस जाओ पसंद के किसी भी ब्रांड को लो और निकल लो, कोई रोकने-टोकने वाला नहीं|

-2-
रात ठिठक कर थम गयी थी; और ठहरी हुई, थमी हुई रात कैसे चमकती है ये उसने आज ही जाना था| उसके सामने मैसूर का भव्य राजमहल अपनी पूरी आन-बान विरासत के साथ दशहरे की रोशनी में नहाया हुआ आज भी वहीं खड़ा था जहां सैकड़ों सालों पहले उसकी नींव रखी गयी थी| पतली काली सड़कों के सहारे बिछी लाल मिट्टी राजमहल को घेरे हुए थी| कर्नाटक के इस हिस्से में ऐसी ही लाल मिट्टी का बिछौना बिछा हुआ है, यू.पी में कहाँ दिखती थी ऐसी मिट्टी| कितनी अलग है यहाँ की मिट्टी उसकी अपनी मिट्टी से| ये कैसी मिट्टी है जिसमें वह जड़ ही नहीं जमा पा रही| इतने सालों में भी कोई लगाव नहीं हुआ उसे इस जगह से| वह खड़े-खड़े सोच रही थी कि ‘मैडम’ की पुकार ने उसे चौंका दिया|
“मैडम! गाइड चाहिये आपको? अस्सी रूपये में पूरा पैलेस विजिट करा दूंगा| वह देखिये सामने उस गोल्डन रेलिंग के पीछे मैसूर के महाराज की गद्दी बिछती है दशहरे पर| पूरे एशिया में फेमस है मैसूर का दशहरा| पिछले चार सौ सालों से चल रहा है| हर साल सैकड़ों टूरिस्ट आते हैं यहाँ दशहरा देखने|” उस लड़के ने कहा|
“नहीं, नहीं चाहिये कोई गाइड|” वह बोली|
“इट्स ओके|” कह कर वह अपना लटका हुआ चेहरा ले कर वहाँ से चला गया|
उस लड़के चेहरे पर आई उदासी अस्सी रूपये के नुकसान की है या वक्त की बर्बादी की; वह समझ नहीं पाई| छोटे-छोटे सफ़ेद बादलों के पीछे रात और गहरी होती जा रही थी|
“जल्दी चलो, बारिश होगी|” भीड़ में से एक आवाज़ आई|
कभी-कभी कोई दृश्य बीते हुए समय का कोलाज बन कर सामने आ खड़ा होता है; हाथ पकड़ कर भंवर के अंदर खींच लेता है| इस दृश्य की चोट, इस के निशान हमेशा देह पर चमकते रहते हैं| अलका ने एक साँस छोड़ी और उठ खड़ी हुई|

वह जहाँ खड़ी थी वह आगरा के सबसे व्यस्ततम चौराहों में से एक था| उसने घडी देखी कितना समय हुआ, अब तक तो उसे आ जाना चाहिये था| इंतज़ार करते-करते उसने यूँ ही टहलना शुरू कर दिया| वह सड़क के नज़दीक पहुंची ही थी कि किसी ने बाँह पकड़ कर उसे खींच लिया|
“किसी गाड़ी के नीचे आ जातीं तो कीमा बन जाता|” लड़के ने कहा|
“ओह! तुम कब आये? कितनी देर तक वेट कराते हो यार| बाइक कहाँ हैं तुम्हारी?”
“पार्किंग में लगा रहा था कि देखता हूँ तुम तो सड़क ऐसे पार कर रही थीं जैसे के कमरे में टहल रही हो| ध्यान कहाँ रहता है तुम्हारा अलका?
“तुम्हारे अलावा अब कुछ और कहाँ ध्यान ग्रोवर साहब|”
जब वे दोनों सूरसदन से बाहर निकले तो हल्की-हल्की बारिश हो रही थी|
“शिट! मेरे जूते|” वह बोला|
“नए जूते हैं क्या?” अलका ने पूछा|
“हाँ, बिलकुल नए हैं| आज ही पहने हैं पहली बार|
“कितने जोड़ी जूते हैं तुम्हारे पास?
“अठारह|”
“पापा की फैक्ट्री का ख़ूब फ़ायदा उठा रहे हो तुम|”
पिता के ज़िक्र से उसका चेहरा मुरझा गया| अलका के सामने खड़े होने के बावजूद वह कहीं खो सा गया था|
“यार, पापा बहुत ज़ोर दे रहे हैं काम शुरू करने के लिए| सोच रहा हूँ कि फैक्ट्री जाना शुरू कर दूं, अब मिलना-जुलना कम करना होगा हमें|” उसने कहा|
“मेरी मानो तो अभी मत ज्वाइन करो, पहले एम्.बी.ए. कर लो|”
“नहीं यार इस बार फ़ेल हो गया था, पापा बहुत नाराज़ हैं| अब नहीं करूँगा|”
“प्लीज़! मेरे कहने से लास्ट टाइम कोशिश कर लो|”
“पापा को मनाना मुश्किल होगा, फिर भी देखता हूँ| वह बोला|

-3-
“सुन अलका, यार मेरे साथ एक पेपर पर थोडा काम करवा दे| को-ऑथर बन जा| डेडलाइन है इसी वीक जमा करना है|” स्मिता ने उससे पूछा|
“टॉपिक क्या है?”
“पेरेंटल ईगो एंड ऑनर किलिंग|”
“तुम सिंधु को बना लो को-ऑथर| सोशियोलॉजी में पेरेंटिंग उसका एक सब-टॉपिक था| मुझे ऐसे किसी टॉपिक का कोई एक्सपीरियंस नहीं|” अलका ने कहा|
“क्यों झूठ बोलती हो? तुम भी तो ऐसे ही डी-पोर्ट हो यहाँ, पेरेंटल ईगो के चलते| भूल गयीं जब यू.पी से यहाँ आयी थीं तो कैसी थीं और अब कैसी हो| मैसूर आने से पहले, बंगलौर वाला टाइम भूल गयीं क्या? रमैया नगर वाला घर याद है, शराब-सिगरेट सब वहीं तो सीखा था हमने| स्मिता ने अलका कहा|”
“सब याद है मुझे|” उसने कहा और स्टाफ रूम से निकल गयी|
खिड़की से ठीक सामने फूलों का एक छोटा पेड़ दिखता था| वह उठ कर बाहर बालकॉंनी में आ खड़ी हुई| कितना कुछ बदल गया है इन सालों में| नज़र कितनी तेज हुआ करती थी पर अब चौबीसों घंटे चश्मा पहना पड़ता है| उसे ऐसी ही एक शाम याद आ गई जब वह इसी बालकॉंनी में खड़ी हुई थी और एक बच्चा दीवार के सहारे कोई पौधा रोप रहा था| बच्चे ने सर उठा के उसे देखा और कहा|
“थोड़ा पानी फेंक, मैं लाया नहीं, भूल गया|”
अलका ने एक ग्लास पानी पौधे में डाल दिया| उसके बाद कभी खिड़की से, कभी कॉलेज आते-जाते हुए वह उसमें पानी दे दिया करती थी| पूरे मैसूर में यही पेड़ उसका पहला आत्मीय था| ख़ुद से सींचा हुआ, प्रेम के स्पर्श से बड़ा किया हुआ|
वह कमरे में लौटी, पलंग की पाटी से टिक कर ज़मीन पर बैठ गयी| शहर की लौ आजकल ज़रा मद्धम पड़ी हुई है| पिछले कुछ दिनों से शहर भर में वेलेंटाइन डे के खिलाफ़ बहुत नाटक तमाशा चल रहा है| उसने पलंग से तकिया खींच वहीं ज़मीन पर डाला और लेट गई| करवट ले सामने लगे शीशे में अलका ने ख़ुद को देखा| जब वह यहाँ आई थी तब कितनी कमज़ोर सी लगा करती थी, और अब इन सात सालों में देह कैसी भर सी गयी है| कमर के गिर्द चर्बी की एक परत बन गयी है; अब स्कर्ट बंधने के लिए बेल्ट की ज़रूरत नहीं पड़ती| उसने पलंग के नीचे से ऐश-ट्रे निकाली उसमें से एक अध-बुझा सिगरेट का टुकड़ा उठाया और जला लिया|
“तुम भी भेज दो अलका| हम सब भेज रहे हैं|” स्टाफरूम की ख़ुसुर-फ़ुसुर में स्मिता ने कहा|
“क्या?”
“पिंक पेंटीज़, सब भेज रहे हैं मैसूर की मॉरल-पुलिस को|”
“ओह! पर मेरे पास तो कोई पिंक कलर की है ही नहीं| डार्लिंग ये इंडिया है थर्ड वर्ल्ड, तीसरी दुनिया; जहाँ चोरी छुपे रेशमी चादरों के भीतर सब अलाउड है पर खुले में हाथों में हाथ डाल घूमने की मनाही है|” उसने स्मिता के कंधे पर हल्का मुक्का मारते हुए कहा|
ये सब सोचते-सोचते उसके चेहरे पर हल्की हँसी आ कर ठहर गयी| उसने सिगरेट बुझाई और आँखें मूँद कर दुबारा वहीं लेट गयी| उसकी बंद आँखों से कुछ पुराने दृश्य याद की अलमारी में रखे कपड़ों की तरह यथार्थ के फ़र्श पर फिसल कर गिर पड़े| अतीत का हिस्सा किसी भी तहख़ाने में रखा हो पर ज़हन के किसी बल्ब की रोशनी हर दम उस अँधेरे तहख़ाने के ऊपर सर्च-लाइट की तरह घूमती रहती है| उसने हल्के से आँखें खोल लीं| इतने सालों बाद भी उसे पता ही नहीं की वो क्या चीज़ है जिसे वह खोज रही है? कौन सी लिपि है जिसे वह पढ़ना चाह रही है पर उसे समझ नहीं पा रही; क्यों इसे डी-कोड करने के लिए उसे ऐसी छटपटाहट है| जबकि वह जानती है कुछ भी डी-कोड करने से पहले उसकी कोडिंग ज़रूरी है और कोडिंग का मतलब है आत्मा की भित्तियों की सिलाई करना, मन के टूटे हुए धागों की मरम्मत करना| जैसे अनदेखे ज्वालामुखी जिनके क्रेटर पर आशा की नहर का ठंडा, सफ़ेद पारदर्शी पानी ठहरा हुआ रहता है; उसको पार कर के अन्तस् की आग में मुँह डाल कर आग महसूस करने की, झुलसने की ज़िद को पूरी करना| प्रार्थनाओं के समय हथेलियों को नहीं जोड़ना चाहिये, ऐसा करने से कई बार प्रार्थना पूरी नहीं होती| कभी-कभी हाथ की दरारों में जी की बात, मन की प्रार्थना फँस कर रह जाती है और दम घुटने से मर जाती है| मरी हुई प्रार्थना कैसे पूरी हो सकती है? उसने सोचा| इतना सब करने के बाद; रंग-रोगन, मरम्मत के बाद हर एक घटना, हर वाकये को दोहराने के लिए, उसकी डी-कोडिंग करने के लिए हर उस दीवार को, भित्ति को, तुरपन को उधेड़ देना जिसकी बड़े जतन से देखभाल की थी एक तरह का वहशतज़दा काम ही तो है| जिसे ढक दिया, छुपा दिया उसे उजागर कर क्यों दर्द महसूस करना| फिर भी गाहे-बगाहे क्यों मन उसी ढके-छुपे की ओर चल पड़ता है|

-4-
राजू अभी तक वापस नहीं आया था| आनंद ही उसका सब वर्कलोड हेंडल कर रहा था इनदिनों, उसी ने ही अलका को बताया कि राजू ने छुट्टियाँ एक्सटेंड करा ली हैं अपनी, डॉक्टर्स कहते हैं कि अभी तीन-चार हफ़्ते और रेस्ट की ज़रुरत है उसे| आनंद ने बताया कि राजू का नया आर्टिकल आया है अगर उसे टाइम हो तो वह पढ़ ले| ‘कर्नाटक स्टेट एंड इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट’ शीर्षक से राजू का लिखा लेख इन दिनों दक्षिण के बुद्धिजीवियों के बीच ख़लबली मचाये हुए था| इस एक लेख ने राज्य भर में मैसूर विश्वविद्यालय के एक साधारण से जूनियर प्रोफ़ेसर को स्थापित कर के रख दिया था| हाथ में बंद अखबार ने उसे अनायास ही बीते समय में पहुँचा दिया|
रोहतांग दर्रे के तापमान से भी नीचे उतर गया था उसकी देह का तापमान| उसे महसूस हुआ मानो उसकी शिराओं में बर्फ़ तरल हो कर बह रही हो| जून की चिपचिपाती गर्मी में भी उसका शरीर ठंडा पड़ने लगा था| शशांक के एक मैसेज ने उसे ज़मीन पर पटक के छोड़ दिया था|
“अंकल पास्ड अवे ऑन संडे|”
चार दिन हुए और किसी ने ख़बर भी नहीं की मुझे| सम्पर्क के नाम पर शशांक से दोस्ती का जो पतला तार है अगर ये नहीं होता तो क्या मुझ तक ये बात पहुँच पाती| उसने सोचा|
“तुमने शादी के बारे में क्या सोचा अलका?” महीनों बाद पिता ने उससे बात की थी|
“कुछ नहीं डैडी|”
“कुछ नहीं से तो काम नहीं चलता न, मुझे प्रतिमा की शादी का हिसाब भी तो देखना है|”
“अरे! तो कर दीजिये मैंने रोका थोड़े है| न आपको, न उसको|” उसने पलट के जवाब दिया|
“अब तुम हम लोगों के लिए शर्मिंदगी की वजह हो अलका|” उन्होंने सर झुका कर कहा|
फिर एक दिन इस रोज़-रोज़ की चिख-चिख से तंग आ कर, सब पर ठोकर मार वह बैंगलोर चली आई| यलहंका अपनी भव्य विरासत लिए, अपना दामन फैलाए उसे अस्ताचल में समेटने को तैयार खड़ा था| अपने विरासत के इतिहास से, चोला वंश के राजाओं से, चालुक्यों के हाथों से, होयासाला के राजघरानों से छूटता, फिसलता वह अलका जौहरी के पाँव में आ पड़ा था| अपने बुनियाद के दिन से लेकर आज इक्कीसवीं सदी में उसके लिए इठलाता हुआ खड़ा था| केम्पेगौड़ा ने इस विरासत को मानो उसके लिए ही तैयार किया था| उसका मानना था कि विरासतों में बहुत बोझ होता है और एक दिन इन विरासतों के नीचे हम सब बौने हो जायेंगे| विरासतों के बोझ से पहले जूतों के तले घिसेंगे फिर पाँव के तलवे| विरासतों की बात करने वाले जानते हैं कि उनके पैरों में लड़खड़ाहट हमेशा के लिए आ कर बस गयी है, वे ये भी जानते हैं कि उनके दिल बहुत पहले से रिस रहे हैं और विरासतों के पैने अनगढ़ पत्थर अपनी नोंक से दिल को ख़त्म कर देते हैं; फिर बाद में रह ही क्या जाता है| कभी किसी को विरासतों की बात करते सुनो तो उन्हें कह दो की भाग जाना ही सबसे बेहतर रास्ता है उन के लिए, हालाँकि कहने वाला ही कहाँ तक भाग के गया होगा| कहने वाला और सुनने वाला दोनों ही कहाँ तक भाग सकते हैं? घर नाम की एक न दिखने वाली कील उनके अन्दर कहीं गढ़ी रहती है जो बार-बार उन्हें कहीं अतीत में अटका के रखे रहती है|
घर शब्द का बोझ उसके दिल की कील को रह-रह कर उमेंठता रहा है, जबकि उसने सोचा था कि इस आगे की राह में उसे कभी भी वापस मुड़ के नहीं देखना पड़ेगा पर शशांक के इस मैसेज ने भले ही कुछ देर के लिए ही सही, उसे वापस उसी रास्ते से पर ला कर खड़ा कर दिया था जहाँ से वह आगे बढ़ गयी थी|
“मैंने पहले भी कहा था उस ग्रोवर के लड़के से मिलना जुलना सही नहीं तुम्हारा| एक दम आवारा किस्म का लड़का था वह| जानती हो इस सब का नतीज़ा क्या होगा, अब इस हादसे का, उसको उकसाने का सारा ब्लेम तुम पर आएगा अलका| घर-बिरादरी, स्टैट्स के लिहाज से लोग एक दूसरे को पसंद करते हैं| तुमने सारे घर को मुसीबत में डाल दिया| क्या होगा कल को उसका बाप कह दे कि इस पूरे हादसे की पीछे तुम हो|”
वह चुप रही कुछ भी नहीं कहा पर इस के बाद उसके और पिता के बीच कोई जुड़ाव नहीं रहा, धीरे-धीरे बाक़ी सब से उसने ख़ुद ही कन्नी काट ली थी| फिर भी कभी-कभार याद ज़ोर मार ही लेती है|
“क्या होता अगर पुनीत के पापा उसे कसूरवार ठहराते? उसके बाद कैसा होता उसका नया जीवन? कोर्ट-कचहरी होती तो क्या करती वह?” सोच कर ही उसे कंपकपी छूट जाती है|

“यहाँ अकबर नंगे पैर चल कर आया था मन्नत मांगने के लिए| हमारा मामला भी जम जाये तो हम भी यहाँ चादर चढ़ाने आयेंगे|” पुनीत ने उसकी हथेली को हल्के से दबा कर कहा|
मौन की भाषा, प्रेम की भाषा अब कहने के बजाय स्पर्श से ज़्यादा बयान होने लगी थी उनके बीच| प्रेम में ये स्थिति अक्सर बड़ी गहरी होती है, यहाँ आने के बाद, डूबने के बाद उबरने की कोशिश भी नहीं की जाती| पर डूबने में ये कहाँ तय होता है कि डूबने वाले दोनों डूबे ही रहेंगे| कभी-कभी एक डूब जाता है और दूसरा तैर कर किसी कोने जा लगता है| उसके बाद डूबने वाला हमेशा एक परछाईं के चेहरे के मानिंद आस-पास बना रहता है| अब पुनीत एक ऐसे ही चेहरे की तरह उसके आस-पास मंडराता रहता है|

-5-
वह इस बात को बहुत देर से समझी कि लागलपेट, बनावट से झूठे बागीचे तैयार किये जाते हैं| सच वन जैसा होता है बेढंगा, नुकीला, चीर देने वाला| सच के जंगल से हाँफते हुए घोड़े पर बैठ के आती हुई आवाज़ बहुत थकी हुई होती है; उस आवाज़ को गले की ख़ुश्की मिटाने के पानी चाहिये होता है| वह जानती है कि एक आवाज़ बार-बार उससे पानी माँगती है पर कभी उसकी हिम्मत ही नहीं हुई कि हाथ बढ़ा के उसे पानी थमा सके| ये कौन तैराक है जो जाने किस दरिया, जंगल से निकल भटकते-भटकते उसके आँगन में पहुँच पानी की गुहार लगा रहा है| जाने कौन सा तारा है जो इस भटकती आवाज़ को राह दिखा कर उस तक ले आता है| कभी ये तारा टूटे तो वह कुछ माँगे| क्या ये तारा कभी कहीं टूटता भी होगा? कहाँ से दीखता होगा ये टूटता तारा, किस दिशा से?
और फिर वहीं से तारा टूट जाता है जहाँ से आप उसे गिरता देखते हैं......... अलग-अलग ज़मीनों के एक कोना से ये दिशा पता भी कैसे चल सकती है? अगर कहीं कोई तारा न हो जिसके टूटने पर तुम कुछ माँग सको तो सीने को धड़कता देख लेना और सोचना कि इस पहाड़ के अन्दर एक तारा हर पल धक्-धक् करता हुआ टूटता है, जुड़ता है सो उसी से कुछ माँग लेना, पर याद रखना माँगने के मौसम बहुत उदास होते हैं; इस मौसम के दरवाज़े चमकीले होते हैं और घरों के अन्दर सूनापन रहता है| हर नदी की एक धारा हमेशा धारा के बाहर रहती है, ख़ासकर मन की नदी जी अक्सर ही आ कर किनारे पर सो जाया करती है|

“कैसी होती है गोली की आवाज़?”
“ठायं-ठायं”
“लोग तो दसियों बार भी गिर के संभल जाते हैं| काश तुम थोड़ा एफ़र्ट कर पाते पुनीत तो चीज़ें अलग होतीं|” अलका ने सोचा|
कैसी बेचैनी थी उसे उस दिन| लम्बे इंतज़ार की शाम ढ़लने को तैयार ही नहीं थी, उसकी चौखट पर अड़ के बैठी हुई है| हल्की सी घबराहट उस को बार बार महसूस हो रही थी| तय तो यही हुआ था कि रिज़ल्ट आने के बाद वह सूर-सदन में उससे मिलने आएगा; पर उसकी जगह शशांक आया| एक हादसे ने एक ही झटके में उसे किनारे से खींच बीच सड़क पर खड़ा कर दिया जहाँ पल भर ही में कोई भी भावना उसे कुचल के निकल जाए|
“पुनीत ने सुसाइड कर ली सुबह, अलका| रिज़ल्ट इस बार भी क्लियर नहीं हुआ था उसका; और तुमको ले कर भी टेंशन थी घर में| अपने पापा के साथ इसी कहा-सुनी में उन्हीं की पिस्टल से उसने ख़ुद पर फ़ायर कर लिया| मेडिकल कॉलेज रेफ़र किया पर पहुँचने तक सब खत्म हो चुका था| उसकी मदर भी कोलेप्स कर गयीं थीं, उन्हीं के सामने फ़ायर किया था उसने, शायद वह भी न रहीं हो अब तक|”
वह वहीं सूर-सदन की लाल पत्थर की सीढ़ियों पर सुन्न हो कर गिर गयी| उसके बाद शशांक की आवाज़ उसके उपर गिरती तो रही पर उस तक पहुंची नहीं|
तुमने उकसाया है उसे सुसाइड के लिए अलका| पिछले सात सालों से ये आवाज़ उसके दिमाग में लगातार बज रही है जैसे किसी प्लेयर पर टूट के सुई अटक गई हो| बदलते समय ने बस इतना ही किया कि ‘तुमने उकसाया है उसे’ की जगह अब आवाज़ ‘तुमने उकसाया था उसे’ में बदल गई है| वह चाहती है कि ये आवाजें अब थम जायें, विराम ले लें पर ऐसा होता ही नहीं| किसी बरसात के पेड़ से गिरते पानी की तरह उसके भीतर ये आवाजें छन्न से फिसल के, टूट के गिर रहीं हैं और एक न दिखने वाला कीचड़ उसके मन में हर तरफ़ फैला हुआ है जो कभी सूखता ही नहीं|
वह चाहती है कि कोई कहीं से चल के आये उसका हाथ पकड़े और कहे कि मन की भित्तियों में कभी समय को सोने दिया करो अलका; ये पत्थर का कोई टुकड़ा तो नहीं जिस को ख़ुरच-ख़ुरच के लिपि टाँकने चल दीं तुम| बहुत उदास हो तो किसी को हाथ बढ़ा कर छू लो............
“छाया कहीं हाथ आती कभी? इस से हासिल क्या?”
“हासिल का तो ये है कि छाया छू नहीं पाओगी तो हाथ ज़मीन से जा लगेगा और धूप में तपती ज़मीन मन की नमी खींच लेगी| ये दरारें सूख जायेंगी तो तलछट में जमी कीचड़ से, मिट्टी से कुछ नया बनने की गुंजाईश बनी रहेगी|”

-6-
“मैं ग्यारह को सिंगापोर जा रहीं हूँ अलका| ड्यूटी फ़्री से कुछ मँगवाना है क्या? स्मिता ने पूछा|
“एक स्कॉच की बोतल और कोई अच्छा सा परफ्यूम लेती आना| वापसी कब की है?”
“सत्रह की; और अठारह से बाईस तक की बुकिंग करा ली है मैंने कुर्ग के लिए हम सब की|” स्मिता ने कहा|
“किस-किस की कराई है?”
“मैं, तुम, सिंधु, शशि और राजू की; हम पाँचों की कराई है| चली चलना, लास्ट मूमेंट कोई ड्रामा न करना|”
“ठीक है भई|” कह कर वह उठी, अलमारी खोली और एक कार्ड स्मिता के हाथ में पकड़ा दिया|
स्मिता ने उलट-पुलट कर उस आसमानी लिफाफे में बंद कार्ड को देखा|
“लास्ट इयर का वेलनटाइन कार्ड है और वह भी ब्लेंक| किसने दिया?”
“राजू ने लास्ट इयर दिया था, एक तरह से प्रपोज़ ही किया था|”
“तो अब इसे दिखाने का क्या फ़ायदा?” स्मिता ने पूछा|
“मैं सोच रही हूँ कि राजू का प्रपोज़ल एक्सेप्ट कर लूं|”
“गुड! तो तुम पुनीत के हैंग-ओवर से बाहर आ रही हो ये अच्छा है|”
“हाँ! क्योंकि मैं बीस साल बाद अर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया में नहीं आना चाहती|” अलका ने हँसते हुए कहा|
“ये अच्छा है कि तुम अपने पर्सनल ग्रीफ़ से बाहर आ रही हो|”
“मेरा पर्सनल कुछ नहीं इसमें ये तो कब से सार्वजानिक है, जब से आगरा छूटा|”
“आज का टोस्ट अलका जौहरी के नाम|” स्मिता ने ट्यूलिप ग्लास में शेम्पेन डालते हुए कहा|

वह किसी सोच में डूबी हुई थी जब वो स्टाफ़-रूम में घुसा| डेढ़ महीने बाद वापस आया था और आते ही उससे मिलने चला आया|
“मुझे अच्छा लगा कि तुम हासन आईं| ये पैकेट पकड़ो माँ ने भिजवाया है|”
अलका ने देखा बादामी लिफ़ाफे में बेंगलोर सिल्क की एक फालसई-हरी साड़ी थी|
“बूढ़े दिमाग की तयशुदा साज़िश, शगुन भी भिजवा दिया|” उसने हँस के पैकेट थाम लिया|
“शाम को तुम्हारे घर आऊंगा, बहुत सारी बातें करनी हैं|” वो बोला
बहुत सारी बातें बिना बोले सिर्फ़ होठों के ऊपर होठों की हरकतों से भी की जा सकती हैं एक लम्बे अंतराल बाद उसने ये दोबारा महसूस किया| उसकी कमर के गिर्द राजू की बाहें एक सुरक्षा घेरे जैसी थीं| उसकी देह के ऊपर उसका दवाब ऐसा था जैसे चनार के पत्तों के ऊपर मौसम की पहली बर्फ़|
उस सुबह अलका को ऐसा लगा जैसे कि एक हज़ार बरस की रात बीत के खत्म हुई और बिलकुल नया दिन निकला है| उसने राजू के सीने के नीचे से दबी हुई ब्रा खींची और कुर्सी पर पड़ा टॉप उठा लिया| बदलाव तो आता ही है, कहीं जल्दी, कहीं देर से| अब ये आवाज़ों का बोझ और नहीं ढोया जाता| अब मैं तुमसे विदा लेती हूँ मेरे अतीत, अपने आगामी भविष्य के लिए| अब मैं उस सर्च लाईट को भी बंद कर रही हूँ जो जब-तब न चाहने पर भी मुझे तुम्हारी चार-दीवारी में खींच लाती थी| अलका ने सोचा और किसी बम निरोधक दस्ते के सदस्य की तरह एक, दो, तीन, कर के उस लाल तार को काट दिया जो उसकी ही किसी रग से जुड़ा था मानो| जैसे कभी-कभी बत्ती बुझने के बाद घडी भर को चमकती रह जाती है वैसे ही वह सर्च-लाईट कुछ देर तक उसके अंदर चमकती रही और फिर शून्य में खो गयी|
“क्या सोच रही हो?” राजू ने उनींदी आवाज़ में पूछा|
“हूँ..... कुछ नहीं|” वह बोली|
“कुछ तो??”
“सोच रहीं हूँ, हनीमून के लिए कुर्ग चलेंगे| अलका ने सिगरेट का आख़िरी काश लेते हुए कहा|


-अनघ शर्मा

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