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आख़िरी सिगरेट
आज
बाज़ार का दिन है .... इतवार का बाज़ार ... वैसा ही रंग-बिरंगा, जैसे देहात
के बाज़ार होते हैं ... सब्ज़ी-फ्रूट ... कपड़े, जूते, सूटकेस, खिलौने सब एक
साथ .... दुकानें सड़कों पर .... सड़क दुकानों से गुंथी हुई. सुबह जब मैं
स्टेशन पर उतरा, मेरे साथ ही सब्ज़ी की टोकरियाँ, आलू-प्याज की बोरियां और
दूसरा बहुत सारा सामान उतारा जाने लगा, उसी वक्त मुझे बाज़ार का ध्यान आया.
दिसंबर की एक सुहानी सुबह में लिपटा घूम रहा हूँ .... मेरे सिर पर गुनगुना
सूरज है, मैं उसके साथ के एहसास से भरा हुआ हूँ ..... मैं जहाँ-जहाँ जाता
हूँ ... मेरे साथ-साथ चला आता है. मैं उससे नहीं पूछना चाहता, इतने दिन
कहाँ रहे? जिस तरह अचानक वह चला गया था, उसी तरह अचानक लौट भी आया और मैं
उससे पूछकर उसे असमंजस में नहीं डाल सकता. समूचा द्रश्य मेरे भीतर उतरता
चला जाता है ..... सब कुछ अजनबी पर कितना जाना-पहचाना. जाने कितनी बार
गुज़रा होऊंगा मैं उन तीन सालों में इस सबसे ... जाने कितनी बार यह मुझमें
से गुज़रे होंगे .... हम एक-दूसरे को देखकर ठिठकते हैं और मुस्कराते हैं.
समय के साथ बहुत सी और चीजें भी आ गईं हैं .... बेतरतीब लगे ठेलों पर
रंग-बिरंगे खूब सारे कपड़े, अंडरवियर्स, टी. शर्ट्स, जींस, सफ़ेद पायजामे और
कमीजें, रंग-बिरंगी टोपियाँ .... उन दिनों कपड़ों में इतनी वैरायटी कहाँ
होती थी. वह बताती थी कि उसकी मां कपड़े सिलती है. मैं कभी पूछ नहीं पाया कि
तुम्हारी मां किस तरह के कपड़े सिलती है? मैं तो उससे कुछ भी नहीं पूछ पाया
पर जब भी मैं ऐसे ठेले से गुज़रता, जिसमें घर के बने जैसे कपड़े टंगे होते
... ध्यान से देखने लगता, उनके पीछे मुझे सफ़ेद बालों वाली स्त्री का
धुंधलाता चेहरा नज़र आता, जिसे मैंने कभी नहीं देखा....
आगे सब्ज़ी की दुकानें .... फ़िर फ्रूट की .... जिसमें केले और सेव ही अमूमन
होते .... आज बिही और बेर भी खूब सारे हैं और संतरे .... फ़िर मोती,
चूड़ियाँ, माला, रिबन इत्यादि की दुकानें सड़क पर बिछी हुईं. हम सारी ख़रीदारी
यहीं से करते .... वह घंटों घूमती ... उसने एक बार मुझे सुतली [जूट] से बना
हुआ झोला दिखाया था .... जिसमें लाल मूंगे की तरह के मनके पड़े थे. जो उसकी
मां ने उसकी बड़ी बहिन के लिए बनाया था और उसकी ज़िद थी कि उसे भी वैसा ही
चाहिए .... बिल्कुल वैसा ... और वह इतवार को वैसे ही मनके ढूंढती. आगे एक
चादर पर बिछी किताबों की दुनिया .... पतली-सस्ती-रोमांचकारी किताबें. वह
उत्सुकता से मेरी ऊँगली छोड़ ज़मीन पर घुटनों के बल बैठ किताबों को देखने
लगती. मैंने उसे वहां से कई ऐसी किताबें ख़रीदकर दी थीं, जिसे वह आगे कभी
पढ़ती ... खूब सारी कहानियों की किताबें .... उस वक्त उसकी दीदी उसे यह सब
पढ़कर सुनाया करती थी. उसे सबसे अच्छे लगते हैं .... बेताल के कामिक्स ....
‘क्या सचमुच बेताल आता है?’ उसने मुझसे एक दिन पूछा था.
‘अगर सचमुच उसे कोई मुसीबत में पुकारे तो....’
‘मुझे उसके नगाड़ों की आवाज़ सुनाई देती है ....’ उसने कुछ सोचते हुए कहा था.
‘अच्छा .... किस वक्त?’ मैं हंस पड़ा.
‘जब रात को मैं सोती हूँ और नींद नहीं आती ...’ वह आदिवासियों के नगाड़ों की
आवाज़ होती, जो रात के सन्नाटे में गूंजा करती .... मैंने भी बहुत बार सुनी
थी.
‘तुम क्या उसे पुकारना चाहती हो?’
‘हाँ ....’
‘क्यों भला?’
‘मुझे कोई पढने नहीं देता न, मैं उससे शिकायत करुँगी.’ मैं समझ जाता, यह
बहाना है. वह बेताल को कुछ और कहना चाहती है, बिना किसी को अपने राज़ में
शामिल किए. यह मैं बहुत देर से जान पाया यहाँ से जाने के बाद कि बच्चों का
भी अपना एक अलग संसार होता है, जिसमें वे किसी को शामिल नहीं करते. वे
हमारी दुनियाओं में तो बिना नागा आकर छा जाते हैं पर अपनी दुनिया से हमें
बाहर रखते हैं .... क्या उसने एक भी किताब संभालकर रखी होगी? स्वेटर्स की
दुकान देखता हूँ तो मुझे उसका लाल स्वेटर याद आता है .... लाल नाक और लाल
ठुड्डी .... ऐसी ठण्ड में हम लोग धूप में बैठ मूंगफलियां खाते ....
प्लेटफ़ार्म की बेंच पर बैठे .... और आती-जाती ट्रेनों और मालगाड़ियों को
देखते .... उसे सबसे ज़्यादा पसंद भी यही था.
आज मैं खूब सारी चीज़ें ख़रीदना चाहता हूँ .... जो मैं उस वक्त ख़रीदता था जब
हम साथ घूमते थे ... मैंने कुछ लाल रंग की मालाएं ख़रीदीं, कुछ कानों के
बुँदे, बालों में फंसाने वाली क्लिप और लाल रिबन .... उसे लाल रंग बहुत
पसंद है, अक्सर वह लाल रंग की बिंदियों वाली फ्राक पहनती, खूब घेरे वाली और
दोनों झूल रही चोटियों में दो लाल रिबन झूलते रहते. चोटी सामने आते ही वह
हाथ से पीछे फेंक देती या सिर को ऐसा झटका देती कि चोटी खुद-ब-खुद पीछे चली
जाती. उसे चोटी बनवाने से और काजल लगवाने से चिढ होती थी और अक्सर वह बिना
चोटी किए इधर भाग आती ... पूछने से मां की शिकायत करती कि वे इतनी कस-कस कर
चोटी बनातीं हैं कि बहुत दर्द होता है .... उसके हाथों में बसी
कियो-कार्पिन की महक रिबन हाथ में लेते ही मेरे पास चली आती. मैं
मूंगफलियों का पैकेट हाथ में लिए हर रोज़ उसकी प्रतीक्षा करता, वह आते ही
पैकेट मेरे हाथ से झपट लेती और फ़िर जब उसे यकीन हो जाता, मैं इसे नहीं खाने
वाला, वह मुझी से कहती .... ‘छील कर दो न.’ यूँ तमाम उम्र मूंगफलियां छीलते
रहने के बाद भी मैंने वैसे उजले, कुरकुरे, मीठे दिन फ़िर नहीं पाए. वे छीलते
ही मेरी हथेली पर चमकने लगते और मैं उन्हें देखते न थकता. यूँ उन दिनों तो
जहाँ तक नज़र जाती, कोयला ही कोयला दिखता .... कोयले से लदी हुई मालगाड़ियाँ
.... कोयला चुराने की कोशिश में ग़रीब-फटेहाल बच्चे और चोरी से छिप-छिप कर
कोयला बीनती मज़दूर औरतें. यह बाद में पता चलता है कि जिन्हें हम सबसे सुंदर
दिन कहते हैं .... इन्हीं कोयलों के बीच कहीं मिल जाते हैं ... हीरे से
चमकते.
उसकी ऊँगली पकड़ मैं उसी कोयले के साम्राज्य में घूमा करता. शाम को पैसेंजर
ट्रेन आती तो इंजन में चढ़ाकर उसे धधकती भट्टी दिखाता. हमें सब इंजन ड्राइवर
पहचानते, मेरे पिता इंजन ड्रायवर जो थे. वे उसे सीटी बजाकर दिखाते .... वह
डरकर मेरे निकट चली आती. हम एक पैसे का सिक्का पटरी पर रखते .... ट्रेन
गुज़र जाती और वह चपटा सिक्का देख उछलने लगती ....
‘ट्रेन कितनी दूर गई होगी?’
‘बहुत दूर पहुँच गई होगी.’ मैं कहता.
‘बहुत दूर नहीं गई होगी. देखो इस खम्भे में से कितनी तेज़ आवाज़ सुनाई देती
है.’
वह मेरा सिर अपने छोटे-छोटे हाथों से पकड़ खंभे से लगा देती. कभी मैं उसे
गार्ड के आख़िरी डिब्बे में चढ़ा देता तो वह लाल और हरी झंडियों को अपने हाथ
में हिलाते हुए आश्चर्य से देखती. जब उसे नीचे उतारता, वह अपनी बाहें वैसे
ही फ़ैला लेती, जैसे उड़ने को आतुर पंख पसारे कोई सफ़ेद खुबसूरत परिंदा ...
उसकी गंध मेरी ऊँगली पकड़ मुझे उस बाज़ार में घुमा रही थी और मैं जैसे
सम्मोहित सा वह जिधर ईशारा करती, उधर की ओर हो लेता. मैंने उस गंध की कसकर
ऊँगली पकड़ी हुई थी. यूँ मैं जानता था, मुझे छोड़कर वह कहीं नहीं जाने वाली
... वह मेरी आत्मा की महक है ... जन्मों से मेरे ही साथ रहती .... चुपचाप
,,, कभी कुछ नहीं कहती .... बस जब मैं रास्ता भटकने लगता, वह पास आकर मेरा
चेहरा अपनी ओर मोड़ लेती.
मुझे एहसास हुआ, जब से मैं उतरा था, स्टेशन पर सिर्फ़ चाय पी थी और तब से
मैं घूम रहा हूँ. मेरे छोटा सा बैग मेरे कंधे पर है. दुपहर चढ़ने को है. अब
मुझे नहा लेना चाहिए. ख़रीदा हुआ सामान मेरे हाथ में था. उसे लेकर मैं उस
होटल में आया, जो दिखने में तो नया-नया सा है पर उसका पुराना वज़ूद मेरे
भीतर कहीं समाया हुआ है. यहाँ की भट्टी की उबलती कड़क चाय, गर्म जलेबियाँ,
भजिया और बड़े सबका स्वाद मेरी ज़बान पर रचा-बसा है. उन दिनों बस एक ही कमरा
होता था अंदर बैठकर खाने का ... बाजू में दो भट्टियों पर चावल और मटन पकते
रहते ... जिसकी खुशबू मुझे दूर से ही बुला लेती. सुबह चाय पीते-पीते ही मैं
बता देता कि दुपहर के खाने में क्या खाना चाहता हूँ? वे मुझसे छोटे भाई की
तरह स्नेह करते. कोयला फ़ैला होता था प्लेटफ़ार्म से उनकी होटल तक. उन दिनों
बदरा कालरी से आता था कोयला ट्रकों में .... यहाँ से मालगाड़ी के डिब्बों
में भरा जाता .... बाद में साइडिंग हरद बना दी गई. बी. एस. सी. सेकेण्ड इयर
मैथमेटिक्स आनर्स छोड़कर आया था मैं यहाँ, घर में हो रही अनबन की वजह से.
चैलेन्ज था मेरे लिए कि अगर पढूंगा तो सिर्फ़ अपने पैसे से .... न सिर्फ़
पढूंगा बल्कि अपनी किसी ज़रूरत के लिए कभी अपने घरवालों से कोई उम्मीद नहीं
करूँगा. जिस दिन घर से निकला, हाथ ख़ाली थे, पेट भी. कड़ाके की सर्दी और मैं
दिशाहीन खड़ा था. कई बार सोचता हूँ, जिसे हम अपनी तरह से जीने की ज़िद और
जुनून कहते हैं, वह हमें इतना तोड़ देती है कि उसी मलबे से हमें अपनी नई
आकृति बनानी पड़ती है. अपनी वह आकृति, जो हम मलबा हुए बिना नहीं पा सकते थे
फ़िर एक सौ चौबीस रुपए की लोडिंग फोरमैन की वह सर्विस ... हालांकि पसंद नहीं
की मैंने कभी पर एक सौ बीस रुपए कम नहीं होते. मात्र तीस रुपए में मैं पूरा
महिना आराम से गुज़ार देता .... वह सिक्सटीज़ का ज़माना था, जब तीन नए पैसे
में तीन सेर टमाटर, एक रुपए का दस सेर चावल, दस आने में एक सेर मटन मिलता
था ... खस्सी का मटन. मैं चार आने में शर्ट सिलवाता था, छह आने में पैंट.
वह पृथ्वीराज कपूर, भारत भूषण, जमना बाई और सुरैया का ज़माना था. दिलीप
कुमार, मधुबाला, राजकपूर तो बहुत बाद में आए. हमेशा रंगीन चश्मा लगाकर,
शर्ट का कालर ऊपर उठाकर मैं उस कोयले के साम्राज्य में घूमा करता. यहाँ आकर
मैंने खुद को पहली बार पाया था. पहचाना था खुद को पहली बार. देखता था खुद
को एक बिल्कुल नए रूप में. यूँ जिन्हें हम संघर्ष के दिन कहते हैं, बाद में
पलटकर देखने पर सबसे सुनहरे दिन वही लगते हैं. मैं प्रोफ़ेसर बनना चाहता था
और इसके लिए मुझे पढ़ना था अपने बूते और उसके लिए कमाना भी था.
मैं जीवतराम सिंधी की होटल के सामने खड़ा हूँ .... रिसेप्शन पर और मुझे वह
दिखाई नहीं दे रहा. मुझे देखते ही वह उछल पड़ेगा और कसकर गले लगा लेगा .....
‘तुम तो मास्टर बनने गए थे न, बन गए?’ वह मुझसे ज़रूर पूछेगा और मैं उसे
बताऊंगा कि मास्टर बनने के लिए मैं कितना चला हूँ .... तन्हा...
‘यस, प्लीज़ ...’ रिसेप्शन पर अठारह-बीस साल का एक नवयुवक बैठा है. मैं उसे
देखते ही पहचान गया. जीवतराम का ही बेटा है.
‘जीवत राम कहाँ हैं बेटे?’ मैंने उससे पूछा.
‘आप कौन हैं?’ उसने मेरा चेहरा देखा ध्यान से.
‘मैं? क्या तुम मुझे नहीं पहचानते? लोडिंग फोरमैन .... यहाँ ...’ मैंने उस
जगह ईशारा किया, जहाँ कभी कोयले के ढेर होते थे.
‘यस सर .... आप ....’ वह मुझे पहचान कर मुस्कराया.
‘आइए सर .... अंदर आइए ...’
मैं अंदर आया, तब तक वह गंभीर हो चुका था. मैंने उसका चेहरा देखा ....
‘दादा तो बहुत पहले ही .... नहीं रहे ....’
मेरे भीतर एक गहरी काली लकीर खिंच गई. मैं वहीँ रखी एक कुर्सी पर बैठ गया.
‘कितने बरस हो गए?’ कुछ देर बाद मेरे मुंह से निकला.
‘सात-आठ तो ही गए होंगे...’ उसने कुछ सोचते हुए कहा फ़िर दूसरे ग्राहक की ओर
मुड़ गया. मुझे अपनी टांगें सुन्न होती महसूस होने लगीं. मेरा सिर घूमने सा
लगा.
‘सर, आप रुकेंगे?’ वह मुझसे पूछ रहा था.
‘सिर्फ़ आज, रात की ट्रेन से मुझे जाना है.’ मैंने किसी तरह कहा.
‘ओ.के. सर ..’ उसने सिर हिलाया और एक लड़के को आवाज़ दी ....
‘राधे, साब का सामान ऊपर ले जा.’
उसने पास आकर बैग मेरे हाथ से ले लिया .... जाने कितनों से टकरा कर आगे
बढ़ता हूँ ... कुछ दिखाई नहीं दे रहा .... सारी तस्वीरें धुंधली .... सारे
रंग फीके .... समय ने अपनी गठरी की यह कौन सी गाँठ खोली है कि चादर और
लम्बी होती जा रही है. मैं अपने हाथ में पकडे सामान को देखता हूँ ...
इन्हें कुछ नहीं हुआ, ये तो वैसे ही हैं ... चमकदार .... अबूझ .... उतने ही
रहस्यमय, जितने उस वक्त थे. एक हूक सी उठती है भीतर, मैं पैकेट कसकर पकड़
लेता हूँ.
ऊपर आकर निढाल बिस्तर पर लेट जाता हूँ. जीवतराम सिंधी ... कुछ लोग बिल्कुल
दबे पाँव आपके भीतर चले आते हैं .... खड़े रहते हैं ... किसी ख़ाली कोने में
चुपचाप. आपको पता ही नहीं चलता. मैं जैसे ही पहुँचता, उसके चेहरे पर ताज़ा
मुस्कान उग आती .....
‘केड़ो हालु आहे फोरमैन बाबू?’ वह जानबूझकर सिंधी में बोलता. मैं काफ़ी वाक्य
समझ लेता था.
‘सुठो आ. अजु छा खाराईंदव?’ [ अच्छा है, आज क्या खिलाओगे?] मैं हंसकर
पूछता.
‘जेको तव्हां हुकुम कयो.’ फ़िर वह लड़के को आवाज़ देता ....
‘टेबल साफ़ कर साब के लिए.’ फ़िर वह मुझसे कहता ...
‘अचो साईँ ... अंदर अचो.’ जब मैं बैठ जाता तो वह अपने सामने खाना लगवाता
... गरमागरम मटन करी और चावल. जब तक मैं खाता, उसका किसी काम में मन न लगता
... कुछ चाहिए तो नहीं? खाना ठीक बना है? मटन गला है ठीक से? रात को
तुम्हारे लिए बिरयानी बनवा दें? मैं उसे महीने के महीने पैसे देता. वह कभी
मांगता नहीं, गिनता भी नहीं. मुझसे लेकर चुपचाप अपनी टेबल की दराज़ में डाल
देता.
एक दिन तबियत ठीक नहीं थी मेरी .... मैंने खाना नहीं खाया ठीक से. थाली आधी
छोड़ उठकर चला गया. उस वक्त उसने देखा नहीं था .... जिस वक्त पता चला ...
किसी को साइडिंग भेजा मुझे देखने. मैं वहां नहीं था उस वक्त, अपने कमरे में
था. रात होटल बंद करने के बाद वह कमरे में आया ... मैं पढ़ रहा था ...
‘कुछ ग़लती हो गई क्या? खाना क्यों नहीं खाया?’ जब वह गंभीर होता, हिंदी में
ही बात करता.
मैं मुस्करा दिया. कहा कुछ नहीं मैंने. एक कुर्सी उसके सामने कर दी. वह बैठ
गया ...
‘तुम कहो तो मैं सारा खाना फिंकवा दूं .... अच्छा नहीं लगता तो कुछ तो कहा
करो. ऐसे कोई जाता है खाना छोड़कर बिना कुछ कहे?’ उसकी आँखों में आंसू चमक
उठे और वह उठकर खिड़की के समीप चला गया. मैं अभिभूत सा उसे देखता रहा. उस
क्षण पहली बार किसी पुरुष के प्रति मेरे मन में प्रेम और श्रद्धा के भाव
आए. जानता था, जब जो कहता था, तुरंत बनवा देता था. खुद खड़ा हो जाता वहां
जाकर. जब तक मैं खा न लेता, कोशिश करता वहीँ आसपास बने रहने की.
मैं कुछ कहूं इसके पहले ही वह दरवाज़ा खोलकर बाहर चला गया. मैं उसके पीछे
भागा नहीं. उस क्षण उसे अपने भीतर पाया मैंने .... वह अपनी रौशनी में आप
चमक रहा था.
दूसरे दिन मैं नहीं गया तो उसने फ़िर एक नौकर मेरे कमरे में भेजा मुझे देखने
को. उसने जाकर बताया कि मेरी तबियत ख़राब है. वह तुरंत डॉ. मोटवानी के साथ
मेरे कमरे में आया ...
‘साईँ, तव्हां डा॒ढा ख़राब आहियो. बु॒धायो बि नथा.’ [ साईं, तुम बड़े ख़राब
हो. बताते भी नहीं.]
डॉ. मोटवानी मुझे देख मुस्करा रहे थे ...
‘ये तुम्हें बीमार नहीं रहने देगा.’
जब तक मेरा बुखार उतर नहीं गया, वह रोज़ आता रहा था. बिना नागा. डॉ. मोटवानी
को उसने क्या दिया, मैं नहीं जान पाया.
नहा-धोकर होटल की खिड़की से देखता हूँ ... यहाँ से उसका घर दिखाई नहीं देता.
यहाँ से लगता है, वह किसी दूसरे लोक में है .... किसी दूसरे समय में और मैं
उसे कहीं और खोज रहा हूँ. स्टेशन से उसका घर एकदम साफ़ देखा जा सकता है.
उसके मकान की छत .... छत पर टंगे सूखे कपड़े .... कभी आती-जाती आकृतियाँ
.... कपड़े उठातीं या डालतीं और छत पर बना एक कमरा. बहुत तेज़ बारिश में मैं
स्टेशन की बेंच पर हाथों में छतरी उठाए अकेला खड़ा उसकी छत की ओर टकटकी लगाए
देखता .... छत बारिश में दिल खोलकर स्नान करती और मैं तन्मयता से उसे अपना
रेशा-रेशा धोते देखता ...... और देखता उस छत पर अपने-आपको बगैर छाते के
भीगते .... हम दोनों एक-दूसरे को देखते और सोचते .... वह दूसरा कौन है? जब
बारिश बंद हो जाती, मैं बुरी तरह भीगा उसकी छत से नीचे उतरकर प्लेटफ़ार्म पर
आ अपने छाते में घुस जाता .... उस दूसरी सूखी देह में .... मैं और मैं
एक-दूसरे को देख मुस्कराते. सूखी देह भीगी देह को करीब खींच लेती.
मैं वहीँ खड़ा अपने नीचे फ़ैले उस बाज़ार को देखता रह गया .... बढ़ गए हैं लोग
.... दुकानों और वस्तुओं की तादाद उससे भी ज़्यादा. जहाँ उन दिनों सिर्फ़
ज़रूरत की वस्तुएं ही मिल पातीं थीं, अब ग़ैर ज़रूरत की ज़्यादा थीं .... वे
अपनी ज़रूरतें खुद बना लेतीं .... उसके लिए कोई कोशिश नहीं करनी पड़ती. आँखों
पर बड़े-बड़े गागल्स लगाए, शर्ट इन किए लड़कों को देखता हूँ .... कितनी बड़ी
दुनिया है इनकी? मैं तो स्टेशन से घर .... घर से स्टेशन .... अगर उस कमरे
को मैं घर कहूं .... वहां भी लगता मैं कोयले के विस्तार के बीच लेटा हूँ
.... कई बार मैं नाइट शिफ्ट के लिए मजदूरों की बस्ती में जाता .... जो इन
इने-गिने पक्के मकानों के दूसरी ओर बनी थीं, जिनमें एक उसका भी था और अक्सर
रेडिओ पर बज रहे गाने या समाचार उस ख़ामोशी में गूंजते मिलते. मुझे अब भी
याद हैं कुछ पंक्तियाँ. उस लाइन का पहला मकान एक होम्योपैथिक डॉ. का है,
वहां से गुज़रता तो अपना आधा दरवाज़ा खोले, पुरानी लकड़ी की टेबल पर झुके वे न
जाने क्या कर रहे होते?
अचानक घड़ी पर नज़र गई – तीन. मैंने जल्दी-जल्दी अपना बिखरा सामान बैग में
रखा. उसका पैकेट बहुत संभालकर अलग रखा और नीचे आया.
खाने की टेबल पर आया तो थोड़ी देर में मटन और चावल मेरे सामने रखते हुए एक
पुराने से दिखते वेटर ने सलाम बजाया. मैं पहचान लिया गया हूँ. मुझे पहली
बार अच्छा लगा, खुद को पहचाने जाने का सुख. उस डर ने, जो मेरी अंतड़ियों को
कसकर भींचे हुए था, अपने पंजे ढीले किए. मैंने एक गहरी सांस ली और प्लेट
अपनी ओर खींची. जब से मैं यहाँ से गया था, मैंने मटन चखा तक नहीं था. मैंने
बहुत झिझकते हुए ज़रा से शोरबे के साथ एक चम्मच मुंह में रखा ... कुछ था, जो
हमेशा के लिए खो गया था और मैं लौटा नहीं सकता था. मैंने प्लेट परे सरका दी
और उठ खड़ा हुआ ... दोनों तरफ़ लगी टेबल और कुर्सियों की कतारों को लांघता
हुआ सामने आया. लड़का आत्मीयता से मुझे देखकर मुस्कराया. मैंने अपनी जेब में
हाथ डाला ....
‘रहने दीजिए सर. आपने तो कुछ खाया भी नहीं.’ वह सौजन्यतावश बोला.
‘नहीं-नहीं, उससे कोई फर्क नहीं पड़ता.’ मैंने सौ रुपए का नोट काउंटर पर रखा
और पैकेट अपने हाथ में ले लिया ....
‘यह बैग रखो. मेरी ट्रेन रात दस बजे है. मैं आकर ले जाऊँगा.’
‘यस सर...’ उसने बड़ी तत्परता से जवाब दिया.
‘कितने बजे तक खोलते हो?’
‘कभी-कभी बारह बज जाते हैं सर..’
‘अच्छा ...’ मैं बाहर आ जाता हूँ. बाहर पूरा संसार खुला पड़ा है. बहुत सारे
रास्ते हैं, जो उस घर की तरफ़ जाते हैं. बहुत से रास्ते हैं जो उस घर से
शुरू होकर सिर्फ़ स्टेशन पर आकर ख़तम होते हैं. बहुत से दिन उसके स्कूल से
इधर स्टेशन आ जाते ... पहले कुछ सकुचाते फ़िर भागते हुए. किसी-किसी वक्त उन
दिनों की नाक बहती होती, सख्त सर्दी में गाल फट से गए होते, नाक एकदम लाल
होती ... उसके लाल स्वेटर से मैच करती. उन दिनों को घर में रहना बिल्कुल
अच्छा नहीं लगता. हर वक्त बस स्टेशन जाने की धुन सवार .... बस्ता उन्हें
बोझ लगता, जिसे कभी वे स्टेशन की बेंच पर भूल जाते ... घर जाकर पिटते फ़िर
दौड़े-भागे वापस स्टेशन आते .... बेंच पर बैठकर रोते फ़िर बस्ता लेकर घर की
ओर भागते. वे दिन इतवार के आने की शिकायत करते. उनका छः दिनों की मिट्टी से
सना सिर इस कदर मुल्तानी मिट्टी से रगड़-रगड़ कर धोया जाता कि उन्हें नहाने
से डर लगता. उन्हें मोटे मास्साब से भी डर लगता, जो वैसे तो रात आठ बजे
पढ़ाने आते थे पर इतवार को दिन ढले ही आ जाते.
‘इतनी देर वे क्या करते हैं?’ मैं हमदर्दी से पूछता.
‘पढ़ाते थोड़े ही हैं. हमको कहते हैं पढो और खुद अपनी किताब लेकर पढ़ने बैठ
जाते हैं. जैसे ही बाबूजी के अंदर आने की आवाज़ सुनते, हमें डांटना शुरू कर
देते हैं.
वे दिन मुझसे अपने मास्टर की शिकायत करते कि वे उनकी उँगलियों के बीच पेन
फंसा-फंसा कर दबाते. वे अपनी लाल उँगलियाँ दिखाते, जिन्हें मैं फ़िर अपने
हाथ में लेकर सहलाता. वे दिन अपने साथियों के साथ छुपा-छुपी का खेल खेलते
हुए सबसे पहले पकडे जाते और फ़िर सारा वक्त छिपे हुओं को ढूंढते में बिताते.
क्या उन दिनों ने मुझे एक बार भी ढूँढा होगा? न पाकर, थककर वे किस बेंच पर
बैठे होंगे?
उन दिनों को मैं हाथ पकड़कर पटरियां पार करवाता .... कभी-कभी वे ठोकर खाकर
गिर जाते .... घुटने छिलवा बैठते .... मैं उन्हें उठा घुटने साफ़ करवाता
.... मैले हाथ धुलवाता और तब तक उन्हें जाते देखता, जब तक वे घर के भीतर न
चले जाते .....
उन दिनों का एक दिन .....
तनख्वाह बांटने का दिन .... दो ढाई सौ लेबर मेरी टेबल के सामने ज़मीन पर
बैठे थे .... मैं कुर्सी पर .... मेरे सामने रजिस्टर खुला पड़ा था ... वे
एक-एक कर आते ... कभी-कभी कोई अपना नाम लिख देता पर अधिकतर अंगूठा लगाते,
अपनी तनख्वाह ले सलाम बजाते और चले जाते. वह टेबल पर बैठी थी .... इस सबसे
बेखबर .... खुद में मस्त ... चाक से टेबल पर आड़ी-तिरछी रेखाएं खींचती ...
आज तो चाक था, वह अपना काम कोयले से भी चला लेती. हाथ काले कर लेती और मुझे
दस बार धुलवाना पड़ता, सो मैं उसके लिए चाक ले आया था. मैं जल्दी-जल्दी अपना
काम ख़त्म कर लेना चाहता था ताकि उसे पटरियां पार करवा दूं. किसी और के साथ
जाने से वह साफ़ मना कर देती .... मेरी ऊँगली पकड़ लेती .... कहती कुछ नहीं
... बस उस दूसरे की तरफ़ से मुंह मोड़ लेती और यह काफ़ी होता.
‘चलो न अब, मां मारेगी.’ उसने अपनी ऊँगली दवात में डुबोई और रजिस्टर पर
खींच दी.
‘अरे पागल हो? नीचे उतरो. अभी चलते हैं.’ मैं चिल्लाया.
कौन सुनता है? तब तक उसने आधी दवात वहीं पलट दी. मैं झपटकर उठा और उसे टेबल
से नीचे उतार दिया ...
‘तुम लोग यहीं रुको. मैं इसे छोड़कर अभी आया.’ मैंने मजदूरों से कहा और उसकी
तरफ़ देखा ..... ‘चलो जल्दी....’
उसकी आँखों में आंसू आ गए थे. आधी सिसकी बाहर निकली, आधी उसने अपने भीतर
रोक ली. मैं क्षण भर को सन्न रह गया. मैंने चुपचाप अपना हाथ आगे कर दिया पर
उसने मेरी उंगली नहीं पकड़ी. मैंने आगे बढ़कर उसका हाथ पकड़ लिया और हम
पटरियों तक आ गए. वह चुप मेरे साथ चलती रही थी...
‘सिली गर्ल ....’ मैंने उसके सिर पर चपत मारी. उसकी ख़ामोशी तब भी नहीं
टूटी. मैंने उसे पटरियां पार करवा दीं. अब सीधा रास्ता था, मैं चुप खड़ा उसे
देखता रहा था. आधे रास्ते पर वह मुड़ी, मुझे देखा फ़िर पलटकर भागती चली गई
अपने घर की ओर.
मेरे सीने से जैसे एक बोझ उतर गया. मैं पटरियां फलांगता, सीटी बजाता वापस
आया.
सवा चार बज गए. चार बजे वाली पैसेंजर ट्रेन आ गई. पूरे प्लेटफ़ार्म पर एक
अजीब गहमागहमी, चढ़ना-उतरना, सामान का घसीटा जाना, पैसेंजर्स की
धक्कामुक्की. इस ट्रेन में चढ़ने वालों की संख्या कुछ ज़्यादा ही होती है.
खासतौर पर इतवार के बाज़ार के बाद सब इसी ट्रेन से लौटना पसंद करते हैं.
आसपास के छोटे-छोटे गाँवों के बीच यही एक ठीकठाक क़स्बा है. लोग एक-दूसरे को
पुकार रहे हैं, मुझे अच्छा लगता है. कई पल उन्हें देखता मैं खुद को भूला
रहता हूँ .... यह कितना सुन्दरतम द्रश्य है कि चलती ट्रेन से कोई किसी को
भीतर खींच लेता है अपने निकट और ट्रेन की रफ़्तार बढ़ जाती है.
ट्रेन चली गई और आहिस्ता-आहिस्ता सब शांत होने लगा. ठेले वाले अपने सामान
के साथ वापस होने लगे. चाय वाले अपनी केतलियों और पानी में डूबे टूटे कप्स
से भरी पुरानी बाल्टी के साथ. ये इस छोटे से प्लेटफ़ार्म के जाने किन कोनों
से निकलकर आते हैं फ़िर उसी में विलीन हो जाते हैं, जब तक अगली ट्रेन की
तीसरी घंटी नहीं हो जाती.
पैसेंजर ट्रेन के दूसरी तरफ़ कोयलों से लदी मालगाड़ी खड़ी है, जो ट्रेन के
जाने से अब दिखने लगी है. उसके ऊपर चढ़े कुछ लड़के बड़े-बड़े कोयलों के टुकड़े
उठा कर नीचे फेंकते जाते, नीचे खड़े लड़के उन्हें बीनकर अपनी टोकरियों में
डालते जाते. जब तक मालगाड़ी चली न जाएगी, ये कोयले बीनते रहेंगे. कईयों के
साथ उनकी माएं भी पुरानी काली टोकरियाँ और पुराने बोरे लिए फुर्ती से कोयला
बीन उनमें भरतीं . यह स्टीम है सलेक्टेड कोयला ... ए ग्रेड ... इससे जुड़ी
एक घटना मुझे बाद में भी हंसाती रही थी. सुपरवाइज़र आया था एक बार, अपने
ऑफिसर के साथ कोयला चेक़ करने. मुझे बुलाकर उसने कहा ....
‘देखो, तुम्हारे यहाँ का कोयला, सलेक्टेड ए ग्रेड नहीं है. अगर तुम हमारे
ऑफिसर को पांच सौ रुपए दे दोगे तो इसे सलेक्टेड ग्रेड-ए का सार्टिफिकेट दे
दिया जाएगा.’
मैंने मुस्कराते हुए कहा ....
‘सर, यह कोयला सलेक्टेड ग्रेड ए का कोयला ही है. पूरे रीज़न में ऐसा कोयला
नहीं है पर जो जैसा है, उसे वैसा ही प्रमाणित करने के लिए मुझे पांच सौ
देने होंगे, मैं जानता हूँ.’ और मैंने दिए भी. यहाँ का कोयला मैहर, जुकेही,
कलकत्ता एसोसिएट सीमेंट वर्क्स की प्रायः सभी फैक्ट्रीज में जाता है. मैं
कोयला लोड करवाता, इनडेटिंग करता, विभिन्न फर्मों से कोयले का आर्डर लेता,
कन्फर्मेशन करता और फ़िर डिस्पैच करता. समय पर डिब्बे न भरे जाने पर डैमरेज
भरता, स्टेशन मास्टर को पटाता, कितने सारे काम होते, कभी-कभी भूल ही जाता
कि क्यों आया हूँ यहाँ ... काश, भूला रह सकता .....
इसके साथ ही एक और द्रश्य मुझमें कौंध गया ....
‘बटकी भर बासी, चुटकी भर नून
मैं गावत हों ददरिया, तैं कान दे के सुन.’
यह थी इतवारिया बाई ... वैसे सही नाम था इतवारा बाई. मंझले कद की, पके
हाथ-पैरों, कत्थई रंग और कत्थई होठों वाली ... हमेशा पान चबाती रहती. मुझे
देखते ही उसका पान चबाता मुंह एकाएक बंद हो जाता और वह अपने सिर का आंचल
ठीक करने लगती ... पान की वह गोली तब तक उसके मुंह में दबी रहती, जब तक मैं
वहां से हट न जाता. एक रात मैं काफ़ी दूर खड़ा था इन लोगों से कि मेरे कानों
में उसकी आवाज़ पड़ी ....
‘पईंयां परत हों मैं चंदा सुरुज के
के मोला तिरिया जनम झनि देय रे सुअना
के तिरिया जनम अतिकलपना रे
के मोला तिरिया जनम झनि देय ...’
मैं आगे बढ़ गया और जब अपना राउंड पूरा करके लौटा तो सुनाई दिया ....
‘बिन पुरइन के तरिया रे
बिन पुरुख के तिरिया रे
काकर गहे अधार ...’
मैं जाकर खड़ा हो गया तो वह सहसा चुप हो गई. कुछ पल मुझे देखती रही फ़िर
कोयले से भरी टोकरी उठाने लगी ....
‘कउन रहिस?’ मैंने बहुत बाद में पूछा था एक बार उससे ...
‘दस-बारा बछर पहली तोरे सांही एक झन बाबू रहिस ... ओला मैं परेम-पिरीत करत
रहंव, वो बाबू तोरे सांही दिखत रहिस हे ...’
और उसने मुझे ऐसी निगाहों से देखा कि मैं वहां से हटकर दूर चला गया.
मुझे ददरिया अच्छा लगता. कभी जब अकेला होता, मस्ती में गाने लगता ...
‘मजा मार ले रे, मजा मार ले रे
चंदा-सूरज भाई-भाई मजा मार ले रे
बनिया नहिं देवे उधार
चंदा-सूरज का आगी लगे रे
मजा मार ले रे, मजा मार ले रे ...’
उन क्षणों में मैं भूल जाता कि कौन हूँ, क्यूँ यहाँ आया हूँ कि मुझे वापस
जाना है प्रोफ़ेसर बनने.
मालगाड़ी धीरे-धीरे सरकने लगी, लड़के फटाफट कूदने लगे. उनकी माएं अभी भी गिरा
हुआ कोयला बीन रही हैं. मैं वहां से हटकर मूंगफली वाले को ढूंढता हूँ ...
आंधी आए या तूफ़ान वह कभी नागा नहीं करता. मेरे आने से पहले वह यहीं मजदूरी
करता था फ़िर जाने क्यों उसने मूंगफली बेचना शुरू कर दिया था. मैं हर रोज़
उसी से मूंगफलियां लिया करता था, वह मुझसे कभी पैसे नहीं लेता.
कभी-कभी मैं जबरन उसके कुरते की जेब में कुछ डाल देता.
प्लेटफ़ार्म आधे से ज़्यादा ख़ाली हो गया. कोयले की सिगड़ियां जलने लगीं. चारों
तरफ़ धुंआं ही धुंआं बिखरने लगा. प्लेटफ़ार्म के दूसरी तरफ़, जहाँ बस्ती है,
धुआं उठता हुआ दिखने लगा है. वह गहरी सांस भरकर इस धुंएँ को अपने भीतर
खींचती थी ... जानबूझकर जलते कोयलों के पास खड़ी हो जाती ....
‘यह क्या है?’ मैं उसके सिर पर चपत मारता.
‘मुझे इसकी खुशबू अच्छी लगती है.’
‘खुशबू?’ मैं हंस पड़ता ....
‘और किसकी?’
‘और मिट्टी तेल की ...’ वह सोचते हुए कहती.
‘और ........’
‘और जब पानी बरसता है तो मिट्टी की ...और अपने हाथ की ....’ वह अपनी हथेली
खोल मुझे दिखाती.
‘इसमें क्या है?’ मैं उस हथेली पर झुककर जैसे अपना भविष्य ढूँढने की कोशिश
करता.
‘निविया ...’ वह अपनी छोटी सी हथेली मेरी नाक पर लगा देती. वहां ‘निविया’
की नहीं, उसकी अपनी महक होती ...धूल के नीचे दबी-ढंकी .... अपने होने में
सम्पूर्ण.
मेरे भीतर असह्य बेचैनी भरने लगी. मैं सामने वाली पान की दुकान पर गया और
सिगरेट का एक पैकेट खरीद लिया. दुकान वही थी और बड़ी हो गई थी. दुकान का
मालिक बदल गया था. पहली सिगरेट मैंने यहीं से ख़रीदकर पी थी. ऐसी की किसी
ठंडी रात में ... अपना अकेलापन दूर धकेलने के लिए ...
‘गोरी के अंगना मां एक पेड़ नीम
गौरी गए गौतरिहा गा
सुन गा बाबू
अउ गनत रइबे दिना
दिल मा रो ले दोस ....’
कौन गा रहा है? इधर-उधर देखता हूँ, नहीं जान पाता. यह भीतर की आवाज़ है या
बाहर की? सिगरेट सुलगाता हूँ ज़रा सा दूर हटकर कि मूंगफली वाला दिखता है
.... वही मैला पैजामा, मैला कुरता और ऊपर से बंडी. जाने कब से धोयी नहीं गई
होगी. उसकी मूंगफलियों की महक उसकी बंडी और कुरते में भी रची-बसी रहती है.
कंधे पर रस्सी से सामने की ओर टोकरी लटकाए, आधी भरी टोकरी पर पतली छोटी सी
तराजू .... पास में रखी नमक की खूब सारी पुड़िया. वैसा ही काला-जर्जर चेहरा
हफ़्ते भर की पकी सफ़ेद दाढ़ी .... मैंने हैरत से उसकी दाढ़ी की ओर देखा ....
इतनी जल्दी पकती हैं दाढ़ियाँ. वह पान की दुकान पर खड़ा होकर अपने लिए पान और
बीड़ी ख़रीदने लगा ...
‘कैसे हो पंडा?’ मैंने निकट जाकर उसके कंधे पर हाथ रखा.
उसने पलटकर मुझे देखा और हम देर तक एक-दूसरे को देखते रहे.
‘पहचाना ?’ मैं मुस्कराया.
‘फ़ोरमैन बाबू ...’ उसके मुंह से अस्फ़ुट हैरान स्वर निकला और ख़ुशी से उसकी
आँखें चमक उठीं. उसने मेरा हाथ पकड़ लिया. एक सुकून की ठण्डी लहर मेरी आत्मा
में दौड़ गई.
‘मुझे पता था, तुम मुझे ज़रूर पहचानोगे.’
‘आपको कइसे भूल सकत हैं बाबू? तैं तो अइसे परदेस गए कि लहुट के नई निहारे.
हमन तोर रात-दिन सुरता करे रहेन ...’ वह अपनी मिश्रित भाषा में बोलता है.
उसके चेहरे पर कुछ पा लेने का भाव था .... सहसा कहीं ठिठकने का ... उत्सुक
.... हैरान ...खुश पर यह सब ज़ाहिर करने में असमर्थ ...
‘सब कैसे हैं?’
‘सब का बाबू. अब तो बहुत कुछ बदल गया. अब तो साइडिंग हरद में है. पुराने
लोग सब चले गए. अकेला मैं बचा हूँ ...’
और मैं ... मैं एक क्षण चुप रहा फ़िर मुस्करा दिया ....
‘तुम तो बहुत बदल गए हो पंडा ... तुम्हारी दाढ़ी तक सफ़ेद हो गई. तबियत तो
ठीक रही.’
‘सब ठीक रहा बाबू. पर समय भी तो हो गया. सब बदल जाता है.’
‘पर तुम तो पंडा बूढ़े लगने लगते हो. स्टेशन भी तो देखो कितना बदल गया है.
गाँव बदल गया, कितने मकान नए बन गए. लगता ही नहीं, उसी गाँव में लौटा हूँ.’
मैंने अपने आसपास फ़िर एक नए सिरे से देखा.
‘अब दस-बारा बरस तो हो ही गए होंगे न आपको गए. आपहु बदल गए. कितने तो बड़े
लगने लगे हो. आए थे तो बच्चे थे.’ वह उसी तरह मुस्कराता रहा.
इतने बरस! जैसे किसी ने उड़ते हुए को ज़मीन पर दे मारा हो. सामने पान की
दुकान पर एक बड़ा सा आइना लगा था. मैं कब से वहां खड़ा था पर मैंने अपना
चेहरा नहीं देखा था ... मैंने अपना चेहरा देखा .... मैच्योर होता हुआ
सांवला चेहरा ... थकी-थकी सी प्रतीक्षित आँखें ... दो दिन की बढ़ी दाढ़ी.
इतने बरस मैं क्या इसी चेहरे के साथ रहता आया हूँ? मुझे यकीन नहीं आया.
मेरी आँखों के सामने परदा सा खिंच आया. मैं सामने बिछी ख़ाली बेंच पर बैठ
गया तो वह भी आकर मेरी बगल में बैठ गया ...
‘तुम्हारी पढाई पूरी हो गई बाबू?’
उसने मूंगफलियां मेरे सामने कर दीं तो मैंने दो-चार उठा लीं.
‘हाँ ...’ क्षण भर को लगा, मैं नहीं कोई और बोल रहा है.
‘और तुम .... वो क्या कहते हैं ... बन गए मास्टर?’
‘हाँ...’
‘अच्छा करे बाबू, गाँव छोड़ कर चले गए. गाँव-गंवई मा का बांचे है. गाँव-गंवई
के जिनगानी कुछ नहीं कलकिथवा हे, कल्लई हे.’
तुम्हें क्या पता पंडा, इसी ज़िंदगी की तलाश में मैं कितनी दूर से चलकर आया
हूँ. हर क्षण लगता कोई पुकार रहा है. यहाँ से जाने के बाद, जाने कितने बरस
मैं यहीं के सपने देखता रहा .... मालगाड़ी के डिब्बों पर लेबल लगाना, लेबर
को बुलाने जाना, पेमेंट करना, पटरियों के पार का द्रश्य, बारिश का,
उँगलियाँ थाम उसे छोड़ने जाना, तुम्हारी मूंगफ़लियाँ छीलना, छीलकर उसे खिलाना
.....
‘का सोच रहे हो बाबू, घर मा सब ठीक है?’ उसने पूछा तो मेरा ध्यान टूट गया.
‘हाँ पंडा, तुम सुनाओ ... इतवारिया बाई कहाँ है?’ अचानक मैंने पूछ लिया.
तभी एक मालगाड़ी शोर मचाती हुई गुज़र गई. वह कुछ क्षण उसे जाता देखता रहा,
फ़िर ग़मगीन सी आवाज़ में बोला .....
‘मजदूर मनई का का ठिकाना बाबू. जहाँ काम मिल गया. इतवारिया बाई ख़ूब दिन
तुमहीं याद कर-करके रोती रहीं .... फ़िर एक दिन बोली ....
‘हमहुं कहीं और काम मिल गया है...’ और वह चली गई.
जो आवेग मैंने सुबह से संभालकर रखा था, वह पूरी तीव्रता से मुझ पर झपट पड़ा
.... मैंने अपना चेहरा परे कर लिया ....
‘एक बात बोलें बाबू ...’ उसकी आवाज़ धीमी हो गई, डूबती हुई सी ....
मैं कुछ बोल नहीं पाया. मुझे नहीं लगा, कोई भी शब्द मुझे बचा सकता है.
‘ये परेम-परीत का मामला बड़ा ख़राब है. एक आदमी जाता है और बहुतों के संसार
उजड़ जाते हैं.’
‘पानी मिलेगा पंडा ...’ मैं वहां से हटना चाहता था, इसके पहले कि मैं
ज़र्रा-ज़र्रा बिखर जाऊं.
‘हाँ बाबू, अभी लावत हैं...’ वह टोकरी वहीँ छोड़ भागकर गया और मेरे लिए एक
‘बिसलरी’ की बॉटल ले आया. तब तक मैं खुद को संभाल चुका था. मैंने कुछ घूँट
पानी पिया.
‘खाना-वाना खाय हो बाबू, नहीं तो चलो खिलाय दें.’ उसने मेरा हाथ थाम लिया.
‘नहीं पंडा. मैं खा चुका. मेरा एक काम करोगे पंडा?’ मैंने गहरे असमंजस में
पूछा.
‘कैसी बात करत हो बाबू? काहे न करब?
‘ये पैकेट बच्ची को दे देना...’ मैंने पैकेट उसके टोकरे पर रख दिया.
‘बच्ची?’ उसने एक क्षण सोचा.
‘बच्ची .... बच्ची .... दिया ...’ मैंने हाथ से छोटी बच्ची की तस्वीर बनाई.
‘ओ ... हाँ ... बाबू .... दिया बोलो न ...’ वह हंस पड़ा.
मैं मुस्करा दिया. उसने मुझे बताया था कि उसकी दादी कहती थी, जब वह पैदा
हुई थी, शाम का वक्त था .... दिया-बाती का वक्त. सो दादी ने नाम दिया ....
दिया. दिया ! मैंने अपने अँधेरे जीवन में हमेशा उसे जलते देखा.
‘तुम तो घर जा रहे हो न?’ उसका घर उसी तरफ़ है, मैं जानता हूँ.
‘हाँ बाबू, जाय रहे हैं. जाते-जाते दे देव ...’
‘कैसी है वह? मिलते होगे उससे ...’ इतनी देर हो गई. मैंने सुबह से आया हूँ.
मैंने किसी से उसकी बाबत नहीं पूछा.
‘नहीं बाबू, अब नहीं मिलती वह. अब वह बड़ी हो गई न. कभी-कभी दिख जाती है
अपनी सायकल पर .... कालेज से लौटती हुई .... अब उसके मूंगफलियां खाने के
दिन थोड़े ही हैं.’ वह पूर्ववत मुस्कराता रहा.
कालेज से लौटती हुई लड़की की कोई मुक्कमल तस्वीर मेरे ज़ेहन में नहीं बन
पाती. मुझे वही एक चेहरा याद है, निविया की महक और कियो कार्पिन की. उस
सबके पीछे उसकी अपनी. मेरे ज़ेहन में उन उँगलियों की तस्वीर है, जिन्हें मैं
पकड़कर पटरियां पार करवाता था .... वे जो मूंगफलियां छील नहीं पातीं थीं और
यह काम मुझे करना होता था और वह हथेली .... जिसने एक बार सिगरेट से अपने
आपको जला लिया था ....
वह आख़िरी शाम थी, मैं रात की ट्रेन से जा रहा था और लगभग सारे मजदूर मेरे
चारों ओर बैठे थे. कुछ उदास थे, कुछ उदासीन ... सिर्फ़ इतवारिया बाई मुझसे
अपना-आप छिपाने की कोशिश कर रही थी. मैं कुर्सी पर बैठा था और टेबल पर वह
बैठी वहां रखी चीज़ों से खेल रही थी. मैंने सिर्फ़ एक नज़र उस पर डाली फ़िर
सबसे बात करने में व्यस्त रहा और तभी इतवारिया बाई की लाल आँखें देख मुझे
एक शरारत सूझी ....
‘देखो ... मैंने अपने हाथ में थमी जलती सिगरेट ऊँची की ....
‘जो चाहता है, मैं न जाऊं, वह आकर सिगरेट से मुझे यहाँ जला दे ...’
मैंने अपनी कलाई के भीतरी भाग की ओर ईशारा किया. एक मिनट के लिए सन्नाटा छा
गया .... फ़िर कुछ कानाफूसियाँ .... कुछ हंसी के टुकड़े ....
‘सुना तुम लोगों ने .... मैं मज़ाक नहीं कर रहा ....’ मैंने उन सबकी तरफ़
देखा फ़िर उसकी ओर. उसे इस सबसे कोई मतलब नहीं. वह एक पुरानी कॉपी पर पेन से
कुछ गोदने में व्यस्त है .... वह बार-बार पेन स्याही की दवात में डुबोती
फ़िर कागज़ पर गोदने लगती. इस सबके लिए मैंने कुछ फ़ालतू कॉपियां अलग रखीं हुई
हैं.
‘तो, मैं जा रहा हूँ ....’ मैंने अपनी कुर्सी पीछे खिसकाई कि क्या देखता
हूँ, इतवारिया बाई अपनी भरी आँखों को छिपाती हुई भीड़ के बीच में से उठी और
मेरी तरफ़ बढ़ी. मैंने मुस्कराते हुए अपनी उँगलियों में फंसी सिगरेट को देखा
और अपनी बांह लम्बी करके टेबल पर टिका दी. वह निकट आई, बिना मेरी तरफ़ देखे
उसने अपनी बांह आगे की .... उसकी बांह का गोदना मैंने पहली बार देखा ....
और सब-कुछ एक चमत्कारिक क्षण में घट गया .... इसके पहले कि इतवारिया बाई का
हाथ मेरे हाथ तक पहुँचता .... उसने हाथ बढ़ाकर जलती हुई सिगरेट अपनी मुठ्ठी
में भींची और मेरी कलाई पर टिका दी अपनी खुली मुट्ठी. एक लम्हे में हम
दोनों एक साथ जल गए. दूसरे ही पल वह टेबल से कूदी, लड़खड़ाई और बिना कुछ कहे
भाग गई. उसकी चप्पल नीचे पड़ी रह गई थी.
‘अइसन मज़ाक न करो बाबू. जिनगी मुसीबत मा पड़ जाएगी.’
इतवारिया बाई अपने आंसू पोंछते हुए अपनी ऊँगली से मेरी कलाई पर स्याही लगा
रही थी और मैं उस दिशा की ओर देख रहा था, जिस तरफ़ वह गई थी. पहली बार मेरे
बिना उसने पटरियां पार कीं होंगी .... क्या वह जान रही थी, अब उसे अकेले ही
चलना होगा.
बाद में मैंने उसकी चप्पल, पेन-पेंसिल और कॉपियां, जो मैं उसके लिए ही रखता
था, इतवारिया बाई को दे दिए कि उसके घर जाकर दे दे और वह बुझी हुई सिगरेट
अपने पास रख ली.
‘का सोच रहे हो बाबू? कुछ याद आ गया का?’ पंडा ने मुझे हलके से छुआ. मैंने
चौंककर उसकी तरफ़ देखा ....
‘हां पंडा, अब तुम जाओ. रात बहुत हो गई है और ये पैकेट उसे ज़रूर दे देना.’
वह सिगरेट अब भी मेरी जेब में है, दिखाऊंगा किसी दिन उसे.
‘ज़रूर दे दूंगा. चिंता न करो बाबू. अभी तो रहोगे न?’
‘नहीं पंडा. मैं दस बजे वाली ट्रेन से वापस जा रहा हूँ.’ उतनी ठण्ड में भी
मुझे पसीना आ गया.
‘काहे? जौन काम से आय रहे, हो गवा.’ उसके चेहरे पर पुरानी आत्मीयता छलकी पड़
रही थी, वह जैसे मुझे इस संकट की घड़ी में अकेला नहीं छोड़ना चाहता था.
मैं अपनी तलाश में आया हूँ पंडा बहुत वक्त बाद .... क्या मैंने वापस आने
में बहुत देर कर दी? मैंने खुद से पूछा.
‘काम कुछ नहीं था पंडा. बस तुम सबसे मिलने आ गया.’ मैं अपनी सिगरेट जलाने
लगा. उसने मेरे हाथों का कंपन देखा ....
‘हमसे मिलने?’ उसने मेरी आँखों में देखा.
‘हम उसे ज़रूर भेज देंगे बाबू. इतने बरस बाद आए हो, मिलके जाओ. का पता फ़िर
कभी आओ न आओ.’
‘एक बात बताओ पंडा?’
‘का बाबू?’
‘जब हम चले गए, वह आती थी हमें ढूँढने?’
मैंने झिझकते हुए पूछा हालांकि इस सबका कोई अर्थ नहीं था. वह आए .... मैं
आऊँ ... वह ढूंढे या मैं .... इसका भेद मेरे भीतर कब का गिर चुका.
‘हाँ बाबू. बहुत रोज. वह यहाँ बेंच पर अकेली रोती रहती. किसी के पास न
जाती. बस उसे इतवारिया बाई ही अपनी छाती से लगा चुप कराती. कभी-कभी बहुत
देर तक यहीं बैठी रहती तो उसका बाप आकर उसे गोद में उठाकर ले जाता. पटरियां
पार करते वक्त वह उनकी गोद से उतर जाती और मुड़-मुड़ कर पीछे देखती ... बच्चे
क्या परेम की भासा नहीं समझते?’
मैंने अपना काँपता हाथ उसके कंधे पर रखा .... मेरी प्यास झरने सी तड़पकर
टूटने को आतुर .... मेरा धैर्य पहाड़ सा इस पार से उस पार तक पसरा ... मैं
अपनी ददारों में पानी का वेग संभाल नहीं पा रहा.
मैंने उसका कंधा थपथपाया कि अब जाओ. वह जाने के लिए उठा कि उसे फ़िर कुछ याद
आ गया, वह फ़िर बैठ गया ....
‘आपको उस लड़की की याद है बाबू?’
‘कौन सी?’ मेरे मुंह से निकला.
‘वही जो आपसे परीत रखती थी ... पंदरा-सोला साल की लड़की थी न ... वो का नाम
था ... रोजी .... रोजलिन.’ वह एक क्षण रुका फ़िर उसने अपनी बांह लम्बी करके
पक्के मकानों की ओर ईशारा किया....
‘वहाँ रहती थी. रोज तुम्हें देखने आती थी और तुम उसे डांट कर भगा देते
थे...’ वह हंसने लगा. काले-मोटे होठों के बीच उसके सफ़ेद दांत चमकने लगे.
‘हाँ तो? क्या हुआ उसे?’ मैंने यूँ ही पूछा. मुझे उसमें कोई दिलचस्पी नहीं
थी.
‘उसके अब इतने बड़े-बड़े दो बच्चे हैं...’
मैंने कुछ नहीं कहा. बस मुस्करा दिया.
‘तुम सादी बनाय लिए का बाबू?’ सहसा उसने पूछा तो मुझे लगा, शायद वह बहुत
देर से यही पूछना चाहता था.
‘मैं क्या तुम्हें शकल से इतना बेवकूफ़ लगता हूँ?’ मैंने मज़ाक किया पर वह
हंसा नहीं, अपने प्रश्न पर अड़ा रहा ....
‘काहे बाबू?’
‘अब ये मत पूछो पंडा. हर सवाल का जवाब नहीं होता.’
‘अच्छा बाबू, चलता हूँ. आठ बजने को है. दस बजे फ़िर लौटना है.’
मैंने सिर हिलाया तो वह चला गया.
स्टेशन की बत्तियां जाने कब से जलने लगीं हैं .... सुलगी हुई अंगीठियाँ भी.
कुछ मुसाफ़िर प्लेटफ़ार्म पर ही कम्बल ओढ़े बैठे हैं ... अपने सामान के करीब.
कुछेक ने प्लेटफ़ार्म के किनारे अपने सामान की बाढ़ सी बना ली है और बीच में
बैठे हैं ... ठण्ड में सिकुड़े-सिमटे. हर आदमी के पास कुछ न कुछ है बचाने
को. दिन भर के थके-हारे भिखारी भी किसी न किसी अंगीठी के निकट सिमटने की
कोशिश में हैं. कुछ भिखारी सो रहे हैं. कभी-कभी कोई कुत्ता उन सोए हुओं को
सूंघ जाता. मैं चलता हुआ प्लेटफ़ार्म के उस सिरे तक आ जाता हूँ, जहाँ से
उसका घर दिखता है ... नीम अँधेरे में डूबा .... छत पर जलता अकेला बल्ब.
प्लेटफ़ार्म के दूसरी तरफ़ कुछ मजदूर से दिखते लोग खाना बनाने की तैयारी कर
चुके हैं. उनकी अंगीठी में भात पक रहा है और वे ज़मीन पर बिछे बोरों पर जलती
आग को चारों ओर से घेरकर बैठे हैं. बहुत देर बाद मुझे ठण्ड का एहसास होता
है. मैंने शर्ट के भीतर हाफ़ स्वेटर पहन रखा है बस, अपनी आदत के अनुसार. मैं
उस किनारे की बेंच पर बैठ जाता हूँ चुपचाप ... वह रास्ता और अकेला बल्ब
तकते हुए. आसपास पानी के छोटे-छोटे डबरे हैं, मेंढकों की आवाज़ सुनता हूँ.
बारिश में तो रात के समय इनकी आवाज़ सुनने लायक होती है .... आ .... आ ....
आ ... एक शाम उसने पूछा था .....
‘ये किसकी आवाज़ है?’
‘मेंढकों की ...’ मैंने कहा था.
‘तुम्हें कैसे मालूम?’ उसने कुछ देर सुनने की कोशिश की फ़िर कहा.
‘मैं सबकी आवाज़ पहचानता हूँ.’ मैंने बड़ी शान से कहा था.
‘सबकी?’ उसने आश्चर्य से अपनी बड़ी-बड़ी भूरी आँखें फ़ैला दीं.
‘हां. सबकी.’
‘मेरी भी ...’ उसने असमंजस में कहा.
‘तुम्हारी भी और तुम तो मेरे सामने खड़ी हो.’ मैं हंसने लगा उसकी बेवकूफ़ी
पर.
‘जब मैं नहीं रहूंगी, तब भी ...’ अचानक जैसे उसने किसी दूसरी आवाज़ में कहा.
‘हाँ, तब भी. जब मैं अपने कमरे में होता हूँ न तो भी मुझे तुम्हारी आवाज़
सुनाई देती है.’
मैं जानता था, वह बहुत छोटी है. मैं उससे कह भी नहीं रहा था. बहुत सी बातें
मैं खुद को ही कहता था, ज़रा ज़ोर से ताकि मुझे ठीक-ठीक सुनाई दे.
‘इस मेंढक को दादुर कहते हैं, जानती हो?’ अचानक मैंने बात बदलकर कहा था.
‘और यह क्या कह रहा है?’ उसने अपनी उसी उत्सुक आवाज़ में पूछा था. शाम के
धुंधलके में उसकी पतली आवाज़ और भी पतली जान पड़ती.
‘वह मेंढकी को बुला रहा है अपनी भाषा में ...’
अचानक वह हंसने लगी थी, बेमतलब की हंसी, जैसे बेमतलब बारिश होती है या
बेमतलब धुंध ... बेमतलब महक उड़ा करती है फूलों की कभी-कभी. उस क्षण नहीं
जानता था, सब-कुछ बेमतलब है यहाँ .... उसका आना, मेरा उसे पटरियां पार
करवाना, वह आतुर प्रतीक्षा, वह मेंढक का टर्राना .... उसका हर वक्त वह गाना
.... ददरिया हो जैसे.
क्या यह करिश्मा नहीं था कि मैं अपने घर से हज़ारों किलोमीटर दूर उस स्टेशन
पर अकेला पड़ा था क्योंकि मुझे अपनी पढाई के लिए पैसे जुटाने थे क्योंकि
मुझे दूसरों की बनाई लीक पर नहीं चलना था. मैं अपना जीवन और अपनी मौत खुद
चुनना चाहता था. मैं जानता था, मुझे यहाँ बहुत कम वक्त रहना है, यह और बात
है कि मुझे किसी-किसी वक्त लगता पटरियों के उस पार मेरे लिए हर रास्ता बंद
है. क्या यह करिश्मा नहीं था कि कोई मेरे भीतर हर वक्त ददरिया गाता था,
जिसका एक भी शब्द मुझे समझ में नहीं आता था.
मैं नहीं कहकर गया था, मेरी प्रतीक्षा करना. जानता था, वह बात उतनी ही
क्षणभंगुर होगी, जितनी फूल पर टिकी ओस. सूरज निकलेगा, बादल में बादल विलीन
हो जाएगा.
कितनी चीजें उस घर की तरफ़ जाती हैं .... ये नए बने बिजली के खंभे .... उनकी
तार .... नए बने पक्के मकानों की कतार .... ट्रेन की सीटी की आवाज़ .... उन
खंभों की कंपकंपाहट .... शोर .... हवा ... रौशनी ... सिर्फ़ ... सिर्फ़ मैं
नहीं जा सकता.
पान वाले का रेडियो बज रहा है ....
‘हाय रे, वो दिन क्यों ना आए?’
मैं पूरी ताकत से अपने भीतर भागता हूँ ... उलटी दिशा में. मैं दौड़ते हुए वे
तमाम बरस गुज़ार देना चाहता हूँ, मैं ठीक उस बिंदु पर होना चाहता हूँ, उसके
साथ, उसका हाथ पकड़ उसे बाज़ार में घुमाते हुए, कभी मूंगफली, कभी जलेबी
खिलाते हुए ... सीधी और आसान वापसी नहीं थी वह ... मैं न जाने किस-किस से
टकराकर लहूलुहान होता रहा .... और सबसे बड़ी रूकावट है देह. इसी देह से मेरी
पहचान है और यही देह रूकावट है अब ...
सिगरेट फूंकता हुआ मैं स्टेशन पर अकेला घूमता हूँ. अब तक वह पैकेट उसने उसे
ज़रूर दे दिया होगा. उसने पैकेट खोला होगा. चीज़ें निकाली होंगी. चीज़ें सिर्फ़
उसके स्पर्श से आलोकित होंगी. शायद उसने कुछ लगाया हो ... कोई हेयर क्लिप,
एक रिबन, एक बिंदी, एक चूड़ी ही पहन कर देखी हो. कैसी लगती होगी वह, मैं
नहीं कह सकता. उसे देखने जितनी दूरी भी कभी मैं बना नहीं पाया. जब भी देखा,
‘मैं’ ने ‘मैं’ को देखा. सोचती सी उसकी आँखें कुछ ढूंढती होंगी .... क्या
आँखें जानती हैं, वे क्या खोज रही हैं? क्या उसे मालूम है या सिर्फ़ रिबन,
क्लिप और बिंदी जानते हैं? क्या सब-कुछ जाना जा सकता है ठीक-ठीक? क्या वह
दौड़ी नहीं होगी बाहर की तरफ़ और उसने एक झटके से सांकल खोल नहीं दी होगी
अपने भीतर की?
कंपकंपी दूर करने के लिए मैं एक अंगीठी के पास जाकर बैठता हूँ. कुछ देहाती
किस्म के लोग भात और कोई हरी सब्जी खा रहे हैं ... ज़रा सी दूरी पर एक मैली
चादर बिछाए. कच्चे प्याज की गंध हवा में है, कच्ची दारू की भी. कोई मेरी
तरफ़ ध्यान नहीं देता. मैं जैसे कहीं नहीं हूँ. मेरी कोई दुनिया नहीं, जलते
कोयलों सा मैं अपनी ही अंगीठी में, राख है मेरी नियति. हाथ तापता हूँ ...
देह ठण्ड से काँप रही ... कुछ नहीं भीतर ... ख़ाली पिंजर और एक ज़रा सी
चिंगारी प्रतीक्षा की.
वे खाना खाकर बर्तन समेटते हैं. एक औरत दूर बने नल पर उन्हें धोने ले जाती
है. एकाएक वहां बहुत सी बीड़ियाँ सुलगने लगती हैं. वे अपनी-अपनी चादरों और
बोरों पर पसरने लगते हैं. दिन भर के थके-हारे बदन. मैं उठकर प्लेटफ़ार्म के
मुख्य द्वार तक आता हूँ. यहाँ बहुत रौशनी है, गहमागहमी भी बढ़ रही है.
सिगरेट का पैकेट ख़त्म होने को है. मैं एक और पैकेट खरीदता हूँ. सुबह से
मैंने कुछ नहीं खाया .... होटल में बैग पड़ा है, नहीं जाता. मैं नियति को
किसी बहाने का अवसर नहीं देना चाहता. गए हुए ठेले स्टेशन पर वापस लौटते
लगते हैं....चाय वाले, समोसे, आलू बंडे, उबले हुए अंडे, ब्रेड-आमलेट,
बिस्किट, ठण्डी पूरियां, गर्म आलू की सब्ज़ी, अपने-अपने सामान के साथ
मुसाफ़िर .... ट्रेन आने को है .... एक सदी के बाद आ रही है यह ट्रेन .....
पर कितनी जल्दी आ गई. अभी उसे भूला हुआ कुछ याद आ रहा होगा. अभी वह अतीत की
किसी गली में होगी .... फ्राक से नाक पोंछती या मेरे रूमाल से ....
मूंगफलियों का स्वाद अपनी आत्मा में ढूंढती ... पुराने भूले हुए गीत की
अधूरी टूटी पंक्ति के शब्द ढूंढती ... असह्य बेचैनी से मैं टहलता हूँ ....
ठण्ड बहुत है, सीने पर अपनी बाहें कस लेता हूँ .... स्वेटर मेरी बैग में
है.
तभी धडधडाती ट्रेन आकर रूकती है. चारों तरफ़ शोर मच जाता है ... जाने क्यों
मेरी पसलियाँ धाड़-धाड़ बजने लगती हैं .... मैं भीड़ में पंडे को देखता हूँ
.... उसकी होका लगाती आवाज़ सुनता हूँ .... उसके और मेरे बीच हज़ारों मील का
फ़ासला है ... मैं सिर्फ़ उसे देख सकता हूँ .... बीच में जाने कितने लोग हैं
... सामान, ठेले, शोर, गठरियाँ ... इतना सब लांघकर क्या मैं उस तक पहुँच
सकूंगा? चारों तरफ़ देखता हूँ ... शायद वह साथ हो या इसे कह दिया हो, तुम
चलो, मैं आती हूँ. कैसी दिखती होगी? क्या बदल गई होगी? फ्राक छोड़
सलवार-कमीज़ पहनने लगी होगी या साड़ी .... साड़ी ... मैं मुस्करा देता हूँ.
लोग कूद-कूद कर उतर रहे हैं. अपना सामान खिड़कियों और दरवाज़ों से बाहर
फेंकते हैं. उतरने वाले, चढ़ने वाले एक-दूसरे से टकराते, एक-दूसरे पर खीझते.
पंडा कहीं नहीं दिख रहा. क्या किसी डिब्बे में चढ़ गया है? मुझे भी तो चढना
है इसी ट्रेन में. नहीं, यह मेरी ट्रेन नहीं. मैं नहीं जा सकता इस तरह. मैं
पंडे को ढूँढने के लिए जैसे ही एक डिब्बे के पायदान पर पाँव रखता हूँ, मुझे
अपनी ग़लती का एहसास होता है. यहाँ कहाँ होगी वह भीड़ में. वह तो वहीं होगी
उसी किनारे पर ... अकेली खड़ी, मेरी प्रतीक्षा में ... उस नीम अँधेरे में.
मैं तेज़ी से पलटता हूँ तो जाने किससे टकरा जाता हूँ, एक गाली सुनाई पड़ती
है. संभलकर चलता हूँ. रौशनी इतनी कम है कि ठीक-ठीक दिखाई नहीं दे रहा. नहीं
समझ पाता बाहर रौशनी कम है या भीतर अँधेरा ज़्यादा. एक ठोकर लगती है, सामने
गर्म भजिए की कढ़ाई में गिरते-गिरते बचता हूँ. किनारे जाता हूँ तो किसी सोए
हुए आदमी से टकरा जाता हूँ. इधर कैसे आ गया मैं? मुझे वहीं खड़े रहना चाहिए
था, जहाँ से वह आती दिखती थी रोज़. मैं दूर से उसे आते देखता और पटरियां पार
करवाने पहुँच जाता उसके पास. अधिकतर तो वह शाम को स्कूल से लौटने पर सीधा
यहीं आती थी, लगभग सवा चार बजे और रविवार को दुपहर, जब उसकी मां उसे सोने
को कहती तो वह उनकी बगल में आँखें बंद किए लेटी रहती कि उन्हें नींद पड़ते
ही वह पिछला दरवाज़ा खोल कर भाग जाए. पिछले दरवाज़े की कुण्डी वह बाहर से लगा
देती. वह वहीँ खड़ी होगी, अकेली ... असमंजस में. वह पचास मीटर की दूरी मेरे
लिए एवरेस्ट चढ़ने जैसी हो आई. मैं हांफता हुआ वहां पहुंचा, जहाँ स्टेशन का
बोर्ड लगा था बहुत बड़ा .... उसके नीचे से वह आती थी .... नहीं, कोई नहीं,
सब तरफ़ सन्नाटा. मैंने इधर-उधर देखने की कोशिश की .... कोई साया ... कोई
परछाई ... नहीं, कुछ नहीं.
मेरी टांगें जैसे ढहने लगीं ... देह कांपने लगी. बड़ी मुश्किल से मैं बेंच
तक पहुंचा और कांपते हाथों से सिगरेट जलाई. मेरी छाती की खोखल में कोई चीज़
फंस गई है ... कुछ पत्थर जैसा, न नीचे आ रहा, न ऊपर जा रहा. सिगरेट का कश
लेता हूँ तो हाथ से छूटकर गिर जाती है. उधर ट्रेन की सीटी की आवाज़ सुनता
हूँ. ट्रेन जा रही है. गीली आँखों से उसे जाते देखता हूँ. जानता हूँ उस तक
नहीं पहुँच पाऊंगा. दोनों हाथों से अपना सिर थाम लेता हूँ. किसी अनजानी
पीड़ा से मेरी देह काँप रही है. मेरा पूरा चेहरा गीला हो गया है ... मेरी
हथेलियाँ भी.
बहुत देर बाद उठता हूँ, सामने नल पर जाकर मुंह धोता हूँ. तब तक पूरा
प्लेटफ़ार्म ख़ाली हो चुका है. कोई नहीं है वहां. कुछ सोए हुए लोग और कुत्ते
... सीटियाँ बजाती ठण्डी हवा ... बुझी हुई अंगीठी की राख. तभी वातावरण में
किसी के होने का एहसास हुआ ... किनारे पर जाकर देखता हूँ ... दो परछाईयां
दूर से इधर चली आ रही हैं ... अनजाने ही दिल धड़कने लगता है. इतनी जल्दी
क्यों निराश हो रहा हूँ मैं? मैं जानता हूँ, वह आएगी और मेरे सामने खड़ी हो
जाएगी. खुदाया ! यह एक लम्हा क्या मैं सचमुच जीने वाला हूँ. उनके बात करने
का स्वर नज़दीक आ गया और वे बात करते हुए पटरियों के उस पार चले गए. उनके
आने ने जैसे मेरे भीतर नई उम्मीद जगा दी. मैं टहलने लगता हूँ ... ख़ाली
प्लेटफ़ार्म पर.
बार-बार वहां जाकर ठिठकता हूँ ... जिस तरफ़ से वह आने को है. लौटता हूँ तो
आँख पीठ से लग जाती है ....
किसी भी पल ... इतने नज़दीक से मैंने अपनी बेचैन साँसों की पुकार कभी नहीं
सुनी. इतने नज़दीक से मैंने आंसुओं का दरिया बहते नहीं देखा अपने भीतर. पहली
बार जी चाहा, ज़ोर से चिल्लाऊँ .... कहीं वह मेरी आवाज़ सुनकर आ जाए. चारों
तरफ़ से नगाड़ों की सी आवाज़ आ रही है. ध्यान से सुनता हूँ तो स्वर स्पष्ट
होते जाते हैं ...
‘कुहुक करय कारी कोयलिया
रे सुअना मोरवा बोले आधी रात
मोरवा के बोले होय भिनसरहा
रे सुअना दियना जले सारी रात.’
मैं सिर्फ़ आवाज़ के रास्ते से चलकर उस घर तक जा सकता हूँ. मैं उस घर की नींद
तोड़ना चाहता हूँ.
बारह बज रहे हैं. चारों तरफ़ सन्नाटा. होटल भी बंद हो गया होगा, जहाँ बैग है
मेरा. टांगें जैसे भुरभुरी मिट्टी की बनी हों ... जगह-जगह दरारें पड़ गई हैं
... ढह जाना चाहती हैं. मैं कहता हूँ ... थोड़ी देर और .... आख़िरी ट्रेन एक
बजे है. एक घंटा है अभी. किसी भी मिनट ... अगर वह आ जाए .... मुझे न पाए तो
कभी भी माफ़ नहीं करेगी. मैं उसे बताऊंगा बीते सारे सालों के बारे में, जिस
पर एक बार चलना शुरू करो तो वे जाने कहाँ ले जाते हैं. रास्तों के जंगल में
से आप फ़िर वापस आने का रास्ता नहीं ढूंढ पाते. मुझे पता ही नहीं चला, इतने
बरस हो गए. बस अभी मुड़ता हूँ, सोचते-सोचते कितना चल गया. पता नहीं, तुम
कितनी बड़ी हो गई हो. बचपन का संसार तुम्हारे भीतर है या तुम छोड़ आई कहीं
खेल-खेल में. पर ऐसा भी कैसे संभव है कि वह मेरे भीतर उतना ही जीता-जागता
है, मानो अभी भी घट रहा हो ... और तुममें से खो गया हो? तुम अभी भी नहीं आई
हो तो जानती हो न कि मैं तुमसे बिना मिले नहीं जा सकता. किन बातों को याद
करने बैठी हो तुम, कितनी बातें बताईं थीं मैंने तुम्हें? सुनी होंगी यहाँ
से वहां तक बिछी पटरियों ने भी ... अगर तुम कान लगाकर सुनो, वे हर बात
दुहरा देंगी. जानता था, इन सब बातों को समझने के लिए तुम बहुत छोटी हो पर
मैं क्या करता? तुमसे निरंतर बोलना ऐसा ही था जैसे एकांत में अकेले गाता
हुआ कोई झरना ... पानी के वेग से मुक्त होना ही जिसका एकमात्र लक्ष्य हो
.... और पानी ... जैसे किसी अद्रश्य बादल से घिरा चला आता हो. कहने और बहने
का फ़र्क मेरे लिए उसी क्षण ख़त्म हो जाता, जिस क्षण मैं तुमसे कहता.
-जया जादवानी
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